Wednesday, April 16, 2008

भारत की पहली सिनेमास्कोप फ़िल्म - क़ाग़ज़ के फ़ूल


गुरूदत्त की बेहतरीन तस्वीरों मे से एक। ये अलग बात है कि इस फ़िल्म को कमर्शियल क़ामयाबी नहीं मिली किंतु चित्रपट प्रेमी,समीक्षक और टिप्पणीकार इस शाहकार की अहमियत जानते हैं। उम्मीद है क़ाग़ज़ के फ़ूल की ये जानकारी गुरूदत्त मुरीदों के
लिये महत्वपूर्ण होगी।

काग़ज़ के फूल के निर्देशक : गुरुदत्त

कन्नड़ भाषी होने के बावजूद गुरुदत्त पादुकोण बंगाली भाषा, संस्कृति, संगीत और बांग्ला भाषियों से ख़ासे प्रभावित थे। उदयशंकर के नृत्य समूह में रहकर वे और भी बंगाली हो गए थे। प्रभात और बॉंबे टॉकिज़ में सह-निर्देशक रहे गुरु ने क्राइम संस्पेंस और हास्य फ़िल्में देने के बाद तीन कालजयी गंभीर फ़िल्में दीं - प्यासा, काग़ज़ के फूल और साहिब बीवी और ग़ुलाम। इन फ़िल्मों में संवेदनशील गुरुदत्त सामने आए। उनकी फ़िल्मों में कैमरा भी अभिन्य करता था। "क़ाग़ज़ के फूल' फ़िल्म उनकी निजी कहानी मानी जाती है, लेकिन असल में ऐसा है नहीं। अपनी संवेदनशीलता, शिल्प और गीत-संगीत के लिए यह फ़िल्म आज भी याद की जाती है।


निर्माण वर्ष : १९५९
निर्माता निर्देशक : गुरुदत्त
पटकथा संवाद : अबरार अल्वी
छायांकन : वी.के. मूर्ति
कला / ध्वनि : एम.आर. आचरेकर / मुकुल बोस
गीतकार : कैफ़ी आज़मी
संगीतकार : एस.डी. बर्मन (सहायक आर.डी. बर्मन)
कलाकार : गुरुदत्त, वहीदा रहमान, बेबी नाज़, महेश कौल, वीणा,
जॉनी वॉकर, मीनू मुमताज़, प्रतिमा देवी

यादगार गीत

१. देखी ज़माने की यारी, बिछड़े सभी बारी-बारी
२. सन सन सन जो चली हवा
३. व़क़्त ने किया क्या हसीं सितम, तुम रहे न तुम, हम रहे न हम
४. उल्टे सीधे दांव लगाए
५. ओ पीटर ओ ब्रदर
६. एक दो तीन चार और पॉंच
७. उड़ जा उड़ा जा प्यासे भंवरे

गायक - मोहम्मद रफ़ी, गीता दत्त, आशा भोसले, सुधा मल्होत्रा


यादगार संवाद

१. कुछ लोग शराब पी कर बदतमीज़ियॉं करते हैं। कुछ लोग औरों की बदतमीज़ियॉं
भूलने के लिए शराब पीते हैं।
२. मैं हारा नहीं, सिर्फ़ थक गया हूँ।
३. कौवे को हंस की चाल चलते देखा था पर हंस को कौवे की चाल चलते पहली बार
देख रहा हूँ।
४. अगर तुम ऐक्ट्रेस अच्छी हो शांति। तो मैं भी डायरेक्टर बुरा नहीं हूँ।
५. अब नशे में रहने की आदत सी हो गई है। दौलत का नशा। शोहरत का नशा।
मुहब्बत का नशा और अब आख़री उम्मीद जगाने वाला यह शराब का नशा।
६. इस फ़िल्मी दुनिया में नाम और शोहरत मिलने में देर ज़रूर लगती है लेकिन
नामोनिशान खो जाने में कोई देरी नहीं लगती।
७. अरे। मुर्दा क्या पहली बार देख रहे हो।

4 comments:

Ghost Buster said...

१८-२० वर्ष पहले दूरदर्शन पर पहली बार देखी थी. अभिभूत हो गए थे. पर अभी दो हफ्ते पहले सीडी खरीद कर फिर से देखी तो बस ठीक ही लगी. गुरुदत्त उम्दा कलाकार थे मगर इंसान पलायनवादी थे. वही असर उनकी फिल्मों में भी नजर आता है. दुखों के प्रति एक रूमानी नजरिया रखते थे. अंततोगत्वा उसी गति को प्राप्त हुए.
फ़िल्म का गीत-संगीत लाजवाब है. गीत दत्त का कोई जोड़ नहीं.
ओरिजनल सीडी (मोसर बेर) केवल ३० रुपए में उपलब्ध है. सभी को ये क्लासिक एक बार अवश्य देखनी चाहिए.

Alpana Verma said...

fir se is film ke baare mein yaad dilane ke liye shukriya-

main to guru dutt ki waise hi fan hun--mujhe unki har film achchee lagti hai--yah to classic hai.

Abhishek Ojha said...

'कागज़ के फूल' मेरी पसंदीदा फिल्मों में से एक है... धन्यवाद इस जानकारी के लिए.

mamta said...

गुरुदत्त का अपना एक अलग ही style था फिल्में बनाने का। हालांकि ये फ़िल्म उस समय तो नही चली थी पर बाद मे लोगों को काफ़ी पसंद आई थी। और गाने तो गुरुदत्त की हर फ़िल्म के लाजवाब होते थे। अभी कुछ दिन पहले ही इसे किसी चैनल पर दिखाया गया था।