Monday, April 28, 2008

क्षमा पात्र यह द्वार तुम्हारे; एक अकिंचन लेकर आया !

कविता मेरा इलाक़ा नहीं लेकिन विरासत में मिला संस्कार है।अनुभूति या अनुभव के स्तर पर कभी कभी कुछ भाव उमड़ते हैं वैसे ही जैसे बिन मौसम बादल बरसते हैं।मेरा मानना है कि हर व्यक्ति के मन में संगीत और कविता का अंडर-करंट होता है और वक़्त-बेवक़्त वह अभिव्यक्त हो ही जाता है.कविता-गीत-संगीत मुझे विरसे में वैसे ही मिले हैं जैसे मुझे मेरा जिस्म और ख़ून.और इसलिये यदि किसी पंक्ति पर यदि आपकी दाद मिलेगी तो पूरी ईमानदारी से मै उसे मेरे बाप-दादाओं की यश की बही में लिख देना चाहूंगा.मुलाहिज़ा फरमाएं

अहंकार से मन भरमाया
वाणी दूषित रोगी काया.

दुर्लभ जन्म मिला मानव का
इसको क्यों फ़िर क्षुद्र बनाया.

निहित स्वार्थ में जिया है जीवन
दृष्टी -वृत्ति मन कैसा पाया.

क्षण क्षण कितने हुए निरर्थक
अर्थ न जाना व्यर्थ कमाया.

स्वीकारो श्रद्धा-अनुनय यह
प्रेम-दान दो शीतल छाया.

क्षमा-पात्र यह द्वार तुम्हारे
एक अकिंचन लेकर आया.

3 comments:

पारुल "पुखराज" said...

सुंदर भाव--मनन योग्य

Udan Tashtari said...

क्षमा-पात्र यह द्वार तुम्हारे
एक अकिंचन लेकर आया.


-बहुत उम्दा. बही में चढ़ा लि्जिये..

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

बहुत अकिँचन भावना व्यक्त करती कविता है -
मनोभाव सरल हैँ -बढिया !
- लावण्या