Sunday, July 20, 2008

न ये चाँद होगा न तारे रहेंगे,मगर हम हमेशा तुम्हारे रहेंगे.



गीता दत्त की बरसी पर एक श्रध्दांजली एक दिन पहले लिख ही
चुका था.कुछ मित्रों के इसरार पर आज गीता जी का ही गाया
एक गीत सुनिये. फ़िल्म शर्त से लिये गए इस गीत को लिखा
एस.एच.बिहारी ने और संगीतकार हैं हेमंतकुमार.संयोग से इस
गीत को हेमंत दा ने भी गाया है और ख़ासा मकबूल भी हुआ है.
इसी गीत को गीता जी की आवाज़ में सुनिये ...लगता है एक
क़ामयाब कलाकार अपनी निजी ज़िन्दगी की दास्तान बयाँ कर रही
है.गीता दत्त की गायकी का मज़ा ही ये कि वे अपनी खरज भरी
लोक-संगीत के लिये परफ़ेक्ट आवाज़ में उल्लास,मस्ती और दर्द
को एक सी अथॉरिटी के साथ गाती हैं.यही प्लै-बैक सिंगिंग का
हुनर भी तो है...चलिये सुनते हैं उनकी बरसी की संध्या बेला में
ये गीत.
boomp3.com

Friday, July 18, 2008

मिश्री सी मीठी आवाज़ की पुण्यतिथि है कल


दुनिया में कुछ चीज़ों की तुलना ही नहीं की जा सकती। तुलना तो ठीक, उनके लिए उपमाएँ ढूँढना भी एक मुश्किल काम हो जाता है। भारतीय फ़िल्म संगीत में गीता दत्त का नाम भी कुछ ऐसा ही है। गीताजी की आवाज़ की रिक्तता आज भी जस की तस है। संगीत के सात सुरों में भी ऐसा ही होता है। आप गंधार की जगह पंचम नहीं लगा सकते। गीता दत्त ख़ालिस गीता दत्त ही हैं, इस "ख़ालिस' ल़फ़्ज़ को गीता ने अपने हर गीत में साबित किया।

गीता दत्त की आवाज़ में भाव पक्ष मधुरता पर हमेशा रहा। उनके वॉइस कल्चर में शास्त्रीय संगीत का अनुशासन कतई नहीं था, किंतु उसमें शब्दों के अनुरूप भावनाओं का ऐसा सैलाब उमड़ता कि सुनने वाला ठगा-सा रह जाता। गीताजी के गानों की फ़ेहरिस्त बहुत लंबी नहीं, किंतु इन चुनिंदा गीतों में हर रंग, मूड, सिचुएशन की तर्जुमानी सुनाई देती है । शायद यही वजह है कि अपने कम काम के बाद भी गीता दत्त मकबूल हैं, विलक्षण हैं, अपवाद भी हैं। जैसे दाल में हींग की ज़रा-सी चुटकी उसके पूरे स्वाद में नयापन रच देती है, गीताजी ने भी गीतों में एक नया स्वाद गढ़ा।

पूर्वी बंगाल के एक रईस ज़मीदार के घर में जन्मीं गीता रॉय (अभिनेता-निर्देशक गुरु दत्त से विवाह के बाद दत्त हुईं) का परिवार विभाजन के व़क़्त मुंबई आया। बंगाल में लड़की को गाना आना उतना ही ज़रूरी होता है जितना खाना बनाना। इन्हीं संस्कारों में रमी हुई किशोरी गीता भी गाती थी, जिन्हें फ़िल्म "भक्त प्रहलाद' के एक कोरस गीत में प्रमुख स्वर के रूप में गाने का मौक़ा मिला। फ़िल्मों में लोक संगीत को प्रमुखता देने वाले स्वर्गीय सचिन देव बर्मन ने गीत सुना और गीताजी से अपनी फ़िल्म "दो भाई' में एक गीत गवाया। बोल थे ...मेरा सुंदर सपना बीत गया। महज़ पन्द्रह बरस की गीता को जैसे अपने सपनों को बुनने का पूरा बहाना दे गया यह गीत। गीत को याद कर आप ख़ुद ही अंदाज़ लगा लें कि गीताजी ने अपने पहले ही गीत में किस आत्मविश्वास से शब्द में दबे दर्द को उभारा है। क्या वह कोई और गायिका कर सकती थी?

सन् १९५१ में फ़िल्म "बाज़ी' में गीताजी के एक गीत की रेकार्डिंग चल रही है - तदबीर से बिगड़ी हुई तक़दीर बना ले। निर्देशक गुरुदत्त आवाज़ सुनकर ठिठक गए और पता लगाया कि कौन है ये गायिका ; परिचय होता है, बढ़ता है और १९५३ में दोनों परिणय-सूत्र में बॅंध जाते हैं।गीता और गुरु दोनो तुनकमिज़ाज थे। गीता विवाह के वक़्त एक परिचित नाम हो चुकी थीं, जबकि गुरदत्त को अभी नाम कमाना बाकी था। बस, यहीं कलाकार का अहं आड़े आ गया। एक बीते सपने की तरह हॅंसी-ख़ुशी और आत्मीयता गुम होती गई। पीड़ा और ख़लिश घर की बिन-बुलाई मेहमान बनकर एक कलात्मक संबंध को द्वंद्व में तब्दील कर देती है। लगता है यही ख़लिश इन जैसे जीनियस कलाकारों की "रचनात्मकता' की पैरहन है। शायद त्रासदी से ही उभरती है"क्रिएटीविटी', लेकिन क्या समन्वय से सर्जकता को ज़्यादा माकूल माहौल मुहैया नहीं करवाया जा सकता ? शायद गुरु-गीता की अपनी मजबूरियॉं हों। वैसे गीताजी ने
गुरुदत्त की तकरीबन सभी फ़िल्मों में गाया। बल्कि कुछ फ़िल्मों में से गीता और इन गीतों को निकाल देने से फ़िल्म के माने ही बदल सकते हैं। इसके लिए एक फ़िल्म साहब, बीबी और ग़ुलाम का ज़िक्र ही काफ़ी होगा। न जाओ सैंया छुड़ा के बैंया इस गीत में जो पीड़ा भरे इसरार का तक़ाज़ा है, वह गीता दत्त और मीना कुमारी की ज़िंदगी का दर्द भरा वास्तविक सफ़ा भी है


सिसक, माधुर्य, प्रलाप, उल्लास, दर्द और मादकता को समानाधिकार से व्यक्त करती गीता दत्त ने इन सभी भावों को व्यक्तिगत ज़िंदगी में भी ख़ूब भोगा। रिश्तों की टूटन, शोहरत, फिर काम का न मिलना। तपस्या और भाग्य से सितारा बना जा सकता है लेकिन सितारे की अस्ताचल बेला न जाने कितने दर्द,अवसाद और क्लेश को आमंत्रित करती है.गुरु दत्त के जाने के बाद गीता ज़बरदस्त "डिप्रेशन' का शिकार रहीं। गर्दिश ने अलग आ घेरा। तीन बच्चों की परवरिश के लिए स्टेज शो करने शुरू किए। बेदर्द फ़िल्मी दुनिया ने गीता दत्त जैसी ख़ुशबूदार आवाज़ को बिसरा देना शुरू कर दिया। १९७१ आते-आते गीता दत्त ने अपने आपको शराब में डुबो लिया और २० जुलाई को आँखे मूँद लीं। पंद्रह बरस की उम्र में शुरू हुआ "सुदर सपना' वाकई बीत गया।

सेहरा में आती ठंडी हवा की तरह गीता दत्त की आवाज़ संगीतप्रेमियों को आज भी झकझोरती है। मैं मानता हूँ कि तलत साहब की तरह गीता दत्त की आवाज़ एक ख़ास मकसद से गढ़ी गई थी। इसीलिए हज़ारों गीतों के गुलदस्ते में तलत और गीता दत्त रूपी फूलों की ख़ुशबू बेमिसाल है, बेशकीमती है। पाठक मित्र मुझसे सहमत होंगे कि मन्ना डे की ही तरह गीता दत्त को जो भी मान दिया जाना था, नहीं दिया गया, वरना ज़रा इन गीतों पर गौर करें तो आप ख़ुद-ब-ख़ुद अंदाज़ लगा लेंगे कि गीता की रुह, आवाज़ और तासीर किस चीज़ की बनी थी –

जय जगदीश हरे (आनंद मठ), दे भी चुके हम दिल नज़राना (जाल), जाने क्या तूने कही (प्यासा), कोई दूर से आवाज़ दे चले आओ (साहब बीबी और ग़ुलाम) मेरा नाम चिन चिन चू (हावड़ा ब्रिज), जा जा जा, जा बेवफ़ा (आर-पार) जोगी मत जा (जोगन) मुझे जॉं न कहो मेरी जान(अनुभव) आदि ऐसे नायाब नगीने हैं जिन पर आज भी गीता दत्त का नाम हमारे दिलों में महफ़ूज़ है। गीता दत्त अपने नाम की तरह एक पवित्र स्वर है। संगीत का कारोबार फलता-फूलता रहेगा, गायक-गायिका आएँगे-गाएँगे, गीत रचे जाएँगे, लेकिन गीता दत्त की आवाज़, उनका फ़न, उनकी शख़्सियत सुबह के सच होने वाले सपने की ख़ुशी देती रहेगी।

आइये इस मिश्री सी मीठी आवाज़ को भी सुनते चलें.

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Thursday, July 17, 2008

कविता में हमेशा अपने अवसाद को उड़ेलने वाले अशोक वाजपेयी.



पिछले सप्ताहांत में देश के जाने माने कवि,आलोचक,संस्कृतिकर्मीं और ललित कला अकादमी के अध्यक्ष श्री अशोक वाजपेयी माँडू प्रवास पर मालवा में थे.संस्कृति प्रशासक के रूप में अशोकजी ने अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाई है.उनकी कार्यशैली को लेकर हमेशा विलाप होता रहा है लेकिन वे हैं अपने तरीक़े से काम किये जाते हैं.लोकोक्ति सी बन गई है कि जिस दिन अशोक वाजपेयी का एक आलोचक पैदा होता है उसी दिन उनके चार प्रशंसक भी पैदा हो जाते हैं.अलमस्त तबियत के अशोक वाजपेयी तनाव के क्षणों में भी ठहाका लगाते देखे जा सकते हैं जो उनकी देहभाषा का
स्थायी भाव बन गया है.

एक समर्थ कवि के अलावा रंगकर्मे,शास्त्रीय संगीत,चित्रकारी,विश्व-कविता और नृत्य पर उनकी गहरी सूझ हमेशा चौंकाती है. यहाँ माँडू में भी उन्होने देश के जाने माने चित्रकारों के साथ तीन दिन बिताए और भीगते माँडू के शिल्प (माँडू के चित्र भी इसी ब्लॉग पर आप शीघ्र ही देखेंगे.इसी दौरान राज एक्सप्रेस के कला संवादताता और मित्र पत्रकार चंद्रशेखर शर्मा ने अशोक जी से मुख़्तसर सी बातचीत की;यहाँ जस की तस रख रहा हूँ उसे.-संप.




बात भारत भवन से शुरू करेंगे। बताइए, आपकी निगाह में उसकी दुर्दशा के लिए कौन ज़िम्मेदार है?

मेरे हिसाब से इसके लिए तीन शक्तियॉं ज़िम्मेदार हैं। एक, मध्यप्रदेश की राजनीति। चाहे वो कांग्रेसी हों या भाजपाई, दोनों इस मामले में राजनीति से ऊपर उठकर सोचने की हिम्मत नहीं कर पाए। दूसरी है नौकरशाही, जो कला एवं संस्कृति के प्रति असंवेदनशील सिद्ध हुई और तीसरी है व्यापक समाज का निर्लिप्त भाव। इस मामले में समाज को आवाज़ उठाने की ज़रूरत थी, जो कि नहीं उठाई गई। (ठीक फुहारों की तरह उनके शब्द भी हौले-हौले और झूलते-से कानों में उतर रहे थे, भ्रम में डालने वाले अंदाज़ में कि कहीं कविता तो नहीं?)

क्या कारण है कि कवि को कविता छोड़कर आलोचना का रुख करना पड़ा?

नहीं, नहीं, कविता को मैंने छोड़ा नहीं है। मेरा ताज़ा वाला काव्य संग्रह तो अभी कुछ समय पहले ही आया है। इसके अलावा मेरे अभी तक कुल १३ काव्य संग्रह आ चुके हैं और जितने भी मेरे हम उम्र कवि हैं, उनमें से किसी के भी इतने काव्य संग्रह नहीं आए। रही बात आलोचना की, तो वे शुरू से कर रहा हूँ। छियासठ में मेरा पहला काव्य संग्रह आया था और सत्तर में आलोचना की मेरी पहली पुस्तक आ गई थी। सो, मैं ४५ साल से आलोचक और ५० साल से कवि हूँ, केवल पांच साल का तो फ़र्क है। फिर मैंने केवल साहित्य की आलोचना नहीं की, संगीत, नृत्य और कला की आलोचना भी की और जिस पैमाने पर की, उस पैमाने पर किसी और ने नहीं की। उसी का प्रतिफल है कि बुनियादी तौर पर साहित्यकार होने के बावजूद मुझे ललित कला अकादमी का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। (तर्क एकदम से चितेरा हो जाता है।)

अच्छा ये बताइए कि आप तो बड़े सरकारी अफ़सर भी रहे, क्या कभी आपके अफ़सर ने आपके कवि को कोई नफ़ा-नुकसान पहुँचाया या वाइसेवरसा ?

बात ये है कि अव्वल तो मैंने दोनों को हमेशा भरसक अलग-अलग रखा, फिर कवि तो अफ़सर का क्या नुकसान करता, उलटे अफ़सर ज़रूर कवि का नुकसान कर सकता था, लेकिन मैं इस मामले में सतर्क और चौकन्ना रहता था। दरअसल ये मेरे निंदकों की उड़ाई हुई है कि मैं अफ़सर-कवि रहा, जबकि हक़ीक़त इससे ठीक उलटी है। (सहजता बरक़रार है)

ये भी कहा जाता है आप अभी मुख्यधारा के कवियों में शुमार नहीं हैं।



मुख्धारा में न रहे न सही, अपनी धारा में तो रहे। इसका न कोई क्लेश है, न संताप है और सही बात तो यह है ऐसी आकांक्षा कभी रही भी नहीं।

एक कवि होने के लिए सबसे ज़रूरी चीज़ या चीज़ें क्या होती हैं?


इसके लिए तीन चीज़ें चाहिए होती हैं। एक, भाषा से खेलने का उत्साह। दूसरा, अकेले पड़ जाने से घबराहट का अभाव, यानी एकांत चाहिए होता है और तीसरा, है कविता कोई आवरण नहीं है कि उसे ओढ़कर सच्चाई को उससे ढांप लें।

ख़ुद को कविता में कैसे व्यक्त करना चाहेंगे?


मैं बाहर से हंसमुख, अंदर से उदास और कविता में हमेशा अपने अवसाद को उड़ेलता हुआ व्यक्ति हूँ।

Sunday, July 13, 2008

आज मदन मोहन की बरसी और बाँसुरी पर बजते उनके गीत

आज यानी 14 जुलाई को अपने संगीत से जादूगरी करने वाले अज़ीम मौसिकार
मदन मोहन जी की बरसी है (निधन वर्ष : 1975) मदन जी का संगीत तो हम
वर्ष भर सुनते ही रहते हैं क्योंकि वह किसी तारीख़ या कालखण्ड का मोहताज
नहीं है ; आपको मदन मोहन के संगीत नियोजन में लता मंगेशकर
के गाये कई गीत सुनने को मिल जाते हैं ; लेकिन आज कोई नई चीज़ परोसी
जाए आपको.

हमने कई बार महसूस किया है कि किसी भी गीत की ताक़त होती है उसकी
धुन (हालाँकि संगीतकार को क्रेडिट देने के मामले में हम आज भी थोड़े कंजूस ही हैं)
इसी बात को साबित करने के लिये आज आपके लाया हूँ मदन मोहन का संगीत
लेकिन उसमें शब्द नहीं हैं. गीत हम सुनेंगे बाँसुरी पर , मेरा दावा है कि
शब्द स्वत: ही आपके होठों पर आकर थिरकने लगेंगे.इसे बजाया है
मेरे बाल सखा और मध्य-प्रदेश के जाने माने कलाकार सलिल दाते ने.

सलिल दाते को शास्त्रीय संगीत की तालीम देश के जानी मानी वॉयलिन
वादिका डॉ.एन.राजम और बाँसुरी वादक पं.रोनू मुजुमदार से मिली है.
सलिल वॉयलिन और बाँसुरी दोनो ही वाद्यों मे निष्णांत हैं.
सलिल बेहतरीन संगीतकार भी हैं और तलत महमूद और
संगीतकार मदन मोहन के अनन्य मुरीद.बेहद कोमल और भावुक
सलिल दाते एक राष्ट्रीयकृत बैंक मे कार्यरत हैं
लेकिन उनका पहला प्यार है संगीत और सिर्फ़ संगीत.

हाँ ये भी बता दूँ कि सलिल दाते के वादन को मदन मोहन जी के सुपुत्र संजीव कोहली ने भी बहुत सराहा और प्रतिक्रियास्वरूप एक पत्र में लिखा कि मेरे पिता के संगीत की ख़ूबियाँ बाँसुरी जैसे क्लिष्ट वाद्य में आपने जिस तरह से उभारीं हैं वह तो उल्लेखनीय है ही ; साथ ही आपकी निजी सांगीतिक सोच भी वादन के सुरीलेपन में इज़ाफ़ा करती है.यदि आप भी सलिल को अपना प्रतिसाद देना चाहें तो उनका मोबाइल नम्बर नोट कर लें 09425346188

सुनते हैं बाँसुरी पर मदन मोहन के ये जो एक धुन के रूप में आप से मुलाक़ात
करने जा रहे हैं फ़िर भी उनका प्रभाव यथावत है.पहले ट्रेक में सलिल दाते के
एलबम मेरा साया साथ देगा का परिचय ख़ाकसार की आवाज़ में है
. हाँ ये एलबम
विशुध्द रूप से लताजी और मदन मोहन जी के गीतों पर ही एकाग्र है.








नैनों मे बदरा छाये ये आख़िरी पेशकश है सलिल दाते की जो सवेरे पूरी नहीं सुनाई दे रही थी.अब इसे फ़िर से लगाया है . आशा है राग भीमपलासी का पूरा रंग आपको मदन मोहन जी की यादो मे भिगो देगा.

चलते चलते ये भी बता दूँ कि बाँसुरी वादक सलिल दाते और संगीतकार मदन मोहन जी पर एकाग्र इस पोस्ट को आज कई संगीतप्रेमियों ने पढ़ा जिनमें से एक थे मदन मोहन जी के सुपुत्र श्री संजीव कोहली. उन्होंने ईमेल के ज़रिये अपनी जो बात कही वह भी इस पोस्ट को संपादित कर यहीं शुमार किये दे रहा हूँ

Dear Sanjayji

Thank you so much for remembering our dear father on this day.

It is admirers like you who keep him alive through the appreciation of his work even after 33 years of his leaving us.

I read and enjoyed your blog as well as the Shrota Biradari blog.

pl. once again convey my regards to Salil Dateji

All the best

Sanjeev Kohli

Saturday, July 12, 2008

अब ढूँढे न मिलेगी ऐसी संजीदगी.

कृष्णचंद्र शुक्ल एक नेक दिल, सादा तबियत इंसान.ज़बरदस्त स्वाध्यायी.
लायब्रेरी में जाकर देश के तमाम अंग्रेज़ी-हिन्दी अख़बार पढ़ डालते.मेडीकल
काँलेज इन्दौर में कार्यरत थे.पिछले बरस गुज़र गए. आज अनायास याद आ गए.
किसी भी सामयिक विषय पर उनके सैकड़ों पत्र देश भर के अख़बारों
के संपादक के नाम पत्र स्तंभ में छपते थे.

सायकल पर चलते रहे ताज़िन्दगी,आँखों पर चश्मा,चेहरे पर दूधिया खिचड़ी
दाढ़ी.एक दिन अनायास मेरे दफ़्तर आए.अभिवादन किया मैने उनका.उम्र में
मेरे पिता से बड़े थे तो ताऊजी संबोधित करता था उनको.सलाम-दुआ के बाद
कुछ ताज़ा विषयों पर बात आ गई . मैने पूछा कैसे आना हुआ. बोले तुमने पिछले
दिनों एक पेपर भेजा था मुझे ? मैंने कहा हाँ मिल गया होगा.बोले हाँ वह तो ठीक है
लेकिन तुम्हें याद है संजय वह तुमने बुक – पोस्ट से भेजा था.मैंने कहा हाँ .
अख़बार था सो एक रूपये का टिकिट लगा कर भेजा था. शुक्ल जी बोले
तुमने उस अख़बार में एक चिट्ठी भी रख दी थी..हाँ मैने कहा..वह अख़बार
क्यों भेजा था उसके बारे में एक छोटी सी टिप्पणी थी उस स्लिप पर.
शुक्लजी बोले बुक पोस्ट का मतलब यह नहीं कि हम खुली डाक में
कुछ भी रख दें.तुमने अख़बार में एक छोटी सी स्लिप ही क्यों न रखी हो
वह नितांत ग़लत काम है.अख़बार में कोई काग़ज़ रखना था तो उसे लिफ़ाफ़े
में रखकर पाँच रूपय का टिकिट लगा कर पोस्ट करना चाहिये था.
मैंने उसी वक़्त कान पकड़े कि आज के बाद कभी ये
गुस्ताख़ी न होगी.उन्होंने कहा कि पोस्टमेन ने हालाँकि इसका नोटिस नहीं लिया
लेकिन हमें तो इस देश के एक सजग नागरिक के रूप में क़ानून-क़ायदे का
अनुसरण करना चाहिये.किसी ने देखा नहीं तो क्या ; अनैतिकता तो अनैतिकता ही होती है
बात छोटी सी थी लेकिन मेरे मन पर अंकित हो गई.
ये भी समझ में आया कि नैतिकता के तक़ाज़े क्या होते हैं.कृष्णचंद्र शुक्ल उठकर जाने को थे कि मेरी नज़र उनके शर्ट की जेब पर पड़ गई.
मैने पूछा ताऊजी क्या पोस्ट ऑफ़िस से आ रहे हैं.बोले नहीं.मैने पूछा तो फ़िर
आपके जेब में इतने सारे पोस्ट कार्ड्स ? शुक्ल जी बोले , संजय हर वक़्त जेब में
कम से कम दस पोस्ट कार्ड्स रखे रखता हूँ.कोई विचार आया किसी अख़बार में
संपादक के नाम पत्र के लिये,तो सायकल सड़क के किनारे लगाई और सीट पर
लिख डाले अपने विचार.और घर पहुँचने के पहले जो भी निकटस्थ पोस्टबॉक्स
दिखाई दिया ..कर दी चिट्ठी पोस्ट.मैंने कहा इतनी जल्दबाज़ी विचार को लिख डालने
की क्यों ? बोले विचार का क्या है सही पते पर आ गया तो आ गया और नहीं
चिट्ठी को बेरंग होने में वक़्त थोड़े ही लगता है.मैने कहा मतलब समझा नहीं ताऊजी.शुक्लजी बोले देखो विचार आया और उसे पकाते हुए घर पहुँचो,पानी पियो,
सुस्ताओ,कोई आकर बैठा है या कोई डाक आई हुई है ...इतने में तो दिमाग़ में मेहमाँ हुआ ख़याल काफ़ूर हो जाता है.बस इसीलिये ये दस पोस्टकार्ड्स चाक-चौबंद से
जेब में दमकल से तैयार रहते हैं......

आज कृष्णचंद्र शुक्ल नहीं हैं और न ही हैं अख़बारों में नियमित रूप से प्रकाशित होने
वाले उनके पत्र , लेकिन उनकी याद और नसीहत दिल में हमेशा बसी रहती है.हाँ अपनी बात ख़त्म करते करते ये भी बताता चलूँ कि शुक्लजी गीता पर एक अथॉरिटी
थे और महज़ दस बारह पेजों में उन्होंने सीधी-सच्ची गीता शीर्षक से एक पुस्तिका का प्रकाशन भी किया था जिसे पढ़ कर आप पूरा गीता सार जान सकते हैं.उन्हें गीता
के अनेक श्लोक मुखाग्र याद थे.कहते हैं न एक बुज़ुर्ग के चले जाने से एक लायब्रेरी जल जाती है.

Sunday, July 6, 2008

शहर को चलाना है;सियासत को नहीं;रहम खाओ-सियासत न चलाओ

कर्फ़्यू के साये में बेहोश मेरे प्यारे शहर के दिन-रात
इसकी लय और गति को बाधित कर रहे हैं.बच्चे,बूढ़े
हिन्दू,मुसलमान,बड़े –छोट,अमीर-ग़रीब...सब दुआ कर रहे
हैं अरमानों का ये शहर सियासत से मुक्त हो कर अपने रंग
में आ जाए.मेरी बात पढ़ते पढ़ते आपको लगे मैं कि मैं ठीक कह
रहा हूँ तो गुज़ारिश है आपसे कि अपनी तमाम प्रार्थनाओं
में मेरे दुलारे शहर को भी शरीक कर लें.


ख़ून चलेगा ,पत्थर चलेगा
सियासत न चलाओ

गोली चलेगी,ज़ख़्म चलेंगे
सियासत न चलाओ

इन्तज़ार चलेगा,भूख चलेगी
सियासत न चलाओ

कर्फ़्यू चलेगा,पुलिस चलेगी
सियासत न चलाओ

रोना चलेगा,आँसू चलेंगे
सियासत न चलाओ

कड़वा चलेगा,तल्ख़ी चलेगी
सियासत न चलाओ

दूरी चलेगी,तनाव चलेगा
सियासत न चलाओ

ख़ामोशी चलेगी,भाषण चलेंगे
सियासत न चलाओ

झूठे वादे चलेंगे,आहें चलेंगी
सियासत न चलाओ

शहर चलेगा,सियासत न चलेगी
रहम खाओ, सियासत न चलाओ

इन्दौरनामा और मोहल्ला पर भी देखें मेरे शहर और मेरे दु:ख के शब्द चित्र

इन्दौरनामा में जारी 'ये सिर्फ़ एक शहर नहीं ; इंसानियत की आवाज़ है' शीर्षक की कविता को नईदुनिया और
मोहल्ला मे जारी 'ये किसका लहू है कौन गिरा' शीर्षक की कविता को दैनिक भास्कर ने प्रमुखता से प्रकाशित किया है।
इस प्रकाशन के लिये दोनो प्रकाशनों और मोहल्ला के अविनाश भाई का शुक्रिया अदा करता हूँ।

Thursday, July 3, 2008

अपने दिल से पूछिये! क्या जनरल मानेकशॉ के साथ ठीक किया हमने ?


सेना का एक ज़ाँबाज़ महानायक था वह.उसके परिदृष्य पर आने के बाद
भारतीय सेना की प्रतिष्ठा पूरे विश्व में फ़ैली. जनरल मानेकशा ने सन 1971
के युध्द में देशवासियों के आत्मविश्वास और स्वाभिमान में अविश्वसनीय
इज़ाफ़ा किया. एक प्रश्न छोड़ रहा हूँ आप तक.ज़रा अपने दिल से पूछियेगा.
छोटा मोटा राजनेता गुज़र जाता है ; प्रदेश सरकार राजकीय शोक की घोषणा
कर देती है.राजनीतिक पार्टी के प्रमुख का निधन हो जाए राष्ट्रीय शोक हो जाता
है.
फ़ील्ड मार्शल मानेकशा के निधन पर उनके
सम्मान में राष्ट्रीय शोक क्यों नहीं घोषित किया गया ?


कोई राष्ट्रीय स्तर का नेता उनकी अंत्येष्टी में नहीं पहुँचा.
समाचार पत्रों में ख़बरें छपीं,चैनल्स पर पुरानी फ़िल्मों की रील चली...
चलो हो गई इतिश्री.

दु:ख होता है सोचकर..मेरे शहर में एक फ़िल्म को प्रोमो के लिये
बिग-बी कहे जाने वाले अमिताभ बच्चन नहीं पहुँच पाते तो युवक/युवतियाँ
रोने लगतीं हैं....अख़बार रोते हुए बिग-बी प्रेमियों की तस्वीरें छापते हैं.
जनरल मानेकशा ने इस देश की सरहद को सुरक्षित रखने के लिये
जो किया ; क्या किसी को बताने की ज़रूरत है ?

हद है एक सच्चे
महानायक के लिये हमारी आँखों की कोर नहीं भीगती.क्या हम एक
ढोंगी और दोगले समय में नहीं जी रहे
?