अक्टूबर 2013 में अपने ब्लॉग पर आख़िरी पोस्ट लिखी थी. तक़रीबन चार साल की लम्बी अवधि के बाद उस जगह आना जहाँ बहुत जल्दी-जल्दी और बार-बार आना होता था,कुछ विचित्र सा लगा-रोमांचक भी. क्यों न आया…? इसका कोई सही जवाब मन ने नहीं दिया.इस बीच दुनिया तो जस की तस रही. पढ़ना-लिखना भी यथावत रहा और व्यवसाय भी वही का वही,ज़िन्दगी वही,दोस्त-अहबाब वही,रूटीन वही. बच्चों ने करियर भी तलाश लिये सो उधर से भी कोई ख़ास चिंता नहीं. इस बीच फ़ेसबुक ने ख़ासा समय खींचना शुरू कर दिया.वॉट्सएप्प संदेशों को पढ़ने और यत्र-तत्र भेजने में भी बहुत समय व्यतीत हुआ. लेकिन ये सब तो इरादतन मैंने ही किया. कोई कहने नहीं आया था कि हुज़ूर हमारे यहाँ तशरीफ़ लाइये.बहरहाल ! सोश्यल नेटवर्किंग एक अच्छा एक्सक्यूज़ हो सकता है लेकिन यही लगने लगा कि ब्लॉग के संसार में एक लम्बी ख़ामोशी है. बहुत सारे साथी ब्लॉग से दूर चले गए.मित्र यूनुस ख़ान की
रेडियोवाणी,अशोक पाण्डे का
कबाड़ख़ाना और प्रभात रंजन का
जानकीपुल ज़रूर सक्रिय बना रहा.प्रमुख एग्रीगेटर्स भी ख़ामोश हो गए और इस बहाने बहुत सारे दोस्तों की सोहबतों से महरूम होना पड़ा.
चार साल बाद जब अपने ब्लॉग पर आया तो वैसा ही लगा जैसे कोई अपने गाँव में अर्सा बाद लौटता है. वही ख़ुशबू और वही शब्दों से किलोल का उपक्रम याद आया. गीतों और चित्रों को अपलोड करने की तकनीक याद आई और याद आए कितने सारे ब्लॉग्स के शीर्षक और लिखने वाले. लेकिन यह भी क़ुबूल करता चलूँ कि याद पर हल्का सा ज़ंग लगा हुआ भी प्रतीत हुआ,टेलिफ़ोन की दुनिया आबाद थी तो सैकडों फोन नम्बर्स और एस.टी.डी.कोड्स याद रहते थे और मोबाइल की फोन बुक ईजाद होते ही इस हुनर पर पाला मार गया.फ़ेसबुक में चूँकि दोस्तों की तरोताज़ा पोस्ट्स अपने आप नमूदार हो जाती हैं सो उसमें याद रखने जैसा कोई पुरूषार्थ करने की ज़रूरत नहीं रही. फ़ेसबुक ने प्रमोशन्स,इवेंट्स की जानकारियों,मित्रों के की यायावरी-उपलब्धियों,चित्रों के रंग-रंगीले संसार और ज़माने की बहुतेरी गतिविधियों का पिटारा खोल दिया है. स्मार्ट फोन पर फ़ेसबुक की सहज उपलब्धता ने इतनी आसानी कर दी है कि उधर जाना ज़रूरी ही हो गया.ये कनफ़ेस करने में कोई संकोच नहीं कि ब्लॉग संसार में शब्दों की कारीगरी के किवाड़ खुलते संगीत गूँजता था वह इधर फ़ेसबुक पर नहीं सुनाई दिया.
कुछ नामचीन हस्तियों के ब्लॉग्स ज़रूर सुर्ख़ियों में हैं लेकिन इस दुनिया में आने वाले बहुत सारे नये लेखको नें चुप्पी साध ली है. कभी-कभार कोई कहता ज़रूर है कि मैं ब्लॉग लेखन सीखना चाहता हूँ लेकिन आता कोई नहीं. वैसे इसमें सीखने जैसा है भी क्या. इसके लिये तकनीकी दृष्टि से तो आपको किसी हुनर की ज़रूरत नहीं,बस अच्छी भाषा और लिखने का जुनून चाहिये.आज अपनी बात लिखते-लिखते अपने वर्ड डॉक्यूमेंट पर नज़र डाली है तो पता चला है कि पाँच सौ से ज़्यादा शब्द लिख गया हूँ…और मन में ये धारणा घर कर रही है कि इतने सारे शब्द पढ़ने की फ़ुरसत कौन जुटा पाएगा ? लेकिन वैसे ही जैसे अपने गाँव के मुहल्ले में आकर सबसे दुआ-सलाम करते हैं और ख़ैरियत पूछ लेते हैं,मैं भी पूछ ही लेता हूँ कि आप सब मज़े में तो हैं न ? आज मेरे शहर इन्दौर में रंग पंचमी बहुत धूमधाम से मनी है.ये त्योहार भी एकतरह से होली का विस्तार है.तो चलिये आपको भी रंग-पंचमी की राम-राम कहता चलूँ…..अपना ख़याल रखियेगा, ख़ुश रहियेगा.
4 comments:
संजयजी,
उस समय को बीते तो लगता है क़ि ४ साल से भी ज्यादा हो चुका है जब ब्लॉग की चौपालें सजा करती थीं । शायद आपको याद न हो, लेकिन हम भी आपकी संगीत की महफिलों के दीवाने थे । अचानक से ये पोस्ट दिखी तो मन हुआ कि दुआ सलाम ही करते चलें ।
शुभकामनाएं,
नीरज रोहिल्ला
रचनाकार और छींटे और बौछारें भी बदस्तूर चल रहा है :)
ब्लॉग बिलकुल घर की तरह लगता है ये पक्की बात , जो मन में आया कह दिया घर आकर ,और नए सिरे से लग गए खुशियों की तलाश में , मेरा भी ब्लॉग चलते रहा सदा , अच्छा लगा आपके लिखे को पढ़ना ।
अद्भुत लेख!
अच्छा लिखते रहो
Digi Patrika
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