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नरहरि पटेल मध्य-प्रदेश के प्रमुख शहर इन्दौर के बाशिंदे हैं.
मालवा उनका मादरे-वतन है.वे यहाँ की लोक संस्कृति,संगीत,गीत
नाट्य के वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी के रूप में जाने जाते हैं..मालवी ग़ज़लों पर नरहरिजी ने बहुत शिद्दत से काम किया है. अब तक उनके आठ मजमुए शाया हो चुके हैं.रेडियो के स्वर्णिम युग में वे आकाशवाणी इन्दौर के नाटको की चहेती आवाज़ रहे हैं .मध्य-प्रदेश में इप्टा के संस्थापकों के रूप में उनका नाम हमेशा शुमार किया जाता रहा है.आज जारी की रही कविता धन्य है मेरे देश नरहरि पटेल की लोकप्रिय रचनाओं में से एक रही है. ये कविता साठ के दशक में लिखी गई है लेकिन देश के हालात वही के वही हैं. इस रचना को पढ़ते हुए मन ये सोचकर दु:खी होता है कि ग्लोबलाइज़ेशन की जो बड़ी बड़ी बातें इन दिनों देश में हो रही है उनकी हक़ीक़त क्या हैं.
धन्य हे मेरे देश
धन्य हे मेरे देश...
जहॉं आज़ादी
जन्मसिद्ध अधिकार है
कर्तव्य बेकार है
आलस्य का बोल-बाला।
प्रमाद की गूँज
अश्लीलता का आग्रह
साम्प्रदायिकता के हाथ में
ईर्ष्या की माला।
आज़ादी का अर्थ मख़ौल
जो करना नहीं चाहिये, वह
किन्तु जो मन में आवे वही
सब कोई करने को तैयार है।
क्योंकि आज़ादी जन्मसिद्ध अधिकार है।
धन्य हे मेरे देश...
जहॉं मजबूरियॉं परास्त हैं
ऑपरचुनिटी खुली है
उनके लिये, जिन्हें वह मिली है।
सेवा के हामी सभी
पैसे के कामी सभी
गिनती के लोग
आम लोगों के जीवन का
अवमूल्यन कर देते हैं।
मज़ा तो यह है कि आम लोग
अर्थात् आप हम सब लोग
सब कुछ सह लेते हैं।
धन्य हे मेरे देश...
जहॉं हिन्दी के लिए
साधारण पहरुआ रोता है
और बोता है मन के आँसुओं के बीज
कि कभी तो हिन्दी उगेगी !
लेकिन कैसे उगेगी ?
जब उसके ही भाई
हिन्दी के सॉंई
अपनी ही औलाद को
मॉं के लिये मम्मी
पिता के लिये डैडी
सिखाने में गौरव अनुभव करते हैं।
जहॉं अहिन्दी भारतीय
अंग्रेज़ी के लिये जल मरते हैं।
मातृभाषा हिन्दी को
प्यार की जगह नफ़रत करते हैं।
धन्य हे मेरे देश...
जहॉं आदर्श
पुराणों में, वेदों में
तुलसीदास, आचार्य शुक्ल
और राजेन्द्र बाबू के
लेखों में भरे पड़े हैं।
या यूँ कहें मरे पड़े हैं!
उन्हें अपनाये कौन?
सभी मौन, सभी व्यस्त
व्यवहार और आदर्श में
कितना बड़ा फ़र्क़!
धन्य हे मेरे देश...
जहॉं प्रजातंत्र का कन्हैया
हर पॉंच साल में
मथुरा से लौट आता है
रास रचा जाता है
गोपियों को भुलावा देकर
वह फिर मथुरा चला जाता है।
गोपियॉं रोती हैं
और वह चैन की बंसी बजाता है।
धन्य हे मेरे देश...
जहॉं पश्चिम की हवा
हमारी संस्कृति में ट्रेस पास करती है
जीवन को छोड़ देती है
और जोड़ती है
हमारी चिन्तन धारों को
अवांछित विषैली धाराओं से
जो घातक है प्राणलेवा हैं
हे! देवा हे!
धन्य है मेरे देश...
जहॉं का मूर्धन्य कलाकार-क़लमकार
मौसम में ही गाता है कोयल के गीत
लेकिन जब पुरस्कृत हो जाता है
पद पा जाता है
तब पतझर के भरोसे
बाग़ को छोड़ जाता है।
क्योंकि वह मानता है
कि मौसम की तरह
उसे भी बदलने का अधिकार है।
इसी से जब बाग़ में फ़िज़ा है
तब उसके घर में बहार है।
धन्य है मेरे देश...
जहॉं जीवन को सुधारने की
उद्धारने की
बड़ी-बड़ी योजनाएँ हैं।
लेकिन योजना के नाम पर
विदेशी उधार बरक़रार
भाखड़ा नांगल और चम्बल में
बड़ी-बड़ी दरार
देशभक्तों में काला बाज़ार।
स्वार्थ, फ़रेबियों की भरमार
ओठों पर जय-हिंद का उच्चार
मन के अन्दर का सच्चापन
दे रहा अन्दर ही अन्दर
धिक्कार, धिक्कार, धिक्कार!
धन्य हे मेरे देश...
जहॉं प्रगति के नाम पर
भुखमरी है
जहॉं काल हमेशा
अकाल बन जाता है
और भारत माता का
शस्य श्यामल शरीर
अपने आप कंकाल बन जाता है!
यह हरित-वसना धरती मॉं
रेत ओढ़ना शुरू कर देती है
लेकिन इस मातमी-सूर्योदय के
त्यौहार में
यही प्रार्थना है
हे फूलों की घाटी के देश
तेरी स्वाधीन ग्रन्थि की बेला में
अब कोई ग़मगीन शाम मत होना।
ऐ मेरी काली माटी
वीर प्रसूता
तू कभी बॉंझ मत होना!