
एकल वादन हो या संगति पंडित किशन महाराज जिस भूमिका में होते
तो वस वे ही वे होते.देश के शीर्षस्थ और गुणी कलाकारों के साथ उन्होंने
संगति की और बनारसी बाज को प्रतिष्ठित किया. जिस ज़माने में पंडितजी
परिदृष्य पर आए तब शास्त्रीय संगीत का लाजवाब माहौल था और देश में
एक से बेहतरीरन जल्से नुमाया होते थे. पं.अनोखेलाल,पं.चतुरलाल,पं.सामताप्रसाद
उस्ताद अल्लारखा और उस्ताद लतीफ़ अहमद के तबला वादन का जादू सर चढ़
कर बोलता था. दिल्ली,मुंबई,पुणे,लख़नऊ,बनारस,इलाहाबाद,जलंधर और इन्दौर की
अनेक संस्थाएँ सीमित साधनों के बावजूद संगीत सम्मेलनों का आयोजन करतीं थी.
इन्दौर के अभिनव कला समाज ने पचास के दशक में क्लासिकल मौसिक़ी
के कार्यक्रमों को आयोजित करने का सिलसिला शुरू कर दिया था और तब ही
पंडित किशन महाराज इन्दौर आते रहे.ये सिलसिला निर्बाध रूप से नब्बे के दशक
शुरूआत तक चलता रहा .
सन २००६ में उज्जैन जाते हुए पं.किशन महाराज अपने मुरीद और
छायाकार श्री हँसकुमार जैन और मेरे आग्रह पर इन्दौर पंद्रह मिनट के लिये
रूकने वाले थे लेकिन रूक गए दो घंटे के लिये. बातों का सिलसिला जब चला तो
पंडितजी ने बताया की सन १९४३ में वे मुंबई गए अपनी क़िस्मत आज़माने.पहलवानी
शरीर था उन दिनों और सुबह चार बजे उठ कर खूब रियाज़ करने का नियम बना
लिया था. पहलवानी क़द -काठी होने के कारण लोग मुझे बनारसी ग़ुंडा ही समझते थे.
जिस कमरे में रहते थे उसमें संगीतकार नौशाद उनके रूम-मेट थे वे भी मुम्बई
फ़िल्म इंडस्ट्री मे संघर्ष कर रहे थे .
पंडितजी ने बताया कि एक स्टुडियो से दूसरे स्टुडियो घूमते हुए दिन बीत जाता था.
एक दिन संगीतकार के.दत्ता ने किशन महाराज से इसरार किया कि एक डांस सिचुएशन
में मशहूर तारिका और नृत्यांगना सितारा देवी के साथ तबला संगति जम नहीं रही है
क्या आप बजा पाएंगे ? कंपोज़िशन सुना और चार दिन बाद फ़ायनल रेकार्डिंग का
वादा कर दिया. बजा तो उसी दिन सकता था लेकिन क्या है कि मुंबई में अपना माल फ़ट से परोस दो तो काम का मोल नहीं लगता न ! ख़ैर...जिस दिन रेकार्डिंग थी उस दिन पास खड़ी एक लड़की से कहा पानी पिला दोगी...वह झट से मटके में से पानी ले आई,बाद में संगीतकार दत्ता ने परिचय करवाया ये लता मंगेशकर हैं.बस इस मुलाक़ात के बादलताजी के साथ बहुत आत्मीयता बनी रही.इस काम के तक़रीबन दो हज़ार रूपये मिले जो उस ज़माने में काफ़ी होते थे. इससे अपनी खोली को पुतवाया,नया पलंग ख़रीदा.बाद की जिन फ़िल्मों में काम किया जिनमें नीचा नगर,आँधियाँ,लेख प्रमुख थीं
पं.रविशंकर के साथ पहली बार संगति का क़िस्सा भी बहुत रोचक है. पंडितजी ने बताया
कि किसी परिचित ने रवि बाबू के साथ बजाने का आग्रह किया. मैने कहा एक शर्त है;
रवि बाबू को बताइयेगा नहीं कि मेरा नाम क्या है. पं.रविशंकर की संगति में तिहाईयाँ
बड़ी क्लिष्ट हुआ करतीं थी.हर एक तिहाई का जवाब दिया. रवि बाबू ने शुरूआत में ही
पूछा था किससे सीखते हैं आप ...मैने जवाब दिया कंठे महाराज से.रवि बाबू बोले
आजकल किशन महाराज का नाम भी खूब चल रहा है...मैने कहा मैने उनसे भी सीखा है.तिहाइयाँ जब और कठिन होतीं गईं तो भी मैने हिम्मत नहीं छोड़ी और सितार की हर
बात का जवाब दिया....पं.रविशंकर समझ गए...और गले लगा कर बोले....तुम ही किशन
हो मेरे भाई.विदूषी गिरिजा देवी,नटराज गोपीकृष्ण,विदूषी सितारा देवी,उस्ताद विलायत ख़ाँ की एकल प्रस्तुतियों और पं.वी.जी.जोग-उस्ताद बिसमिल्ला ख़ाँ की जुगलबंदी में किशन महाराज के तबले की कारीगरी यादगार रही है.
अपनी बात को पूरा करते करते ये ज़रूर कहना चाहूँगा कि सन साठ से लेकर
अस्सी तक ; जब प्रचार -प्रसार के साधन न के बराबर थे और जब संगीत की
दुनिया में आज जैसा ग्लैमर भी नहीं था पं.किशन महाराज सेलिब्रिटी की हैसियत
रखते थे. पंडितजी के जाने के बाद भी तबला गूँजता रहेगा लेकिन उसमें वह
बनारसी ठाठ गुम होगा जो किशन महाराज के वादन में सुनाई देता था.पखावज
जैसी परन बजाने वाले बेजोड़ फ़नकार थे किशन महाराज.सोलो,गायन,वादन और नृत्य
सभी विधाओं में में पं.किशन महाराज का कला-कौशल अदभुत था.
अति-विलम्बित से अति-द्रुत तक का चलन पं.किशन महाराज ने ही प्रारंभ किया.
अप्रचलित तालों को अपने वादन में ख़ूबसूरती से प्रकट करने वाले पं.किशन महाराज
महान ताल-सम्राट थे. लयकारी का वैभव किशन महाराज जी के साथ ही चला गया है और ख़ामोश हो गया तिहाइयों का तिलिस्म.