Wednesday, March 11, 2009
आज फ़िर याद आ गईं दिव्यमयी महादेवीजी
सरस्वती का साक्षात स्वरूप मानीं जाने वालीं हिन्दी कविता की पूजनीय हस्ताक्षर महादेवी वर्मा का जन्मदिन होली के दिन ही आता है. 1984 में लायन्स क्लब की युवा इकाई लियो क्लब के लिये महादेवीजी को इन्दौर न्योता था. लोक साहित्य के जाने माने लेखक दादा रामनारायण उपाध्याय के ज़रिये हमें मालूम पड़ा कि महादेवी जी खण्डवा आ रहीं हैं. पहुँच गए हम उनसे मिलने . हिन्दी के वरिष्ठ कवि श्रीयुत श्रीकांत जोशी के निवास पर महादेवी जी से मुलाक़ात हुई. नीले किनार वाली सूती सफ़ेद साड़ी ,आँखों पर काले मोटे फ़्रेम का चश्मा और पाँवों में साधारण सी स्लीपर. स्वर ऐसा खरज में डूबा हुआ कि बोलें तो लगे कि पाताल में से गूँज रही है ये आवाज़.पूछने लगीं क्यों बुलाना चाहते हैं इन्दौर.मैंने बताया युवाओं का संगठन है हमारा आप आएँगी तो प्रेरणा मिलेगी कुछ नया करने की. ठहाका लगाकर बोलीं मेरे लिये समय होगा आप सबके पास.हाँ कहने पर प्रसन्न हुई. आने का आश्वासन दे दिया.
उन दिनों न तो मोबाइल था न एस.टी.डी., इन्दौर से इलाहाबाद ट्रंककॉल मिलाना पड़ता था. मेरे मित्र आदित्य बस इसी काम मे लगे रहते.मालूम पड़ा वे हिंदी साहित्य समिति के आयोजन में शिरक़त के लिये इन्दौर आने वालीं है. उसके पहले भोपाल पहुँचेंगी. हम उन्हें आग्रह करने भोपाल पहुँच गए. भारत भवन में कार्यक्रम था. सीढ़ियों से नीचे उतरनें लगीं .मैं और इन्दौर से आए सारे साथी पीछे पीछे. डॉ.शिवमंगल सिंह सुमन ने एहतियातन हाथ थाम लिया महादेवीजी और बोले दीदी सम्हल कर. कहीं गिर न पडें ! महादेवीजी ने स्फ़ूर्त जवाब दिया मैं अब गिर भी गई तो क्या सुमन ( और हमारी और मुड़ कर इशारा करते हुए बोलीं) सम्हालना तो इस पीढ़ी को पड़ेगा ये न गिर न पड़े.
दो दिन बाद महादेवीजी इन्दौर आईं.लेकिन उसके पहले भोपाल में एक हादसा हो गया. सर्किट हाउस में महादेवीजी गिर पड़ीं और पैर में सूजन आ गई.भीषण पीड़ा ने घेर लिया महादेवीजी को लेकिन वादे के मुताबिक प्रेमचंद स्मृति प्रसंग में इन्दौर आईं.अमृत राय भी साथ में थे उस कार्यक्रम में.हमें इजाज़त दे दी थी सो हमने सैकड़ों निमंत्रण पत्र बाँट कर महादेवीजी की सभा को प्रचारित किया. रात आठ बजे कार्यक्रम था. सात बजे आयोजन स्थल पर फ़ोन आया कि महादेवीजी ने पैर की पीड़ा के कारण हमारे कार्यक्रम में आने से असमर्थता प्रकट की है. हम सब युवा साथियों को तो जैसे काटो तो ख़ून नहीं.तक़रीबन तीन – चार हज़ार श्रोता सदी की इस समर्थ काव्यमूर्ति से रूबरू होने को बेसब्र. मैं अपने साथी के साथ हिन्दी साहित्य समिति के आयोजन में पहुँचा. जैसे ही महादेवीजी मंच से उतरी और कार की तरफ़ आईं तो मैने कहा महादेवीजी कृपापूर्वक आयोजन स्थल पर चलिये न. उन्होंने कहा मेरा पैर साथ नहीं दे रहा. जब बात नहीं बनती दिखी तो मैंने अपना आख़री प्रस्ताव उनके सामने रखा और कहा चलिये संबोधन मत दीजिये. आयोजन स्थल पर मौजूद हज़ारों श्रोताओं को दर्शन तो दे दीजिये. पूछने लगीं क्या वाक़ई लोग आ गए होंगे. मैंने बताया चल कर देख लीजिये. कितनी दूर है आपका आयोजन स्थल उन्होंने पूछा. मैने कहा बमुश्किल पाँच मिनट के अंतराल पर. कहने लगी बोलूंगी नहीं. मैने कहा आप बस चल कर दर्शन दे दीजिये.वे राज़ी हो गईं.
आयोजन स्थल पर कार आई. महादेवीजी पिछली सीट पर बैठीं है. वरिष्ठ कवि श्रीयुत बालकवि बैरागी को हमने आयोजन की भावभूमि रखने के लिये आमंत्रित किया था. खुले मैदान में था वह कार्यक्रम . चारों तरफ़ कनातें लगीं हुईं थी. हमने एक पूरी कनात हटा दी और कार को मंच के ठीक सामने ले आए. हज़ारों लोगों नें तालियाँ बजा कर महादेवीजी का स्वागत किया. मैं और बालकविजी खिड़की के पास आए और हाथ जोड़ कर कहा मंच पर चलेंगी महादेवीजी. वे बच्चे सी तुनक कर बोलीं बात यहाँ तक आने की हुई थी मंच पर जाने की नहीं.मैंने मन में सारे आराध्य मनाते हुए उनसे कहा ; महादेवीजी एक बात कहूँ यदि आप इजाज़त दें ? कहो . मैने विनम्रता से कहा महादेवीजी मंच पर मत चलिये, क्या यहाँ आपकी कार में माइक ला दें तो संबोधित करेंगी.निवेदन करते हुए मेरे माथे पर पसीना आ रहा था. जनता एकदम ख़ामोश और स्तब्ध और जानने को बेसब्र कि हो क्या रहा है आख़िर . महादेवीजी ने कहा लाओ माइक लाओ , बोलूँगी लेकिन सिर्फ़ पाँच मिनट. हम सारे युवा साथियों को तो जैसे मनचाही मुराद मिल गई. बालकविजी ने प्रस्तावना रखी और महादेवीजी की पीड़ा का क़िस्सा बयान किया. डेली कॉलेज नाम के प्रतिष्ठित स्कूल के बच्चों ने स्वागत गीत गाया. हाँ बता दूँ कि महादेवीजी बचपन इसी डेली कॉलेज परिसर में बीता जहाँ उनके पिता प्राध्यापन के लिये रहे थे. गीत समाप्त होते ही ड्रायवर की सीट पर माइक रखा गया और महादेवीजी ने अपना संबोधन देते हुए कहा था कि समाज में साहित्यकार की ज़िम्मेदारी ज़्यादा बड़ी है. उसे सोचने के शऊर दिया है भगवान ने. महादेवीजी जब बोल रहीं थी तब पूरे माहौल में गरिमा और अनुशासन देखने लायक़ था.
आज इस बात को तक़रीबन पच्चीस बरस बीत गए. उसके बाद कई बड़े – छोटे आयोजन से जुड़ने और उन्हें संयोजित करने का मौक़ा आया लेकिन सन 1984 की वह शाम भुलाए नहीं भूलती. आज फ़िर स्मृति के तहख़ाने से वह तस्वीर बाहर आ गई तो सोचा चलिये बहुत दिनों बाद हिन्दी साहित्य की इस वरेण्य सारस्वत प्रतिमा का वंदन करते हुए यह वाक़या आपसे साझा कर लिया जाए.
चित्र में महादेवीजी प्रमुख हिन्दी समाचार पत्र नईदुनिया बाँचते हुए. साथ में ख़ाकसार है.
Labels:
कविता,
महादेवी वर्मा,
हिन्दी,
हिन्दी साहित्य.,
होली
Subscribe to:
Posts (Atom)