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Friday, November 6, 2009

उड़ गया....कागद कारे करने वाला हँस अकेला !


आज सुबह आकाशवाणी समाचार में वरिष्ठ हिन्दी पत्रकार श्री प्रभाष जोशी के अवसान का समाचार सुना. यूँ लगा जैसे मालवा का एक लोकगीत ख़ामोश हो गया. उनके लेखन में मालवा रह-रह कर और लिपट-लिपट कर महकता था. नईदुनिया से अपनी पत्रकारिता की शुरूआत करने वाले प्रभाषजी के मुरीदों से बड़ी संख्या उनसे असहमत होने वालों की है. लेकिन वे असहमत स्वर भी महसूस करते रहे हैं कि पत्रकारिता में जिस तरह के लेखकीय पुरूषार्थ की ज़रूरत होती है; प्रभाषजी उसके अंतिम प्रतिनिधि कहे जाएंगे. आज पत्रकारिता में क़ामयाब होने के लिये जिस तरह के हथकंडे अपनाए जा रहे हैं ; प्रभाषजी उससे कोसों दूर अपने कमिटमेंट्स पर बने रहे. दिल्ली जाकर भी वे कभी भी मालवा से दूर नहीं हुए. बल्कि मैं तो यहाँ तक कहना चाहूँगा कि श्याम परमार, कुमार गंधर्व,प्रभाष जोशी और प्रहलादसिंह टिपानिया के बाद मालवा से मिली थाती को प्रभाषजी के अलावा किसी ने ईमानदारी से नहीं निभाया; यहाँ तक कि अब मालवा में रह कर पत्रकारिता,कला,कविता और संगीत से कमा कर खाने वालों ने भी नहीं. जनसत्ता उनके सम्पादकीय कार्यकाल और उसके बाद के समय में जिस प्रतिबध्द शैली में काम करता रहा है उसके पीछे कहीं न कहीं प्रभाषजी का पत्रकारीय संस्कार अवश्य क़ायम है. राहुल बारपुते जैसे समर्थ पत्रकार के सान्निध्य में प्रभाषजी ने अख़बारनवीसी की जो तालीम हासिल की उसे ज़िन्दगी भर निभाया. आज पत्रकारिता क्राइम,ग्लैमर और राजनीति के इर्द-गिर्द फ़ल-फूल रही है,कितने ऐसे पत्रकार हैं जो कुमार गंधर्व के निरगुणी पदों का मर्म जानते हैं,कितने केप्टन मुश्ताक अली या कर्नल सी.के.नायडू की धुंआधार बल्लेबाज़ी की बारीकियों को समझते हैं,कितने ऐसे हैं जो अपने परिवेश की गंध को अपने लेखन में बरक़रार रख पाते हैं; शायद एक-दो भी नहीं.राजनेताओं से निकटता आज पत्रकारिता में गर्व और उपलब्धि की बात मानी जाती है. प्रभाषजी जैसे पत्रकारों ने इसे हमेशा हेय समझा बल्कि मुझे तो लगता है कि कई राजनेता उनसे सामीप्य पाने के लिये लालायित रहे लेकिन जिसे उन्होंने ग़लत समझा ; ग़लत कहा...किसी व्यक्ति से तमाम विरोधों के बावजूद यदि प्रभाषजी को लगा कि नहीं उस व्यक्ति में कमज़ोरियों की बाद भी कुछ ख़ास बात है तो उसे ज़रूर स्वीकारा.अभी हाल ही में उन्होंने इंदिराजी की पुण्यतिथि पर दूरदर्शन के एक टॉक-शो में शिरक़त की थी और इंदिराजी की दृढ़ता और नेतृत्व -क्षमता की प्रशंसा की थी जबकि उन्हीं इंदिराजी को आपातकाल और उसके बाद कई बार प्रभाषजी ने अपने कागद-कारे में लताड़ भी लगाई थी.
बहरहाल...हिन्दी पत्रकारिता ही नहीं हिन्दी जगत में भी आज का दिन एक दु:ख भरे दिन के रूप में याद किया जाएगा क्योंकि हिन्दी की धजा को ऊंचा करने वाले प्रभाष जोशी आज हमारे बीच नहीं रहे हैं.....प्रभाष दादा क्या आप आज भी कुमार जी का यह पद सुन रहे हैं....उड़ जाएगा हँस अकेला.