हीराबाई की समकालीन गायिकाओं में मोघूबाई कुर्डीकर और केसरबाई केरकर के नाम उल्लेखनीय हैं। लेकिन यह अकाट्य सत्य है कि किशोरावस्था से ही हीराबाई की आवाज़ का जलवा स्थापित होने लगा था। सहजता से मिलती कामयाबी के बावजूद हीराबाई ने किराना घराने की गायन परम्परा को कायम रखा, जिसमें शांत भाव से स्वर को सिरजना और उसमें रंजकता के रंग भरना शामिल होता है। उनका षड्ज ऐसा सधा हुआ था कि लगता था वह भगवान का ही भेजा हुआ है। अन्य गायकों को जहॉं यह पहला स्वर साधना पड़ता है; हीराबाई के गले में वह सॉंस के आवागमन के साथ ही सध जाता था। हीराबाई ने जिस तैयारी व तत्परता के साथ शास्त्रीय संगीत को आत्मसात किया; उस्ताद वहीद ख़ॉं साहब को कहना पड़ा "ये बेटी तो गाने की फ़ोटोग्राफी करती है, यानी जैसा बताओ वैसा का वैसा उतार देती है।' हीराबाई ने ख़याल, ठुमरी, नाट्य संगीत तीनों विधाओं में महारत ही नहीं हासिल की बल्कि उसमें अपनी एक विशिष्ट पहचान भी बनाई। 1938 की कलकत्ता कान्फ्रेंस में हीराबाई ने बाबा अलाउद्दीन साहब, पं। रविशंकर उस्ताद, अहमद जान थिरकवा और स्वर सम्राट कुन्दनलाल सहगल की मौजूदगी में उस ज़माने की मशहूर गायिका रोशनआरा बेगम के बाद अपनी प्रस्तुति दी और पूरी महफ़िल लूट ली।
हीराबाई ताज़िंदगी लगातार यात्राओं में मसरूफ़ रहीं।वह ज़माना आज की तरह हर शहर
में हवाई जहाज़ पहुंचाने वाला नहीं था।रेल या बस ही आवागमन के लोकप्रिय साधन थे।
हीराबाई ने जितने कंसर्ट गाए और रेल यात्राएं की उसके मद्देनज़र मराठी के महान साहित्यकार पु ल देशपांडे मज़ाक में कहा करते थे कि हीराबाई बडोदकर को भारतीय रेल
का ब्रांड एम्बेसेडर बना देना चाहिये।
में हवाई जहाज़ पहुंचाने वाला नहीं था।रेल या बस ही आवागमन के लोकप्रिय साधन थे।
हीराबाई ने जितने कंसर्ट गाए और रेल यात्राएं की उसके मद्देनज़र मराठी के महान साहित्यकार पु ल देशपांडे मज़ाक में कहा करते थे कि हीराबाई बडोदकर को भारतीय रेल
का ब्रांड एम्बेसेडर बना देना चाहिये।
जिस ज़माने में हीराबाई मंच पर आईं तब महिलाओं के गायन पर बन्दिशें थीं। राजे-रजवाड़ों की रिवायते कुछ ऐसी थीं कि महिला गायिका का गाना मुश्किल ही हो जाया करता था । मराठी नाट्य संगीत के दौर में पुरुषों द्वारा महिला पात्रों के अभिनय का रिवाज़ था । महिलाएँ यदा-कदा मंच पर आती भी थीं तो खड़े होकर ही गाती थीं। हीराबाई ने पहले-पहल हिम्मत कर इन सारी रूढ़ियों को तोड़ा और महिला गायिकाओं को भी पुरुषों जैसा सम्मान दिलवाया। एक बार किसी नवाब की महफ़िल में उन्हें जब बैठ कर गाने की इजाज़त नहीं दी गई तो हीराबाई ने गाने से ही इन्कार कर दिया । जब दीगर गायिकाओं के साथ उन्हें भी कलदारों से नवाज़ा जाने लगा तो उन्होंने राशि ग्रहण करने से साफ मना कर दिया। सुरीली हीराबाई स्वाभिमान के स्तर पर कभी भी नीचे नहीं उतरीं । यदि हमने बाद में महिला गायिकाओं के लिए संगीत सभाओं में आदर देखा है तो बेझिझक कहना पड़ेगा कि इसका मंगलाचरण हीराबाई जैसी करिश्माई कलाकार के हस्ते हुआ था । उनके मराठी नाटकों में सौभद्र, साध्वी मीराबाई, युगांतर, पुण्य प्रभाव आदि अत्यंत उल्लेखनीय हैं । सौभद्र के नाट्य गीत "वद जाऊ कुणाला शरणाला' आज भी गायिकाओं द्वारा गाया जाता है और बार-बार हीराबाई की याद दिलाता है । संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, मास्टर दीनानाथ मंगेशकर सम्मान और "गान हीरा' की उपाधि से अलंकृत हीराबाई ने दरअसल इन सम्मानों का ही मान बढ़ाया है । हीराबाई को अपनी समकालीन गायिकाओं, ख़ासकर गौहरजान से अनन्य प्रेम मिला। 1989 में जब हीराबाई का अवसान हुआ तो पूरी संगीत हलचल जैसे एक लम्हा थम-सी गई। 1923 में राग दुर्गा में आई उनकी पहली ध्वनिमुद्रिका ने उन्हें एक घरेलू नाम बना दिया था और ये सिलसिला उनकी मृत्यु तक जारी रहा । वे पहली महिला गायिका थीं जिन्होंने अपनी बहन सरस्वती राणे के साथ ख़याल गायन में महिलाओं की जुगलबंदी का आग़ाज़ किया। उत्तर भारत में तो यह शैली पनप नहीं पाई (निर्मला देवी - लक्ष्मी शंकर के अपवाद को छोड़ कर) लेकिन दक्षिण भारत में अभी भी महिला जुगलबंदी गायन के प्रयोग बहुत लोकप्रिय हैं।
शालीन, सभ्य, सात्विक और सद्गुणी हीराबाई ने अपनी गृहस्थी को भी करीने से सजाया-सॅंवारा और अपने पूरे परिवार की निष्ठा से सेवा की । गायन की व्यस्तताओं के कारण उन्होंने कभी भी अपने पारिवारिक दायित्वों की अवहेलना नहीं की और एक कुशल पत्नी और मॉं के रूप में उन्होंने अपनी भूमिका का भी पूर्ण निर्वाह किया । आज शास्त्रीय संगीत गायिकी के परिदृश्य पर ग्लैमर, पैसे और शोहरत की झड़ी लगी हुई है, लेकिन उसमें हीराबाई जैसी तपस्विनी कलाकार की नामौजूदगी खलती है । यह अच्छा ही है कि हीराबाई जैसे महान कलाकार इस तथाकथित परिदृश्य से ओझल हो गए क्योंकि ये गुणी कलाकार ख़ास मकसद को लेकर अवतरित हुए थे, न कि पैसा और शोहरत कमाने के लिए । दुर्भाग्य की बात है कि हीराबाई जैसी बेजोड़ कलाकार के नाम पर न तो कोई सम्मान/पुरस्कार दिया जाता है और न ही उनकी जन्मशती प्रसंग (सन् 2004) पर कार्यक्रमों के आयोजन हुए। आपाधापी में व्यस्त होती ज़िंदगी यदि हीराबाई जैसी लाजवाब फ़नकारा को भुलाती गई तो निश्चित ही यह किसी अपराध से कम नहीं होगा। हीराबाई जैसे कलाकार कभी-कभी जन्म लेते हैं। यह हमारा सौभाग्य है कि उन्होंने उत्तर भारतीय शास्त्रीय संगीत की जीवन पर्यन्त सेवा की। हीराबाई जैसे कलाकारों का काम उनके न रहने के बाद भी दमकता रहता है। प्रसिद्ध हीरा निर्माता कंपनी डी-बियर्स की प्रचार पंक्ति शायद इसी महान स्वर-साधिका के लिए रची गई हो 'हीरा है सदा के लिए'।
1 comment:
हीरा है सदा के लिये.....ये पंक्ति अभी तक इश्तेहारी लगती थी....आपके लेख में आने के बाद वह सुरीली हो गई है.
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