Wednesday, November 14, 2007

सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से मर जाना !

आज एक पत्रकार मित्र द्वारा भेजे गए निमंत्रण पत्र में लिखी पाश की यह कविता मन को छू गई भीतर तक और प्रेरित कर गई कि तत्काल से पहले इसे आपके साथ बाँट लूँ...मुलाहिज़ा फ़रमाएँ........

मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती

पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती

ग़द्दारी , लोभ की मुठ्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती


सबसे ख़तरनाक होता है

मुर्दा शांति से मर जाना

न होना तड़प का

सब सहन कर जाना

घर से निकलना काम पर

और काम से लौटकर घर आ जाना

सबसे ख़तरनाक होता है

हमारे सपनों का मर जाना.

Tuesday, November 13, 2007

कुमार गंधर्व को मालवा में बसाने वाले मामा साहेब.


समय अपनी रफ़्तार से चलता रहता है। देखिये न ये साल यानी सन २००६-२००७ यानी एक ऐसे स्वर साधक की जन्म शताब्दी जिसने एकांत में अपना संगीतमय जीवन जिया और कभी पद,प्रतिष्ठा और पुरस्कारों की परवाह नहीं की। नाम पण्डित कृष्णराव मुजुमदार,मैरिस कालेज,लख़नऊ में संगीत का गहन शिक्षण और कालांतर में देवास के मरहूम उस्ताद रज्जबअली ख़ाँ साहब के गंडाबंद शाग़िर्द कहलाए।गुणीजनो के संगसाथ के बावजूद संगीत से रोटी नहीं कमाई ज़िन्दगी की गुज़र-बसर के लिये इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की। पं।श्रीकृष्ण रातनजनकर,वी जी जोग और पण्डित भीमसेन जोशी जैसे महान संगीतकारों का स्नेह पाया। अपने परिजनों,मित्रों और संगीत बिरादरी में मामा साहेब के संबोधन से ज़्यादा जाने गए।इन्दौर के होलकर राज दरबार के गायक भी रहे और इज़्ज़त पाई।सुरों की प्यारी इंजीनियरिग भी करते रहे और इंजीनियरिंग को भी सुरीला बनाते रहे। गर्म तबियत के उस्ताद रज्जब अली खाँ साहब के तेज़-तर्रार स्वभाव के बावजूद उनके कृपापात्र बने रहे।


मामा साहेब इन्दौर के पास बसी छोटी सी रियासत देवास में इंजीनियर के रूप में पदस्थ रहे और इसी दौरान उन्होने क्षय रोग से पीडि़त अपने अनन्य सखा युवा कुमार गंधर्व को मालवा में बसने का न्योता दे डाला। न्योता ही नहीं दिया बल्कि कुमार जी को अपने घर में अपने परिजन से अधिक सम्मान और सार-सम्हाल दी। क्षय रोगी को उन दिनों घर में रखने के बारे में पारंपरिक सोच था। घर में छोटी बच्चियाँ होने के बावजूद मामा साहेब ने अपनी पत्नी की उलाहना से अधिक अपने सखा कुमार की सुध ज़्यादा ली।


पंद्रह बरस पहले मामा साहेब इस दुनिया से विदा हो गए।मामा साहेब मुजुमदार संगीत समारोह के रूप में उनकी गायिका पुत्री और शिष्या सुश्री कल्पना मुजुमदार अपने पिता का सुरीला तर्पण कर रहीं हैं।इस नेक काम में इन्दौर के अनेक सह्र्दय लोगों और संस्थाओं का सौजन्य मिल रहा है। जाने माने गायक पं अजय पोहणकर जो मामा साहेब के दामाद भी हैं ; इस सुकार्य में लगातार सेतु बनते आ रहे हैं और उन्हीं के प्रयासों से इस समारोह में वसुंधरा कोमकली,शिवकुमार शर्मा,रोनू मुजुमदार,शाहिद परवेज़,आरती अंकलीकर टिकेकर,मालिनी राजुरकर,अश्विनी देशपाँडे,संजीव अभ्यंकर,कला रामनाथ,शुभा मुदगल,शोभा गुर्टू,पदमा तलवलकर,राम देशपांडे,प्रभाकर कारेकर,अजय पोहणकर आदि अनेक कलाकारों की आत्मीय शिरकत हो चुकी है। इसी माह में मामा साहेब की याद में स्वर शती मंसूब है जिसमें दो दिवसीय संगीत समारोह का आयोजन किया जा रहा है।


मामा साहेब मुजुमदार को याद करना यानी एक ऐसी शख्सियत का वंदन करना है जिसने ज़माने की रफ़्तार के मुताबिक संगीतफ़रोशी नहीं की। वे एक साधक बने रहे।सूफ़ीयाना तबियत के मामा साहेब के बारे में आकाशवाणी इन्दौर के जाने माने प्रसारणर्ता और संगीतकार श्री स्वतंत्रकुमार ओझा का यह संस्मरण अपने आप में इस दिवंगत संगीत मनीषी की तासीर को अभिव्यक्त कर देता है....


"मामा साहेब भी आकाशवाणी का सलाहकार समिति के सम्माननीय सदस्य हुआ करते थे। मालवा हाउस (आकाशवाणी इन्दौर परिसर का नाम) की बात है। सलाहकार समिति की बैठक थी और उसमें औपचारिक बातों के बात हल्की फ़ुल्की बातों के साथ इधर उधर की बातें चल रहीं थीं।एक सज्जन बोल उठे क्यों साहब ? गायक और गवैये में क्या अंतर होता है...फ़िर खु़द ही बोले.....क्या अंतर होता होगा ...नाम अलग अलग होते हैं ...बात तो एक ही है....


तभी एक धीर-गंभीर स्वर गूँजा...बेशक बोलने वाले मामा साहेब ही हो सकते थे....

मामा साहेब कह रहे थे....अतंर है हुज़ूर ...अतंर है....वही अंतर है जो एक आर्किटेक्ट और काँट्रेक्टर में होता है। गायक तो ईश्वर स्वरूप है,दे क्रिएटर ...गवैया तो परफ़ॉरमर है।दोनो में एकरूपता तभी होगी जब परफ़ॉरमर रचनाधर्मिता की सुक्ष्म प्रक्रिया को भी आत्मसात करने का प्रयास करेगा।


मामा साहेब की पावन स्मृति को प्रणाम.....

Wednesday, November 7, 2007

कुछ ऐसे भी मन सकती है दीवाली....मन तो बनाइये !


मल्टीस्टोरी बिल्डिंग या अपनी कॉलोनी की एक लेन संयुक्त रूप से पटाख़े ख़रीदे और मिल कर मनाए दीवाली ; ख़र्च और प्रदूषण दोनो कम ; पारिवारिकता का विस्तार।


बाज़ार में इन दिनो आवाजाही ज़्यादा होती है ; ऐसे में व्यापारिक संघ तय करें कि बाज़ार की सड़क पर पटाख़े न फ़ोडे जाएँ।महिलाएँ , बच्चे बाज़ार में बड़ी संख्या में मौजूद रहते हैं अत: उन्हे इस सकारात्मक पहल से निश्चित राहत मिलेगी।


बच्चों को प्रेरित करें कि वे पटाख़ों पर कम ख़र्च करें;एकदम तो आप उन्हें रोक नहीं सकतेलेकिन ज़्यादा आवाज़ और ऊपर आसमान में जाकर फ़ूटने वाले पटाख़ों और रॉकेटों के इस्तेमालको कम ज़रूर कर सकते हैं।


त्योहारी बेला में भी मनुष्यता और सदाशयता जैसे मूल्यों के लिये सचेत रहें।यदि आप जानते हैं कि मोहल्ले में कोई ग़मी हुई है,किसी के परिवार में कोइ नव -प्रसूता या नवजात शिशु है या किसे परिवार में कोई अत्यधिक बीमार हैतो कोशिश करें कि ऊँची आवाज़ वाले पटाख़े उपयोग में न लाकर हम अच्छे नागरिक कहलाने का आत्मसंतोष प्राप्त कर सकते हैं.त्योहार तो मने ; इंसानियत के तक़ाज़े न घटें।


बड़े अपनी निगरानी में ही बच्चों को पटाख़े फ़ोड़ने दें।ऐसा कभी न करें कि पटाख़े बच्चों के हवाले कर दें और आप शहर की रौनक़ देखने या मित्रों के साथ ताश खेलने निकल पड़ें.


सार्वजनिक से घूमने वाली गाय,कुत्तों और परिंदों के प्रति हम मानवीय रहें;बच्चे इन मूक प्राणियों को नाहक परेशान न करें ऐसी प्यार भरी नसीहत दें।



मिठाइयाँ,नमकीन और मेवे उतने ही ख़रीदें जितने अतिथि आप अपेक्षित करते हों; पैसे और व्यंजनों का अपव्यय न करें।


नई पीढी को प्रेरित करें कि वे अपने दोस्तो के अलावा अपने रिश्तेदारों,कॉलोनी के बुज़ुर्गों को जाकरभी दीपावली अभिनंदन करें ; उनके प्रति आदर व्यक्त करें।कई बार बच्चे आपके साथ दीपावली मिलन औरनव-वर्ष अभिनंदन में जाना पसंद नहीं करते.उन्हें समझाएँ कि सामाजिकता के नज़रिये से ऐसा करनाज़रूरी है.थोड़ा कठिन है ये सब ; लेकिन यदि हम बच्चों की बात ही मानने लगे तो एक वक़्त ऐसा भीआ सकता है जब वे अपने से बड़ों के मित्रों/परिजनों को पहचानने से ही इंकार कर दें.


घर की बेटियों / बहुओं को प्रेरित करें कि वे सिंथिटिक चीज़ों से सजावट न करेंक़ाग़ज़ और रंगोली,पारंपरिक मांडनों से ही घर/दफ़्तर सजाएँ; संस्कृति का मान बढ़ाएँ।


कोशिश करें बिजली का अपव्यय न हो। सीमित संख्या में दीये जलाएँ.हर चीज़ की एक सीमा होती है॥देखा-देखी की होड़ में न पड़ें..अपने बजटऔर अपनी पारिवारिक तहज़ीब का हमेंशा ख़याल रखें.


ध्यान रखें कि दीपावली का असली उजास तो कहीं मन के भीतर मौजूद रहता है।दुनिया बदल रही है....पर्यावरण के प्रति जागरूकता बड रही है.त्योहारी चमक दमकके लालच में प्रकृति के साथ खिलवाड़ ठीक नहीं ; कहीं ऐसा न हो कि हम प्रकृति को इतना नोंच डालें कि आने वाले कल को हम अपने कृत्य पर जब रश्क़ करें तब शायद बहुत देर हो चुकी हो।


...मुझे आपसे ये सारी बातें करने की प्रेरणा तब मिली जब मेरी बिटिया दिशा और बेटे पार्थ ने इस बार यह तय किया कि वे पटाख़ों पर खर्च की जाने वाली पूरी राशि मेरे शहर के अनाथालय को दीपावली के शुभ दिन दान करने स्वयं जाएँगे।मै सच कहूँ ; ये मेरे जीवन की सबसे आनंददायक दीवाली है जिसका श्रेय मेरे बच्चों को जाता है.



हाँ ! चलते चलते एक निवेदन...पिछले एक बरस में यदि किसी भी कारण से आपसे कोई मित्र/परिजन रूठ गया हो या उससे अबोला हो गया हो तो दीपावलीसे अच्छा अवसर नहीं मिलेगा...बिना झिझक के मिठाई खाने पहुँच जाएँऔर देखें आपकी ओर से की गई यह सकारात्मक पहल रंग लाती है या नहीं.रूठे को मना लेने में ही सार है .......किसी की मुस्कराहट से ही सच्चा त्यौहार है।



दीवाली मज़े से मनाएँ...प्रदूषण को भी घटाएँ

मन में उल्लास के दीप जगमगाएँ.....मंगलकामनाएँ









Tuesday, November 6, 2007

जीवन में बरसे कुछ और धन....



धन-तेरस की पूर्व संध्या...

मन कर रहा है कुछ अलग कामनाएँ

चाह रहा है जीवन में बरसे कुछ और धन


वह नहीं जिसकी लालसा का अर्थ है.
....सिर्फ़ अर्थ

शेष सभी व्यर्थ


बरसे आरोग्य का धन

सदभावना का धन

लगे कुछ कला में

कुछ संगीत में आपका मन


पर्यावरण के लिये होवें आप सचेत

न होने पावे ये हरितिमा रेत

संबंधों की बनी रहे हरियाली

कुछ कम प्रदूषण वाली हो दीवाली


चाँदी के सिक्के ज़रूर ख़रीदकर लाएँ

लेकिन मन को भी चमचमाएँ

क्रोध,तमस और दूर हों विकार

प्रेम से पगा हो दीपों का त्योहार


अनुजों से बढ़े प्यार

बुज़ुर्गों का हो सत्कार

ग़रीब का बना रहे आत्म-सम्मान

विरासत का भी रहे ध्यान


मन के उजाले से जगमगाए दीवाली

अबके बरस कुछ कम आवाज़ और अधिक सुरक्षा वाली.

Saturday, November 3, 2007

देखना दीवाली पर इस बार ....नहीं मिलेंगे संस्कार !

मिलेगा मोबाईल

मिलेगा लैपटाप

कपड़े टीपटाप



हज़ारों की ज्वैलरी के वारे न्यारे

नये फ़र्नीचर के नज़ारे

ग्रीटिंग कार्ड के डिज़ाइन

ड्रायफ़्रूट्स,मिठाईयाँ,नमकीन ढ़ेर सारे



मिलेगी रोशनी चमकदार
गिफ़्टस का पारावार


जगमगाते घर

भीतर....बाहर


नहीं मिलेंगे

रिश्तों के दमकते कलेवर
प्यार का इज़हार


आत्मीयता के बंधनवार



बस सारा खेल होगा कमाई का

बड़ा दिख जाने में भलाई का

नदारद होंगे आदर के भाव

माँ-बाप अकेले होंगे गाँव



मनाएंगे रईस बेटे

दीवाली मिलन सामारोह
दिखाई देंगे होड़ के अवरोह


खु़लूस और गर्मजोशी होगी ख़ारिज



सोचिये ...

कहाँ जा रहे हैं हम
दीवाली की बनावटी उजास


में कहाँ गुम हो गई

प्रेम की सुवास



सब हो चला है औपचारिक

दिखावे का ताना बाना

सौहार्द हो गया बेगाना



किससे क्या कहें...बेहतर ही चुप ही रहें

क्या इसी को कहते हैं ज़माने का बदल जाना

रहने दीजिये हुज़ूर....बोलकर

अपनी ही औक़ात को उघाड़ कर दिखाना.