Saturday, May 31, 2008

पत्रकार शाहिद मिर्ज़ा की पहली बरसी पर एक प्यार भरी याद !

अभी दो तीन दिन पहले दिवंगत पत्रकार शाहिद मिर्ज़ा की पहली बरसी थी. तब ये
आदरांजलि लिख देता तो बेहतर होता, पर हम भी ठहरे शाहिद भाई की ही बेपरवाह तबियत
के मुरीद.फ़िर भी सोचा इस प्यारे इंसान की याद आई है तो कुछ लिखा ही जाए.

पिछले बरस जब वे अल्ला को प्यारे हुए तब भी राजस्थान वैसा ही अशांत था
जैसा आजकल ; सो मैयत को जयपुर से कोटा होते हुए इन्दौर लाया गया जहाँ उन्हें
सुपुर्दे ख़ाक किया गया. बेफ़िक्र तबियत के शाहिद भाई यारबाज़ इंसान थे. पत्रकारिता की,
नाटक किये,हुसैन साहब की जीवनी पर काम शुरू क्या,अख़बारों में यहाँ रहे-वहाँ रहे पर
जमें राजस्थान पत्रिका में जाकर.भागती ज़िन्दगी को जैसे कुछ ठहराव मिला ही था और
शाहिद भाई चले गए. सब कुछ ठहर गया.

जब बड़ी शिद्दत से आज उनकी याद आ ही गई तो लिख गया ये पंक्तियाँ...

शाहिद भाई के तमाम मित्रों की ओर से यायावर तबियत
के इस बेजोड़ इंसान को ख़िराजे अक़ीदत के रूप में ..सादर.


सब कहते हैं
अव्यवस्थित था वह
बेपरवाह था
बेफ़िक्र था
बेचैन था

क्या कभी किसी ने सोचा
ऐसा क्यों था
उसकी घड़ावन ऐसी क्यों थी
क्यों अनुशासन नहीं साधा उसने
क्यों न जी समयबध्द ज़िन्दगी

पूछने वाले तो बड़े व्यवस्थित ठहरे
वे कर देते कोई करामात
लिख देते उस जैसा बिंदास
दिखा देते शब्दों की कारीगरी

नहीं ! कोई नहीं कर पाएगा वैसा
वैसा बनना बहुत मुश्किल है
मान भी लूँ कि अभिनय करता था
वह बेफ़िक्र होने का
तो बुरा भी क्या है

फ़िक्र करने वाले कौन सा कमाल कर रहे हैं
वह शब्द की कंदील से सचाई के मोती ढूंढता था
सोचता था कि कभी तो अच्छे सुख़नवर मिलेंगे
इंसानियत की चूनर में नेकी के बेल-बूटे जड़ेंगे

लोग कहते हैं बीमार था,बेपरवाह था,थक गया था
हाँ उसकी बीमारी थी फ़रेब और झूठ से नफ़रत की
वह बेपरवाह था उनके लिये जो छदम का कारोबार करते हैं
वह थक गया था लिख लिख कर कि सोच बदले
बदले ज़माने की तस्वीर, लेकिन नहीं बदली

तो सूरते हाल यहाँ यह है
शाहिद भाई कि
हम सब सोचते हैं कि
अच्छा हुआ आप चले गए
ये दुनिया आपके रहने लायक़ बची नहीं अब
आपने जयपुर से विदा ली
वही गुलाबी जयपुर
गुलाबी से केसरिया और
केसरिया से लाल हुआ जा रहा है

आप वहीं राजी खुशी रहें
अपरंच यहाँ सब ठीक है
राम राम शाहिद भाई.

एक अप्रतिम ललित निबंध : अस्ताचल का सूर्य !



श्री नर्मदाप्रसाद उपाध्याय: देश के जाने माने साहित्यकार हैं। वे ललित निबंध
विधा में अपना एक विशिष्ट मुकाम रखते हैं। उन्होंने अपनी लेखन यात्रा व्यंग से
प्रांरभ की पर कालांतर में उनके लेखन केंद्र में निबंध ही रहा है। देश की जानी मानी
पत्रिकाओं में वे ख़ूब चाव से पढे जाते हैं। अब तक उनके दस निबंध सग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। भाषा का वैभव उनके लेख्नन में हीरे सा दमकता है। कुदरत ,परिवेश और
मनुष्यता का ज़िक्र उनकी लेखनी में कवित्त जैसा झरता है। आज जब भाषा में
वैचारिक प्रदूषण पसरा पडा है ; श्री उपाध्याय अपने रचनाकर्म में श्रीनरेश मेहता या पं विद्यानिवास मिश्र वाली सात्विकता का निर्वाह करते है…मेरा विश्वास है कि ‘अस्ताचल का सूर्य’ आपको इसी बात की पुष्टि देगा.



अस्ताचल की ओर जाते और उदयाचल से उदित होते सूरज को देखें तो काफ़ी समानताएँ दिखाई देती हैं । वही अरुणिम आभामंडल, वही अलसाया-सा नभ, वही धीरे-धीरे गोलाकार गहरे कुंकुमी आकार का पर्वत के पीछे की ओर से सरकते सरकते झॉंकना, वही हल्की बयार, वही पखेरुओं का कलरव, वही नदी के बहाव की हल्की कलकल, वही किसी गीत के रचे जाने की चाह और वही किसी छंद के आने का इंतज़ार! अस्ताचल और उदयाचल के सूरज की ये समानताएँ सिर्फ़ ऊपर से दिखाई देने वाली और पहले पहल अनुभव होने वाली समानताएँ हैं । वास्तविकता यह है कि इन दोनों में भिन्नता ही भिन्नता है ।

अस्ताचल के सूरज का आभा मंडल, भोर की किरणों से अभिनंदित नहीं होता, अलसाया नभ जागता नहीं, वह सो जाता है, पर्वत के पीछे से झॉंकने की भंगिमा नए उत्साह के साथ फिर थिरकते रश्मिजाल की ओढ़नी पहनकर इतराते हुए प्रकट नहीं होती। हल्की बयार का वेग थम जाता है, पखेरू शांत होकर अपने नीड़ में लौट जाते हैं, नदी के बहाव की कलकल रात के नीरव एकांत की संगिनी बन जाती है, गीत के रचे जाने की चाह को निविड अंधकार निगल लेता है और किसी छंद की अगवानी करने के लिए कोई इंतज़ार नहीं करता ।

अस्ताचल के सूरज की नियति अंधकार है जबकि उदयाचल के सूरज का भाग्य आलोक की असंख्य तूलिकाएँ रचने को तत्पर खड़ी रहती है ।

सूरज का उगना और डूबना भले आँखों से प्रायः एक-सा दिखाई दे लेकिन उगने का अर्थ उगना और डूबने का अर्थ डूबना ही होता है । डूबने के बीच उगने के अर्थ निकालना सिर्फ़ आँखों का छलावा और मन का भुलावा भर है। ये भरम जितनी जल्दी टूटें उतना ही बेहतर हो। मुश्किल यही है कि ये भरम नहीं टूटते और उदित होने के भ्रम में अस्त होते चला जाना होता है। उदित होने वाले सूरज अनगिनत भ्रम बॉंटते हैं ।

ये कौन हैं उगने वाले सूरज ? ये वे हैं जिन्होंने अपने छल से भरपूर कौशल से किरणों को अपने वश में कर लिया है, ये वे हैं जिन्होंने अपनी सामर्थ्य से प्रकाश की उन तूलिकाओं को अपना दास बना लिया है, जिनके पास उजाले की स्याही है, और बयार हो, कलकल हो, गीत रचने की चाह हो या छंद के इंतज़ार की घड़ियॉं, इन सब के एकाधिकार इन्होंने एकमुश्त खरीद लिए हैं ।

इसलिए जो आज उगते सूरज हैं, उन्हें सदैव उगे ही रहना है। उनकी जमात में कोई अन्य सूरज तभी शामिल होगा जिसके पास शक्ति हो, किरणों को वश में करने की, आलोक की तूलिकाओं को अपना दास बनाने की और बयार तथा कलकल के एकाधिकार एकमुश्त ख़रीद लेने की ।

जहॉं तक अस्ताचल के सूर्यों का सवाल है, ये वे हैं जिनके पास दूसरे क़िस्म की सामर्थ्य है। वह सामर्थ्य है न झुकने की, समझौते नहीं करने की, अडिग बने रहने की। उनके पास अर्थ नहीं है लेकिन वे कदापि अर्थहीन नहीं है। उनसे बड़ा अर्थवान कौन होगा जो अपने संघर्ष करने के बूते पर, अपनी जिजीविषा के बल पर अँधेरे को अंगीकार करते हुए, छद्म उजालों की बस्ती में किसी तरह अपना उजला अस्तित्व बचाए हुए है। इन सूर्यों को अपने अस्तित्व की रक्षा खुद करनी पड़ रही है ।

उजाले कहे जाने वालों के शहर में आज उजाला ही अजनबी है । रातें दिन की मानिंद हैं और दिन रातों में बदल गए हैं। आँखों ने देखने के अभ्यास बदल लिए। वे रात को दिन और दिन को रात समझने में पारंगत हो गई हैं ।

उगते सूरज, मशालें हाथ में लिए जुलूस निकाल रहे हैं। रौशनी का, रौशनी के लिए, रौशनी के द्वारा !

इन सूर्यों ने उस अँधेरे के ख़िलाफ़ जेहाद छेड़ रखा है जो अपने हृदय में अस्ताचल के उन सूर्यों को अंगीकार किए है जो सच्चे और सार्थक उजाले के प्रतिनिधि हैं। इन अँधेरे का सिर्फ़ इतना कुसूर है कि वह अँधेरा है और सच्चे उजाले को पनाह देता है।

आज अंधकार को ये उगते सूरज इसलिए नहीं कोस रहे क्योंकि वह उजाले को निगल जाता है, बल्कि इसलिए कि वह उन उजालों को अपने गले लगा रहा है जो प्रकाश के प्रतिनिधि हैं। अँधेरा तो एक ही है पर सूर्यों की दो जातियॉं हो गईं। वे सब दो हो गए, दोनों एक-दूसरे के विपरीत जिन्हें सिर्फ़ एक ही रहना था। आज दो उजाले हैं, दो मूल्य, दो मानक, दो राजनीति, दो समाज, दो संस्कृति और दो मनुष्य। यह दो हो जाना इस तथ्य का प्रमाण है कि इसमें अनुचित को उचित सिद्ध करने की सुविधा हो जाती है। दोहरे मापदंडों को अपना लो तो प्रतिभा पर उम्र विजय पा लेती है ।

दादा रामनारायण उपाध्याय एक संस्मरण सुनाते थे। वे जब स्व. हरिशंकर परसाई से मिलने गए तो उनके पॉंव छूने लगे। परसाई बोले, आप मुझसे बड़े हैं उम्र में। दादा का उत्तर था लेकिन प्रतिभा आपकी बड़ी है। आज यह प्रतिभा कुंठित है, जिसे निरंतर असफलता का मुँह देखना पड़ा रहा है। उसकी टीस निरंतर गहरी होती जाती है और डा शिवमंगल सुमन को यह कहना पड़ता है -

जिस पनिहारिन की गगरी पर मैं ललचाया , वह ढुलक गई
जिस जिस प्याली पर धरे अधर , वह छूते ही छलक गई

इस देश में चारों ओर ऐसी ढुलकी हुई आशाओं की गगरियॉं और छलकी हुईं निराश प्यालियॉं सहज देखने को मिल जाती हैं।

जाने कब से ब्रेन ड्रेन के नाम पर उन युवाओं को कोसा जा रहा है, जो यहॉं से पढ़कर विदेशों में बस जाते हैं लेकिन विस्थापन के पीछे हम कितने दोषी हैं यह आकलक नहीं किया जाता। हमारा सबसे बड़ा दोष है इस तरुण प्रतिभा के विकल्प के रूप में अपने आपको या अपने वाले को प्रस्तुत कर देना और फिर उसे स्थापित कर देना। बरगद का घना वृक्ष या कोई बीमार पेड़ धरती पर अपनी निष्क्रिय जड़ें फैलाकर या बिना फल दिए जगह घेरकर स्थापित तो रह जाता है लेकिन उन तरुण वृक्षों की बराबरी ये बरगद और बीमार पेड़ नहीं कर सकते जिनके धरती पर बने रहने से जंगलों का क्षेत्रफल बढ़ता है और हरियाली की धड़कनों के न थमने की आशा बॅंधी रहती है ।

आज संकट वे वृक्ष झेल रहे हैं जिनके पास फल देने की असीम संभावनाएँ हैं और आश्वस्त भाव से निर्भीक खड़े हैं फलहीन बरगद और कॉंटों से भरपूर बबूल।.

गुण और प्रतिभा के गौण होते जाने की घटना हर पल घटती है लेकिन कोई प्रतिरोध नहीं होता, उल्टे ऐसे नियम ढूँढ़ लिए जाते हैं, गढ़ लिए जाते हैं जो इस गौण होते जाने को उचित ठहरा देते हैं। उचित होना और उचित ठहरा देना दोनों में बड़ा अंतर है। उचित तो गुण और प्रतिभा है लेकिन उसे गौण क़रार देने की कवायद, उचित का ठहरा दिया जाना है। जब अनुचित कहना संभव नहीं हो पाता और अनुचित करना ज़रूरी हो जाता है तब उचित ठहरा दिया जाना कहा जाता है ।

अब समय आ गया है जब प्रतिरोध करना ज़रूरी हो गया है। मुझे बच्चन की श्रंगारिक कविता ‘श्रंगार’ की नहीं लगती। आज के संदर्भों में बच्चन जैने विराट व्यंजना वाले कवि की कविता आह्वान की कविता लगती है। बच्चन को याद भी करें और इन पंक्तियों के माध्यम से आह्वान भी करें कि बात पूरी हो, कहानी पूरी हो और अपनी नियति के बारे में ज्ञात हो, अज्ञात रहने के भ्रम देने वाले सूरज अपना अस्तित्व ख़त्म करें -

साथी, सो न, कर कुछ बात !
बात करते सो गया तू,
स्वप्न में फिर खो गया तू,
रह गया मैं और आधी बात, आधी रात !
साथी, सो न, कर कुछ बात !
पूर्ण कर दे यह कहानी,
जो शुरू की थी सुनानी,
आदि जिसका हर निशा में, अंत चिर अज्ञात !
साथी, सो न, कर कुछ बात !

Thursday, May 29, 2008

प्यार के आगे नतमस्तक है क्रोध !


आज ही शाम को एक पत्रकार मित्र ने प्यारी से मेल प्रेषित की.
भाव बहुत ही मार्मिक था ..सोचा आपके साथ बाँटा जाए.

एक व्यक्ति अपनी कार धो रहा था. पास में उसका बेटा खेल
रहा था. अनायास बेटे को क्या सूझी कि उसने एक पत्थर उठा कर
कार के दरवाज़े पर कई चिरकट्टे (स्क्रैच) कर दिये. व्यक्ति ने
आव देखा न ताव गाड़ी के पास पड़े औज़ार से बच्चे की उंगलियाँ
मरोड़ दीं.टूटी उंगलियों से बहता ख़ून देखकर पिता घबराया और बच्चे को
नज़दीक ही स्थित अपने डॉक्टर मित्र की डिस्पैंसरी ले आया.

मरहम-पट्टी के दौरान मासूम बेटे ने बाप से पूछा
..डैड मेरी उंगलियाँ कब तक ठीक हो जाएँगी.
बच्चे का प्रश्न सुनकर को पिता को अपने कृत्य पर
क्रोध आया और वह तत्काल डिस्पैंसरी के बाहर
खड़ी कार के दरवाज़े के पास आकर पश्चातापस्वरूप
लातें मारने लगा. इसी दौरान उसकी नज़र कार के दरवाज़े
पर किये गए अपने बेटे के चिरकट्टों पर गई
बच्चे ने दरवाज़े पर पत्थर से उकेर रखा था.....
आय लव यू माय डैड !

क्या इसके बाद कुछ कहने को रह जाता है ?

उस्ताद फ़ैयाज़ ख़ाँ साहब और उनकी सादा तबियत !


विगत दिनों बड़ौदा में प्राध्यापन करन वाले श्री बालकृष्ण महंत मेरी कार्यस्थली पर तशरीफ़ लाए.उल्लेखनीय है कि श्री महंत बेहतरीन तबला वादक रहे हैं और ताल-आचार्य पं.किशन महाराज के शिष्य रहे हैं . श्री महंत के पिता भी महाराज जी के शाग़िर्द रहे हैं और महंतजी का बेटा हिमांशु भी किशन महाराज जी से ही तालीम लेता रहा है. चूँकि महंत परिवार और किशन महाराज जी का ताल्लुक तीन पीढी पुराना है सो अभी महाराज जी के देहावसान पर महंत परिवार में बड़ौदा के अपने निवास पर बाक़ायदा तीन दिन का शोक रखा .

महंतजी से संगीत विषय की कई बातें चलतीं रहीं . बात जब बड़ौदा की चल रही थी तो श्री महंत ने बताया कि अपने गृह-नगर उज्जैन(म.प्र)से जब उन्हें सन 1991 में रोज़गार के सिलसिले में बड़ौदा का रूख़ करना पड़ा तो मन बड़ा दु:खी था कि अपने उस जानकीनाथ मंदिर को छोड़ना पड़ेगा जिसकी देखरेख उनका परिवार बरसों से कर रहा था.इस परिवार में रामलला पूजा अनुष्ठान के अलावा बरसों से संगीत के कई जल्से होते रहे .संयोग देखिये कि बड़ौदा पहुँचने के चंद दिनों बाद ही श्री महंत को विश्व-विद्यालय परिसर में एक श्री राम मंदिर की देखरेख की ज़िम्मेदारी सौंपी गई. इस मंदिर की ख़ासियत यह थी कि श्रावण मास के पूरे चार शनिवार की रात को वहाँ शास्त्रीय संगीत की महफ़िलें जमतीं. ये सिलसिला कई बरसों से चल रहा है . श्री महंत जैसे संगीतप्रेमी को तो जैसे मन की मुराद मिल गई. श्री महंत ने रूचि लेकर इस कार्य का संपादन और संयोजन प्रारंभ किया और कई सालों से वह कार्य नि:स्वार्थ आनंदपूर्वक कर रहे हैं. अब कई स्थानीय कलाकार इस मंदिर के संगीत समागम में शिरक़त कर रहे हैं.

अब आता हूँ इस पोस्ट के लिखने के ख़ास मक़सद पर.....
श्री महंत ने जब इस मंदिर का चार्ज ले लिया तो पूर्ववर्ती मंदिर प्रबंधक या पुजारीजी कह लें से इस मंदिर के इतिहास को जानना चाहा. उन्हें एक रोचक बात जानने को मिली. पुजारी जी ने बताया कि आफ़ताबे मौसिक़ी और आगरा घराने के प्रतिनिधि गायक उस्ताद फ़ैयाज़ ख़ाँ साहब बडौदा रियासत के राज-गायक थे.उन्हें इस मंदिर की परम्परा के बारे में बताया गया तो वे बेहद ख़ुश हुए और कहा कि मैं भी इस मंदिर में श्रावण मास में अपनी हाज़री लगाने आना चाहूँगा. मंदिर परिवार के लिये इससे अच्छी बात और क्या बात हो सकती थी कि देश का जाना-माना फ़नकार उनके मंदिर मे आकर गाने को तैयार है.. तय हुआ कि फ़लाँ दिन ख़ाँ का गायन मंदिर में होगा. तत्कालीन पुजारीजी ख़ाँ साहब के घर पहुँचे और कहा ख़ाँ साहब में महाराज बड़ौदा के दरबार में जाकर आता हूँ और अर्ज़ करता हूँ कि उस्ताद जी आज हमारे मंदिर में गाने आ रहे हैं सो एक राजगायक के सम्मान के मुताबिक बग्घी और मुलाज़िमों का इंतज़ाम कर दे. ये सुनते ही ख़ाँ साहब बोले काहे का राजगायक पंडितजी..मैं तो दुनिया के राजा रामजी के मंदिर का ख़ादिम हूँ...बग्घी में बैठ कर आऊंगा तो ख़िदमत का मौक़ा न गवाँ दूँगा. मुझे इस सवाब को लूटने दीजिये.. श्री महंत की आँखे ये कहते हुए छलछला उठीं कि ख़ाँ साहब ने तानपुरा उठाया,कमर में खोंसा और पैदल चल पड़े मंदिर की ओर.....

सोचिये किस बलन और तबियत के कलाकार थे उस्ताद फ़ैयाज़ ख़ाँ साहब जैसे लोग.
आज संगीत की दुनिया में जिस तरह का ग्लैमर और ठाठबाट घुसपैठ कर रहा उसके
मुक़ाबिल इस प्रसंग को रखिये .....आप जान जाएँगे कि हमारे आज के कलाकार पैसे,प्रतिष्ठा और सुविधाओं के कितने ग़ुलाम होते जा रहे हैं. गंगा-जमनी तहज़ीब के ये कलेवर अब शायद ही देखने को मिलें !

आइये चलते चलते यू-ट्यूब के सौजन्य से सुनिये उस्ताद फ़ैयाज़ ख़ाँ साहब की खरज भरी आवाज़ में राग
जोग में निबध्द एक छोटी सी आलापचारी.

Tuesday, May 20, 2008

यदि पुनर्जन्म है तो मैं मुकेश का बेटा बनकर ही जन्म लेना चाहूँगा !


गोरे - चिट्टे नितिन मुकेश ने काले रंग का कुर्ता पहन रखा था. उनके चेहरे के रंग और परिधान का ये काँट्रास्ट कहर सा ढा रहा था. 18 मई की रात नितिन ने मुकेश जी के गीतों की झड़ी सी लगा दी. मौक़ा था सुगम संगीत के क्षेत्र में मध्य-प्रदेश सरकार द्वारा दिया जाने वाला प्रतिष्ठित
राष्ट्रीय अलंकरण..... लता पुरस्कार. इन्दौर गान सरस्वती लता मंगेशकर की जन्म-भूमि है और यहीं ये आयोजन आरंभ से ही होता रहा है. नितिन मुकेश इस सम्मान से नवाज़े जाने वाले २४ वें कलाकार थे.
पिछले वर्ष यह पं.ह्र्दयनाथ मंगेशकर को प्रदान किया गया था.

हर वर्ष सम्मानित कलाकार अलंकरण के पश्चात अपनी संगीत प्रस्तुति देते हैं एक - डेढ़ घंटे में यह प्रस्तुति समाप्त हो जाती है लेकिन तारीफ़ करना होगी नितिन मुकेश की वे रात 8.30 से 12.30 तक लगातार गाते रहे. मुझे मंच पर एंकरिंग करते हुए तक़रीबन पच्चीस बरस हो गए ; किसी भी शो में मैने इतनी फ़रमाइशी पर्चियाँ मंच पर आते नहीं देखी. इन्दौर के नेहरू स्टेडियम में दस हज़ार से ज़्यादा संगीत प्रेमियों की मौजूदगी इस बात की गवाह थी कि आज भी गायक मुकेश के चाहने वालों की संख्या में कमीं नहीं आई है. उनके सैकड़ों गीत श्रोताओं को मुँहज़बानी याद हैं.

नितिन मुकेश ने भी बड़ी विनम्रता से स्वीकारा कि यह सम्मान मेरे महान पिता की स्मृति को ही समर्पित है. उन्होने कहा कि मेरे गीतों की संख्या मुकेशजी से कहीं कम है . आज जो भी गाया जा रहा है वह हक़ीकत में रफ़ी , किशोर और मुकेश गायन परम्परा का दोहराव ही तो है. इस लिहाज़
से नितिन मुकेश को तो अपने पिता के गीतों को गाने का ज़्यादा बड़ा हक़ बनता है.

नितिन मुकेश की गायकी के पहलुओं के बारे में ये ज़रूर कहना चाहूँगा कि ये कलाकार लाइव स्टेज शो की दुनिया का जादूगर है. नितिन जिस तरह से श्रोता के साथ जीवंत राब्ता बनाते हैं वह वाक़ई किसी करिश्मे से कम नहीं उन्हें मुकेश जी के सैकड़ों गीत याद हैं . वे अपनी प्रस्तुति के
दौरान कभी डायरी या काग़ज़ का आसरा नहीं लेते . वे मानते हैं कि ऐसा करने से गायकी कमज़ोर पड़ती है. जब मैने कार्यक्रम से पहले गीतों की फ़ेहरिस्त माँगी तो वे बोले दोस्त जैसे जैसे लोग सुनते जाएँगे ; मै गाता
जाऊँगा. वे मंच पर नंगे पैर आए ; उन्होंने कहा जहाँ साज़ रखे रहते हों वहाँ जूते पहनना अदब के विरूध्द होता है.
(लता जी भी गाते वक़्त नंगे पैर ही रहती है; उन्होंने आज तक कोई रिकॉर्डंग चप्पल पहन कर नहीं की है)

नितिन मुकेश अदभुत प्रतिभा के फ़नकार हैं लेकिन यह भी सच है कि हमारी फ़िल्म इंडस्ट्री ने इस हुनरमंद कलाकार के साथ न्याय नहीं किया है. उनकी आवाज़ में एक वैशिष्ट्य है जो ख़ास तरह के
गीतों के लिये बना है . मैं अपनी तरफ़ से ये जोड़ना चाहूँगा (कृपया इसे अतिरेक न मानें) कि नितिन में भी अपने पिता जैसी क़ाबिलियत है लेकिन उसे तराशने वाले या सही इस्तेमाल करने के लिये अब अनिल विश्वास, शंकर-जयकिशन,रौशन,कल्याणजी-आनन्दजी,ख़ैयाम, हसरत जयपुरी,शैलेन्द्र और इंदीवर की बलन के संगीतकार और गीतकार कहाँ ?

और आख़िर में एक भावनात्मक बात ; नितिन मुकेश ने अपनी प्रस्तुति के दौरान कहा कि यदि पुनर्जन्म है तो मैं फ़िर नितिन मुकेश ही कहलाना ही पसंद करूंगा.उनके नाम ने ही मुझे सम्मान दिया है ; उनके गीत
ही मेरी पहचान है. रात साढ़े बारह बजे जब चाँद आसमान में मुस्कुरा रहा था तब नितिन मुकेश ने रमैया वस्ता वैया...मैने दिल तुझको दिया गाकर इस अविस्मरणीय महफ़िल को विराम दिया. इस गीत की पंक्तियों की तरह इन्दौर के हज़ारों प्रेमियों ने अपना दिल इस लाजवाब कलाकार को दे दिया. मैने अपनी देखा और कानों कि स्टेडियम से बाहर जाते कई श्रोताओं की आँखों की कोर भीगी हुई थी और वे महान गायक मुकेश जी के इस भावुक बेटे को दुआएं देते हुए अपने बसेरों को लौट रहे थे

Thursday, May 15, 2008

मेरी सौं वीं पोस्ट ....और जी चाहता है !



एक बरस पहले ब्लॉग बिरादरी में शामिल हुआ था.
इस दौरान ये महसूस हुआ कि चिट्ठाकारी ने
ज़िन्दगी को एक सकारात्मक विस्तार और
लिखने-पढ़ने को एक नेक-नशा दे दिया.
आभार; पूरी ब्लॉग-बिरादरी का;आप सब जुड़कर
एक बड़े क़ुनबे जैसा प्यार भरा राब्ता बना.

बहरहाल ; सौ पोस्ट जारी कर देना कोई कारनामा नहीं है;
लेकिन सौं वीं पोस्ट के रूप में जो रचना जारी करना चाहूँगा
वह पिता श्री नरहरि पटेल की है जिनसे बोलने,लिखने और पढ़ने
का शऊर मिला. मैंने उन्हें ही अपना आदर्श माना क्योंकि ज़िन्दगी
की दीगर तरबियतें और सलाहियते उनसे ही मिलीं .
ये मेरा उनके प्रति एक आदर भरा शुक्राना भी है , उस सब के लिये
जो उनसे मिला संस्कारों,नसीहतों और मशवरों के रूप में.

बरसों पहले लिखी गई पिताश्री की यह कविता मन को बहुत छूती है और
हमेशा कुछ करने का जज़्बा देती है.मुलाहिज़ा फ़रमाएँ.......

जी चाहता है !

जी चाहता है
कि जीवन हर क्षण जी लूँ
वह भी ऐसा जीऊँ
कि जीवन का हर क्षण
सार्थक हो जाए
मुझसे किसी को
कोई शिकायत न रह जाए
जी चाहता है

जी चाहता है
कि जीवन का हर घूँट पी लूँ
कड़वा,मीठा,खारा,
और वह भी ऐसा पीऊँ
कि जीवन का हर घूँट
तृप्त हो जाए
बस ! तिश्नगी मिट जाए
जी चाहता है

जी चाहता है
कि जीवन की फटी चादर सी लूँ
और वह भी ऐसी सिऊँ
के उसके तार तार चमके
उसकी हर किनार दमके
उसके बूँटों में ख़ुशबू भर जाए
पता नहीं ये चादर
किसी के काम आ जाए
जी चाहता है.

(टीप:जी यह भी चाहता है कि फ़िर से बच्चा बन जाऊँ;ज़िन्दगी के उस दौर में लौट जाऊं जो सबसे सुहावन और सुनहरा था;लेकिन अब ऐसा मुमकिन नहीं; तो चलिये ऐसा ही सही कि अपने बचपन की तस्वीर ख़ुद निहारूँ और आप सबको भी दिखलाऊँ...देख लें ऊपर छापी है)

Tuesday, May 13, 2008

हारमोनियम के बेजोड़ कलाकार ….बंडू भैया चौघुले

पेटी (हारमोनियम) बजाने वाला वैसे भी मन ही मन में गाता है। बंदिशें तो उसके दिल-दिमाग़ में तब भी गाती रहती हैं जब वह सो रहा, घूम रहा या ख़ामोश बैठा हुआ होता है। हारमोनियम बजाने वाले की तासीर क्या हो शायद इसका "मॉडल' पेश करने के लिये ही ईश्वर ने श्री बंडू भैया चौघुले को धरती पर भेजा होगा। आज इन्दौर के इस मूक
सगीत साधक की बात अपने इस चिट्ठे पर करते हुए मन आदर से भरा हुआ है। सिंथेटिक होते संगीत के इस दौर में बंडू भैया को याद करना मेरे लिये किसी तीर्थ यात्रा जैसा है.


(एक दुर्लभ चित्र :बंडू भैया और मामा साहेब मुजुमदार<कुर्सी पर >
पीछे खडे हैं युवा कुमार गंधर्व)



स्व. माधवरावजी चौघुले के शिष्य-पुत्र बंडू भैया महू के रास्ते इन्दौर आ बसे। एकांतप्रिय, सरल, शुद्धचित्त और सहज बंडू भैया के पिता माधवरावजी पेटीवाले नाम से ज़्यादा जाने गए . बल्कि यह कहना बेहतर होगा कि पेटी वादन की परम्परा की एक परिपक्व पहचान में उनका योगदान कभी भी बिसराया नही जाएगा। कीर्तनों, भजनों में मन रमाने वाले माधवरावजी, होलकर रियासत (इन्दौर) में पनाह पाकर संतुष्ट थे। ज़िंदगी और संगीत दोनों को माकूल आसरा जो मिल गया। महाराज तुकोजीराव होलकर अनन्य संगीतप्रेमी थे। राजाश्रय से ही उस ज़माने में संगीत फलता-फूलता था। प्रायवेट, सामाजिक सांगीतिक संस्थाओं और प्रायोजन के सिलसिले तो बहुत बाद में शुरू हुए। मुराद ख़ॉं, इमदाद ख़ॉं, नत्थन ख़ॉं, रज्जब अली ख़ॉं, बशीर ख़ॉं, बुँदू ख़ॉं उस ज़माने के चर्चित और गुणी फ़नकार थे। विभिन्न महोत्सवों, ख़ासकर फागुन माह की बैठकें बाहर से बुलाई गायिकाओं से जलवाफ़रोज़ होतीं थीं। सॉंच को आँच नहीं; माधवरावजी का सच्चा और खरा काम पूजा जाने लगा .

माधवरावजी का इतना सारा ज़िक्र इसलिये ज़रूरी था कि यह जाना जा सके कि बंडू भैया किस थाती के मालिक थे। घर में कीर्तन, शास्त्रीय संगीत, भजन, नाट्य-संगीत यूँ पसरा पड़ा रहता था जैसे हम संसारियों के घर में अचार, चटनी, मुरब्बे और शरबत। घुट्टी में मिला संस्कार बालक कृष्णराव (बंडू भैया का नाम) को एक परिपक्व संगीतज्ञ बनाने में ख़ासा काम आया। उस्ताद रज्जब अली ख़ॉं, भास्कर बुआ बखले, केशवराव भोसले, सवाई गंधर्व, बाल गंधर्व, पं. मल्लिकार्जुन मंसूर, गंगूबाई हंगल,बेगम अख़्तर, हीराबाई बड़ोदेकर और उस्ताद अमीर ख़ॉं साहब की संगति करते हुए बंडू भैया ने अपने को तपाया। जुदा-जुदा घरानों, गायकी की विभि शैलियों और उसमें भी किये जा रहे प्रयोगों से बंडू भैया को अपनी कारीगरी को निखारने के अवसर स्वतः ही मिलते गए। बंडू भैया की शख़्सियत से यह बात अपने आप साबित हो जाती है और हिम्मत भी देती है कि एक तनहा आदमी बिना किसी लाग लपेट, लॉबिंग और लालच के अपना काम करता रहे तो क़ामयाबी उसकी चेरी बन दरवाज़े की चौखट पर प्रतीक्षा करती रहती है। क़ामयाबी को तलाशने दूर नहीं जाना पड़ता। न ही उसके लिये किसी तरह के छल-कपट का आसरा लेना पड़ता है जैसा कि आज के कई कलाकार कर रहे हैं। कलाकारों की संगति के साथ मौन और मित्रता का भाव धारण कर बंडू भैया अपनी पैठ गहरी करते गए। हालात यूँ बने कि इन्दौर आने वाला बड़ा से बड़ा कलाकार हारमोनियम के मामले में आश्वस्त रहता कि इन्दौर में संगति के लिये बंडू भैया हैं न!

इन्दौर में शास्त्रीय संगीत को स्थापित करने का पुण्य कार्य करने वाली अग्रणी संस्था अभिनव कला समाज की घड़ावन में पहली ईंट रखने वाले कलाकरों में बंडू भैया को बिसराना बेमानी होगा। अभिनव कला समाज की जाजम पर जिन कलाकारों की आमद हुई; उन्हें बंडू भैया की पेटी का पारस स्पर्श अवश्य मिला। कुमारजी को मामा साहेब मुजुमदार मालवे में ले ही आए थे। बंडू भैया और कुमारजी भी मिले, ख़ूब यारबाज़ बने और एक दूसरे के प्रशंसक भी। साठ के दशक में देवास से बंडू भैया को लिखे एक पत्र से इस बात की पावती मिलती है। आकाशवाणी के लिये एक कार्यक्रम में रेकॉर्डिंग के बाद कुमारजी टेप सुनकर लिखते हैं "बंडू भैया तूने कितनी सुंदर संगति की है। रेकॉर्डिंग सुनकर ही तुम्हें अंदाज़ लगेगा। पूरे कार्यक्रम में कहीं कोई सुर यहॉं-वहॉं नहीं हुआ। अब मुंबई-पुणे जाकर वहॉं संगति देने वालों को ये टेप सुनवाकर कहूँगा कि देखिये ऐसे होती है हारमोनियम संगत।' ऐसा था कुमारजी का सौजन्य-भाव और ऐसी थी बंडू भैया की क़ाबिलियत। मित्रों !

गुज़रे ज़माने के गुणी कलाकार दरअसल सज्जनता से लकदक थे। लंपट पना और हल्कापन उनके पास नहीं फटकता था। बंडू भैया भी आजीवन इन्हीं गुणों से महकते रहे। वह महक अखण्ड है; अमर है। न उनकी बातों से कभी कर्कश बात निकली, न बाजे से। घोर पीड़ा के क्षण हों या बाजे पर तार-सप्तक के सुर; बंडू भैया कभी बेसुरे नहीं हुए और न अपनी पेटी को होने दिया। बंडू भैया का ईमान, नेकी और इख़लाक पेटी में जा समाया और स्वरों की मिठास बंडू भैया में आ समाई। बंडू भैया ने साबित किया कि साधना, यश, घराना, गुरु-परम्परा और कलाकारी से बड़ी बात है बेहतर इंसान होना। जीवन-व्यवहार की मिठास बाजे की मिठास पर भारी हो तो कलाकार पूजा जाता है वरना गाना-बजाना तो बहुत से करते रहे हैं और कर रहे हैं। पेटी में हवा का भरना बंडू भैया के हाथ यूँ करते जैसे कोई योगीराज प्राणायाम में ओहम-सोहम कर रहा हो। न कहीं कोई प्रतिघात न कहीं कोई तनाव। हवा बाजे में श्वास की तरह सहजता से आती और वैसे ही विसर्जित हो जाती।

(कुमार जी के साथ एक महफ़िल में हारमोनियम पर संगति देते बंडू भैया)

संगति के साथ एकल वादन में बंडू भैया बेजोड़ थे। शास्त्रीय रागों, ठुमरियों के अलावा मराठी नाट्य संगीत वादन में वे विलक्षण थे। बंदिश की कहन हौले-हौले यूँ बढ़ती जैसे कोई पुजारी अपने ठाकुर का श्रृंगार कर रहा है। न किसी प्रकार की हड़बड़ी, न लयकारी की विचलित करने वाली गड़बड़ी। राग को सजाना कोई मशीनी काम नहीं। जैसे मंदिर में किसी सुंदर मूर्ति को सजाते वक्त पुजारी को यही सोचना पड़ता है कि ठाकुरजी स्वयं बिराजे हैं। वैसी ही तसल्ली से बाजे की रीड्स को सजाना पड़ता है। मानना पड़ता है कि राग अमूर्त नहीं। बंदिश, स्वर और ताल की अक्षत, रोली-चंदन और पुष्प मन की थाली में सजे हुए हैं। बोल व्यवहार, कलाकारी, आचरण और आहार की सादगी शुचिता से समृद्ध और बनावट से परे बंडू भैया का व्यक्तित्व कभी भी प्रशस्ति का मोहताज नहीं रहा। जो भी किया मनःपूर्वक। गृहस्थी, नौकरी या हारमोनियम वादन, सभी पूरी एकाग्रता और तन्मयता से। सिद्धहस्त होने के बावजूद एवं अपने वादन के शीर्ष समय में भी उनका वादन उतनी ही रंजकता या तत्परता से भरा रहा जैसे कोई शाग़िर्द के रूप में अपनी युवावस्था के दौरान होता है। आज जीवन और संगीत परिदृश्य में जिस तरह के बिखराव हैं उसके मद्देनज़र साधना के इन सोपानों को उघाड़ने की ख़ास ज़रूरत है और इसीलिये इतने विस्तार से बंडू भैया की कला, ज़िंदगी और कारीगरी को रेखांकित किया गया है। हमारी विरासतें ही हमें मनुष्यता के धरातल पर खड़ा रखती हैं। सुखद-स्वर्णिम अतीत का स्मरण किये बिना वर्तमान प्रेरणा और भविष्य प्रशस्ति से वंचित रहता है। संगीत और कलाएँ हाइटेक होती जा रही हैं लेकिन उसमें बंडू भैया चौघुले जैसे मूक साधकों के अवदान की चमक कभी मद्धिम नहीं होगी। हम उन्हें याद न करें तब भी नहीं। बंडू भैया को याद कर के हम अपने आप को ही धनी बना रहे हैं। वे तो अपना पक्का काम कर के चले गए। हमें जीवन के सुरों को साधना है, कर्म की "सम' सिरजना है और आनंदमय "भैरवी' के आलोक से समृद्ध होना है तो बंडू भैया जैसे तपस्वी की याद को बरक़रार रखना होगा।

Monday, May 12, 2008

अनुपम मिश्र के संपादन में गाँधी शांति प्रतिष्ठान की पत्रिका : गाँधी मार्ग


ख्यात पर्यावरणविद अनुपम मिश्र का नाम पढ़ने - लिखने वालों की दुनिया
में अनजाना नहीं है. अपनी क़लम और पर्यावरण कर्म से वे पूरे देश में
बहुत आदर के पात्र हैं। गाँधी शांति प्रतिष्ठान के तत्वावधान में अनुपम जी
ने गाँधी मार्ग नाम की पत्रिका का संपादन सम्हाला है. चिकने - रंगीन और
चमचमाते इस दौर में गाँधी मार्ग का कलेवर अत्यंत सादा और
सात्विक है. गाँधी और उनकी दृष्टि से मेल खाती विचारधारा को ये पत्रिका
अपने में समेटे है.इसे पढ़ें तो एक प्रतिबध्दता भी नज़र आती है विचारों की
और उन सब बातों की जो आमतौर पर मीडिया ख़ारिज कर रहा है.
पित्ज़ा-बर्गर हो रहे समय में गाँधी मार्ग घर का दलिया है जिससे
आपका हाज़मा क़तई नहीं बिगड़ता. गाँधी मार्ग का ले-आउट नितांत सर्वोदयी है
जिसका श्रेय जाने-माने कलाकार दिलीप चिंचालकर के खाते में जाता है.
रचनाओं का चयन अनुपमजी बड़ी सूझबूझ से कर रहे हैं और
उनके प्रयत्न रंग ला रहे हैं और गाँधी मार्ग के प्रसार में लगातार इज़ाफ़ा हो रहा है.

गाँधी मार्ग का ताज़ा यानी मई-जून -०८ अंक ताल्सताय और विनोबा जैसे
मनीषियों का लेखन समेटे है. गाँधी दर्शन और चिंतन अब वैश्विक ज़रूरत
बनता जा रहा है और बापू की प्रासंगिकता लगातार बढ़ रही है
ऐसे में गाँधी मार्ग का हर दो महीने में आप की द्वार-देहरी पर
आ जाना बहुत ही सुकून और सुख देता है.

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गाँधी मार्ग के ताज़ा अंक से ये सुविचार


एक लाख की कार : दो कौड़ी का विचार

औद्योगिक क्रांति के बाद विकास के जिस रास्ते पर दुनिया चली है,
उसने दो ऐसे संकट हमारे सामने खड़े कर दिये हैं,जिनका हल कोई
बता नहीं पा रहा है ; एक तरफ़ विकास के इस दानव का पेट भरने
के लिये अब हमारे पास पर्याप्त संसाधन नहीं हैं , दूसरी तरफ़ इस
विकास के स्वर्ग में हम सुखी, स्वस्थ और सार्थक जीवन जी सकें,
ऐसी स्थिति नहीं रह गई है. संसाधन नहीं हैं कि यह दानव ज़्यादा
जी सकेगा और पर्यावरण नहीं है कि हम ज़्यादा जी सकेंगे।
दो मौतों के बीच का यह संधिकाल है.
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और अब गाँधी मार्ग प्राप्त करने के लिये कुछ जानकारी भी देता चलूँ.....

गाँधी मार्ग : वार्षिक शुल्क : भारत में रूपये 100/-
दो वर्ष का रूपये: 190/-
आजीवन :रूपये : 500/-
शुल्क ड्राफ़्ट या मनीआर्डर द्वारा यहाँ भेजा जा सकता है:
गाँधी शांति प्रतिष्ठान,223 दीनदयाल उपाध्याय मार्ग नई दिल्ली 110 002

Saturday, May 10, 2008

मदर्स डे की पूर्व संध्या पर पढिये…ये मार्मिक पंक्तियाँ !


माँ पर ख़ूब लिखा जा रहा है इन दिनो।
जुदा जुदा अंदाज़,नई नई उपमाएँ,नए नए
प्रतिमान…कहीं ये पंक्तियाँ पढीं थीं…और अपनी
डायरी के हवाले कर दी थी…आज अनायास याद
आ गईं सो आपके साथ बाँट रहा हूँ…कवि का नाम
नोट नहीं कर पाया…यदि आपकी आँखें इन पंक्तियों
को पढ कर भीग जाएँ तो उस अनाम शायर के नाम
कर दीजियेगा अपनी आँसू भरी दाद……



चारपाई पर
बिस्तर को बिछाते
माँ को देखा है कभी ?
सीधा करती है
चादर को कैसे
कि एक-आध सिलवट भी
तुम्हारे बदन में न चुभ जाए !


(पोस्ट के साथ जारी ये चित्र ख्यात कलाकार
जामिनी राय का कमाल है.)

पं फ़िरोज़ दस्तूर : ढह गया किराना घराने का एक और स्तंभ


देश के जाने माने गायक और संगीतविद पं फ़िरोज़ द्स्तूर का नौ मई
को रात नौ बजे मुंबई में देहांत हो गया। 89 वर्ष के पं दस्तूर किराना घराने
के रौशन चिराग़ थे। आज जब मेरे हारमोनियम वादक मित्र श्री सुधीर नाईक
ने जब ये जानकारी मुम्बई से फ़ोन पर दी तो मन ने कहा कि किराना घराने
की परम्परा का एक और गुणी साधक हमारे बीच से उठ गया। पं दस्तूर महान
सवाई गंधर्व और उस्ताद अब्दुल क़रीम ख़ॉ साहब मरहूम के शाग़िर्द थे.

1952 में प्रारंभ हुए पुणे के विश्व-विख्यात सवाई गंधर्व समारोह में लगातार
शिरक़त करने वाले पं दस्तूर का संगीतजगत में बड़ा आदर था. वे मुबंई
विश्व-विद्यालय के संगीत विभाग से वर्षों संबद्ध रहे जो सन 1969 में
प्रारंभ किया गया था. उन्हें संगीत की अनन्य सेवाओं के लिये संगीत नाटक
अकादमी के प्रतिष्ठित सम्मान और मध्य-प्रदेश सरकार के राष्ट्रीय अलंकरण
तानसेन सम्मान से नवाज़ा गया था. ये सम्मान उस्ताद बिसमिल्ला ख़ॉ,
पं.भीमसेन जोशी ,विदूषी एम.एस.सुब्बुलक्ष्मी और विदूषी मालिनी राजुरकर जैसे
महान स्वर-साधकों को दिया जा चुका है.महाराष्ट्र गौरव पुरस्कार से सम्मानित
किये जा चुके पं.दस्तूर पं.भीमसेन जोशी और विदूषी गंगूबाई हंगल के गुरूभाई
है. दुर्भाग्य से ये दोनो कलाकार भी गंभीर रूप से बीमार हैं और संभवत:
अपने गुरू-सखा के देहावसान का समाचार सुनने की स्थिति में भी नहीं हैं

एक परफ़ॉरमिंग आर्टिस्ट के रूप में पं.फ़िरोज़ दस्तूर नये ज़माने के लिये
कोई बड़ा चमकदार नाम नहीं हो सकता है लेकिन शास्त्रीय संगीत के इतिहास
का थोड़ी जानकारी रखने वाले लोग पं.दस्तूर के अवदान से वाक़िफ़ हैं.अभी हाल
में ही पं.किशन महाराज के जाने की ख़बर भी आई थी और अब पं.दस्तूर के
जाने से क्लासिक मूसीक़ी का एक और तारा अस्त हो गया है. पं.दस्तूर ने
गुज़रे ज़माने की कुछ फ़िल्मों में भी काम किया था . और पीनाज़ मसानी जैसे
कई गुलूकारों को बाक़ायदा शास्त्रीय संगीत की तालीम दी.इस गुणी स्वर साधक
को संगीतप्रेमियों की विनम्र श्रध्दांजली.

Tuesday, May 6, 2008

पं.किशन महाराज के साथ ही चला गया बनारसी बाज का ठाठ


एकल वादन हो या संगति पंडित किशन महाराज जिस भूमिका में होते
तो वस वे ही वे होते.देश के शीर्षस्थ और गुणी कलाकारों के साथ उन्होंने
संगति की और बनारसी बाज को प्रतिष्ठित किया. जिस ज़माने में पंडितजी
परिदृष्य पर आए तब शास्त्रीय संगीत का लाजवाब माहौल था और देश में
एक से बेहतरीरन जल्से नुमाया होते थे. पं.अनोखेलाल,पं.चतुरलाल,पं.सामताप्रसाद
उस्ताद अल्लारखा और उस्ताद लतीफ़ अहमद के तबला वादन का जादू सर चढ़
कर बोलता था. दिल्ली,मुंबई,पुणे,लख़नऊ,बनारस,इलाहाबाद,जलंधर और इन्दौर की
अनेक संस्थाएँ सीमित साधनों के बावजूद संगीत सम्मेलनों का आयोजन करतीं थी.
इन्दौर के अभिनव कला समाज ने पचास के दशक में क्लासिकल मौसिक़ी
के कार्यक्रमों को आयोजित करने का सिलसिला शुरू कर दिया था और तब ही
पंडित किशन महाराज इन्दौर आते रहे.ये सिलसिला निर्बाध रूप से नब्बे के दशक
शुरूआत तक चलता रहा .

सन २००६ में उज्जैन जाते हुए पं.किशन महाराज अपने मुरीद और
छायाकार श्री हँसकुमार जैन और मेरे आग्रह पर इन्दौर पंद्रह मिनट के लिये
रूकने वाले थे लेकिन रूक गए दो घंटे के लिये. बातों का सिलसिला जब चला तो
पंडितजी ने बताया की सन १९४३ में वे मुंबई गए अपनी क़िस्मत आज़माने.पहलवानी
शरीर था उन दिनों और सुबह चार बजे उठ कर खूब रियाज़ करने का नियम बना
लिया था. पहलवानी क़द -काठी होने के कारण लोग मुझे बनारसी ग़ुंडा ही समझते थे.
जिस कमरे में रहते थे उसमें संगीतकार नौशाद उनके रूम-मेट थे वे भी मुम्बई
फ़िल्म इंडस्ट्री मे संघर्ष कर रहे थे .

पंडितजी ने बताया कि एक स्टुडियो से दूसरे स्टुडियो घूमते हुए दिन बीत जाता था.
एक दिन संगीतकार के.दत्ता ने किशन महाराज से इसरार किया कि एक डांस सिचुएशन
में मशहूर तारिका और नृत्यांगना सितारा देवी के साथ तबला संगति जम नहीं रही है
क्या आप बजा पाएंगे ? कंपोज़िशन सुना और चार दिन बाद फ़ायनल रेकार्डिंग का
वादा कर दिया. बजा तो उसी दिन सकता था लेकिन क्या है कि मुंबई में अपना माल फ़ट से परोस दो तो काम का मोल नहीं लगता न ! ख़ैर...जिस दिन रेकार्डिंग थी उस दिन पास खड़ी एक लड़की से कहा पानी पिला दोगी...वह झट से मटके में से पानी ले आई,बाद में संगीतकार दत्ता ने परिचय करवाया ये लता मंगेशकर हैं.बस इस मुलाक़ात के बादलताजी के साथ बहुत आत्मीयता बनी रही.इस काम के तक़रीबन दो हज़ार रूपये मिले जो उस ज़माने में काफ़ी होते थे. इससे अपनी खोली को पुतवाया,नया पलंग ख़रीदा.बाद की जिन फ़िल्मों में काम किया जिनमें नीचा नगर,आँधियाँ,लेख प्रमुख थीं

पं.रविशंकर के साथ पहली बार संगति का क़िस्सा भी बहुत रोचक है. पंडितजी ने बताया
कि किसी परिचित ने रवि बाबू के साथ बजाने का आग्रह किया. मैने कहा एक शर्त है;
रवि बाबू को बताइयेगा नहीं कि मेरा नाम क्या है. पं.रविशंकर की संगति में तिहाईयाँ
बड़ी क्लिष्ट हुआ करतीं थी.हर एक तिहाई का जवाब दिया. रवि बाबू ने शुरूआत में ही
पूछा था किससे सीखते हैं आप ...मैने जवाब दिया कंठे महाराज से.रवि बाबू बोले
आजकल किशन महाराज का नाम भी खूब चल रहा है...मैने कहा मैने उनसे भी सीखा है.तिहाइयाँ जब और कठिन होतीं गईं तो भी मैने हिम्मत नहीं छोड़ी और सितार की हर
बात का जवाब दिया....पं.रविशंकर समझ गए...और गले लगा कर बोले....तुम ही किशन
हो मेरे भाई.विदूषी गिरिजा देवी,नटराज गोपीकृष्ण,विदूषी सितारा देवी,उस्ताद विलायत ख़ाँ की एकल प्रस्तुतियों और पं.वी.जी.जोग-उस्ताद बिसमिल्ला ख़ाँ की जुगलबंदी में किशन महाराज के तबले की कारीगरी यादगार रही है.

अपनी बात को पूरा करते करते ये ज़रूर कहना चाहूँगा कि सन साठ से लेकर
अस्सी तक ; जब प्रचार -प्रसार के साधन न के बराबर थे और जब संगीत की
दुनिया में आज जैसा ग्लैमर भी नहीं था पं.किशन महाराज सेलिब्रिटी की हैसियत
रखते थे. पंडितजी के जाने के बाद भी तबला गूँजता रहेगा लेकिन उसमें वह
बनारसी ठाठ गुम होगा जो किशन महाराज के वादन में सुनाई देता था.पखावज
जैसी परन बजाने वाले बेजोड़ फ़नकार थे किशन महाराज.सोलो,गायन,वादन और नृत्य
सभी विधाओं में में पं.किशन महाराज का कला-कौशल अदभुत था.
अति-विलम्बित से अति-द्रुत तक का चलन पं.किशन महाराज ने ही प्रारंभ किया.
अप्रचलित तालों को अपने वादन में ख़ूबसूरती से प्रकट करने वाले पं.किशन महाराज
महान ताल-सम्राट थे. लयकारी का वैभव किशन महाराज जी के साथ ही चला गया है और ख़ामोश हो गया तिहाइयों का तिलिस्म.

Monday, May 5, 2008

आज संगीतकार नौशाद नहीं ; शायर नौशाद से मुलाक़ात कीजिये !

जी हाँ ! आज मौक़ा भी है दस्तूर भी. महान संगीतकार
नौशाद साहब की बरसी है आज (५ मई) हम सब नौशाद मुरीद
उनकी संगीत यात्रा पर तो नज़र रखते ही हैं ; या यूँ कहूँ
अपने कानों को मालामाल रखते हैं लेकिन आज नौशाद साहब
के दिल में मौजूद रहने वाले एक लाजवाब क़लमकार से भी
रूबरू होते हैं.मुलाहिज़ा फ़रमाइये उनकी लिखी ग़ज़लों के अशाअर:


दुनिया कहीं बनती मिटती ज़रूर है
परदे के पीछे कोई न कोई ज़रूर है

जाते हैं लोग जा के फ़िर आते नहीं कभी
दीवार के उधर कोई बस्ती ज़रूर है

मुमकिन नहीं कि दर्द - ए - मुहब्बत अयाँ न हो
खिलती है जब कली तो महकती ज़रूर है

ये जानते हुए कि पिघलना है रात भर
ये शमा का जिगर है कि जलती ज़रूर है

नागिन ही जानिए इसे दुनिया है जिसका नाम
लाख आस्तीं मे पालिये डसती ज़रूर है

जाँ देके भी ख़रीदो तो दुनिया न आए हाथ
ये मुश्त - ए - ख़ाक कहने को सस्ती ज़रूर है

नौशाद झुक के मिल गई कि बड़ाई इसी में है
जो शाख़-ए-गुल हरी हो लचकती ज़रूर है


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ये कौन मेरे घर आया था
जो दर्द का तोहफ़ा लाया था

कुछ फ़ूल भी थे उन हाथों में
कुछ पत्थर भी ले आया था

अंधियारा रोशन रोशन है
ये किसने दीप जलाया था

अब तक है जो मेरे होंठों पर
ये गीत उसी ने गाया था

फ़ैला दिया दामन फ़ूलों ने
वो ऐसी ख़ुश्बू लाया था

नौशाद के सर पे धूप में भी
उसके दामन का साया था.

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और ये रहे चंद शे’र.....


अच्छी नहीं नज़ाकते एहसास इस क़दर
शीशा अगर बनोगे तो पत्थर भी आएगा


बस एक ख़ामोशी है हर इक बात का जवाब
कितने ही ज़िन्दगी से सवालात कीजिये

नौशाद उनकी बज़्म में हम भी गए थे आज
कैसे बचें हैं जानो-जिगर तुमसे क्या कहें

ये गीत नए सुनकर तुम नाच उठे तो क्या
जिस गीत पे दिल झूमा वो गीत पुराना था.



उम्मीद है नौशाद साहब को ख़िराजे अक़ीदत पेश करती
ये पोस्ट शायर नौशाद के क़ारनामे को आपके दिलों तक
पहुँचाएगी. हाँ ये बताता चलूँ कि उपर जारी की गईं दो ग़ज़लें
नौशाद साहब के म्युज़िक एलबम आठवाँ सुर में दस्तेयाब हैं