Thursday, January 6, 2011

अपने बच्चे को बच्चा ही रहने दीजिए !


यदि आप एक पालक हैं तो आपके मन में अपने बालक के लिये कई उम्मीदें होंगी कि वह एक डॉक्टर, एक अभियंता, वैज्ञानिक या कोई यशस्वी व्यवसायी बने। मेरा मानना है कि आपकी ये उम्मीदें आपके बालक के भविष्य और आपके जीवन में उसके स्थान को ध्यान में रखते हुए ही होंगी।

चूँकि एक अच्छी शिक्षा अक्सर अच्छे भविष्य का पासपोर्ट होती है, मेरी मान्यता है कि इसी कारण यह उद्देश्य आपको आपके बालक को एक अच्छे विद्यालय में प्रवेश हेतु प्रेरित करता है, तत्पश्चात्‌ आप बालक को अच्छी पढ़ाई कर परीक्षा में अच्छी सफलता पाने के लिये प्रोत्साहित करते हैं। इसी उद्देश्य को अधिक सुनिश्चित करने के लिये आप उसे किसी ट्‌यूशन क्लास में भी भेजते हैं। फलस्वरूप वह बालक बोर्ड की परीक्षाएँ और अन्य प्रवेश परीक्षाएँ देने हेतु विवश होता है ताकि उसे किसी अच्छे व्यवसायिक अभ्यासक्रम में प्रवेश मिल सके। महाविद्यालय में अच्छा यश पाने से उसे एक अच्छी नौकरी पाने की संभावनाएँ बढ़ जाती हैंऔर एक अच्छी नौकरी का अर्थ बालक का भविष्य सुनिश्चित हो जाना होता है।

मैं स्वयं न एक मनोवैज्ञानिक हूँ; ना ही एक शिक्षाविद्‌, और अब मैं जो कहूँगा वह उपरोक्त विचारों के एकदम विरूद्ध लग सकता है। मेरे विचार में यही अपेक्षाएँ और तद्‌नुसार की गई क्रियाएँ आपके बालक को अच्छाई कम और नुकसान अधिक पहुँचा सकती हैं ! ऐसा क्यों ? यह समझने के लिये हमें अपनी मूलभूत मान्यताओं को पुन: देखना होगा।

सर्वप्रथम, मैंने बार-बार यह देखा है कि किसी दूरस्थ भविष्यकालीन उद्देश्य के लिये प्रयास करते जाने का अर्थ है आप वर्तमान में नहीं जी रहे हैं। उस दूरस्थ उद्देश्य का परिणाम होगा, यश पाने के लिये परीक्षा जैसे बाह्य साधनों का आधार लेना और अधिकांश बच्चों का परीक्षा-केन्द्रित होना। उनका बच्चे होना-जैसे उत्सुक, मसखरा, शोधक, गिरना, उठना, संबंध रखना, खोज करना, संशोधन करना, काम करना, खेलना आदि वे भूलते ही जाते हैं।

बाल्यकाल एक बड़ी मौल्यवान बात होती है; ऐसी मौल्यवान, जो ज़बरदस्ती लादी गई स्पर्धाओं के नकली बोझ, किताबी अध्ययन के अनगिनत घंटों और समूचे इंसान को मात्र आँकड़ों में ही सहजता से लपेटने वाली स्कूली रिपोर्टों के द्वारा नष्ट नहीं की जानी चाहिए।

दूसरी मान्यता यह है कि सामाजिक-आर्थिक उति के लिये शिक्षा मात्र एक टिकट जैसी है, अपने राष्ट्र की वर्तमान अवस्था देखने पर यह सत्य भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। किंतु शिक्षा को केवल इसी पहलू तक सीमित रखना, मेरे विचार से शिक्षा को एक बहुत सीमित उद्देश्य के दायरे में रखना होगा। किसी विद्यालय का प्राथमिक उद्देश्य बालक को स्वयं की और अपने विश्व की खोज करने हेतु मार्गदर्शन करना और बालक की क्षमताओं को पहचान कर उनको आकार देना होता है। जैसे की एक बीज में एक भविष्य का वृक्ष छिपा होता है उसी प्रकार एक बालक अनगिनत क्षमताओं के साथ ही जन्म लेता है। ऐसे एक विद्यालय की कल्पना कीजिए जो बच्चों को बोने हेतु बीजों के रूप में देखता है-यहॉं एक शिक्षक ऐसा माली होता है जो बालकों की जन्मजात क्षमताओं को उभारने में मदद करता है। यह विचार उस वर्तमान दृष्टिकोण से, जिसमें यह माना जाता है कि एक बालक मात्र एक मिट्टी का गोला होता है जिसे अपनी इच्छानुसार ढालने वाले उसके माता-पिता और शिक्षक एक मूर्तिकार होते हैं, एकदम विपरीत है। एक पुरानी (अब स्मृति शेष भी न रही) चीनी कहावत है, एक कुम्हार को एक बीज दीजिये, और आप पाएँगे एक बोनसाई (गमले में उगा बौना वृक्ष)। एक व्यापारी संस्थान में भी लाभ पाने के लिये उसका पीछा करने से काम नहीं हो पाता। हमें एक ऐसी संस्था बनानी होती है जिसमें हर कर्मचारी को अर्थपूर्ण तथा संतोषप्रद काम करने के अवसर देना होते हैं। एक ऐसे संगठन का निर्माण हो जिसमें नवीनता, नेकी, ग्राहक-केन्द्रिता हो तथा आस्था ही उसकी चालना हो। जैसे ही आप हर पल, हर दिन इन मूल्यों का पालन करेंगे आप यह पाएँगे कि लाभ अपनी चिंता स्वयं ही कर लेता है।

ठीक उसी तरह प्रिय पालकगण, मेरी आपसे भी एक विनती है, अपने बालक का भविष्य सुरक्षित करने के लिये उसके बचपन को न गॅंवाइए। अपने बालक को निश्चिंतता से उसका जीवन टटोलने और ढूँढने की स्वतंत्रता दीजिए। ऐसा करने पर आप अपने बालक को एक सृजनशील एवं संवेदनशील इंसान के रूप में फलता-फूलता देख पाएँगे और जब ऐसा होगा तब अन्य सब कुछ यानी समृद्धि, सामाजिक सफलता, सुरक्षा अपनी जगह अपने-आप पा लेंगे।

अपने बालक को बालक ही रहने दीजिए !

(इस लेख को अंग्रेज़ी में विख्यात उद्योगपति अज़ीम प्रेमजी ने लिखा था;ब्लॉग बिरादरी के लिये अनुवाद कर अपने ब्लॉग पर जारी किया है.)

12 comments:

eSwami said...

सहमत हूं! इसे हिन्दी में प्रस्तुत करने के लिये धन्यवाद.

प्रवीण पाण्डेय said...

अन्जाने भविष्य में सर खपाने से अच्छा है कि वर्तमान में जी लिया जाये।

vandana gupta said...

बहुत सुन्दर आलेख …………सोच को नयी दिशा देता है।

sanjay patel said...

आप सभी का आभार.

Unknown said...

अपने बालक को बालक ही रहने दीजिए !

संतोष त्रिवेदी said...

आज हमारा बचपन खोता जा रहा है,जवानी संभल नहीं रही है और बुढ़ापा कट नहीं रहा है.बहरहाल,यदि शुरुआत अच्छी हो जाये तो बाकी भी सुधर जायेगा !

Bhavana Newaskar said...

Aaj ke palko ke liye uttam lekha he jo akaran hi un par engineer/MBA ka bhoot lade ja rahe he bachapan se hi, ye jante hue bhi ki abhi inke khaenlne kudane ke din he.

Bhavana Newaskar said...

Aaj ke palko ke liye uttam lekha he jo akaran hi un par engineer/MBA ka bhoot lade ja rahe he bachapan se hi, ye jante hue bhi ki abhi inke khaenlne kudane ke din he.

Dr. Manish Kumar Mishra said...

आपके आलेख आमंत्रित हैं.
आपके आलेख आमंत्रित हैं
'' हिंदी ब्लॉग्गिंग '' पर january २०१२ में आयोजित होनेवाली राष्ट्रीय संगोष्ठी के लिए आप के आलेख सादर आमंत्रित हैं.इस संगोष्ठी में देश-विदेश के कई विद्वान सहभागी हो रहे हैं.
आये हुवे सभी आलेखों को पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित करने क़ी योजना है. आपसे अनुरोध है क़ी आप अपने आलेख जल्द से जल्द भेजने क़ी कृपा करें.
इस सम्बन्ध में अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें --------------
डॉ.मनीष कुमार मिश्रा
के.एम्. अग्रवाल कॉलेज
पडघा रोड,गांधारी विलेज
कल्याण-पश्चिम ,४२१३०१
जिला-ठाणे
महाराष्ट्र ,इण्डिया
mailto:manishmuntazir@gmail.com
wwww.onlinehindijournal.blogspot.कॉम
०९३२४७९०७२६

लक्ष्मी नारायण लहरे "साहिल " said...

आदरणीय संजय पटेल जी सप्रेम साहित्याभिवादन
आपका प्रयास सराहनीय है आपको हार्दिक बधाई ...
सादर
लक्ष्मी नारायण लहरे

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

हम भूल जाते हैं कि बच्चे का भी अपना व्यक्तित्व है वह मात्र extension नहीं है.

Anonymous said...

VERY NICE..