Thursday, November 26, 2009

आज है मुनव्वर राना और राजकुमार केसवानी का जन्मदिन.

सबसे पहले तो इन दोनो सुख़नवर की लम्बी उम्र की कामना करें.मुनव्वर राना और राजकुमार केसवानी को अलग-अलग इलाक़े के इंसान हैं लेकिन दोनो में एक समानता है कि ये अपनी शर्तों पर अपनी ज़िन्दगी बसर करते हैं.दोनों में ज़िन्दादिली एक स्थायी भाव है और मस्तमौला तबियत के धनी हैं,इंसानी तक़ाज़ों को कभी दरकिनार नहीं करते और जो भी काम करते हैं बड़ी ईमानदारी से करते हैं.



मुनव्वर राना का घर पूरा हिन्दुस्तान है.हम इन्दौरी भरम पाल लेते हैं कि इन्दौर उनका दूसरा घर है जबकि हक़ीकत यह है कि मुनव्वर भाई जहाँ जाते हैं अपना परिवार-दोस्त बना लेते हैं.उर्दू शायरी में रिश्तों को लेकर मुनव्वर भाई जो बातें कहीं हैं वे न केवल बेमिसाल हैं बल्कि एक लम्हा आपको अपनी ज़ाती ज़िन्दगी में झाँकने पर मजबूर भी करतीं हैं.दोस्त बनाने में मुनव्वर भाई का जवाब नहीं;और यक़ीनन वे दोस्ती निभाते भी हैं.अच्छा खाना मुनव्वर भाई की क़मज़ोरी है.वे कहते हैं ...जहाँ अच्छा खाना;वहाँ मुनव्वर राना.मुनव्वर भाई की सालगिरह पर उन्हीं की ग़ज़ल मुलाहिज़ा फ़रमाएँ:

हमारा तीर कुछ भी हो,निशाने तक पहुँचता है
परिन्दा कोई मौसम हो ठिकाने तक पहुँचता है

धुआँ बादल नहीं होता,कि बचपन दौड़ पड़ता है
ख़ुशी से कौन बच्चा कारख़ाने तक पहुँचता है

हमारी मुफ़लिसी पर आपको हँसना मुबारक हो
मगर यह तंज़ हर सैयद घराने तक पहुँचता है.





राजकुमार केसवानी की पहली पहचान अख़बारनवीस के बतौर है और दिसम्बर महीना नज़दीक़ आते ही राजभाई की पूछ-परख कुछ ज़्यादा ही हो जाती है क्योंकि यही वह पहला शख़्स है जिसने भोपाल गैस त्रासदी के लिये भारत सरकार को बहुत पहले चेताया था. राजकुमार केसवानी एक भावुक कवि भी हैं और उनकी रचनाओं में परिवेश और ज़िन्दगी के कई कलेवर नज़र आते हैं.वे दैनिक भास्कर के रविवारीय परिशिष्ट रस-रंग का सफल संपादन कर चुके हैं और देश के अख़बारों में हर हफ़्ते शाया होने वाले रविवासरीय पन्नों से रस-रंग को बहुत आगे निकाल चुके हैं.वे एक संजीदा इंसान इसलिये भी हैं कि हर तरह का वह संगीत जिसमें सुर की रूह मौजूद है राजभाई सुनना और गुनना पसंद करते हैं.स्वयं उनके निजी संकलन में कई बेमिसाल बंदिशें मौजूद हैं जिनमें फ़िल्म संगीत,ग़ज़ले और क्लासिकल रचनाओं का शुमार है.वर्ल्ड क्लासिक फ़िल्में भी राजभाई की कमज़ोरी रही हैं.सूफ़ी परम्परा के पुरोधा बाबा रूमी पर राजकुमार केसवानी के मजमुए में झर रहीं रूहानियत महसूस करने की चीज़ है. राजभाई की एक कविता आपके साथ बाँटना चाहता हूँ

बचपन में
मेरे पास
सिर्फ़ बचपन था
और वह
सबको
अच्छा लगता था

बुढ़ापे मे अब
मेरे पास
रह गया है
सिर्फ़ बचपना
और वह
किसी को
अच्छा नहीं लगता.


तो लीजिये दोस्तो,आज उर्दू-हिन्दी की शब्द-सेवा करने वाले दो प्यारे इंसानों को उनके जन्मदिन की बधाई देत हुए मैं अपनी बात को विराम देता हूँ.
बधाई....मुनव्वर राना....राजकुमार केसवानी.

Friday, November 6, 2009

उड़ गया....कागद कारे करने वाला हँस अकेला !


आज सुबह आकाशवाणी समाचार में वरिष्ठ हिन्दी पत्रकार श्री प्रभाष जोशी के अवसान का समाचार सुना. यूँ लगा जैसे मालवा का एक लोकगीत ख़ामोश हो गया. उनके लेखन में मालवा रह-रह कर और लिपट-लिपट कर महकता था. नईदुनिया से अपनी पत्रकारिता की शुरूआत करने वाले प्रभाषजी के मुरीदों से बड़ी संख्या उनसे असहमत होने वालों की है. लेकिन वे असहमत स्वर भी महसूस करते रहे हैं कि पत्रकारिता में जिस तरह के लेखकीय पुरूषार्थ की ज़रूरत होती है; प्रभाषजी उसके अंतिम प्रतिनिधि कहे जाएंगे. आज पत्रकारिता में क़ामयाब होने के लिये जिस तरह के हथकंडे अपनाए जा रहे हैं ; प्रभाषजी उससे कोसों दूर अपने कमिटमेंट्स पर बने रहे. दिल्ली जाकर भी वे कभी भी मालवा से दूर नहीं हुए. बल्कि मैं तो यहाँ तक कहना चाहूँगा कि श्याम परमार, कुमार गंधर्व,प्रभाष जोशी और प्रहलादसिंह टिपानिया के बाद मालवा से मिली थाती को प्रभाषजी के अलावा किसी ने ईमानदारी से नहीं निभाया; यहाँ तक कि अब मालवा में रह कर पत्रकारिता,कला,कविता और संगीत से कमा कर खाने वालों ने भी नहीं. जनसत्ता उनके सम्पादकीय कार्यकाल और उसके बाद के समय में जिस प्रतिबध्द शैली में काम करता रहा है उसके पीछे कहीं न कहीं प्रभाषजी का पत्रकारीय संस्कार अवश्य क़ायम है. राहुल बारपुते जैसे समर्थ पत्रकार के सान्निध्य में प्रभाषजी ने अख़बारनवीसी की जो तालीम हासिल की उसे ज़िन्दगी भर निभाया. आज पत्रकारिता क्राइम,ग्लैमर और राजनीति के इर्द-गिर्द फ़ल-फूल रही है,कितने ऐसे पत्रकार हैं जो कुमार गंधर्व के निरगुणी पदों का मर्म जानते हैं,कितने केप्टन मुश्ताक अली या कर्नल सी.के.नायडू की धुंआधार बल्लेबाज़ी की बारीकियों को समझते हैं,कितने ऐसे हैं जो अपने परिवेश की गंध को अपने लेखन में बरक़रार रख पाते हैं; शायद एक-दो भी नहीं.राजनेताओं से निकटता आज पत्रकारिता में गर्व और उपलब्धि की बात मानी जाती है. प्रभाषजी जैसे पत्रकारों ने इसे हमेशा हेय समझा बल्कि मुझे तो लगता है कि कई राजनेता उनसे सामीप्य पाने के लिये लालायित रहे लेकिन जिसे उन्होंने ग़लत समझा ; ग़लत कहा...किसी व्यक्ति से तमाम विरोधों के बावजूद यदि प्रभाषजी को लगा कि नहीं उस व्यक्ति में कमज़ोरियों की बाद भी कुछ ख़ास बात है तो उसे ज़रूर स्वीकारा.अभी हाल ही में उन्होंने इंदिराजी की पुण्यतिथि पर दूरदर्शन के एक टॉक-शो में शिरक़त की थी और इंदिराजी की दृढ़ता और नेतृत्व -क्षमता की प्रशंसा की थी जबकि उन्हीं इंदिराजी को आपातकाल और उसके बाद कई बार प्रभाषजी ने अपने कागद-कारे में लताड़ भी लगाई थी.
बहरहाल...हिन्दी पत्रकारिता ही नहीं हिन्दी जगत में भी आज का दिन एक दु:ख भरे दिन के रूप में याद किया जाएगा क्योंकि हिन्दी की धजा को ऊंचा करने वाले प्रभाष जोशी आज हमारे बीच नहीं रहे हैं.....प्रभाष दादा क्या आप आज भी कुमार जी का यह पद सुन रहे हैं....उड़ जाएगा हँस अकेला.