विगत दिनों बड़ौदा में प्राध्यापन करन वाले श्री बालकृष्ण महंत मेरी कार्यस्थली पर तशरीफ़ लाए.उल्लेखनीय है कि श्री महंत बेहतरीन तबला वादक रहे हैं और ताल-आचार्य पं.किशन महाराज के शिष्य रहे हैं . श्री महंत के पिता भी महाराज जी के शाग़िर्द रहे हैं और महंतजी का बेटा हिमांशु भी किशन महाराज जी से ही तालीम लेता रहा है. चूँकि महंत परिवार और किशन महाराज जी का ताल्लुक तीन पीढी पुराना है सो अभी महाराज जी के देहावसान पर महंत परिवार में बड़ौदा के अपने निवास पर बाक़ायदा तीन दिन का शोक रखा .
महंतजी से संगीत विषय की कई बातें चलतीं रहीं . बात जब बड़ौदा की चल रही थी तो श्री महंत ने बताया कि अपने गृह-नगर उज्जैन(म.प्र)से जब उन्हें सन 1991 में रोज़गार के सिलसिले में बड़ौदा का रूख़ करना पड़ा तो मन बड़ा दु:खी था कि अपने उस जानकीनाथ मंदिर को छोड़ना पड़ेगा जिसकी देखरेख उनका परिवार बरसों से कर रहा था.इस परिवार में रामलला पूजा अनुष्ठान के अलावा बरसों से संगीत के कई जल्से होते रहे .संयोग देखिये कि बड़ौदा पहुँचने के चंद दिनों बाद ही श्री महंत को विश्व-विद्यालय परिसर में एक श्री राम मंदिर की देखरेख की ज़िम्मेदारी सौंपी गई. इस मंदिर की ख़ासियत यह थी कि श्रावण मास के पूरे चार शनिवार की रात को वहाँ शास्त्रीय संगीत की महफ़िलें जमतीं. ये सिलसिला कई बरसों से चल रहा है . श्री महंत जैसे संगीतप्रेमी को तो जैसे मन की मुराद मिल गई. श्री महंत ने रूचि लेकर इस कार्य का संपादन और संयोजन प्रारंभ किया और कई सालों से वह कार्य नि:स्वार्थ आनंदपूर्वक कर रहे हैं. अब कई स्थानीय कलाकार इस मंदिर के संगीत समागम में शिरक़त कर रहे हैं.
अब आता हूँ इस पोस्ट के लिखने के ख़ास मक़सद पर.....
श्री महंत ने जब इस मंदिर का चार्ज ले लिया तो पूर्ववर्ती मंदिर प्रबंधक या पुजारीजी कह लें से इस मंदिर के इतिहास को जानना चाहा. उन्हें एक रोचक बात जानने को मिली. पुजारी जी ने बताया कि आफ़ताबे मौसिक़ी और आगरा घराने के प्रतिनिधि गायक उस्ताद फ़ैयाज़ ख़ाँ साहब बडौदा रियासत के राज-गायक थे.उन्हें इस मंदिर की परम्परा के बारे में बताया गया तो वे बेहद ख़ुश हुए और कहा कि मैं भी इस मंदिर में श्रावण मास में अपनी हाज़री लगाने आना चाहूँगा. मंदिर परिवार के लिये इससे अच्छी बात और क्या बात हो सकती थी कि देश का जाना-माना फ़नकार उनके मंदिर मे आकर गाने को तैयार है.. तय हुआ कि फ़लाँ दिन ख़ाँ का गायन मंदिर में होगा. तत्कालीन पुजारीजी ख़ाँ साहब के घर पहुँचे और कहा ख़ाँ साहब में महाराज बड़ौदा के दरबार में जाकर आता हूँ और अर्ज़ करता हूँ कि उस्ताद जी आज हमारे मंदिर में गाने आ रहे हैं सो एक राजगायक के सम्मान के मुताबिक बग्घी और मुलाज़िमों का इंतज़ाम कर दे. ये सुनते ही ख़ाँ साहब बोले काहे का राजगायक पंडितजी..मैं तो दुनिया के राजा रामजी के मंदिर का ख़ादिम हूँ...बग्घी में बैठ कर आऊंगा तो ख़िदमत का मौक़ा न गवाँ दूँगा. मुझे इस सवाब को लूटने दीजिये.. श्री महंत की आँखे ये कहते हुए छलछला उठीं कि ख़ाँ साहब ने तानपुरा उठाया,कमर में खोंसा और पैदल चल पड़े मंदिर की ओर.....
सोचिये किस बलन और तबियत के कलाकार थे उस्ताद फ़ैयाज़ ख़ाँ साहब जैसे लोग.
आज संगीत की दुनिया में जिस तरह का ग्लैमर और ठाठबाट घुसपैठ कर रहा उसके
मुक़ाबिल इस प्रसंग को रखिये .....आप जान जाएँगे कि हमारे आज के कलाकार पैसे,प्रतिष्ठा और सुविधाओं के कितने ग़ुलाम होते जा रहे हैं. गंगा-जमनी तहज़ीब के ये कलेवर अब शायद ही देखने को मिलें !
आइये चलते चलते यू-ट्यूब के सौजन्य से सुनिये उस्ताद फ़ैयाज़ ख़ाँ साहब की खरज भरी आवाज़ में राग
जोग में निबध्द एक छोटी सी आलापचारी.
2 comments:
संजय भाई, फ़ैयाज़ ख़ान साहब का हृदयस्पर्शी वृत्तान्त पढ़कर लगा जैसे किसी दूसरे ग्रह की कोई ब्लैक एण्ड व्हाइट न्यूज़रील चल रही हो. अब तो इस क़ायदे और क़द के कलाकारों का तसव्वुर तक करना असंभव है.
धन्यवाद!
ऐसे फनकार जैसे आमोँ से लदा पेड खुदा की बँदगी मेँ खुदबखुद ,
झुक गया हो !
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