नहीं ! नहीं ! पापा डॉंटेंगे; अंकल दूसरों से भी लेना पड़ेगा; प्लीज़ ! ये झूमाझटकी आजकल चल रहे स्वागत समारोहों के मंच पर आम बात है। पत्रिका में आजकल ये पंक्ति लिखी देखने में आ रही है; आपका आशीर्वाद ही उपहार है। न लाए उपहार; मात्र शुभकामना-दुलार। आपकी उपस्थिति ही श्रेष्ठ उपहार होगी। आशीर्वाददाता यानी आप, हम, सब आजकल बड़ी चिंता से ये पंक्ति कुमकुम पत्रिका में ढूँढते हैं। ये पंक्ति मिल जाए तो गंगा नहाए। बड़ी लम्बी और राहत की सांस लेते हैं कि चलो फलाने जी के रिसेप्शन में कुछ नहीं ले जाना है। रिसेप्शन में लड्डू बाद में खाते हैं पर पत्रिका में ये पंक्ति पढ्ते ही मन में लड्डू फूट पड़ते हैं। "उपहार न लाएँ' यह आग्रह कभी मन में आदर का भाव उपजाता था। आजकल ये पंक्ति पढ़कर विचार आता है कि फलॉं साहब तो अब बड़े आदमी हो गए; हमारे ग्यारह और इक्कीस रुपये से तो डेकोरेटर का ठेला भाड़ा भी नहीं निकलेगा। अब हर व्यक्ति इक्यावन और एक सौ एक भेंट भी तो नहीं कर सकता। एक झमेला और कि अब आयोजन भी इतने होने लगे हैं कि यदि लग्नसरा में पंद्रह/बीस आयोजन "एट द रेट हंड्रेड इच' सल्टाए तो मालूम पड़ा दो महीने में आने वाले रु.२०००/- का किराना बजट ही सलट गया है। निमंत्रण भी आजकल आत्मीयता और रिश्तेदारी के आधार पर कम और "पब्लिक रिलेशन' के आधार पर ज़्यादा बॅंट रहे हैं। उपहार या नक़दी न लाने का आग्रह होने पर भी कई लोग लिफ़ाफ़ा ले जाकर झूठा प्रपंच करते हैं और बेचारे दूसरे अतिथियों को वाकई मुश्किल में डालते हैं जो सतर्कता से ये पंक्ति पढ़कर "सिंसियरली' लिफ़ाफ़ा नहीं लाए हैं। नवल-युगल की बुरी गत है। ले लो तो पापा नाराज़; न लो तो अंकलजी नाराज़। समाधान एक ही है कि जब नेगचार लेना ही नहीं है तो "दुल्हा-दुल्हन' को मंच पर "डिसप्ले' का ढकोसला मत कीजिये प्लीज़। खड़ा कर दीजिये दरवाज़े पर। वहीं प्रणाम करते हुए साबित कर देंगे...... कि वाकई आपका आशीर्वाद ही उपहार है।
2 comments:
ऐसा कब से शुरू हुआ?
ये तो पता ही न था...
चलो बढिया है...
नीरज भाई
जब से हमारा प्यारा मध्यम वर्ग जब से अपने आपको तथाकथित रईस समझने लगा ...बस तब ही शुरू हो गए ये चोचले.
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