Monday, August 9, 2010

रज्जू बाबू की याद के बहाने


शनिवार ७ अगस्त को वरेण्य पत्रकार राजेन्द्र माथुर का पिचहत्तरवाँ जन्म दिवस था. वरिष्ठ कवि और रज्जू बाबू के अनन्य सखा डॉ.सरोजकुमार,नईदुनिया के स्थानीय संपादक और मैं एक पुस्तक विमोचन समारोह में बतौर मेहमान मंच पर थे. यह कार्यक्रम इन्दौर प्रेस क्लब के राजेन्द्र माथुर सभागार में आयोजित था और मंच से सामने नज़र आ रही थी रज्जू बाबू की तस्वीर. जयदीप भाई ने बड़ी भावुकता से रज्जू बाबू को याद किया और उनकी क़ाबिलियत का ज़िक्र भी किया. डॉ.सरोजकुमार ने भी आत्मीयतापूर्वक रज्जू बाबू को स्मरण करते हुए बताया कि उन्हें इस बात की पीड़ा जीवन भर रहेगी कि जिन मुम्बई और दिल्ली शहरों में स्थित प्रतिष्ठित चिकित्सा संस्थानों में देश भर के सामान्य लोग बिना किसी ज़रिये और पहचान के इलाज करवा आते हैं उन्हीं शहरों में राजेन्द्र माथुर और शरद जोशी जैसी अनन्य विभूतियों ने मामूली नर्सिंग होम्स में अपनी अंतिम साँस ली.
सरोजकुमार जी ने बताया कि जिस समय रज्जू बाबू नईदुनिया से विदा लेकर दिल्ली प्रस्थान करने वाले थे उसके पहले इन्दौर की कई संस्थाओं ने श्री माथुर के सम्मान में विदाई समारोह आयोजित किये. इन आयोजकों में से अधिकांश की इच्छा यह रहती थी कि रज्जू बाबू जाते जाते नईदुनिया के प्रति अपनी कडुवाहट प्रकट करें या यह कहें कि इस कारण मैंने नईदुनिया छोड़ दी. लेकिन रज्जू बाबू ताज़िन्दगी एक शालीन व्यक्तित्व के धनी रहे और उसी के मुताबिक आचरण करते रहे. उन्होनें इन विदाई समारोहों में हमेशा यही कहा कि मैं एक बढ़िया अख़बार से बड़े अख़बार में जा रहा हूँ.

७ अगस्त को ही सुबह अंग्रेज़ी दैनिक इकॉनिमक टाइम्स पर नज़र गई और सुखद अनुभूति हुई संपादकीय पृष्ठ पर जाकर जहाँ वरिष्ठ पत्रकार मधुसूदन आनंद ने तक़रीबन चार कॉलम में बड़े आदर से रज्जू बाबू को याद किया. उन्होंने लिखा कि रज्जू बाबू पाठक को भी अख़बार और सत्ता की लड़ाई की महत्वपूर्ण कड़ी मानते थे और देर तक दफ़्तर में बैठकर पाठकों के पत्रों को अख़बार के लिये प्रकाशन हेतु चुनते थे.

यह बताना प्रासंगिक होगा कि मूल रूप से एक अंग्रेज़ी प्राध्यापक के रुप में अपना करियर प्रारंभ कर चुके राजेन्द्र माथुर एक सजग स्वाध्यायी थे.देश विदेश की राजनीति के अलावा मैंने उन्हें इन्दौर के तक़रीबन हर हिन्दी नाटक और संगीत के जल्से में एक चैतन्य श्रोता/दर्शक के रूप में देखा था. शनिवार को ही मेरे शहर के एक पत्रकार से भी मुलाक़ात हुई और उसने बताया कि रज्जू बाबू हमेशा कहते थे कि हिन्दी में चार लाइन सशक्त लाइन्स लिखने के लिये अंग्रेज़ी की चार सौ लाइन नियमपूर्वक पढ़ा करों.

आज जब पत्रकारिता में अविश्वसनीय ग्लैमर और पैसा उपलब्ध है ऐसे में राजेन्द्र माथुर जैसे वैष्णव पत्रकार की याद आते ही श्रध्दा से सर झुक जाता है. रज्जू बाबू हमेशा आदरणीय बने रहेंगे.

5 comments:

Udan Tashtari said...

रज्जू बाबू को नमन!

अजित वडनेरकर said...

माथुर साहब की स्मृतियों को नमन्....
उन खुशनसीबों में हूं जिन्हें उन्हे देखने, समझने और साथ काम करने का मौका मिला। हालांकि हम उन्हें रज्जूबाबू नहीं बल्कि माथुरसाब के रूप में जानते रहे और इसी रूप से मुहब्बत भी करते हैं।

प्रवीण पाण्डेय said...

रज्जू बाबू की पत्रकारिता को नमन।

दिलीप कवठेकर said...

सही कहा. रज्जु बाबु वाकई में वैष्णव पत्रकार थे. उनके होते हुए उनसे मिलने पर कभी एहसास नहीं हुआ कि वे इतने जाने माने व्यक्तित्व हैं.

प्रदीप कांत said...

उन्होनें इन विदाई समारोहों में हमेशा यही कहा कि मैं एक बढ़िया अख़बार से बड़े अख़बार में जा रहा हूँ.

इस शालीनता का कायल होना पडता है