Sunday, June 10, 2012
अनेक यादों का वह लैटर बॉक्स.
आज सुबह घूमने निकला तो उस इलाक़े में चला गया जहाँ जीवन का किशोर और युवावय बीता था. शायद एक दो दिन पहले कोई अतिक्रमण विरोधी मुहीम हुई थी जिससे वह दूध का वह साँची पॉइंट हटा दिया गया और यह लैटर-बॉक्स प्रकट हो गया . आधा ज़मीन में गढ़ा हुआ और आधा बाहर,सीधा न होकर टेढ़ा सा बेहाल खड़ा था वह लैटर बॉक्स. उसे देखकर अपनी जेब से मोबाइल निकाला और एक चित्र क्लिक कर लिया.मोबाइल में चित्र देखा तो लगा वह लैटर बॉक्स कह रहा है शुक्रिया ! भाई,शायद कल मैं रहूँ न रहूँ, ये तस्वीर ज़रूर तुम्हारे पास रखे रखना.याद आया कि हम कॉलोनीवालों ने बड़े डाक-घर में जाकर इसे सत्तर के दशक में अपने इलाक़े में स्थापित करवाया था लेकिन देखते ही देखते कुरियर कल्चर ने पोस्ट ऑफ़िस जाने,डाक टिकिट/पोस्टकार्ड,अंतरदेशीय पत्र ख़रीदने और लैटर बॉक्स में चिट्ठी को पोस्ट करने की आदतें ही गुम करवा दीं.. इस पुराने लैटर बॉक्स को देख कर दीवाली पर डाले गये उन शुभकामना पत्रों की याद हो आई जो मैं हाथ से बनाता और सजाता था क्योंकि तब चिकने और रंग-बिरंगे महंगे ग्रीटिंग्स के बाज़ार ने लय नहीं पकड़ी थी. शुभकामना पत्र भेजते ही मन में ये भी बेचैनी भी होने लगती कि कब फ़लाँ रिश्तेदार/ मित्र तक यह पहुँचेगा और मज़मून और सजावट की तारीफ़ का प्रति-उत्तर कब आएगा.रोज़गार समाचार में बहुतेरी नौकरियों के इश्तेहारों पर भेजी अर्ज़ियों की स्मृति भी मन में उमड़ आई.भीगे भीगे मौसम में पोस्ट किये गये राखी के वे लिफ़ाफ़े भी याद आए जिन्हें माँ अपने भाईयों के लिये पोस्ट करवाती थी. कैसा जोश होता था उस वक़्त जब दौड़ कर लैटर बॉक्स तक पहुँच जाते थे.चिट्ठी पोस्ट होते ही यह मन ये ख़याल बुनने लगता कि अब मामा के घर जाने या मामा के अपने यहाँ आने का मज़ा मिलने वाला है. तब भी सुबह जल्दी डाक निकलती थी सो देर-रात को चिट्ठी पोस्ट करने जाने का जुनून कुछ अलग ही होता.बचपन में हमेशा यह कौतुक बना रहता कि चिट्ठी इस डिब्बे में डालते हैं ये तो ठीक है लेकिन कब और कौन उसे इसमें से निकालकर दूसरे शहर तक पहुँचाता होगा.जब लिखने पढ़ने का जोश ज़ोर मारने लगा तो इसी लैटर बॉक्स ने ही आसरा दिया था. पत्र संपादक के नाम लिखी कई चिट्ठियाँ इस डिब्बे के हवाले की थी जो छपतीं तो इस डिब्बे को शुक्रिया अदा करने को जी चाह्ता था.भवानीप्रसाद मिश्र,रामनारायण उपाध्याय,बालकवि बैरागी,महादेवी वर्मा को लिखी गई चिट्ठियाँ इसी लैटर बॉक्स से रवाना की थी.पोस्ट करने के पहले भी एक झिझक सी रहती थी कि कहीं कुछ ग़लत तो नहीं लिख दिया. गाँव में रह रहे दादाजी को ये सूचना देने में बड़ा मज़ा आता था कि मेरे इम्तेहान शुरु हो रहे हैं और इतनी तारीख़ को ख़त्म होंगे.पत्र में ये लिखना होता कि इस तारीख़ को मैं आपके पास छुट्टियाँ बिताने पहुँच जाऊँगा.ऐसे ख़त को पोस्ट करते ही लगता कि जैसे आज और अभी इम्तेहानों से मुक्ति मिल गई.आज इस पुराने लैटर बॉक्स को देखते ही शरद जोशी का व्यंग्य पोस्ट-ऑफ़िस याद आ गया जो उन्होंने इन्दौर के एक कवि-सम्मेलन में पढ़ा था और हज़ारों श्रोता लोटपोट हुए जा रहे थे. आज ज़माने बाद उस प्रिय लैटर बॉक्स को बेहाली में देखना दु:खद था. मैं तो अपनी सुबह की सैर पर आगे निकल गया लेकिन इस लैटर बॉक्स ने मुझे अतीत के गलियारों की सैर करवा दी. सोचता हूँ कि आज की पीढ़ी को तो शायद मालूम भी नहीं कि अपने क्षेत्र का लैटर बॉक्स कहाँ होगा क्योंकि वे तो अपने मोबाइल और कम्प्यूटर से रवाना किये जा रहे एसएमएस और ईमेल की दुनिया के वासी हैं न ! अब जब सबकुछ मशीनी हो गया है तो कहीं इस लैटर बॉक्स के लिये भावनाओं के यह प्रकटीकरण भी बेमानी तो नहीं ?
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8 comments:
बहुत खूब लिखा है भाई !! एक निर्जीव की मनस्तिथि आप इस तरीके से उबार लेते है - मन को छू जाती है लेखनी आपकी - जिस तरह आपने पुरानी यादो को कलमबद्ध किया पडकर लगा .......इतनी छोटी छोटी सरल बातें कब हमारे जीवन से विदा ल़े गयी पता ही चला !!
लेटर बाक्स धीरे धीरे लुप्त होते जा रहे हैं..एक सुनहरा अध्याय है पत्रों का साहित्य में..
Bhaiya, It is very touching. Aapne bilkul manobav se likha hai. Mere ko mera bachpan yaad aa gaya. Do gane bhi yaad aaye - Dakiya dak laya dak laya aur chithi aayi hai. It is really excellent.
बेहतरीन भाव अभिव्यक्ति प्रवीण पांडे जी की बात से पूर्णतः सहमति है।
sundar bhavavyakti...
समय के साथ कितना कुछ बदल जाता है
पत्रों से ही हमारे लेखन की शुरुआत होती थी. साक्षर होने के अर्थ में कहा जाता था, चिट्ठी लिख ले और रामायण बांच ले.
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