Thursday, November 27, 2008
विवाह समारोहों में ख़त्म हो रही आत्मीयता,बढ़ता जा रहा भौंडापन !
इन दिनों विवाह समारोहों की धूम रही. एक विचित्र बात इन समारोहों में ये देखने में आई कि सर्वत्र आर्थिक मंदी का ढोल बज रहा है लेकिन ब्याह-शादियों के ये प्रसंग इसका अपवाद ही कहे जाने चाहियें.बेतहाशा पैसा ख़र्च होता है इनमें.डेकोरेशन हो,संगीत हो या व्यंजन ; कहीं भी ऐसा नहीं लगता कि धंधा मंदा चल रहा है.
एक उद्योगपति परिवार में बेटी की शादी थी.रजनीगंधा के फूलों से स्टेज सजाया गया था. यक़ीन जानिये तक़रीबन बीस फ़ीट की हाइट थी उस बैकड्रॉप या मंच नैपथ्य की जिसके सामने दूल्हा-दूल्हन खड़े उपहार,आशीर्वाद क़ुबूल कर रहे थे.किसी ने कहा कि स्टेज डेकोरेशन ख़र्च में तो एक ग़रीब की बेटी के हाथ पीले हो जाते.
दूसरी एक शादी में शहर से तक़रीबन बीस किलोमीटर दूर जाना पड़ा.मेज़बान ने अपनी फ़ैक्ट्री के परिसर में ये आयोजन रचा था. मेरे शहर से दूर इस आयोजन स्थल के लिये जब जब मैं कार ड्राइव कर रहा था तो रास्ते में ग्रामीण बस्तियाँ भी पड़ रही .इन्हें गाँव नहीं कह सकता क्योंकि सड़क के किनारे बसी इन बस्तियों में बमुश्किल आठ – दस घर नज़र आ रहे थे. एक के आगे अच्छी रोशनी थी. कार धीमी कर ली मैंने.देखा तो घर के दालान में तीस-चालीस महिलाएँ रंग-बिरंगे परिधान में सजी बैठी हैं.दस-बीस पुरूष भी हैं.एक कोने में खटिया पर दुल्हन अपनी सखियों के संग बैठी हैं.गीत गाए जा रहे हैं और गूँज रही है मालवी ढोल की आवाज़. कुछ महिलाएँ उस पर पारम्परिक नृत्य कर रहीं हैं.हर एक के चेहरे पर मस्ती छाई है. आर्थिक रूप से बहुत ग़रीब भी नहीं दीख रहा है वह परिवार पर फ़िज़ूल की शानो-शौक़त भी नहीं नज़र आ रही.मन इस दृश्य को देख कर तृप्त सा है कि हमारा देश और उसकी सच्ची संस्कृति तो जैसे यहीं पसरी पड़ी हो.पूरे परिवेश में मिट्टी की महक है और अपनापन जैसे पूरे शबाब पर है. मैंने अपने बेटे-बेटी और पत्नी से कहा देखो ये रही शादी ब्याह की सच्ची ख़ुशी और रंगत.
गाड़ी आगे बढ़ा ली है मैने , दूर जो जाना है. अंधेरे में शायद पहली बार ख़ुद कार ड्राइव कर के अपने शहर से इतनी रात गए निकला हूँ. अब नज़र आ रहा है कुछ उजाला और
चमचमाती हुई कारें. आ पहुँचा हूँ उद्योगपति मित्र के विवाह प्रसंग में जहाँ आज संगीत की रात है. गाड़ी से उतरा हूँ तो देखता हूँ सिक्युरिटी वालों ने मुख्य द्वार पर स्वागत किया है. घराती नदारद हैं.परिसर में पहुँचते हैं देखता हूँ कि लाखों रूपये ख़र्च कर के सजावट की गई है. मुबंई से एक नर्तक दल आया है और कानफ़ोडू डीजे पर अंग्रेज़ी संगीत की धूम है. परिसर में एक स्टेज पर ये सब चल रहा है. भड़कीली ड्रेस में एक एंकर पर्सन लड़की नकली हँसी से माहौल में उत्तेजना बढ़ा रही है. गाना-बजाना चल रहा है. मेज़बान और मेहमान इस चकल्लस के मज़े ले रहे हैं.ट्रे में शराब के ग्लास और स्नैक्स लेकर वैटर्स घूम रहे हैं.आसमान में अब आतिशबाज़ी भी शुरू हो गई है.हम काफ़ी देर तक इस धूमधाम में परिवार के मुखिया या उनकी पत्नी को ढूँढ रहे हैं लेकिन निराश ही होते हैं. डांस पार्टी में वह खीं खीं करती लड़की दूल्हे और उसके मित्रों और परिजनों को मंच पर बुला कर नचा रही है.पूरा मजमा है कि आनंद में चूर है.लगभग पौन घंटा ये नौटंकी देखने के बाद मेरा परिवार महसूस करता है कि अब खाना खा लेना चाहिये वरना घर लौटने में देरी हो जाएगी.खाना एक दूसरे लॉन में है. वहाँ चले आए हैं हम. तरह तरह के व्यंजन महक रहे हैं.प्लेट उठाते हैं और खा –पीकर चले आए हैं हम अपनी गाड़ी में. न किसी से नमस्कार हो पाई है,न किसी ने पूछा है कि आपने खाना खाया या नहीं और न ही हम दूल्हे से मिल कर मुबारक़बाद दे पाए हैं.मेरा बेटा एक भोला सा प्रश्न उछाल देता है डैडी ऐसे तो हम किसी की भी पार्टी में भी जा सकते हैं, खाना खा सकते हैं ; चाहे उसने हमें बुलाया हो या न हो. मुझे लग रहा है कि इस तरह के बेफ़िक्र और बेख़बर मेज़बानी के बारे में बेटे का आकलन ठीक ही है.
अब हम सड़क पर आ गए हैं और फ़िर उन्हीं ग्रामीण बस्तियों से गुज़रते हुए शहर की तरफ़ लौट रहे हैं.वही ब्याह वाला घर आ गया है. अभी भी वहाँ चहल –पहल है. उसी दालान में जिसे मालवा में ओटला कहा जाता है सारे मेहमान और मेज़बान बैठे हैं.पंगत लगी है.सादा सा खाना नज़र होता है ऐसे आयोजनों में जिसमें आम तौर पर सब्ज़ी,पूड़ी,नुक्ती(बूँदी)रायता,दाल,सेंव,भजिये आदि व्यंजन होते हैं.ढोल अब भी बज रहा है लेकिन थोड़ा आहिस्ता जिससे खाने में ज़्यादा ख़लल न पड़े.परिजन मनुहार कर कर के खाना परोस रहे हैं.सादगी का जमावड़ा है.हँसे है, ठहाके हैं.कोई ख़ास तामझाम नहीं लेकिन लग रहा है कि इन व्यंजनों के साथ प्रेम की मदभरी पवन उस परिवार के आंगन में थिरक रही है.मैं मन ही मन सोच रहा हूँ जहाँ हम गए थे वहाँ इस प्रेम का पारावर क्यों न था. क्या हमारा समाज दिखावे और भौंड़ेपन में ज़्यादा रस लेने लगा है.क्या अपनापन,आत्मीयता,ख़ुलूस,परम्परा,विरासत और संस्कार जैसे शब्द बेमानी होते जा रहे हैं.घर लौटने के बाद पूरी रात सो नहीं पाया हूँ मैं,सोच रहा हूँ हम क्या थे और क्या हो गए....कल न जाने क्या होंगे.
Monday, November 10, 2008
गुणीजनों हो सके तो मुझे माफ़ करना.
मुझे क्या आता है ?
भीमसेन जोशी के भारतरत्न होने पर एक आदरांजलि
शब्दों का अतिरेकी जंजाल और सुने सुनाए संस्मरण
वह तो नहीं आता जो पंडितजी के कंठ से झरता है
रज़ा के रचना संसार और उनकी कूँची का प्रवाह
जिसकी समीक्षा कर मैं आत्मप्रवंचना से भर जाता हूँ
वह तो नहीं आता जो रज़ा साहब के ब्रश से बहता है
मेहंदी हसन की ग़ज़लों पर उस्तादी दिखाता मेरा क़लम
जिसकी तारीफ़ का क़िला बना कर मैं इठलाता हूँ
वह तो नही आता जो उस्ताद के गले में हरक़त करता है
बिरजू महाराज के कथक से आलोकित होता मंच
जिसकी वाह वाह से कर देता हूँ मैं किसी पत्रिका के पन्ने काले
वह तो नहीं आता जो महाराजजी की परनों और तोडों में थिरकता है
ज़ोहरा अंबालेवाली और अमीरबाई के गीतों में सिरजता माधुर्य
जिसमें सजी धुन का तबसिरा कर मैं झूम जाता हूँ
वह तो नहीं आता जो उनके तीन मिनट के करिश्मे में सुनाई देता है
एम.एस.सुब्बुलक्ष्मी के पावन स्वर में स्पंदित होता मार्दव
जिसे सुन मैं ध्यान मग्न हो एक कविता गढ़ देता हूँ
वह तो नहीं आता जो उनके कंठ से बहे शब्द को प्रार्थना बना देता है
पंडितजी,उस्तादों,विदूषियों,नृत्याचार्यों और चित्रकारों का किया कराया
सब को बता कर मैं भांड-मिरासियों के गौत्र का वंशज ही तो बन रहा हूँ
इन सब कला-साधकों का ज़र्रा भी बन न सकूँगा मैं अगले दस जन्मों में
तो फ़िर अकड़ता हूँ किस बात पर,किस औक़ात पर
गुणीजनों हो सके तो मुझे माफ़ करना.
भीमसेन जोशी के भारतरत्न होने पर एक आदरांजलि
शब्दों का अतिरेकी जंजाल और सुने सुनाए संस्मरण
वह तो नहीं आता जो पंडितजी के कंठ से झरता है
रज़ा के रचना संसार और उनकी कूँची का प्रवाह
जिसकी समीक्षा कर मैं आत्मप्रवंचना से भर जाता हूँ
वह तो नहीं आता जो रज़ा साहब के ब्रश से बहता है
मेहंदी हसन की ग़ज़लों पर उस्तादी दिखाता मेरा क़लम
जिसकी तारीफ़ का क़िला बना कर मैं इठलाता हूँ
वह तो नही आता जो उस्ताद के गले में हरक़त करता है
बिरजू महाराज के कथक से आलोकित होता मंच
जिसकी वाह वाह से कर देता हूँ मैं किसी पत्रिका के पन्ने काले
वह तो नहीं आता जो महाराजजी की परनों और तोडों में थिरकता है
ज़ोहरा अंबालेवाली और अमीरबाई के गीतों में सिरजता माधुर्य
जिसमें सजी धुन का तबसिरा कर मैं झूम जाता हूँ
वह तो नहीं आता जो उनके तीन मिनट के करिश्मे में सुनाई देता है
एम.एस.सुब्बुलक्ष्मी के पावन स्वर में स्पंदित होता मार्दव
जिसे सुन मैं ध्यान मग्न हो एक कविता गढ़ देता हूँ
वह तो नहीं आता जो उनके कंठ से बहे शब्द को प्रार्थना बना देता है
पंडितजी,उस्तादों,विदूषियों,नृत्याचार्यों और चित्रकारों का किया कराया
सब को बता कर मैं भांड-मिरासियों के गौत्र का वंशज ही तो बन रहा हूँ
इन सब कला-साधकों का ज़र्रा भी बन न सकूँगा मैं अगले दस जन्मों में
तो फ़िर अकड़ता हूँ किस बात पर,किस औक़ात पर
गुणीजनों हो सके तो मुझे माफ़ करना.
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