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उड़ती है वह बेख़बर
जैसा उड़ाने वाला चाहे
कितना समर्पण है उसमें
न कोई चाहना
न कोई शर्त
हवा के रूख़ को
हमसफ़र बना कर
उड़ती रहती है
वह अनंत आकाश में
हम मन को भी पतंग
बना लें तो कितना अच्छा हो
अनंत में उड़ते रहें
बिना किये परवाह
कौन उड़ा रहा है
कौन काट डालेगा
क्या होगा मेरा अस्तित्व
क्या होगा मेरा मुस्तक़बिल
बस उड़ते रहें बेख़बर
अपनी शर्तों और पूर्वग्रहों
से कितना बिगाड़ लिया है
हमने अपने शुध्द,मासूम मन को
अपने आग्रहों से,
अपने अहंकार से
अपनी मनमानी से
जानते हैं कि हो जाना है
एकदिन अनंत में विलीन
तो भी सच से मुँह फ़ेर कर
हम अड़े हैं अपनी बात पर
आओ बेख़बर उड़ने का शऊर
पतंग से सीख लें.