Thursday, August 14, 2008

ऐ मेरी काली माटी ,वीर प्रसूता,तू कभी बाँझ मत होना ! धन्य हे मेरे देश.


नरहरि पटेल मध्य-प्रदेश के प्रमुख शहर इन्दौर के बाशिंदे हैं.
मालवा उनका मादरे-वतन है.वे यहाँ की लोक संस्कृति,संगीत,गीत
नाट्य के वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी के रूप में जाने जाते हैं..मालवी ग़ज़लों पर नरहरिजी ने बहुत शिद्दत से काम किया है. अब तक उनके आठ मजमुए शाया हो चुके हैं.रेडियो के स्वर्णिम युग में वे आकाशवाणी इन्दौर के नाटको की चहेती आवाज़ रहे हैं .मध्य-प्रदेश में इप्टा के संस्थापकों के रूप में उनका नाम हमेशा शुमार किया जाता रहा है.आज जारी की रही कविता धन्य है मेरे देश नरहरि पटेल की लोकप्रिय रचनाओं में से एक रही है. ये कविता साठ के दशक में लिखी गई है लेकिन देश के हालात वही के वही हैं. इस रचना को पढ़ते हुए मन ये सोचकर दु:खी होता है कि ग्लोबलाइज़ेशन की जो बड़ी बड़ी बातें इन दिनों देश में हो रही है उनकी हक़ीक़त क्या हैं.



धन्य हे मेरे देश


धन्य हे मेरे देश...
जहॉं आज़ादी
जन्मसिद्ध अधिकार है
कर्तव्य बेकार है
आलस्य का बोल-बाला।
प्रमाद की गूँज
अश्लीलता का आग्रह
साम्प्रदायिकता के हाथ में
ईर्ष्या की माला।
आज़ादी का अर्थ मख़ौल
जो करना नहीं चाहिये, वह
किन्तु जो मन में आवे वही
सब कोई करने को तैयार है।
क्योंकि आज़ादी जन्मसिद्ध अधिकार है।

धन्य हे मेरे देश...
जहॉं मजबूरियॉं परास्त हैं
ऑपरचुनिटी खुली है
उनके लिये, जिन्हें वह मिली है।
सेवा के हामी सभी
पैसे के कामी सभी
गिनती के लोग
आम लोगों के जीवन का
अवमूल्यन कर देते हैं।
मज़ा तो यह है कि आम लोग
अर्थात् आप हम सब लोग
सब कुछ सह लेते हैं।

धन्य हे मेरे देश...
जहॉं हिन्दी के लिए
साधारण पहरुआ रोता है
और बोता है मन के आँसुओं के बीज
कि कभी तो हिन्दी उगेगी !
लेकिन कैसे उगेगी ?
जब उसके ही भाई
हिन्दी के सॉंई
अपनी ही औलाद को
मॉं के लिये मम्मी
पिता के लिये डैडी
सिखाने में गौरव अनुभव करते हैं।
जहॉं अहिन्दी भारतीय
अंग्रेज़ी के लिये जल मरते हैं।
मातृभाषा हिन्दी को
प्यार की जगह नफ़रत करते हैं।

धन्य हे मेरे देश...
जहॉं आदर्श
पुराणों में, वेदों में
तुलसीदास, आचार्य शुक्ल
और राजेन्द्र बाबू के
लेखों में भरे पड़े हैं।
या यूँ कहें मरे पड़े हैं!
उन्हें अपनाये कौन?
सभी मौन, सभी व्यस्त
व्यवहार और आदर्श में
कितना बड़ा फ़र्क़!

धन्य हे मेरे देश...
जहॉं प्रजातंत्र का कन्हैया
हर पॉंच साल में
मथुरा से लौट आता है
रास रचा जाता है
गोपियों को भुलावा देकर
वह फिर मथुरा चला जाता है।
गोपियॉं रोती हैं
और वह चैन की बंसी बजाता है।

धन्य हे मेरे देश...
जहॉं पश्चिम की हवा
हमारी संस्कृति में ट्रेस पास करती है
जीवन को छोड़ देती है
और जोड़ती है
हमारी चिन्तन धारों को
अवांछित विषैली धाराओं से
जो घातक है प्राणलेवा हैं
हे! देवा हे!

धन्य है मेरे देश...
जहॉं का मूर्धन्य कलाकार-क़लमकार
मौसम में ही गाता है कोयल के गीत
लेकिन जब पुरस्कृत हो जाता है
पद पा जाता है
तब पतझर के भरोसे
बाग़ को छोड़ जाता है।
क्योंकि वह मानता है
कि मौसम की तरह
उसे भी बदलने का अधिकार है।
इसी से जब बाग़ में फ़िज़ा है
तब उसके घर में बहार है।

धन्य है मेरे देश...
जहॉं जीवन को सुधारने की
उद्धारने की
बड़ी-बड़ी योजनाएँ हैं।
लेकिन योजना के नाम पर
विदेशी उधार बरक़रार
भाखड़ा नांगल और चम्बल में
बड़ी-बड़ी दरार
देशभक्तों में काला बाज़ार।
स्वार्थ, फ़रेबियों की भरमार
ओठों पर जय-हिंद का उच्चार
मन के अन्दर का सच्चापन
दे रहा अन्दर ही अन्दर
धिक्कार, धिक्कार, धिक्कार!

धन्य हे मेरे देश...
जहॉं प्रगति के नाम पर
भुखमरी है
जहॉं काल हमेशा
अकाल बन जाता है
और भारत माता का
शस्य श्यामल शरीर
अपने आप कंकाल बन जाता है!
यह हरित-वसना धरती मॉं
रेत ओढ़ना शुरू कर देती है
लेकिन इस मातमी-सूर्योदय के
त्यौहार में
यही प्रार्थना है
हे फूलों की घाटी के देश
तेरी स्वाधीन ग्रन्थि की बेला में
अब कोई ग़मगीन शाम मत होना।
ऐ मेरी काली माटी
वीर प्रसूता
तू कभी बॉंझ मत होना!

Sunday, August 10, 2008

शास्त्रीय संगीत के प्रति रूझान जगाता राग मियाँ मल्हार-पं.भीमसेन जोशी




कई मित्रों से जब शास्त्रीय संगीत सुनने का इसरार करता हूँ तो वे पूछते हैं ऐसा क्या सुनें जिससे क्लासिकल म्युज़िक के प्रति रूझान बढ़े ? एक सूची थमाता हूँ अक्सर जिसमें ये बंदिश ज़रूर होती जिसे आज पोस्ट कर रहा हूँ.आपको सुनाने का मक़सद तो है ही साथ ही लगातार बरस रहा मेह भी कुछ सुनने को विवश कर रहा है. सो सुनते सुनते ही आपको सुनाने का मन बना है.पं.भीमसेन जोशी का गाया राग मिया मल्हार उनकी हस्ताक्षर रचनाओं में से एक है.ये बहुत पुरानी रेकॉर्डिंग है जिसमें पंडितजी का दिव्य स्वर दमक रहा है.

जो शास्त्रीय संगीत कम सुनते हैं उन्हें बता दूँ कि जहाँ से एक दम ये बंदिश (बंदिश यानी कविता) शुरू हो रही है वह है एक संक्षिप्त सा आलाप.यानी गायक एक डिज़ाइन तैयार कर रहा है कि वह अपने गायन को कहाँ कहाँ ले जाएगा.एक तरह का प्लानिंग कह लीजिये इसे. फ़िर जहाँ तबला शुरू हो गया है वह विलम्बित है यानी धीमी गति है और पंडितजी इस विलम्बित के ज़रिये आपको बता रहे हैं कि किराना घराना गायन में मिया मल्हार को बरतते हैं.हर राग में कुछ स्वर ज़रूरी होते हैं और कुछ वर्जित . इसी से रागों में भिन्नता बनी रहती है. जब विलम्बित से राग का पूरा स्वरूप तय हो जाता है तब पंडितजी द्रुत गाएंगे.तबले की लयकारी तेज़ होगी और बंदिश भी बदलेगी.अमूमन विलम्बित और द्रुत बंदिशें अलग अलग रचना होतीं हैं यानी उनके बोल अलग होते हैं.ताल भी बदल जाती है. विलम्बित एक ताल में गाया जा रहा हो तो द्रुत तीन ताल में .

भीमसेनजी की गायकी में सरगम और तान का जलवा विलक्षण होता है. किराना घराने में बंदिश के शब्द कई बार साफ़ नहीं मिलते. शास्त्रीय संगीत सुनते वक़्त इसकी ज़्यादा चिंता न पालें.बस स्वर पर अपना ध्यान बनाए रखें.सुनें गायक किस तरह से एक ही बात को अलग अलग स्वरमाला में कैसे पिरोता जा रहा है. ध्यान रहे यह सब कॉपी-बुक स्टाइल में नहीं हो सकता. यानी शास्त्र तो अनुशासन में होता है , मशीनी भी कह लीजिये लेकिन रियाज़(जो शास्त्रीय संगीत का अभिन्न अंग है) सध जाने के बाद गायक ख़ुद अपनी कल्पनाशीलता का इस्तेमाल करत हुए अपना गान-वैभव सिरजता है.पंडितजी की गायकी का एक ऐसा शिखर हैं जहाँ वे किसी भी तरह के मैकेनिज़्म को भी धता बता देते हैं.उन्हें सुन कर (यहाँ द्रुत बंदिश में भी सुनियेगा और महसूस कीजियेगा)एक रूहानी भाव मन में उपजता है जिससे आप आनंद के लोक में चले जाते है. मियाँ मल्हार प्रकृति-प्रधान राग है लेकिन इसे किसी भी मौसम में सुना जा सकता है. और हाँ जब पं.भीमसेन जोशी मिया मल्हार गा रहे हों तो तपते वैशाख में भी बारिश का समाँ बन जाता है.

मैं संगीत का कोई बड़ा जानकार नहीं हूँ लेकिन सुन सुन कर ही शास्त्रीय संगीत का मोह मन में उपजा है. निश्चित ही इस शास्त्रीय संगीत धीरज मांगता है लेकिन एक बार आप इस ओर आ जाएँ तो आपको दीगर संगीत भी और अधिक सुरीला जान पड़ेगा. इस बंदिश को सुन लेने के बाद आप फ़िल्म चश्मेबद्दूर का गीत कहाँ से आए बदरा (संगीत:राजकमल/गायक:येशुदास+हेमंती शुक्ला/शब्द:स्व.इंदु जैन)सुनिये और महसूस कीजिये आपको वह गीत भी कितना सुहावन लगता है.यह भी साबित करता है कि लगभग सभी संगीत रचनाओं का आधार शास्त्रीय संगीत ही है.बल्कि फ़िल्म संगीत रचने वाले समय की मर्यादा में कितनी ख़ुबसूरत बात कह जाते हैं.


उम्मीद है पं.भीमसेन जोशी की यह रचना आपको निश्चित ही आनंद देगी.
मल्हार अंग का एक और राग पिछले दिनों कबाड़खाना पर भी सुना गया है.

Sunday, August 3, 2008

फ़्रेंडशिप डे-मित्र हो तो ऐसा

दोस्त ऐसा
जिसे कहो कुछ नहीं
समझ जाए

लिखो कुछ नहीं
पढ़ ले

आवाज़ दो
उसके पहले सुन ले

मुझे गुण-दोष सहित
स्वीकार करे

ग़र चोट लगे उसे
दर्द हो मुझे

कमाल मैं करूँ
गर्व हो उसे

अवसाद से उबार दे
स्नेह दे , सत्कार दे
आलोचना का अधिकार दे
रिश्तों को विस्तार दे

दु:ख में पीछे खड़ा नज़र आए
सुख का सारथी बन जाए

सिर्फ़ एक दिन फ़्रेंड न रहे
दिन-रात प्रति पल
धड़कता रहे सीने में

हैसियत और प्रतिष्ठा से सोचे हटकर
वही मित्र मुझे लगे प्रियकर.

Saturday, August 2, 2008

सखाराम बाइंडर,विजय तेंडुलकर और प्रिंटिंग प्रेस.


28 से ज़्यादा पूर्णाकार नाटक,7 एक-पात्रीय,6 बच्चों की नाटिकाएँ,लघु-कथाओं के 4 संकलन,3 निबंध संग्रह और 17 फ़िल्मों की पटकथाएँ रचने वाले ख्यात नाटककार विजय तेंडुलकर विगत 19 मई को हमसे बिछुड़े थे. अपने बेहतरीन कथानकों के लिये तेंडुलकरजी खासे चर्चित रहे और मूल मराठी मे लिखे गये नाटकों को हिन्दी और दीगर भाषाओं में अत्यधिक सराहा गया.

नाटककार जो भी अपने परिवेश,समाज और स्वाध्याय में महसूस करता है वही नाटक की शक्ल में क़लमबध्द होता है. यही बात विजय तेंडुलकर जैसे समर्थ लेखक पर भी लागू होती है. चूँकि एडवरटाइज़िंग और प्रिंटिंग के कारोबार से जुड़ा हूँ तो इन विधाओं पर भी प्रकाशित हो रहा साहित्य पढ़ता रहता हूँ.बस इसी वजह से प्रिंटिंग तकनीक पर प्रकाशित एक अंग्रेज़ी पत्रिका के पन्ने पलटा रहा था तो एक शीर्षक पर नज़र गई
विजय तेंडुलकर इन प्रिंट-वर्ल्ड ...एक लम्हा चौंक गया मैं.ज़रा इत्मीनान से जब वह ख़बर पढ़ी तो एक नई जानकारी मिली.

1960 में तेंडुलकर जी मराठा और लोकसत्ता दैनिक में काम करते थे. वे इन अख़बारों के प्रिंटिंग सैक्शन में घंटो बिताते...क़ाग़ज़ का आता , छपकर अख़बार बनता देखते रहते.उनके पिता भी एक छोटी प्रिंटिंग प्रेस चलाते थे.ख़बर में लिखा है कि सखाराम बाइंडर चरित्र इसी प्रेस अनुभव की उपज थी. अपनी भाषा शैली के लिये सखाराम बाइंडर अपने समय का सबसे विवादास्पद नाटक था. इस नाटक ने नैतिकता के नाम पर किये जाने वाले छदम व्यवहार पर भी कई प्रश्न-चिह्न उठाए थे. अख़बार और प्रेस के परिवेश का मंज़र संभवत: तेंडुलकरजी के अवचेतन में रहा हो और उसी से सखाराम का क़िरदार साकार हुआ हो.