Tuesday, April 22, 2008

किसी कंसर्ट को श्रोता/दर्शक भी सफल बनाता है !

बातें कुछ हैं जिनका आपको किसी भी महफ़िल में

शिरकत करते वक़्त ध्यान रखना चाहिये...





-कोशिश कीजिये कि निमंत्रण पत्र में जो समय दिया गया है आप उस टाइम पर सभागार में पहुँचें.

-यदि सभागार में बैठक की कुछ पंक्तियों को आरक्षित किया गया है तो उसका अनुसरण कीजिये आयोजक ने सभागार में कुछ वालेंटियर या सदस्य नियुक्त किये हैं बैठक व्यवस्था को सम्हालने के लिये तो प्लीज़ उनकी बात और उनके निर्देश मानिये.वे कुछ बेहतर करने के लिये ही वहाँ मौजूद रहते हैं.

-कार्यक्रम प्रारंभ होने के बाद आपके मोबाइल की घंटी बजना एक बेहूदी हरक़त है इसे स्पष्ट रूप से जान लीजिये....कलाकार या वक्ता जिस तैयारी से अपनी बात कहना चाहता है ..उसे आपके मोबाइल की घंटी से निश्चित रूप से ख़लल पड़ता है.ध्यान रखिये मोबाइल फ़ोन बनाने वालों ने हैण्डसेट में साइलेंट मोड इसीलिये दिया है कि बिना आवाज़ भी मोबाइल की सुविधा का फ़ायदा लिया जा सके ..बिना किसी को डिस्टर्ब किये...हाँ एक खा़स बात और....साइलेट मोड पर रखे मोबाइल पर यदि फ़ोन आया हो तो भगवान के लिये हाँल के बाहर जाकर बात कीजिये..सभागार में कुर्सी पर बैठे-बैठे नहीं.

-आपको लगता है कि कार्यक्रम का विषय ऐसा है जो आपके बच्चों की समझ और विवेक की हद के बाहर का है उन्हे साथ ले जाना ठीक नहीं

-कार्यक्रम यदि शुरू हो गया है और आप देर से पहुँचे हैं तो कृपया बहुत खा़मोशी से अपनी जगह तक पहुँचिये.आपके निमंत्रण पत्र में यदि सीट नम्बर उल्लेखित नहीं है और हाँल में कहीं भी बैठ जाने की आज़ादी है तो भी पीछे जहाँ जगह मिल जाए वहीं बैठ जाना समझदारी होगी.नाहक ही आगे जाने का लोभ मत कीजिये..दूसरे श्रोता-दर्शकों के मज़े और तन्मयता में ख़लल पडता है.

-संगीत के कार्यक्रम के कार्यक्रमों में अक्सर देखा गया है कि यदि कोई कलाकार बहुत अच्छा गा रहा है तो आप ख़ुश होकर एक नये गीत की फ़रमाइश कर बैठते हैं..बुरा नहीं इसमें कुछ ..लेकिन हो सकत उस कलाकार ने आपका फ़रमाइशी गीत तैयार न किया हो.हाँ एक बड़ी संभावना ये भी है कि कलाकार वह गीत या धुन या राग तो गाना/बजाना जानता हो लेकिन उसके संगतिकार उस रचना के लिये एकदम तैयार न हों...ये सोचना भी लाज़मी है कि आपसे एक बार दाद या प्रशंसा पा चुका कलाकार कोई भी कमज़ोर प्रस्तुति आपके सामने नहीं देना चाहेगा..इसमें यह भी नोट कर लें कि हर कलाकार अपने प्र्स्तुति के दिन के लिये एक खा़स मूड में होता है और उसी के मुताबिक तय करता है कि आज मुझे क्या गाना है और क्या नहीं...उसकी अपनी सोच होती है और विवषताएं भी.उदाहरण के लिये मान लीजिये कि आपने जिस गीत रचना की फ़रमाईश की है उसमें कोई खा़स वाद्य बजता है जैसे बाँसुरी ..अब आपके शहर में आते वक़्त कलाकार अपने साथ बाँसुरी वादक साथ नहीं लाया है तो भला वह कैसे आपकी फ़रमाइश पूरी करे.हाँ आप ये ज़रूर कर सकते हैं कि कार्यक्रम स्थल पर निर्धारित समय से थोडा़ जल्दी पहुँचकर कार्यक्रम आयोजक या कलाकार के मैनेजर/सहयोगी को फ़रमाइशी रचना एक काग़ज़ पर अपने नाम सहित दे दीजिये..मेरी बात पर यक़ीन करिये ...ऐसा करने से कलाकार को आपकी फ़रमाइश को पूरा करने का मन बनता है. कलाकार को भी यथासमय फ़रमाइश मिल जाए तो उसे प्रसन्नता होती है.

-यदि सभागार या कार्यक्रम में खाने-पीने की चीज़ें ले जाने पर मनाही है तो मत ले जाईये..हम ये उम्मीद तो करते हैं कि हाँल साफ़-सुथरे हों लेकिन ऐसा हो उसके लिये हमें भी तो सहयोग करना होगा.

-कार्यक्र्म में सामुहिक रूप से ठहाके लग रहे हों या तालियाँ बज रही हों तो आप ज़रूर उसमें शामिल हो जाइये लेकिन उसके अलावा इस बात का विशेष ध्यान रखें की आप अपने परिजनों से इतनी ऊंची आवाज़ में बात न करें जिससे अन्य श्रोताओं/दर्शकों को तकलीफ़ हो.

-कविता और शायरी के आयोजन दाद या आपके प्रतिसाद से ही सफल होते हैं ..इसलिये वहाँ ज़रूर दाद/प्रतिसाद दीजिये ..क्योंकि कविता/शायरी जैसा संवाद (communication) है से पूर्णता पाता है.

मैने ये सारी बातें एक श्रोता,दर्शक,आयोजक,एंकर पर्सन,सलाहकारऔर समीक्षक के रूप में जाँची,परखी और आज़माई है और महसूस किया है कि कलाकार की प्रतिभा,परिश्रम और उसके सितारा स्टेटस के बावजूद कई कार्यक्रम इसलिये असफल हो जाते हैं कि वहाँ दर्शक/श्रोता अपनी सार्थक और रचनात्मक भूमिका निभा पाता...सच मानिये किसी भी क़ामयाब कार्यक्रम में आपकी भूमिका किसी से कम नहीं

7 comments:

Yunus Khan said...

हुजूर पहली बार इस तरह का आह्वान आया है सामने । मुझे याद है कि कई कई बार नसीर भाई और दिनेश ठाकुर जैसे कलाकार अपने नाटकों में किसी दर्शक के मोबाइल से खीझकर रूक गए हैं । कसकर डांट लगाई है और फिर उसी मूड से नाटक को उठाया है जहां से रोका था ।

Unknown said...

और संजय भाई के इतने उम्दा टिप्स पढ़ने के बावजूद अकल नहीं आई हो तो पुणे, मुम्बई के किसी नाट्यगृह में जाकर एक-दो मराठी नाटक देख लीजिये, सारे "एटीकेट्स" लाइव रूप में समझ में आ जायेंगे… :) :)

PD said...

किसी कंसर्ट कि बात तो छोड़ दें, मैं तो किसी भी सार्वजनिक स्थल पर मोबाईल को साईलेंट में रखने के ही पक्ष में हूं.. मैने पहली बार मोबाइल सन् 1999 में प्रयोग किया था जब मैंने कालेज में नया नया गया था और उस समय तो मोबाईल की घंटी बजनी प्रतिष्ठा बढाने जैसा ही लगता था मगर मुझे वो शर्मिंदगी दे जाता था, मैं तब से ही इस बात का खयाल रखता आया हूं..

sanjay patel said...

मुम्बई और मराठी रंगमंच के आदाब वाक़ई सीखने जैसे हैं सुरेश भाई.युनूस भाई नसीरूद्दीन शाह और परेश रावल की जुगलबंदी में इन्दौर में नाटक रोक देने वाला वाक़या पेश आया था.कुछ देर तो सन्नाटा रहा सभागार में लेकिन बाद में सभी ने मौक़े की नज़ाक़त को पहचान और जिसका मोबाईल बजा था उसे सभागार से बाहर कर दिया. पीडी साहब ने ठीक फ़रमाया कि अब मोबाइल कोई बहुत बड़ी चीज़ नहीं है. बरसों पहले पश्चिम में भारत-रत्न पं.रविशंकर अपने कंसर्ट्स में सिगरेट पीने की मनाही निमत्रंण पत्रों में एक ख़ास निर्देश के रूप में छपवाते थे. वे तो मंच पर पूरे वादन के समय एक विशेष अगरबत्ती जलाए रखते थे....सिर्फ़ मोबाइल ही एक नॉनसेंस नहीं दीगर कई आदाब हैं जो हम को सीखने चाहिये.आज ही सुबह ख्यात संतूर वादक पं.उल्हास बापट से बात हो रही थी तो उन्होनें भी इस लेख की भावनाओं से सहमति जताई.आप सब की सहमति भी मेरे विचार को हिम्मत देती है.शुक्रिया.

Abhishek Ojha said...

बिल्कुल ठीक कहा आपने... पर ये बात कंसर्ट के अलावा बाकी मीटिंग पर भी बराबर लागू होती है.

Udan Tashtari said...

बिल्कुल सटीक टिप्स दिये हैं, संजय भाई.

Manas Path said...

सटीक , उम्दा.