Wednesday, April 30, 2008

सच बहुत ख़तरे में है इन दिनों !

सच बहुत ख़तरे में है इन दिनों !
उसका बरबाद होना
अख़बार के लिये बैनर हेडलाइन हो सकती है
टीवी चैनल्स के लिये
ब्रेकिंग न्यूज़
सत्य पाने के लिये मित्र तो मित्र
माँ के जाये भाई को भी मशक़्कत करनी पड़ रही है
दरअसल झूठ इतना प्यारा,दुलारा
और सुरक्षित हो चला है कि
सच का सामीप्य कष्ट दे रहा है
मौसम प्रेरित कर रहा है कि
कन्नी काट लो सच से
देखेंगे बाद में
अभी क्या फ़र्क़ पड़ता है झूठ से
सब चलता है यार....

इस तर्ज़ पर सत्य टरका दिया जा रहा है


हो सकता है आने वाले दिनों में
’सत्य क्लिनिक’ खुलने लगें
जहाँ सिखाया जाए कि
कैसे साधें सत्य ,

सुहाने सच नाम का
म्युज़िक एलबम जारी कर
दें कंपनियाँ ,
एक वेबसाइट भी बन जाए
www.सत्य.com ,
कोई सत्यदेवजी महाराज
पचास हज़ार लोगों के लिये

सत्य के लाभ
नाम का विशाल शिविर भी लगा दें


तब भी कहता हूँ...
शर्तिया...
सत्य नहीं सधेगा
क्योंकि सच सिखाने वाले
एलबम बनाने वाले
शिविर लगाने वाले
सभी झूठे हैं
झूठ का पब्लिक इश्यू
अब हमेशा ओवर सब्सक्राइब होता रहेगा
’सत्य’ इंण्डस्ट्रीज़
पर ताले लगना तय हैं

बचेगा या दस्तेयाब होगा
यदि सच तो.....
किसी जवान लड़की की
चिंतित माँ की आँखों में
विदेश में जा बसे बेटे
के बूढ़े बाप के इंतज़ार में
बादलों के बरसने की प्रतीक्षा
करते किसान की विकलता में

या फ़िर उन सबके दिलों में
जो झूठ को क़ामयाब होते देख रहे हैं
और जानते हैं कि आख़िर जीत
तो सच की होगी।

Tuesday, April 29, 2008

क्या वाक़ई आपका आशीर्वाद ही उपहार है ?


नहीं ! नहीं ! पापा डॉंटेंगे; अंकल दूसरों से भी लेना पड़ेगा; प्लीज़ ! ये झूमाझटकी आजकल चल रहे स्वागत समारोहों के मंच पर आम बात है। पत्रिका में आजकल ये पंक्ति लिखी देखने में आ रही है; आपका आशीर्वाद ही उपहार है। न लाए उपहार; मात्र शुभकामना-दुलार। आपकी उपस्थिति ही श्रेष्ठ उपहार होगी। आशीर्वाददाता यानी आप, हम, सब आजकल बड़ी चिंता से ये पंक्ति कुमकुम पत्रिका में ढूँढते हैं। ये पंक्ति मिल जाए तो गंगा नहाए। बड़ी लम्बी और राहत की सांस लेते हैं कि चलो फलाने जी के रिसेप्शन में कुछ नहीं ले जाना है। रिसेप्शन में लड्डू बाद में खाते हैं पर पत्रिका में ये पंक्ति पढ्ते ही मन में लड्डू फूट पड़ते हैं। "उपहार न लाएँ' यह आग्रह कभी मन में आदर का भाव उपजाता था। आजकल ये पंक्ति पढ़कर विचार आता है कि फलॉं साहब तो अब बड़े आदमी हो गए; हमारे ग्यारह और इक्कीस रुपये से तो डेकोरेटर का ठेला भाड़ा भी नहीं निकलेगा। अब हर व्यक्ति इक्यावन और एक सौ एक भेंट भी तो नहीं कर सकता। एक झमेला और कि अब आयोजन भी इतने होने लगे हैं कि यदि लग्नसरा में पंद्रह/बीस आयोजन "एट द रेट हंड्रेड इच' सल्टाए तो मालूम पड़ा दो महीने में आने वाले रु.२०००/- का किराना बजट ही सलट गया है। निमंत्रण भी आजकल आत्मीयता और रिश्तेदारी के आधार पर कम और "पब्लिक रिलेशन' के आधार पर ज़्यादा बॅंट रहे हैं। उपहार या नक़दी न लाने का आग्रह होने पर भी कई लोग लिफ़ाफ़ा ले जाकर झूठा प्रपंच करते हैं और बेचारे दूसरे अतिथियों को वाकई मुश्किल में डालते हैं जो सतर्कता से ये पंक्ति पढ़कर "सिंसियरली' लिफ़ाफ़ा नहीं लाए हैं। नवल-युगल की बुरी गत है। ले लो तो पापा नाराज़; न लो तो अंकलजी नाराज़। समाधान एक ही है कि जब नेगचार लेना ही नहीं है तो "दुल्हा-दुल्हन' को मंच पर "डिसप्ले' का ढकोसला मत कीजिये प्लीज़। खड़ा कर दीजिये दरवाज़े पर। वहीं प्रणाम करते हुए साबित कर देंगे...... कि वाकई आपका आशीर्वाद ही उपहार है।

एक अनाम आयरिश कवि कहता है ...प्रेम करने के लिये समय निकालें

जीवन और चिंतन को उर्जा से भर देने वाली एक आयरिश कविता आपके साथ बांट रहा हूं.
वक़्त अपनी रफ़्तार से आगे जा रहा है।हमें इस बात का अहसास होना चाहिये कि सिर्फ़ वक़्त ही नहीं बीत रहा उसके साथ हम भी बीत रहे हैं. ये कविता हमारे सीमित समय में से बहुत कुछ असीमित और अपने लिये करने को प्रेरित करती है.ये भी सनद रहे कि लिखा तो सब अच्छा ही जा रहा है ॥या गया है....पढा़ भी अच्छा जा रहा है ...लेकिन क्षमा करें मनन और आचरण के स्तर पर हमसे बड़ा हिप्पोक्रेट न मिलेगा (जी... मैं भी शामिल हूं इसमें)

शब्द संपदा तो एक सुरभि बन कर हमारे पास आती है , किताबों,पत्रिकाओं या बुज़ुर्गों की सीख से रूप में ॥लेकिन हम ही शायद चूक जाते हैं उस गंध का आनन्द लेने से। मै निराशवादी नहीं हूं..क्योंकि उम्मीद पर ही तो टिकी है सारी दुनिया..चलिये इसी कविता के साथ जीवन में एक नए,सुरीले,चैतन्य सोच को विकसित करने का प्रयास तो किया ही जा सकता है .
आइये पढिये ये आइरिश कविता.....

काम के लिये समय निकालें
यह सफलता का मूल्य है.

चिंतन के लिये समय निकालें
यह शक्ति का स्त्रोत है

खेल के लिये समय निकालें
यह अक्षय यौवन का रहस्य है

अध्ययन के लिये समय निकालें
यह आनंद का मार्ग है

स्वप्नों के लिये समय निकालें
यह उत्कर्ष का पहला क़दम है

प्रेम करने के लिये समय निकालें
यह दिव्यता की अनुभूति है

अपने चहुँओर देखने के लिये समय निकालें
स्वार्थों के लिये दिन बहुत छोटा है

उल्लास के लिये समय निकालें
यह आत्मा का संगीत है.


यह शब्द पढ़ने के बाद आपके आगामी दिन सुदिन बनें
हां एक गुज़ारिश ...आपको वाक़ई लगे कि इन शब्दों में सकारात्मक संदेश हैं
तो और मित्रों और परिजनों के बीच इन शब्दों को संक्रामक बनाएं.खा़सकर नौजवानों में.वे ही हमारी उम्मीद हैं ..उन्हीं से हमें आस है..वे हमारा विश्वास हैं
टीप : कवि का नाम मैं ढूंढ रहा हूं कई दिनों से...इसमें आपकी मदद का स्वागत है.

Monday, April 28, 2008

क्षमा पात्र यह द्वार तुम्हारे; एक अकिंचन लेकर आया !

कविता मेरा इलाक़ा नहीं लेकिन विरासत में मिला संस्कार है।अनुभूति या अनुभव के स्तर पर कभी कभी कुछ भाव उमड़ते हैं वैसे ही जैसे बिन मौसम बादल बरसते हैं।मेरा मानना है कि हर व्यक्ति के मन में संगीत और कविता का अंडर-करंट होता है और वक़्त-बेवक़्त वह अभिव्यक्त हो ही जाता है.कविता-गीत-संगीत मुझे विरसे में वैसे ही मिले हैं जैसे मुझे मेरा जिस्म और ख़ून.और इसलिये यदि किसी पंक्ति पर यदि आपकी दाद मिलेगी तो पूरी ईमानदारी से मै उसे मेरे बाप-दादाओं की यश की बही में लिख देना चाहूंगा.मुलाहिज़ा फरमाएं

अहंकार से मन भरमाया
वाणी दूषित रोगी काया.

दुर्लभ जन्म मिला मानव का
इसको क्यों फ़िर क्षुद्र बनाया.

निहित स्वार्थ में जिया है जीवन
दृष्टी -वृत्ति मन कैसा पाया.

क्षण क्षण कितने हुए निरर्थक
अर्थ न जाना व्यर्थ कमाया.

स्वीकारो श्रद्धा-अनुनय यह
प्रेम-दान दो शीतल छाया.

क्षमा-पात्र यह द्वार तुम्हारे
एक अकिंचन लेकर आया.

Sunday, April 27, 2008

’गँवई मन और गाँव की याद’

म.प्र. के साहित्य लेखन के गाँधी दादा रामनारायण उपाध्याय सरल,सहज और सात्विक क़लम के कारीगर थे.पं.माखनलाल चतुर्वेदी के खण्डवा के रामा दादा जीवन भर गाँधीवादी सोच में जीते रहे और वैसा ही लिखते रहे.बापू के कहने पर ग्रामीण अंचल में रह कर साहित्य सेवा करने वाले रामा दादा म.प्र.के वरिष्ठ लेखकों की जमात में पहली पायदान के हस्ताक्षर थे.निबंध,कहानी और अपनी छोटी छोटी कविताओं के ज़रिये मानो वे पूरे भारत में बसे ग्रामीण परिवेश का इकतारा बजाते थे.उनकी बहुचर्चित पुस्तक ’गँवई मन और गाँव की याद’ में रचे गए निबंध..मेरे गाँवों की सुख-शांति किसने छीन ली..से संकलित की हैं ये अमृत पंक्तियाँ...

आख़िर गाँवों का सुख और शांति किसने छीन ली ?

किसान के कंठ के गीत कहाँ लुप्त हो गए ? तीज-त्योहार की मस्ती किसने चुरा ली ; दही बिलोने वाली के थिरकन पर अब किसी किसन कन्हैया का मन क्यों नहीं नाचता ? सूरज की पहली किरण अब ग्वाले के हाथ लकुटी क्यों नहीं बनती ? उगता सूरज , अब किसी हल जोतने वाले के मन में अपनी प्रिया के भाल पर लगे कुमकुम की याद क्यों नहीं जगाता ? रात का चाँद अब किसी नववधू की देह में अपने प्रियतम की याद का ताबीज़ बनकर क्यों नहीं चुभता?

किसी घर में लड़की का ब्याह रचाया जाता तो गीत की कड़ियों से हर सुहावने प्रभात और संध्या का स्वागत किया जाता,किसी गीत की अंगुली पकड़कर गणेशजी लड़की वाले का पता पूछते-पूछते विवाह घर आते और एक बुज़ुर्ग की तरह सारे कामों को निर्विघ्न सम्पन्न करवा कर ही लौटते...

लड़की की बिदाई पर पिता के रोने से गंगा में बाढ़ आ जाती.माँ के रोने से आकाश में अंधेरा छा जाता और भाई के रोने से उसकी धोती पाँवों तक भीग जाती.ब्याह के मांगलिक गीतों में मानसरोवर की तरह पिता,भरे पूरे भण्डार की तरह ससुर,बहती गंगा की तरह माँ, भरी पूरी बावडी़ तरह सास, गुलाब के फूल की तरह बच्चे और उगते सूर्य की तरह स्वामी के रूप में ऐसी उद्दात्त कल्पनाएँ सँजोई हैं , जिनको लेकर,हमारा पारिवारिक जीवन समॄध्द होता आया है.

लेकिन अब.....वे गोकुल से सहज , सरल गाँव नष्ट ही होते जा रहे हैं जहाँ स्त्रियाँ बडे भोर में उठकर आटे के साथ घने अंधेरे को भी पीसकर सुहावने प्रभात में बदल देतीं थीं.जहाँ घट्टी के हर फ़ेरे के साथ गीत की नई पंक्तियाँ उठतीं थीं.लगता था जैसी श्रम में से संगीत का जन्म हो रहा है.

अब फ़्लोअर मिल के साथ घर की घट्टी के गीत समाप्त होते जा रहे हैं .ट्रेक्टर के साथ हल के गीतों का लोप होता जा रहा है.खेत की घास को तो हल की नोक से भी उखाड़कर फ़ेंका जा सकता है लेकिन ट्रेक्टर की गहरी जुताई के साथ जिस हल्की और ओछी सभ्यता के बीज बोये जा रहे हैं उन्हें उखाड़ फ़ैकने में कितना समय लगेगा, यह सोचकर ह्र्दय काँप ही उठता है.

मन सोचने पर मजबूर हो जाता है कि खरा परिवेश त्याग कर ये जो सिंथेटिक ज़िंदगी ओढ़ ली है हमने क्या वह वाक़ई हमारे काम की है...परिवेश से परे एक पावन परिवार की कल्पना बेमानी लगती है और दादा रामनारायण की का यह शब्द चित्र मन को बेधता है.

Friday, April 25, 2008

जातिवाद पर पर व्यंग्य करती परसाईजी की लेखनी.

हरिशंकर परसाई ने व्यंग्य विधा में अनूठे रंग बिखेरे और व्यवस्था,परिवेश और मनुष्य के स्तर पर नज़र आती तमाम बुराइयों पर अपने क़लम से फ़टकार लगाई.साठ साल के आज़ाद भारत की तस्वीर आज कितनी भी उजली नज़र आती हो..औरत,संप्रदाय,जाति,अशिक्षा,धर्म और छुआछूत के नाम पर स्थितियों में कोई ख़ास फ़र्क नहीं आया है.एक लघु कथा के ज़रिये परसाईजी ने कितने बेहतरीन नोट पर अपनी बात को ख़त्म किया आइये पढ़ते हैं....

जाति

कारख़ाना खुला.कर्मचारियों के लिये बस्ती बन गई.

ठाकुरपुरा से ठाकुर साहब और ब्राह्मणपुरा से पंडितजी कारखा़ने में नौकरी करने लगे और पास-पास के ब्लाँक में रहने लगे.

ठाकुर साहब का लड़का और पंडितजी की लड़की दोनो जवान थे.उनमें पहचान हुई और पहचान इतनी बढ़ी कि दोनों ने शादी करने का निश्चय किया.

जब प्रस्ताव आया तो पंडितजी ने कहा...ऐसा कभी हो सकता है भला ? ब्राह्मण की लड़की ठाकुर से शादी करे ! जाति चली जाएगी.

ठाकुर साहब ने भी कहा कि ऐसा नहीं हो सकता.पर-जाति में शादी करने से हमारी जाति चली जाएगी.

किसी ने उन्हें समझाया कि लड़का - लड़की बड़े हैं ..पढ़े-लिखे हैं..समझदार हैं..उन्हें शादी कर लेने दो.अगर शादी नहीं की तो भी वे चोरी छिपे मिलेंगे और तब जो उनका संबंध होगा वह व्यभिचार कहलाएगा...

इस पर ठाकुर साहब और पंडितजी एक स्वर में बोले...

होने दो.व्यभिचार से जाति नहीं जाती है ; शादी से जाती है.

ज़िन्दगी की सचाइयां बयान करते मुक्तक !

आज ये मुक्तक लाया हूं बुज़ुर्ग शायर जनाब एस.एन.रूपायन के मजमुए ' टुकडे़ टुकडे़ हयात 'से.

रूपायन साहब लाहौर के नामचीन एस.वी.काँलेज में पढे़ हैं और उर्दू के ऐसे शायरों में उनका ना बाइज़्ज़्त शुमार किया जा सकता है जिन्होने बहुत एकांत में रह कर ज़ुबान और अदब की ख़िदमत की है.पचास साला पुरानी किताबों की दुकान रूपायना ने इन्दौर शहर के लिट्रेचर और पुस्तक प्रेमियों को बहुत कुछ दिया है.रूपायन साहब अब अस्सी पार हैं और थक चले हैं.उनकी पत्नी श्रीमती लीला रूपायन जानी मानी कहानीकार हैं.रूपायन दंपत्ति की असली कमाई है इन्दौर के बडी़-छोटी उम्र के साहित्यप्रेमियों का स्नेह.रूपायन साहब की ज़िन्दगी का एक और पहलू है और वह यह कि वे हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के गहरे जानकार हैं और आकाशवाणी के प्रतिष्ठापूर्ण दौर में आँडिशन कमेटी के गणमान्य सदस्य रहे हैं.सादा तबियत रूपायन साहब हमेशा प्रचार और प्रशस्ति से कोसों दूर रहे हैं.उर्दू साहित्य की लोकप्रिय विधा मुक्तक पर रूपायन साहब का कारनामा रेखांकित करने योग्य है.वे चार पंक्तियों में पूरी एक ग़ज़ल का मर्म अपनी बात में कहने का हुनर रखते हैं रूपायन साहब. आज पढ़िये उनके चंद मुक्तक जो ज़िन्दगी की सचाइयों को बयान कर रहे हैं .आपसे रूबरू हैं...जनाब एस.एन.रूपायन :

गै़र की बातों को छोडो़ गैर पर
दोस्तो ! खु़द से वफ़ादारी करो
जीना मुश्किल है मगर हर हाल में
हँस के जीने की अदाकारी करो.

ज़िन्दगानी की ओढ़नी पर जो
टांक रक्खे हैं हमने गुल-बूटे
फूल पत्ते ही इन को मत समझो
ये तो हैं छोटे-छोटे समझौते.

जिसकी है जैसी तमन्ना लिक्खो
और क्या उसको मिलेगा लिक्खो
जिनको आता नहीं जीने का हुनर
उनके हिस्से में निराशा लिक्खो.

टूटता हूँ न मै बिखरता हूँ
फ़ैलता हूँ फ़कत सदा बनकर
जब ज़माना मुझे सताता है
मै सिमट जाता हूँ दुआ बन कर.

रास्तों में उलझ न जाए कहीं
छोड़ कर घर को इतनी दूर न जा
नये रिश्ते तो बनते रहते हैं
जो पुराने हैं टूटने से बचा.

धूप शिद्द्त की है तो इसको मैं
सह न पाउंगा ये सवाल नहीं
लेकिन इस बात की है फ़िक्र मुझे
मेरा साया झुलस न जाए कहीं

पाप और पुण्य की लडा़ई में
कौन हारा है कौन जीत गया
सोचते सोचते यही आखि़र
ज़िन्दगी तेरा वक़्त बीत गया.

Wednesday, April 23, 2008

नये ज़माने के बच्चे से एक इंटरव्यू

बेटा आपका नाम ?

कहाँ का बताऊ ? घर का,स्कूल का,दोस्तो का या दादा-दादी वाला.

द्रोणाचार्य के बारे में क्या जानते हो
?

आप ही बताइये..कहीं सुना ज़रूर था.शायद इंडियन क्रिकेट टीम के कोच के रूप में गैरी कर्स्टन के पहले इनका नाम तो नहीं चला था ?

स्कूल रोज़ जाते हो ?

ऐसा कोई नियम तो नहीं है लेकिन दो-तीन दिन में दोस्तो की याद तो आने ही लगती है;ह्फ़्ते में दो बार तो चला ही जाता हूं

बेटे आपके पर-दादा का नाम ?

जो पर यानी पराया हो उसका नाम याद रखने की क्या ज़रूरत है सर.

नहीं मै तो इस लिहाज़ से पूछ रहा हूं कि आपको याद है या नहीं ?


सर ग्रैण्ड पा का नाम याद रखने में ही मुश्किल पडती है; आप ग्रेट-ग्रेण्ड पा की बात कर रहे हैं.

आपके घर के पडो़स में कौन रहता है ?

मै उनकी लड़की का नाम बता सकता हूं ; उस घर के मालिक का नाम तो बताना मुश्किल है सर.

मंदिर कब गये थे ?


सर दादी का इन्तेक़ाल हुआ था तीन बरस पहले तो वो काँलोनियों में घुमाते हुए ले जाते हैं न आजकल ; वो उठावने के बाद् मंदिर तब गया था.

और पिक्चर ?

सर कल ही रात का नाइट शो देखा..जब वी मैट का आप कहें तो एक बार फ़िर चलते हैं .

अपने दादाजी से कब मिले थे ?

सर वो तो अलग रहते हैं न गाँव में ! तो साल भर में बमुश्किल दो बार मिलना हो पाता है.वे ही आ जाते हैं हमसे मिलने..वरना पापा को कहाँ टाइम मिल पाता है उनसे मिलने जाने का.

तुम्हारे चाचा के लड़्के का नाम क्या है ?

पाँसिबल नहीं बता पाना...चार पाँच चाचा और सब के दो - दो लड़के भी मान लें तो दस कज़िन्स के नाम याद रखना मुश्किल होता है..इज़ंट इट सर ?

और आपके यहां तो पांच - छह कुत्ते हैं ; उनमें से कितनों के नाम याद हैं तुम्हे.?

आँफ़कोर्स सबके सर

बडे़ होकर किस के जैसे बनना चाहते हो ?

सर माइकल जैक्सन या बैकहम

कोई भारतीय सितारा जमा ही नहीं आदर्श के रूप में ?

सर अपने यहाँ सारा मामला ढीला-ढाला है.

अभी मासिक इनकम क्या है ?

सर कुछ भी नहीं

तो हाथ में ये जो मोबाइल हैण्डसेट है उसके लिये पैसा कहाँ से लाते हो ?

सर इट्स नन आँफ़ माय बिज़नेस...डैड ही सब मैनेज करते हैं..मै तो लाइफ़ को एक फ़न की तरह लेता हूं.

अभी कहां चले ?

सर वेस्टर्न डांस प्रतियोगिता में भाग ले रहा हूं..तो शाम तक लौटूंगा.

मुझे देर हो रही है सर...बाकी़ बात बाद में....


ये है हमारे शहज़ादों का लाइफ़ - स्टाइल. इसमें चौंकने कोई बात है क्या ?

Tuesday, April 22, 2008

किसी कंसर्ट को श्रोता/दर्शक भी सफल बनाता है !

बातें कुछ हैं जिनका आपको किसी भी महफ़िल में

शिरकत करते वक़्त ध्यान रखना चाहिये...





-कोशिश कीजिये कि निमंत्रण पत्र में जो समय दिया गया है आप उस टाइम पर सभागार में पहुँचें.

-यदि सभागार में बैठक की कुछ पंक्तियों को आरक्षित किया गया है तो उसका अनुसरण कीजिये आयोजक ने सभागार में कुछ वालेंटियर या सदस्य नियुक्त किये हैं बैठक व्यवस्था को सम्हालने के लिये तो प्लीज़ उनकी बात और उनके निर्देश मानिये.वे कुछ बेहतर करने के लिये ही वहाँ मौजूद रहते हैं.

-कार्यक्रम प्रारंभ होने के बाद आपके मोबाइल की घंटी बजना एक बेहूदी हरक़त है इसे स्पष्ट रूप से जान लीजिये....कलाकार या वक्ता जिस तैयारी से अपनी बात कहना चाहता है ..उसे आपके मोबाइल की घंटी से निश्चित रूप से ख़लल पड़ता है.ध्यान रखिये मोबाइल फ़ोन बनाने वालों ने हैण्डसेट में साइलेंट मोड इसीलिये दिया है कि बिना आवाज़ भी मोबाइल की सुविधा का फ़ायदा लिया जा सके ..बिना किसी को डिस्टर्ब किये...हाँ एक खा़स बात और....साइलेट मोड पर रखे मोबाइल पर यदि फ़ोन आया हो तो भगवान के लिये हाँल के बाहर जाकर बात कीजिये..सभागार में कुर्सी पर बैठे-बैठे नहीं.

-आपको लगता है कि कार्यक्रम का विषय ऐसा है जो आपके बच्चों की समझ और विवेक की हद के बाहर का है उन्हे साथ ले जाना ठीक नहीं

-कार्यक्रम यदि शुरू हो गया है और आप देर से पहुँचे हैं तो कृपया बहुत खा़मोशी से अपनी जगह तक पहुँचिये.आपके निमंत्रण पत्र में यदि सीट नम्बर उल्लेखित नहीं है और हाँल में कहीं भी बैठ जाने की आज़ादी है तो भी पीछे जहाँ जगह मिल जाए वहीं बैठ जाना समझदारी होगी.नाहक ही आगे जाने का लोभ मत कीजिये..दूसरे श्रोता-दर्शकों के मज़े और तन्मयता में ख़लल पडता है.

-संगीत के कार्यक्रम के कार्यक्रमों में अक्सर देखा गया है कि यदि कोई कलाकार बहुत अच्छा गा रहा है तो आप ख़ुश होकर एक नये गीत की फ़रमाइश कर बैठते हैं..बुरा नहीं इसमें कुछ ..लेकिन हो सकत उस कलाकार ने आपका फ़रमाइशी गीत तैयार न किया हो.हाँ एक बड़ी संभावना ये भी है कि कलाकार वह गीत या धुन या राग तो गाना/बजाना जानता हो लेकिन उसके संगतिकार उस रचना के लिये एकदम तैयार न हों...ये सोचना भी लाज़मी है कि आपसे एक बार दाद या प्रशंसा पा चुका कलाकार कोई भी कमज़ोर प्रस्तुति आपके सामने नहीं देना चाहेगा..इसमें यह भी नोट कर लें कि हर कलाकार अपने प्र्स्तुति के दिन के लिये एक खा़स मूड में होता है और उसी के मुताबिक तय करता है कि आज मुझे क्या गाना है और क्या नहीं...उसकी अपनी सोच होती है और विवषताएं भी.उदाहरण के लिये मान लीजिये कि आपने जिस गीत रचना की फ़रमाईश की है उसमें कोई खा़स वाद्य बजता है जैसे बाँसुरी ..अब आपके शहर में आते वक़्त कलाकार अपने साथ बाँसुरी वादक साथ नहीं लाया है तो भला वह कैसे आपकी फ़रमाइश पूरी करे.हाँ आप ये ज़रूर कर सकते हैं कि कार्यक्रम स्थल पर निर्धारित समय से थोडा़ जल्दी पहुँचकर कार्यक्रम आयोजक या कलाकार के मैनेजर/सहयोगी को फ़रमाइशी रचना एक काग़ज़ पर अपने नाम सहित दे दीजिये..मेरी बात पर यक़ीन करिये ...ऐसा करने से कलाकार को आपकी फ़रमाइश को पूरा करने का मन बनता है. कलाकार को भी यथासमय फ़रमाइश मिल जाए तो उसे प्रसन्नता होती है.

-यदि सभागार या कार्यक्रम में खाने-पीने की चीज़ें ले जाने पर मनाही है तो मत ले जाईये..हम ये उम्मीद तो करते हैं कि हाँल साफ़-सुथरे हों लेकिन ऐसा हो उसके लिये हमें भी तो सहयोग करना होगा.

-कार्यक्र्म में सामुहिक रूप से ठहाके लग रहे हों या तालियाँ बज रही हों तो आप ज़रूर उसमें शामिल हो जाइये लेकिन उसके अलावा इस बात का विशेष ध्यान रखें की आप अपने परिजनों से इतनी ऊंची आवाज़ में बात न करें जिससे अन्य श्रोताओं/दर्शकों को तकलीफ़ हो.

-कविता और शायरी के आयोजन दाद या आपके प्रतिसाद से ही सफल होते हैं ..इसलिये वहाँ ज़रूर दाद/प्रतिसाद दीजिये ..क्योंकि कविता/शायरी जैसा संवाद (communication) है से पूर्णता पाता है.

मैने ये सारी बातें एक श्रोता,दर्शक,आयोजक,एंकर पर्सन,सलाहकारऔर समीक्षक के रूप में जाँची,परखी और आज़माई है और महसूस किया है कि कलाकार की प्रतिभा,परिश्रम और उसके सितारा स्टेटस के बावजूद कई कार्यक्रम इसलिये असफल हो जाते हैं कि वहाँ दर्शक/श्रोता अपनी सार्थक और रचनात्मक भूमिका निभा पाता...सच मानिये किसी भी क़ामयाब कार्यक्रम में आपकी भूमिका किसी से कम नहीं

Monday, April 21, 2008

मुझे आपसे कुछ पूछना है.....?

बच्चे (बेटे/बेटी) के साथ कब बैठ कर टी.वी.देखा ?

-भीगते पानी में कब लाँग ड्राइव पर गये ?

-उसके स्कूल के annual day में पिछली बार कब गये थे आप ?

-बच्चे को किताबे/यूनिफ़ार्म दिलवाने आप क्यों नहीं जाते ? नौकर को क्यों भेजते हो ?

-उसके बर्थ-डे पर जब उसके दोस्त आपके घर आते हैं तो उनसे बात करने/ज\मौज मस्ती करने में क्या आप रूचि लेते हैं ?

-बच्चे के साथ बैठकर कम से कम एक खाना (लंच/डिनर) साथ क्यों नहीं खाते ?

-क्या आपको अपने बच्चे के दोस्तो के फ़ोन नम्बर्स मालूम हैं ?

-उसकी रिपोर्ट-कार्ड सिर्फ़ साइन कर देते हैं या देखते भी हैं कि उसे किस विषय में कितने मार्क मिले हैं ? अच्छे मार्क लाए तो क्या उसे कोई उपहार देते है/कम मार्क लाए तो प्रेम से उसके साथ बतियाते हैं ?

-कभी आपने उसे वह कहानी सुनाई है जो आपको आपके माता-पिता ने सुनाई थी ?

-क्या कभी अपने मूल वतन; अपने बाप-दादाओं के क़िस्से सुनाए हैं आपने?

-क्या अपने बचपन का कोई यादगार वाक़या आपने अपने बेटे/बेटी को सुनाया है ?

-क्या आपने अपनी शादी का एलबम अपने बच्चों के साथ तसल्ली से बैठ कर देखा है ?

-क्या कभी आपने अपनी बेटी/बेटे को कोई नाँवेल पढ़ कर सुनाया है ?

-क्या आपने कभी अपने बच्चे को बताया है कि सब्र,नेकी,इंसानियत,दया,सहायता,भाईचारे जैसे शब्द ज़िन्दगी में क्या महत्व रखते हैं ?

और एक आख़री सवाल ......

क्या आप अपने बच्चे को या उसकी बात को वैसा महत्व देते हैं जैसा आप अपने बाँस या अपने ग्राहक को देते हैं ....यानी गुणवत्ता भरा समय (quality time)

यदि नहीं .....तो आपसे मुझे कुछ नहीं कहना है...समय ही आपसे ये सवाल पूछेगा ..और शायद आपके पास उस वक्त इन प्रश्नों के कोई उत्तर न हों....मेरी बात का बुरा मत मानिये और सोचिये क्या ऐसा और भी कुछ है जो आप अपने नौनिहालों के साथ नहीं कर पा रहे हैं.....(मुझे आपसे कुछ नया सुनकर अच्छा नहीं लगेगा..जैसे ये सब पढ़कर आपको)

Sunday, April 20, 2008

देश का एक गुमनाम शायर - रमेश मेहबूब

वक़्त भी बडा़ बेरहम है.किसी को बिन मांगे देता है ..कुछ ऐसे भी होते हैं जिन्हें अपना सर्वस्व देने के बाद भी कुछ नहीं मिलता.कला के क्षेत्र में तो ये बात ज़रा ज़्यादा ही लागू होती है.आज आपकी मुलाक़ात करवा रहा हूं मेरे शहर इन्दौर के वरिष्ठ कवि-शायर श्री रमेश मेहबूब से.नगर पालिक निगम इन्दौरे में टायपिस्ट रह चुके मेहबूबजी इन-दिनों बीमार रहते हैं ..पत्नी का देहांत हो चुका है और एकमात्र बेटी अपने ससुराल में व्यस्त रहती है... अपने परिवार और संसार की सुध लेने मे. रमेश मेहबूब ने छंद-बद्ध और अतुकांत कविताएं खू़ब लिखीं हैं.व्यंग्य भी उनके काव्य में मुखर होता रहा है.राजनीति पर उनकी कविताओं में व्यवस्था के खि़लाफ़ व्यंग्य बहुत तीखा़ और चुभने वाला होता है.मालवा के जिन कवियों ने अपने क़लम से सक्रिय काव्य सेवा की है उनमें बालकवि बैरागी , सरोजकुमार,नरहरि पटेल,चंद्रसेन विराट,सत्यनारायण सत्तन,राहत इन्दौरी,क़ाशिफ़ इन्दौरी,नूर इन्दौरी,चन्द्रकांत देवताले के साथ रमेश मेहबूब का नाम भी इस फ़ेहरिस्त में इज़्ज़त के साथ शुमार किया जा सकता है . मेहबूब जी की अनेक लाजवाब कविताएं हैं लेकिन आज मै आपके लिये उनकी एक ग़ज़ल ढूंढ निकाल लाया हूं.प्रयास करूंगा कि रमेश मेहबूब से संपर्क कर आपके लिये और रचनाएं जारी कर सकूं.अपनी बात ख़त्म करते हुए मै यह ज़रूर कहना चाहूंगा कि वक़्त रहते हमें अपने - अपने अंचल के काव्य और साहित्यकारों का दस्तावेज़ीकरण ज़रूर कर लेना चाहिये . डाँ.शिवमंगल सिंह सुमन के मालवा का यह यशस्वी कवि आज अभाव और एकांत से घिरा हुआ है लेकिन मेहबूब जी ने जो भी लिखा है वह अदभुत है.बस पुराने और मेहबूब जी जैसे लोगों के साथ एक ही बात है कि इन लोगों को कभी अच्छा प्रमोटर नहीं मिला अन्यथा वरिष्ठ कवि नीरज,माया गोविंद,सोम ठाकुर,काका हाथरसी,निर्भय हाथरसी,देवराज दिनेश और वीरेन्द्र मिश्र जैसे नामचीन कवियों के साथ काव्य-पाठ कर चुके रमेश मेहबूब का नाम आज देश के शीर्षस्थ कवियों में सम्मिलित किया जा सकता.

खै़र ये सब तो हमारे सोचने का नज़रिया है..मेहबूब अपने काव्य-कर्म से संतुष्ट हैं और उन्हे जितना भी नाम,यश और प्रेम मिला उसके लिये वे श्रोताओं सलाम करते हैं..



तो आइये मुलाहिज़ा फ़रमाइये..

रमेश मेहबूब की ग़ज़ल..

साज़िशें लड़वाने वालीं,दीनों-ईमां हो गईं

गीत हिन्दू हो गए,ग़ज़लें मुसलमां हो गईं


जब सियासत मज़हबों की पालकी लेकर चली

मंदिर-ओ-मस्ज़िद की दीवारें पशेमां हो गईं


शहर में दंगे हुए,बाज़ार से उट्ठा धुआँ

शहर की गलियाँ सभी,आतिश-बदामाँ हो गईं


गुमशुदा लोगों में शामिल हो गईं अपनी भी नींद

ख्वा़ब हैराँ हो गए,रातें परेशाँ हो गईं


गीत भी मेहबूब के होठों पे अब आते नहीं

बेज़ुबाँ ग़ज़लें सभी अश्कों में पिनहाँ हो गईं

Thursday, April 17, 2008

कितना सुकून था इंटरनेट कनेक्शन बंद हो जाने के बाद !

तक़रीबन चार दिन इंटरनेट कनेक्शन बंद रहा. मेहरबानी
भा.सं.नि.लि. की. अब जब इंटरनेट बंद था तो अपनी मेल्स भी
चैक नहीं हो पाई...ब्लॉग पर नई प्रविष्टि का सवाल ही नहीं
उठता और मित्रों के ब्लॉग भी नहीं पढ़ पाया.एक नितांत लम्बी
ख़ामोशी । सो क्या करता रहा इन दौरान ? जानना चाहेंगे ?

-बहुत सारे पत्र अनुत्तरित थे , उनके जवाब दिये.पत्र लिखकर दिये
क्योंकि ये उन मित्रों/परिजनों के यहाँ ई-मेल सुविधा
नहीं

-अपने कमरे की सफ़ाई की.ऐसी कई पुस्तकें पड़ी थीं कमरे
में जिन्हें पढ़ा.....कुछ नहीं पढ़ा....बाद में पढ़ेंगे ऐसा सोच
कर सिरहाने रख छोड़ा ....इन सबको सहेजा...नज़र डाली
पुस्तकों के नाम पर....जो मित्रों से उधार लीं थीं पढ़ने के
लिये, उन्हें अलग रखा ...जो पढ़ ली गईं थीं उन्हे सम्हाल
कर यथास्थान रखवाया.

-कैसेट / सीडीज़ टेप के इर्द-गिर्द पड़े थे.कुछ सुनने के लिये.कुछ
समीक्षा के लिये और कुछ बिना काम के. अच्छी ख़ासी धूल
जम गई थी इन सब पर....उसे साफ़ किया.कुछ कैसेट्स के
इनले यहाँ वहाँ थे...उन्हें सहेजा...ठीक से उसी जैकेट या सीडी
कवर में रखा जिसमें रखा जाना चाहिये था.

-ब्लॉग लिखने के लिये कई संदर्भ अपनी काम करने की टेबल
पर दो-तीन फ़ोल्डर्स में रखे थे ...उन्हें रीव्यू किया ...उन पर नोट्स
लिखे और समय क्रम तय किया कि कब तक इन्हें जारी कर देना है.

-ऐसे कपड़े (शर्ट और ट्राउज़र्स) जो बटन विहीन हो रहे थे और
कहीं जाते वक़्त निकाले और बटन न होने या फ़टा होने से बस
ऐसे ही अपने वार्डरोब में बिखेर कर रख दिये थे उन्हें
श्रीमतीजी के ध्यान में लाया और बताया कि इनमें फ़लाँ
सुधार करना है.

-बैंक की पास-बुक अधूरी थी,पूरा करवाया,मार्च समाप्ती के मद्देनज़र
ब्याज के सर्टिफ़िकेट के लिये बैंक में पत्र लिखकर भेजे।टीडीएस
सर्टिफ़िकेट की फ़ेहरिस्त बनाई।


तो कई काम और भी निपटे...जिनकी सूची फ़िर कभी....लेकिन
महसूस किया कि ब्लॉगिंग और कप्यूटर पर दिये
जाने वाले नियमित समय में से
यदि थोड़ा समय रोज़ निकाल लिया जाए तो ये सारे काम ख़रामा
ख़रामा ही सही पूरे तो हो सकते हैं.अव्यवस्थित रहने के नुकसान
हमेशा ही बने रहते हैं....चीज़ें मिलतीं नहीं ...मिलतीं हैं तो उस वक़्त
जब हमें उनकी ज़रूरत नहीं होती.

इंटरनेट निश्चित रूप से ज़िन्दगी का अहम हिस्सा बन गया है
लेकिन उसने दीगर कामों का क़ीमती समय भी खा लिया है.
हम मनुष्य ठहरे...हमें क़ुदरत ने समझ दी है...हर काम का
आगा-पीछा जानते हुए हमें समझदार होना होगा...खु़द अपने लिये
ऐसी खु़दगर्ज़ी में क्या बुराई है जो आपको अनुशासित बनाए...
परिवार की खीज से बचाए और हर काम का एक सुनिश्चित वक़्त
और दस्तूर होता है इस बात का भान कराए....तो अब जब
कंप्यूटर ख़राब हो या इंटरनेट बंद हो तब ही नहीं इन सबके
ठीक रहते भी अन्य कामों के लिये समय निकालने की ठानी है
......देखते हैं...इंटरनेट कनेक्शन के बंद होने से मन कोई सबक़ लेता है या नहीं ?

Wednesday, April 16, 2008

भारत की पहली सिनेमास्कोप फ़िल्म - क़ाग़ज़ के फ़ूल


गुरूदत्त की बेहतरीन तस्वीरों मे से एक। ये अलग बात है कि इस फ़िल्म को कमर्शियल क़ामयाबी नहीं मिली किंतु चित्रपट प्रेमी,समीक्षक और टिप्पणीकार इस शाहकार की अहमियत जानते हैं। उम्मीद है क़ाग़ज़ के फ़ूल की ये जानकारी गुरूदत्त मुरीदों के
लिये महत्वपूर्ण होगी।

काग़ज़ के फूल के निर्देशक : गुरुदत्त

कन्नड़ भाषी होने के बावजूद गुरुदत्त पादुकोण बंगाली भाषा, संस्कृति, संगीत और बांग्ला भाषियों से ख़ासे प्रभावित थे। उदयशंकर के नृत्य समूह में रहकर वे और भी बंगाली हो गए थे। प्रभात और बॉंबे टॉकिज़ में सह-निर्देशक रहे गुरु ने क्राइम संस्पेंस और हास्य फ़िल्में देने के बाद तीन कालजयी गंभीर फ़िल्में दीं - प्यासा, काग़ज़ के फूल और साहिब बीवी और ग़ुलाम। इन फ़िल्मों में संवेदनशील गुरुदत्त सामने आए। उनकी फ़िल्मों में कैमरा भी अभिन्य करता था। "क़ाग़ज़ के फूल' फ़िल्म उनकी निजी कहानी मानी जाती है, लेकिन असल में ऐसा है नहीं। अपनी संवेदनशीलता, शिल्प और गीत-संगीत के लिए यह फ़िल्म आज भी याद की जाती है।


निर्माण वर्ष : १९५९
निर्माता निर्देशक : गुरुदत्त
पटकथा संवाद : अबरार अल्वी
छायांकन : वी.के. मूर्ति
कला / ध्वनि : एम.आर. आचरेकर / मुकुल बोस
गीतकार : कैफ़ी आज़मी
संगीतकार : एस.डी. बर्मन (सहायक आर.डी. बर्मन)
कलाकार : गुरुदत्त, वहीदा रहमान, बेबी नाज़, महेश कौल, वीणा,
जॉनी वॉकर, मीनू मुमताज़, प्रतिमा देवी

यादगार गीत

१. देखी ज़माने की यारी, बिछड़े सभी बारी-बारी
२. सन सन सन जो चली हवा
३. व़क़्त ने किया क्या हसीं सितम, तुम रहे न तुम, हम रहे न हम
४. उल्टे सीधे दांव लगाए
५. ओ पीटर ओ ब्रदर
६. एक दो तीन चार और पॉंच
७. उड़ जा उड़ा जा प्यासे भंवरे

गायक - मोहम्मद रफ़ी, गीता दत्त, आशा भोसले, सुधा मल्होत्रा


यादगार संवाद

१. कुछ लोग शराब पी कर बदतमीज़ियॉं करते हैं। कुछ लोग औरों की बदतमीज़ियॉं
भूलने के लिए शराब पीते हैं।
२. मैं हारा नहीं, सिर्फ़ थक गया हूँ।
३. कौवे को हंस की चाल चलते देखा था पर हंस को कौवे की चाल चलते पहली बार
देख रहा हूँ।
४. अगर तुम ऐक्ट्रेस अच्छी हो शांति। तो मैं भी डायरेक्टर बुरा नहीं हूँ।
५. अब नशे में रहने की आदत सी हो गई है। दौलत का नशा। शोहरत का नशा।
मुहब्बत का नशा और अब आख़री उम्मीद जगाने वाला यह शराब का नशा।
६. इस फ़िल्मी दुनिया में नाम और शोहरत मिलने में देर ज़रूर लगती है लेकिन
नामोनिशान खो जाने में कोई देरी नहीं लगती।
७. अरे। मुर्दा क्या पहली बार देख रहे हो।

Tuesday, April 15, 2008

सफ़दर हाशमी की मशहूर कविता ...किताबें कुछ कहना चाहतीं हैं

किताबें

किताबें करती हैं बातें
बीते ज़मानों की
दुनिया की, इंसानों की
आज की, कल की
एक-एक पल की
ख़ुशियों की, ग़मों की
फूलों की, बमों की
जीत की, हार की
प्यार की, मार की
क्या तुम नहीं सुनोगे
इन किताबों की बातें ?
किताबें कुछ कहना चाहती हैं
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं
किताबों में चिड़िया चहचहाती हैं
किताबों में खेतियॉं लहलहाती हैं
किताबों में झरने गुनगुनाते हैं
परियों के किस्से सुनाते हैं
किताबों में राकेट का राज़ है
किताबों में साइंस की आवाज़ है
किताबों में कितना बड़ा संसार है
किताबों में ज्ञान की भरमार है
क्या तुम इस संसार में
नहीं जाना चाहोगे
किताबें कुछ कहना चाहती हैं
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं

Tuesday, April 8, 2008

मालव-माटी के सपूत , वरिष्ठ पत्रकार श्री प्रभाष जोशी को इन्दौर में गुप्ता स्मृति सम्मान


प्रतिवर्ष नौ अप्रैल को हिन्दी पत्रकारिता का प्रमुख गढ़ माने जाने वाले शहर इन्दौर के लिये विशेष उल्लेख का वर्ष होता है. इस दिन नगर रिपोर्टिंग में अनुपम मुहावरे गढ़ने वाले स्मृति शेष पत्रकार श्री गोपीकृष्ण गुप्ता की याद में पत्रकारिता के क्षेत्र में विशिष्ट अवदान देने वाले क़लम सेवी का सम्मान किया जाता है.गोपीजी या गोपी दादा अलमस्त तबियत के इंसान थे और साधनविहीन समय में उन्होने सिटी रिपोर्टर के रूप में ऐसा कारनामा किया किया कि वे अपने जीवन काल में ही एक किंवदंती बन गए.आम-गरिक के गली-कूचों , प्रशासनिक हलकों और राजनैतिक हलचलों को सूंघ-सूंघ कर उसे ख़बर बनाना गोपी दादा के बाएँ हाथ का काम था. गोपी जी की ख़ासियत ये थी कि वे सामान्य मनुष्य बन कर ख़बरों की टोह लेते और अपनी मुहावरेदार हिन्दी में उसे उस समय के अग्रणी अख़बार नईदुनिया के पन्नों पर रच देते.


मैं फ़लाँ अख़बार का संवाददाता हूँ ऐसा कहकर अपनी पहचान बताने वाले कई पत्रकार मिल जाएँगे; किंतु गोपी दादा का जलवा ऐसा था कि जब वे कहते कि मैं गोपीकृष्ण गुप्ता हूँ तो समझ में आ जाता कि वह शख़्स नईदुनिया का धारदार पत्रकार है.ये कहना अतिरंजना नहीं कि गोपीकृष्ण गुप्ता अपने अख़बार के ब्राँड एम्बेसेडर थे.इन्हीं गोपीजी के दिंवगत होने के बाद उनके परिजनों और मित्रों द्वारा मिलजुल कर यह सम्मान प्रसंग आयोजित किया जाता है. होता तो यह है निहायत स्थानीय आयोजन किंतु उसमें घुली-मिली आत्मीयता की सुवास और गोपीदादा का स्मरण भारत भर में फ़ैले हिन्दी अख़बारनवीसों को श्रध्दा से भर देता है.अभी तक इस सम्मान से विठ्ठल नागर,रत्नेश कुसुमाकर, जवाहरलाल राठौर,जयकृष्ण गौड़,रामस्वरूप माहेश्वरी,,मदनमोहन जोशी,सुरेश सेठ,विमल झांझरी,नगेंद्र आज़ाद और अभय छजलानी नवाज़े जा चुके हैं.इस वर्ष गोपीकृष्ण गुप्ता सम्मान पत्रकारिता को अपनी क़लम से सींचने वाले मालव भूमि के वरद पुत्र,जनसत्ता के संपादकीय सलाहकार और वरिष्ठ पत्रकार श्री प्रभाष जोशी को दिया जा रहा है.

दुनिया में दो बड़ी ताक़ते हैं-तलवार और क़लम। अंतत: तलवार क़लम से सदैव पराजित होती आई है। राष्ट्रीय ख्याति के मालवी-मना पत्रकार श्री प्रभाष जोशी ने भी पत्रकारिता के पुनीत पथ पर अपनी बेबाक क़लम से सदा नापाक को कुरेदा। समाज हो, राजनीति हो, खेल हो, संगीत हो या फिर संस्कृति-आपकी क़लम का खॉंटीपन हर कहीं खनका है।
"आटोमेटिक' के ज़माने में "आंचलिकता' और "पैसे' की दौड़ में "परम्परा' को सिर माथे बिठाकर प्रभाषजी ने पत्रकारिता का पुण्य कमाया है।
दिल्ली की दमक और शीर्ष प्रकाशनों की चमक में रहकर भी वे जूनी इन्दौर के ठेठ मालवी बने रहे हैं. सत्ता-सुंदरी के मोहपाश में न बॅंधते हुए प्रभाषजी ने "राजनीति' की जगह "काजनीति' को सलाम किया है. उनकी लेखनी ने अतीत के सुनहरे दौर से दिल लगाया है और वर्तमान की भौतिकता को भाला भी दिखाया है.
गॉंधी विचारों से गमकता प्रभाषजी लेखन निर्मल-सबल भारत का सपना गढ़ता रहा है।


जब भी हिन्दी पत्रकारिता की बात होगी; नये युग की नयी मशाल के रूप में "प्रभाष' का प्रकाश भी नई पीढ़ी की राह रोशन करेगा। नि:संदेह प्रभाष जोशी जैसे वरिष्ठ पत्रकार का सम्मान उस्ताद अमीर ख़ॉं, कर्नल सी.के. नायडू, पं. कुमार गंधर्व, केप्टन मुश्ताक अली और स्व. श्री राजेंद्र माथुर की रूह सहित पूरी पत्रकारिता बिरादरी का मान भी बढ़ाएगा.

साहस की स्याही से कर "कागद कारे'
जन-जन में फैलाए, सच के उजियारे

Monday, April 7, 2008

आ रहा है मेघावियों को मॉडल बनाने का मौसम !

रिज़ल्ट का मौसम वैसे ही शबाब पर आने वाला है वैसे ही जैसे आम पर कैरियॉं।
पास हो गए, मेरिट में आ गए और तीर मार लाए; शाबाश !
किशोद दा होते तो कहते के.बी.एच.( क्या बात है )
मॉं ख़ुश; मामा अभी से मायरा ले आए हैं;
दादाजी की आँखे भीग रही हैं; के.बी.एच. ।
मगर ये इश्तेहारों में मॉडल बनते मेघावी चिढ़ाते हैं।
अब देखियेगा हर इंस्टीट्यूट कहेगी ये बंदा हमारे यहाँ पढता था।
इंस्टीट्यूटें सेहराबंदी में लगेंगी । उसमें यह भाव नही होगा कि जियो मेरे लाल !
तुमने हमारी इंस्टीट्यूट को निहाल कर दिया।
मकसद यह रहेगा कि "पेरेंट्स' जान लो कि
हम ही तुम्हारे लाल को मेरिट से मालामाल करवा सकते हैं।
ऐसे अंक दिलवा सके हैं जो दूसरी कोचिंग से हासिल नहीं हो सकते हैं।
गोया "प्रोमो' चल रहा है।
पहले डी.वी. पलुस्कर का तिलक कामोद बजता था रेडियो पर
"कोयलिया बोले अमुआ की डागरिया' अब हिमेश रेशमिया गाएँगे
"मेरी कोचिंग ही कामयाब सॉवरियॉं'।
समझने और बूझने की बात "इत्ती' से है कि अब
ये मेघावी छात्र/छात्राएँ तो इश्तिहार में कामयाब होकर चल पडेंगे
अपनी मंज़िल की ओर लेकिन हमारी यानी कोचिंग इंस्टीट्यूट की
क़ामयाबी तो अब बेटा तुम्हारे भरोसे है क्योंकि तुमको नहीं भुनाएँगे
तो पापी पेट का क्या होगा।
जाओ हम तुम्हें बेहतरीन "मॉडल' का ख़िताब अता करते हैं ।
तुम्हे पता नहीं तुम हमारे लिये सोने का अण्डा देने वाली मुर्गी हो।
देखो मॉडलिंग फीस तो हम देंगे नहीं।
हम तुम्हारे गुरु ही नहीं सदगुरू हैं वीर बालक।
माया मोह में मत पड़ो; आगे बढ़ो।
आई.आई.टी. और इन्फ़ोसिस को लक्ष्य बनाओ। ख़ूब कमाओ।
मॉं बाबूजी को खिलाओ। फिलहाल तो हम तुम्हें मॉडल बनाकर ही छोड़ेंगे।
दुनिया को जान लेने दो यार कि हमने तुम्हें क़ामयाब बनाया है।
अब हज़ारों को बनाएँगे; उन्हीं भी यही नग़मा सुनाएँगे
हम होंगे कामयाब एक दिन।

Sunday, April 6, 2008

एक नेक मशवरा : कभी भी विशिष्ट अतिथि बन कर मत जाइयेगा !

आजकल के आयोजन आत्मीयता कम और औपचारिकता ज़्यादा उड़ेलते हैं।
ज़्यादातर कार्यक्रमों में आप आसानी से कोई जोड़-तोड़, सेटिंग,
समीकरण और साज़िश सूँघ सकते हैं।
आजकल शुभारंभ, वर्षगॉंठ, वार्षिक समारोह, विमोचन और
संगीत प्रस्तुतियों में अतिथि की
एक और "गौत्र' उपजी है... विशिष्ट अतिथि या विशेष अतिथि।
अब सीधी-सी बात है कि कोई ख़ास है, विशेष है; विशिष्ट है
तभी तो उसे अतिथि बनाया है।
एक दूसरा प्राणी है अध्यक्ष। प्रोटोकॉल की महिमा जानें तो अध्यक्ष वह व्यक्ति होता है
जो मंच पर विराजित अन्य अतिथियों से ज़्यादा(?) क़ाबिल और बेजोड़ है।
तो एक को बनाइये मुख्य-अतिथि और दूसरा हो गया अध्यक्ष यानी सदर।
पर मजबूरी यह है कि ये दो तो क़ाबिलियत के आधार पर आ जाएँगे
लेकिन जिनसे कुछ काम सलटवाना है या जिन्हें किसी तरह "ओबलाइज' करना है
तो उन्हें कैसे "एडजेस्ट' करें ? सो बना दिया "विशिष्ट अतिथि'
वैसे इस विशिष्ट अतिथि नाम के सोलह नंबर वाले पाने ने आयोजक
के समस्यारूपी कई बोल्ट ठीक कर दिए हैं। अब कोई किसी को
अध्यक्ष और मुख्य अतिथि बना चुका है तथा दो-चार और से मतलब निकालना है
तो बना दिया उन्हें विशिष्ट अतिथि ! राजनीतिक मंच पर तो यह "विशिष्ट अतिथि फ़ार्मूला' ख़ूब काम आता है।
मुख्यमंत्री आए हो तो उनका मुख्य अतिथि होना तो जन्मसिद्ध अधिकार है;
राज्यपालजी भी साथ हैं तो वे अध्यक्ष हो गए, अब वरिष्ठ मंत्री, प्रभारी मंत्री, क्षेत्रीय विधायक बेचारों का क्या करें ?
बना दो भई वि.अ. यानी विशिष्ट अतिथि। अगले भी झमाझम कि वाह ! आयोजक ने हमें ख़ूब सजाया...मान दिया... भई मान गए।
इन घेतलों को इतनी अ़क़्ल नहीं कि हुज़ूर, आपको मंच को भरा-पूरा दिखाने
की ग़रज़ से नुमाइश किया गया है।
आप इन वि. अ. को भी देखियेगा, बोलने खड़े होंगे तो मुख्य अतिथि
और कार्यक्रम अध्यक्ष के सम्मान में क़सीदे गढ़ने में ही
पॉंच-सात मिनट खा जाएँगे, फिर विषय पर आएँगे।
तदनंतर आयोजक का आभार मानने में पॉंच मिनट लेंगे।

मुख्य अतिथि और अध्यक्ष सोचता है कि ये विशिष्ट अतिथि ही
इतना ज्ञान पेल गए, अब हमें क्या बोलना है ?
वि. अ. के बारे में ज़्यादा समझना हो तो शादी के बैण्ड को देखिएगा !
एक बजती है काली बंसी क्लैरियोनेट ; वह हुई मुख्य अतिथि और एक बजता है ड्रम;
वह हुआ अध्यक्ष और उसके बाद सारे पों-पों करते बाजे यानी ये हुए विशिष्ट अतिथि !
वे न सुर में चलते हैं, न ताल में । उनकी भर्ती सिर्फ़ भीड़ बढ़ाने, बाजे का जलवा दिखाने और बारातियों का मुग़ालता बढ़ाने के लिए होता है कि आपके सम्मान में
"इत्ते' लोगों का बैण्ड बुलाया है।
इस सबसे माहौल बन जाता है । समझ गए न आप विशिष्ट अतिथि की औक़ात।
तो अबकी बार यदि आपको कोई विशिष्ट अतिथि के रूप में आमंत्रित करे तो प्रेम से कहिएगा
-भैया फलॉं दिन तो मैं शहर में ही नहीं हूँ... अगली बार ज़रूर आऊँगा,
लेकिन अतिथि के रूप में विशिष्ट अतिथि के रूप में नहीं !

Saturday, April 5, 2008

सदियॉं गुज़र जाएँगी; उस हीरे की दमक कम न होगी - भाग दो


हीराबाई की समकालीन गायिकाओं में मोघूबाई कुर्डीकर और केसरबाई केरकर के नाम उल्लेखनीय हैं। लेकिन यह अकाट्‌य सत्य है कि किशोरावस्था से ही हीराबाई की आवाज़ का जलवा स्थापित होने लगा था। सहजता से मिलती कामयाबी के बावजूद हीराबाई ने किराना घराने की गायन परम्परा को कायम रखा, जिसमें शांत भाव से स्वर को सिरजना और उसमें रंजकता के रंग भरना शामिल होता है। उनका षड्‌ज ऐसा सधा हुआ था कि लगता था वह भगवान का ही भेजा हुआ है। अन्य गायकों को जहॉं यह पहला स्वर साधना पड़ता है; हीराबाई के गले में वह सॉंस के आवागमन के साथ ही सध जाता था। हीराबाई ने जिस तैयारी व तत्परता के साथ शास्त्रीय संगीत को आत्मसात किया; उस्ताद वहीद ख़ॉं साहब को कहना पड़ा "ये बेटी तो गाने की फ़ोटोग्राफी करती है, यानी जैसा बताओ वैसा का वैसा उतार देती है।' हीराबाई ने ख़याल, ठुमरी, नाट्‌य संगीत तीनों विधाओं में महारत ही नहीं हासिल की बल्कि उसमें अपनी एक विशिष्ट पहचान भी बनाई। 1938 की कलकत्ता कान्फ्रेंस में हीराबाई ने बाबा अलाउद्दीन साहब, पं। रविशंकर उस्ताद, अहमद जान थिरकवा और स्वर सम्राट कुन्दनलाल सहगल की मौजूदगी में उस ज़माने की मशहूर गायिका रोशनआरा बेगम के बाद अपनी प्रस्तुति दी और पूरी महफ़िल लूट ली।

हीराबाई ताज़िंदगी लगातार यात्राओं में मसरूफ़ रहीं।वह ज़माना आज की तरह हर शहर
में हवाई जहाज़ पहुंचाने वाला नहीं था।रेल या बस ही आवागमन के लोकप्रिय साधन थे।
हीराबाई ने जितने कंसर्ट गाए और रेल यात्राएं की उसके मद्देनज़र मराठी के महान साहित्यकार पु ल देशपांडे मज़ाक में कहा करते थे कि हीराबाई बडोदकर को भारतीय रेल
का ब्रांड एम्बेसेडर बना देना चाहिये।


जिस ज़माने में हीराबाई मंच पर आईं तब महिलाओं के गायन पर बन्दिशें थीं। राजे-रजवाड़ों की रिवायते कुछ ऐसी थीं कि महिला गायिका का गाना मुश्किल ही हो जाया करता था । मराठी नाट्‌य संगीत के दौर में पुरुषों द्वारा महिला पात्रों के अभिनय का रिवाज़ था । महिलाएँ यदा-कदा मंच पर आती भी थीं तो खड़े होकर ही गाती थीं। हीराबाई ने पहले-पहल हिम्मत कर इन सारी रूढ़ियों को तोड़ा और महिला गायिकाओं को भी पुरुषों जैसा सम्मान दिलवाया। एक बार किसी नवाब की महफ़िल में उन्हें जब बैठ कर गाने की इजाज़त नहीं दी गई तो हीराबाई ने गाने से ही इन्कार कर दिया । जब दीगर गायिकाओं के साथ उन्हें भी कलदारों से नवाज़ा जाने लगा तो उन्होंने राशि ग्रहण करने से साफ मना कर दिया। सुरीली हीराबाई स्वाभिमान के स्तर पर कभी भी नीचे नहीं उतरीं । यदि हमने बाद में महिला गायिकाओं के लिए संगीत सभाओं में आदर देखा है तो बेझिझक कहना पड़ेगा कि इसका मंगलाचरण हीराबाई जैसी करिश्माई कलाकार के हस्ते हुआ था । उनके मराठी नाटकों में सौभद्र, साध्वी मीराबाई, युगांतर, पुण्य प्रभाव आदि अत्यंत उल्लेखनीय हैं । सौभद्र के नाट्‌य गीत "वद जाऊ कुणाला शरणाला' आज भी गायिकाओं द्वारा गाया जाता है और बार-बार हीराबाई की याद दिलाता है । संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, मास्टर दीनानाथ मंगेशकर सम्मान और "गान हीरा' की उपाधि से अलंकृत हीराबाई ने दरअसल इन सम्मानों का ही मान बढ़ाया है । हीराबाई को अपनी समकालीन गायिकाओं, ख़ासकर गौहरजान से अनन्य प्रेम मिला। 1989 में जब हीराबाई का अवसान हुआ तो पूरी संगीत हलचल जैसे एक लम्हा थम-सी गई। 1923 में राग दुर्गा में आई उनकी पहली ध्वनिमुद्रिका ने उन्हें एक घरेलू नाम बना दिया था और ये सिलसिला उनकी मृत्यु तक जारी रहा । वे पहली महिला गायिका थीं जिन्होंने अपनी बहन सरस्वती राणे के साथ ख़याल गायन में महिलाओं की जुगलबंदी का आग़ाज़ किया। उत्तर भारत में तो यह शैली पनप नहीं पाई (निर्मला देवी - लक्ष्मी शंकर के अपवाद को छोड़ कर) लेकिन दक्षिण भारत में अभी भी महिला जुगलबंदी गायन के प्रयोग बहुत लोकप्रिय हैं।



शालीन, सभ्य, सात्विक और सद्‌गुणी हीराबाई ने अपनी गृहस्थी को भी करीने से सजाया-सॅंवारा और अपने पूरे परिवार की निष्ठा से सेवा की । गायन की व्यस्तताओं के कारण उन्होंने कभी भी अपने पारिवारिक दायित्वों की अवहेलना नहीं की और एक कुशल पत्नी और मॉं के रूप में उन्होंने अपनी भूमिका का भी पूर्ण निर्वाह किया । आज शास्त्रीय संगीत गायिकी के परिदृश्य पर ग्लैमर, पैसे और शोहरत की झड़ी लगी हुई है, लेकिन उसमें हीराबाई जैसी तपस्विनी कलाकार की नामौजूदगी खलती है । यह अच्छा ही है कि हीराबाई जैसे महान कलाकार इस तथाकथित परिदृश्य से ओझल हो गए क्योंकि ये गुणी कलाकार ख़ास मकसद को लेकर अवतरित हुए थे, न कि पैसा और शोहरत कमाने के लिए । दुर्भाग्य की बात है कि हीराबाई जैसी बेजोड़ कलाकार के नाम पर न तो कोई सम्मान/पुरस्कार दिया जाता है और न ही उनकी जन्मशती प्रसंग (सन्‌ 2004) पर कार्यक्रमों के आयोजन हुए। आपाधापी में व्यस्त होती ज़िंदगी यदि हीराबाई जैसी लाजवाब फ़नकारा को भुलाती गई तो निश्चित ही यह किसी अपराध से कम नहीं होगा। हीराबाई जैसे कलाकार कभी-कभी जन्म लेते हैं। यह हमारा सौभाग्य है कि उन्होंने उत्तर भारतीय शास्त्रीय संगीत की जीवन पर्यन्त सेवा की। हीराबाई जैसे कलाकारों का काम उनके न रहने के बाद भी दमकता रहता है। प्रसिद्ध हीरा निर्माता कंपनी डी-बियर्स की प्रचार पंक्ति शायद इसी महान स्वर-साधिका के लिए रची गई हो 'हीरा है सदा के लिए'।


Friday, April 4, 2008

सदियॉं गुज़र जाएँगी; उस हीरे की दमक कम न होगी – (भाग एक)


घराने का वैभव, निष्णात उस्ताद से तालीम, ईश्वर की कृपा तथा भरपूर लगन और निष्ठा से ही शास्त्रीय संगीत के सिद्धहस्त कलाकारों की घड़ावन होती आई है। एकाधिक कलाकारों की शुरूआती ज़िंदगी पर हम नज़र डालें तो स्वतः ही समझ में आ जाता है कि उल्लेखित चारों बातों का क्या महत्व होता है। ज़माना हमेशा से कामयाबी के सफ़ों को देखता है। लेकिन यह जानना भी ज़रूरी होता है कि कामयाबी के पीछे किस कोटि के तप और संघर्ष की कहानी है। किराना घराने की मूर्धन्य एवं शीर्षस्थ स्वरसाधिका पद्मविभूषण हीराबाई बड़ोदेकर की शख़्सियत भी संघर्ष और जुझारूपन की जीती-जागती मिसाल है।


1905 में मिरज (महाराष्ट्र) में पैदा हुईं हीराबाई कालांतर में भारतीय शास्त्रीय संगीत का वह दमकता हीरा बनीं जिस पर आज भी कलाकार और श्रोता-बिरादरी नाज़ करती है। किराना घराने के संस्थापक मरहूम उस्ताद अब्दुल करीम ख़ॉं साहब की इस मीठे सुर वाली बेटी चम्पाकली (हीराबाई का पूर्व नाम) को जन्म होते ही मृत घोषित कर दिया गया । यहॉं तक कि कपड़े में लपेट कर नवप्रसूता मॉं से भी विलग कर दिया गया । लेकिन शायद होनी को कुछ और मंज़ूर था। अनायास डॉक्टर का आना हुआ और उसने नवजात शिशु के बारे में जानना चाहा। जब कपड़े में लिपटे शिशु को दिखाया गया तो मालूम पड़ा वह मृत नहीं थी। इस तरह जन्म से ही शुरू हुई हीराबाई की रोमांचकारी दास्तान। मॉं ताराबाई किसी विवाद को लेकर अपने पति उस्ताद अब्दुल करीम खॉं साहब से अलग हो गईं और अपने पूरे परिवार को लेकर मिरज में आ बसीं। मॉं ताराबाई ने कड़ी मेहनत के बाद अपने बच्चों को निखारा, जो कालांतर में संगीत-क्षेत्र के दमकते सितारे बने। हीराबाई के बड़े भाई सुरेश बाबू माने किराना घराने के विख्यात स्वरसाधक रहे। छोटी बहन सरस्वती राणे सिद्धहस्त गायिका थीं। संगीतप्रेमियों को सरस्वती देवी का वह गीत तो याद ही होगा "बीना मधुर-मधुर सुर बोल' ।


हीराबाई ने 16 वर्ष की आयु में अपनी प्रथम प्रस्तुति दी। हॉं, इसके पहले यह बताना ज़रूरी होगा कि मॉं ताराबाई एवं पिता अब्दुल करीम ख़ॉं से जो विरासत हीराबाई को मिली; वह बेजोड़ थी। फिर भी मॉं का मानना था कि हीराबाई को एक व्यवस्थित तालीम की ज़रूरत है और इसके लिए उन्होंने ख़ासी जद्दोजहद के बाद अपने पति के साले उस्ताद अब्दुल वहीद ख़ॉं साहब को तैयार कर लिया । उस ज़माने के उस्तादों का अनुशासन और तालीम का तरीक़ा बहुत समर्पण मॉंगता था । कौन-सा राग गाना, कहॉं गाना, कहॉं नहीं गाना, कब गाना यह सब उस्ताद ही तय किया करते थे। गंधर्व महाविद्यालय, मुम्बई में जब हीराबाई की प्रथम प्रस्तुति हुई तो उस्ताद वहीद खॉं हीराबाई पर ख़ासे नाराज़ हुए। लेकिन जब उस्ताद को मालूम पड़ा कि गायन का आग्रह संगीताचार्य पं. विष्णु दिगम्बर पलुस्कर ने किया है तो वहीद ख़ॉं ख़ामोश हो गए। बाद में सुर की इस पुजारिन ने साबित किया कि वह अपने उस्ताद के नाम को रोशन करेगी। अमूमन क्लासिकल मौसीक़ी की तालीम की शुरूआत में यमन सिखाया जाता है, लेकिन उस्ताद ने हीराबाई को राग पटदीप सिखाया। मृत्युपर्यन्त ही नहीं; आज भी श्रोताओं के कानों में पटदीप के स्वर गूँजते ही हीराबाई मूर्तिमान हो जाती हैं। कुदरती मिठास, सतत्‌ अभ्यास और उस्ताद की बेहतरीन सिखावन ने हीराबाई को बेजोड़ नगीना बना दिया।
(अगली एक और किस्त में जारी)

Thursday, April 3, 2008

राजकुमार केसवानी की कविताएँ…जिनमें व्याख्यान नहीं ; संगीत सुनाई देता है !


राजकुमार केसवानी
देश के जाने-माने पत्रकार और कवि हैं.उनकी शख़्सियत का सबसे उजला पहलू है उनका स्वाध्यायी होना..1984 के भीषणतम भोपाल गैस त्रासदी की ढाई वर्ष पहले से लगातार चेतावनी देते रहने के पुरस्कार स्वरूप राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय
स्तर पर सराहना. श्रेष्ठ पत्रकारिता के लिये बी.डी.गोयनका पुरस्कार.इन वर्षों में न्यूयॉर्क टाइम्स,इलस्ट्रेटेड वीकली,संडे,संडे आब्ज़र्वर,इंडिया टुडे,इंडियन एक्सप्रेस
द एशियन एज,ट्रिब्यून,आउटलुक,द इंडिपेंडेट,द वीक,न्यूज़ टाइम,जनसत्ता,नवभारत टाइम्स और दिनमान जैसे प्रतिष्ठित प्रकाशनों में अपनी शर्तों पर काम.

1998 से 2003 तक एनडीटीवी के मध्य-प्रदेश छत्तीसगढ़ के ब्यूरो प्रमुख.फ़रवरी 2003 में दैनिक भास्कर इन्दौर संस्करण के सम्पादक.हाल फ़िलहाल
दैनिक भास्कर समूह में ही सम्पादक(मैग्ज़ीन्स) रविवारीय रसरंग को सजाने-सँवारने मे ख़ास भूमिका. जिसमें कंटेट और भाषा (ख़ासकर उर्दू) की शुध्दता
के लिये शिद्दत से काम.

अपनी धुन के पक्के राजकुमार केसवानी अपनी साफ़गोई के लिये जाने जाते हैं.बनावट उन्हें पसंद नहीं ऐसा प्यारा सखा कि एक बार आपको दिल में बसा लें तो
आपके सुख-दुख में हमेशा साथ खड़ा नज़र आए.इन दिनों रसरंग में ही आपस की बात शीर्षक से लाजवाब स्तंभ लिख रहे हैं जो सुहाने और सुनहरे बीते कल की याद
दिलाता है.

ये कविताएँ राजकुमार केसवानी के काव्य-संग्रह बाक़ी जो बचे से.कवि लीलाधर मंडलोई उनकी कविताओं में ठीक ही कहते हैं......मितकथन राजकुमार केसवानी
का गुण है.स्थानीयता उनकी पूँजी.कहन में सादगी.भाषा में गहरी लय और संगीत.वे तफ़सीलों में कम जाते हैं कविता में व्याख्यान की जगह वे भाव को तरज़ीह देते हैं.राजकुमार केसवानी की कविताओं में मनुष्य फ़ोटोग्राफ़िक नहीं अपितु सिनेमैटिक लैंग्वेज में मूर्त होता है.


अतीत की जुगाली करने वाले और आने वाले को तस्लीम करने वाले राजकुमार केसवानी की कुछ और कविताएँ एक और क़िस्त में जारी करूंगा....
फ़िलहाल ये मुलाहिज़ा फ़रमाएँ.............


जब वह सच जानेगा



मेरा बेटा
मुझे मानता है
सर्वसमर्थ
सर्वशक्तिमान

उसने चाहा जब-जब
मैंने लाकर दी उसको
बिस्किट, चॉकलेट, टॉफ़ी

उसने मांगी एक बार
दो पहिए की साइकिल
और उसे
वह भी मिल गई

उसने चाहा मनाना
अपना बर्थ डे
बुलाकर दोस्तों को घर
और ऐसा भी हो गया

इन सबके बाद
उसे लगता है
पापा कुछ भी कर सकते हैं

उसको अभी तक
पता नहीं है
चॉकलेट और बर्थ डे पार्टी के बाहर की दुनिया में
उसके पापा
उतने ही असमर्थ
उतने ही लाचार हैं
जितना
सड़क के इस पार के
बाक़ी सारे लोग

मन से मन

एक बात ऐसी हो
जो मैं कह न सकूं
और वो जान जाए

एक बात ऐसी हो
जो वो कहने को मुंह खोले
और मैं जान जाऊं

बात तो तब है
जब हम दोनों कुछ न कहें
और लोग आपस में कहें
इन दोनों की तो क्या बात है !

पर क्या करूं ?

बचपन में
मेरे पास
सिर्फ़ बचपन था
और वह
सबको अच्छा लगता था

बुढ़ापे में अब
मेरे पास
रह गया है
सिर्फ़ बचपना
और वह
किसी को अच्छा नहीं लगता

वे बोलते कम हैं

इस शहर के लोग
सुनते कम हैं क्या?

नहीं, नहीं
लगता है
सुनते सब हैं
मगर ज़रा,
बोलते कम हैं

इस शहर के लोगों को
दिखता कम है क्या?

नहीं, नहीं
लगता है
दिखता सब है
मगर ज़रा,
बोलते कम हैं

इस शहर के लोग
क्या पहचानते नहीं हैं सच को?

नहीं, नहीं
लगता है
पहचानते ख़ूब हैं
मगर ज़रा
बोलते कम हैं

तो फ़िर
इस शहर का नाम
उस शहर से क्यों है अलग?

उस शहर के लोग भी
सब कुछ सुनते हैं
सब कुछ देखते हैं
सब कुछ जानते हैं
मगर वे भी
बोलते ज़रा कम हैं



आख़िर कैसे?

मेरा पता
लगभग हर साल बदल जाता है।
कभी ४६२००१
कभी ४५२००२
कभी ४०००१३
कभी ये
कभी वो
नहीं बदलता
तो बस ये बदलना

अच्छे भाई, समझा चुके हैं कई बार
मियां, ख़ुद को बदल लो
वरना ये पता बदलता ही रहेगा

घर

घर कभी ख़ाली नहीं रहता
उसमें अक्सर होते हैं
घरवाले
और जब कभी
वे जाते हैं बाहर
वह भरा रहता है
उनके वापस आने की उम्मीदों से

Wednesday, April 2, 2008

समीक्षकजी ! ये एक ख़तरनाक नाटक की शुरूआत है …।


अभिनेता का अभिनय
जायज़ है
लेकिन प्रेक्षक का ?
……एक ख़तरा

प्रेक्षक कथा सूत्र का
संवाहक ज़रूर है
लेकिन सूत्रधार नहीं

प्रेक्षक ने दम भर लिया
यदि कथानक को
गति देने का तो
नाटक क्या ख़ाक होगा

अभिनेता और प्रेक्षक के
बीच पोशीदा
लक्ष्मण रेखा को
लील गए हैं हालात

अभिनेता का हक़ है
भूमिका बदलना
लेकिन प्रेक्षक भी
विचलित है ऐसा करने को

अभिनय कर्म है अभिनेता का
प्रेक्षक का नहीं ;
सभागार में प्रेक्षक का अभिनेता
के रूप में भेस बदलना
एक ख़तरनाक नाटक की शुरूआत है

समीक्षकजी ……सुन रहे हैं आप ?
-संजय पटेल