घराने का वैभव, निष्णात उस्ताद से तालीम, ईश्वर की कृपा तथा भरपूर लगन और निष्ठा से ही शास्त्रीय संगीत के सिद्धहस्त कलाकारों की घड़ावन होती आई है। एकाधिक कलाकारों की शुरूआती ज़िंदगी पर हम नज़र डालें तो स्वतः ही समझ में आ जाता है कि उल्लेखित चारों बातों का क्या महत्व होता है। ज़माना हमेशा से कामयाबी के सफ़ों को देखता है। लेकिन यह जानना भी ज़रूरी होता है कि कामयाबी के पीछे किस कोटि के तप और संघर्ष की कहानी है। किराना घराने की मूर्धन्य एवं शीर्षस्थ स्वरसाधिका पद्मविभूषण हीराबाई बड़ोदेकर की शख़्सियत भी संघर्ष और जुझारूपन की जीती-जागती मिसाल है।
1905 में मिरज (महाराष्ट्र) में पैदा हुईं हीराबाई कालांतर में भारतीय शास्त्रीय संगीत का वह दमकता हीरा बनीं जिस पर आज भी कलाकार और श्रोता-बिरादरी नाज़ करती है। किराना घराने के संस्थापक मरहूम उस्ताद अब्दुल करीम ख़ॉं साहब की इस मीठे सुर वाली बेटी चम्पाकली (हीराबाई का पूर्व नाम) को जन्म होते ही मृत घोषित कर दिया गया । यहॉं तक कि कपड़े में लपेट कर नवप्रसूता मॉं से भी विलग कर दिया गया । लेकिन शायद होनी को कुछ और मंज़ूर था। अनायास डॉक्टर का आना हुआ और उसने नवजात शिशु के बारे में जानना चाहा। जब कपड़े में लिपटे शिशु को दिखाया गया तो मालूम पड़ा वह मृत नहीं थी। इस तरह जन्म से ही शुरू हुई हीराबाई की रोमांचकारी दास्तान। मॉं ताराबाई किसी विवाद को लेकर अपने पति उस्ताद अब्दुल करीम खॉं साहब से अलग हो गईं और अपने पूरे परिवार को लेकर मिरज में आ बसीं। मॉं ताराबाई ने कड़ी मेहनत के बाद अपने बच्चों को निखारा, जो कालांतर में संगीत-क्षेत्र के दमकते सितारे बने। हीराबाई के बड़े भाई सुरेश बाबू माने किराना घराने के विख्यात स्वरसाधक रहे। छोटी बहन सरस्वती राणे सिद्धहस्त गायिका थीं। संगीतप्रेमियों को सरस्वती देवी का वह गीत तो याद ही होगा "बीना मधुर-मधुर सुर बोल' ।
हीराबाई ने 16 वर्ष की आयु में अपनी प्रथम प्रस्तुति दी। हॉं, इसके पहले यह बताना ज़रूरी होगा कि मॉं ताराबाई एवं पिता अब्दुल करीम ख़ॉं से जो विरासत हीराबाई को मिली; वह बेजोड़ थी। फिर भी मॉं का मानना था कि हीराबाई को एक व्यवस्थित तालीम की ज़रूरत है और इसके लिए उन्होंने ख़ासी जद्दोजहद के बाद अपने पति के साले उस्ताद अब्दुल वहीद ख़ॉं साहब को तैयार कर लिया । उस ज़माने के उस्तादों का अनुशासन और तालीम का तरीक़ा बहुत समर्पण मॉंगता था । कौन-सा राग गाना, कहॉं गाना, कहॉं नहीं गाना, कब गाना यह सब उस्ताद ही तय किया करते थे। गंधर्व महाविद्यालय, मुम्बई में जब हीराबाई की प्रथम प्रस्तुति हुई तो उस्ताद वहीद खॉं हीराबाई पर ख़ासे नाराज़ हुए। लेकिन जब उस्ताद को मालूम पड़ा कि गायन का आग्रह संगीताचार्य पं. विष्णु दिगम्बर पलुस्कर ने किया है तो वहीद ख़ॉं ख़ामोश हो गए। बाद में सुर की इस पुजारिन ने साबित किया कि वह अपने उस्ताद के नाम को रोशन करेगी। अमूमन क्लासिकल मौसीक़ी की तालीम की शुरूआत में यमन सिखाया जाता है, लेकिन उस्ताद ने हीराबाई को राग पटदीप सिखाया। मृत्युपर्यन्त ही नहीं; आज भी श्रोताओं के कानों में पटदीप के स्वर गूँजते ही हीराबाई मूर्तिमान हो जाती हैं। कुदरती मिठास, सतत् अभ्यास और उस्ताद की बेहतरीन सिखावन ने हीराबाई को बेजोड़ नगीना बना दिया।
(अगली एक और किस्त में जारी)
(अगली एक और किस्त में जारी)
4 comments:
संजय भाई बुंदेली में कहने का मन कर रहा है--'जे बात' । ज़रा विदुषी की आवाज़ भी तो लगाईये सरकार
युनूस भाई मालवी में कहने को जी चाह रहा है...कईं बेठा बेठा जीमोगा...बणई के चखो दादा (बैठे ही मज़ा लोगे क्या ; बनाना भी तो सीखो)ये तो रही मज़े की बात लेकिन अपनी कारोबारी,लिखन-पढ़न और मंचीय मसरूफ़ियात में वक़्त चुराना मुश्किल और ज़्यादती भरा होता है.हाँ ये भी सच है कि ब्लॉग पर संगीत चढ़ाने का शऊर अभी आया नहीं है.बेटा अब इम्तेहानों से बाहर आया है किसी दिन आपसे बात करवा कर सीख लूँगा भैया.
जे बात :D
bahut badhiyaa post SANJAY JI...dhanyavaad
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