Sunday, September 28, 2008

इठलाइये उन गीतों के लिये जिनमें लता की आत्मा का वास है.



कभी कभी गंगा घर चल कर आ जाती है. हुआ यूँ कि 27 सितम्बर की शाम को इन्दौर में लता दीनानाथ ग्रामोफ़ोन रेकार्ड
संग्रहालय का शुभारंभ था.इसी आयोजन में सम्मानित किये ऐसे क़लमकार जिन्होंने अपने लेखन से संगीत के सुरीलेपन में निरंतर इज़ाफ़ा किया है. रविराज प्रणामी का नाम भी इस सूची में शरीक था.अनायास कामकाजी व्यस्तता के चलते ख़बर आई कि रविराजजी इन्दौर नहीं आ पा रहे हैं.उन्होंने अपनी विवशता व्यक्त करते हुए आयोजन में पढ़े जाने के लिये एक वक्तव्य ई-मेल किया.लता मंगेशकर पर लिखे गए इस भावपूर्ण आलेख आप सब लता प्रेमी भी पढ़ सकें इसके लिये मैंने रविराज भाई से इजाज़त माँगी जो उन्होंने सहर्ष दी. बताता चलूँ कि रविराज प्रणामी ने अपने कैरियर का आग़ाज़ बतौर खेल-पत्रकार किया था लेकिन मन हमेशा से चित्रपट संगीत की बारीक़ियों को समझने में रूचि लेता रहा. इन्दौर में लम्बे समय तक पत्रकारिता करने के बाद रविराज जी मुम्बई चले गए और जनसत्ता की साप्ताहिक पत्रिका सबरंग में कई शानदार परिशिष्ट निकाले.विविध भारती के लिये भी चित्रपट संगीत के कई शोध-परक कार्यक्रम किये.आलेख रचे और निरंतर कई पत्र-पत्रिकाओं में लिखते रहे हैं.आजकल मुंबई में ही है और रिलायंस समूह में कार्यरत हैं.संगीत रविराजजी का पहला प्यार है और अपनी गूढ़ विवेचना से वे हमेशा एक नया नज़रिया पेश करते हैं.

लता मंगेशकर के जन्मदिवस पर रविराज प्रणामी का ये आलेख आपको ज़रूर पसंद आएगा इस कामना के साथ लता मंगेशकर
को हम-आप संगीतप्रेमियों की अनंत शुभेच्छाएँ.




हमारी पांचो इन्द्रियों के अपने अपने अमृत सुख हैं. कर्णेंदीय अमृत है — लता मंगेशकर का गन्धर्व गायन. धन्य हो विज्ञान का कि लता कालखंड से गुज़रने के अहोभाग्य के बाद भी इस कालजयी सुरगंगा की स्वरलहरियों से हम और हमारी आने वाली पीढ़ियां वंचित नहीं रहेंगी. जैसे कि तानसेन की आवाज़ को लेकर आज हम अफसोस में जीते हैं, आने वाला कल कभी ये अफसोस लिये नहीं होगा कि लता मंगेशकर की आवाज़ और उनका गायन कैसा था.


आज ना वो संगीतकार रहे, ना गीतकार या शायर, ना सुकून और धैर्य भरा वो दौर कि तन्मयता के साथ लता के हर नए गायन का रसास्वादन हो और उस नए लता गीत का विश्लेषण हो, सम्प्रेषण हो, आत्मतृप्ति का बोध हो. तो ऐसे में लता जी की कंठगंगा से नया कुछ ना आना, समयोचित है. कोई अफसोस नहीं कि लताजी आज नहीं गा रही हैं. उनके ना गाने की कसक अब नहीं रही. उनका गाया इतना है हमारे पास कि इस लोक में तो तर गये. अफसोस तब होता जब मदन मोहन, नौशाद साहब, बर्मन दा, शंकर जयकिशन, रोशन साहब, याकि लक्षमीकांत प्यारेलाल या पंचम दा जैसे गुणवंत संगीतकारों का वजूद होता और लता ना गातीं . "कितने अजीब रिश्ते हैं यहां के" जैसे गीत अब जो बनते भी रहे हैं उनके लिये, तो वो सिर्फ संगीतकार विशेष की उस इच्छा की पूर्ति के लिए कि लता ने भी गाया है उनके लिए. वरना तो लता के आखिरी स्वर प्रसाद के लिए हमें कहीं पंचम दा या लक्ष्मीप्यारे के ज़माने में ही झांकना पड़ता है. मेरे लिए उनका दिया आखिरी स्वर प्रसाद है "ऊपर खुदा आसमां नीचे ज़मीं " जो नुसरत फतेह अली खान के लिए उन्होने गाया था.
जब तक लताजी पेशेवर दौर में रहीं मानो टेक्नॉलॉजी भी विकसित नहीं होना चाहती थी. और जब अघोषित तौर पर ही उन्होने भैरवी गाने का निर्णय लिया, उनके नशे में डूबी टैक्नॉलॉजी को भी जैसे होश आया.


सिंथेसाइज़र के आ जाने के बाद और न्यूएंडो जैसे म्यूज़िक रिकॉर्डिंग सिस्टम के चलन के बाद फिल्मी गीतों का स्वरूप पूरी तरह बदलता चला गया है. अब सिंथेसाइज़र ने तमाम साज़िन्दों को निकम्मा कर दिया है और जिस तरह ये साज़िन्दे अपनी आत्मा अपने वालों से गीतों में उंडेला करते थे उसका अभाव गीतों में साफ नज़र आने लगा है. अब गायक—गायिकाओं के लिए भी गाना रियाज़ का नहीं बल्कि संगीतकारों से सम्बन्ध बनाने का काम हो गया है. अब गाना कब बनता है, कब उसका ट्रैक तैयार हो जाता है, कब सिंगर उसे गा देता है, पता ही नहीं चलता बस पता चलता है तो सिर्फ इतना कि गीत अब दिल को सुकून पहुंचाने या दिल को बहलाने का ज़रिया नहीं रह गये बल्कि धूम मचाने का आधार बन गये हैं और अब युवा पीढ़ी के शगल के लिये ज़्यादा से ज़्यादा आउटपुट भरे म्यूज़िक सिस्टम बाज़ार में मिलने लगे हैं जिससे इन म्यूज़िक सिस्टम को सुहाते गीतों की रचना करना संगीतकारों की मजबूरी भी बन गयी और सहूलियत भी.


जब तक कोई धरा हीरे उगलती है उसके उत्खनन और दोहन का दौर बना रहता है. हीरों का उत्सर्जन जब वहां बन्द हो जाता है तो ख्याल आता है उन हीरों की विवेचना का उनके मोल लगाने का और उन्हें सहेजने का. ऐसे हज़ारों बेशकीमती अनमोल रत्न देने के बाद और पार्श्व गायन की अपनी षष्ठिपूर्ति के बाद ये समय है लता गीतों की जुगाली का और खुद पर इस बात के लिए इठलाने का कि हमें उन गीतों की समझ है जिनमें लता नाम की आत्मा का वास है.

Wednesday, September 24, 2008

इन्दौर में लता दीनानाथ मंगेशकर ग्रामोफ़ोन रेकॉर्ड संग्रहालय का शुभारंभ २७ को



पुराने गीत-संगीत ने भारतीय अवाम को जो सुख और सुकून अता किया है; वह बेमिसाल है। स्वर-साम्राज्ञी भारतरत्न लता मंगेशकर के जन्मदिवस की पूर्व संध्या में ऐसे ही मधुर संगीत के दुर्लभ ग्रामोफ़ोन रेकॉड्र्स की विशाल लायब्रेरी "लता दीनानाथ मंगेशकर ग्रामोफ़ोन रेकॉर्ड संग्रहालय' का शुभारंभ शनिवार, २७ सितम्बर २००८ को संध्या ४.३० बजे,इन्दौर के उपनगर पिगडंबर (राऊ) में होगा. यह संग्रहालय दुर्लभ ग्रामोफ़ोन रेकॉर्ड्स के संकलनकर्ता श्री सुमन चौरसिया का कारनामा है. वे पिछले चालीस बरसों से एक जुनूनी की तरह पूरे देश से इन ध्वनिमुद्रिकाओं को संकलित कर रहे हैं.
उल्लेखनीय है कि संगीतप्रेमियों, शोधार्थियों, कलाकारों एवं मीडिया के लिए देशभर में अपनी तरह की इस पहली म्यूज़िक लायब्रेरी में शास्त्रीय, लोक, सुगम एवं फ़िल्म संगीत के २८ हज़ार से भी ज़्यादा नायाब रेकॉर्ड्स संग्रहित हैं। संगीतप्रेमी जानते हैं कि इन्दौर में जन्मीं लताजी आगामी २८ सितम्बर को जीवन के ८० वर्ष पूर्ण करने जा रहीं हैं। "लता दीनानाथ मंगेशकर ग्रामोफ़ोन रेकॉर्ड संग्रहालय' भारतीय चित्रपट संगीत में पं. दीनानाथ मंगेशकर एवं लताजी के महान अवदान को समर्पित है। शुभारंभ-प्रसंग में अपने लेखन से भारतीय चित्रपट एवं गीत-संगीत को समृद्ध करने वाले चित्रपट संगीत स्तंभकार श्री अजातशत्रु, फ़िल्म इतिहासकार श्रीयुत् श्रीराम ताम्रकर, वरिष्ठ फ़िल्म समीक्षक श्री जयप्रकाश चौकसे, राजस्थान पत्रिका के फ़िल्म समीक्षक श्री एम.डी. सोनी, फ़िल्म संगीत विषयों के लेखक श्री विश्वनाथ चटर्जी एवं सांस्कृतिक पत्रकार श्री रविराज प्रणामी का सम्मान भी होगा।


लताजी के जन्मदिन रविवार, २८ सितंबर को संगीतप्रेमी इस नव-निर्मित लायब्रेरी में प्रात: ११ से संध्या ५ बजे के बीच अपनी पसंद के लता-गीत सुन सकते हैं। इसी मौक़े पर संग्रहालय में श्रीनिवास पुजारी द्वारा लताजी के दुर्लभ चित्रों की प्रदर्शनी भी लगाई जाएगी। श्री अजातशत्रु की मीमांसा से लकदक लता मंगेशकर के दुर्लभ और अनसुने गीतों पर एकाग ग्रंथ "बाबा तेरी सोनचिरैया' की अग्रिम बुकिंग भी इस अवसर पर प्रारंभ होगी।

मंगेशकर ग्रामोफ़ोन संग्रहालय में हैं.......
-लगभग २८ हज़ार रेकॉर्डस
-सन् १९०२ का दुर्लभ रेकॉर्ड
-लता मंगेशकर के प्रथम गीत की ध्वनि मुद्रिका
-मास्टर मदन की आठ दुर्लभ रचनाएँ.
-मास्टर दीनानाथ मंगेशकर की हिन्दी रेकॉर्ड
-अधिकतम रेकॉडर्स ७८ आर.
-चौकोर रेकॉर्ड,रंगबिरंगी रेकॉर्ड.
-शास्त्रीय,फ़िल्म,लोक एवं सुगम संगीत, ग़ज़ल, क़व्वाली एवं पश्चिमी संगीत का अनमोल ख़ज़ाना

Monday, September 22, 2008

लावण्या बेन भी तो मना रहीं हैं आज अपना जन्मोत्सव.



ब्लॉग बिरादरी की एक अत्यंत स्नेहल क़िरदार...लावण्या शाह.रहतीं हैं अमेरिका में लेकिन दिल है हिन्दुस्तानी. वे परिवेश,संगीत,कविता,छायाकारी के शानदार सिलसिले अपने ब्लॉग पर जारी रखती हैं.आज (22 सितम्बर ) उन्होंने मेरे जन्मदिन पर एक पोस्ट लिख डाली लेकिन उनका बड़प्पन देखिये कि यह नहीं बताया कि आज स्वयं उनका जन्मदिन भी है. मैं उन्हें बड़े नेह से मोटाबेन (हिन्दी में कहूँ तो बड़ी बहन) कहता आता रहा हूँ और वे भी बड़ी बहन जैसा स्नेह देतीं रहीं है. एक दिन चैट पर अनायास लावण्या बेन ने मेरी जन्मतिथि पूछ ली और मज़ा देखिये कि तारीख़ सुनते ही वे इस संयोग को जानकर चमत्कृत सी थीं कि उनकी मेरी जन्मतिथि एक ही है यानी 22 सितम्बर। एक और सयोग यह कि हम दोनो को परिवार में कविता और संगीत विरासत में मिला है. आप सब जानते ही हैं कि लावण्या बहन ख्यात कवि-गीतकार पं.नरेन्द्र शर्मा (प्रथम प्रोड्यूसर : विविध भारती , जिन्होंने इस प्रसारण संस्था को विविध भारती नाम भी दिया) की सुपुत्री हैं.पं.शर्मा ने ज्योति कलश छलके(भाभी की चूड़ियाँ)सत्यं शिवं सुन्दरम (सत्यं,शिवं,सुन्दरम)राम का गुणगान करिये जैसे गीत और भक्ति पद रचे.

आइये मौक़ा भी है और दस्तूर भी लावण्या बेन को बधाई दें
शब्द का लावण्य हो
संस्कार की अनुगामिनी
स्नेह की तुम सुरसरी हो
संगीत की रस-भामिनी
सृजनशील हो संस्कार हो
भावना आत्मीयता का
प्रेममय विस्तार हो.

Saturday, September 13, 2008

बस इसीलिये हार जाती है हमारी हिन्दी !

फ़िर आ गया है हिन्दी दिवस और शुरू हो गए हैं वही पारम्परिक शगुन.पिछले दिनों जनसत्ता में जाने माने साहित्यकार श्री राजकिशोर का एक लेख राष्ट्रभाषा को लेकर प्रकाशित हुआ था और उसके कुछ ही दिनों बाद मेरे शहर के शिक्षाविद,व्यंग्यकार और कार्टूनिस्ट श्री जवाहर चौधरी का एक पत्र जनसत्ता में ही प्रतिक्रियास्वरूप छपा.श्री चौधरी ने उस पत्र में जो मुद्दे उठाए थे वे बहुत गंभीर और ध्यान देने योग्य हैं .ऐन हिन्दी दिवस के पूर्व उसी पत्र को आज यहाँ जारी कर रहा हूँ…..

अंग्रेज़ी अंग्रेज़ों के राज यानी दो सौ साल में उतनी नहीं बढ़ी जितनी पिछले साठ साल में। इस यथार्थ का की पड़ताल के लिए हिंदी वालों को अपना अंतस खंगालना होगा। पैसा, सुख-समृद्धि इसके कारण प्रतीत होते हैं तो भी इसकी सूक्ष्मता में जाने की ज़रूरत है। जो बाज़ार अंग्रेज़ी की अनिवार्यता घोषित करते हुए नौकरियां देता है वही अपना "धंधा' करने के लिए हिंदी सहित दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं पर निर्भर दिखाई देता है।

टीवी, फ़िल्में और अख़बार आज संचार के मुख्य माध्यम है। इनमें ९५ प्रतिशत विज्ञापन हिंदी के होते हैं। रामायण, महाभारत जैसे कार्यक्रम तो थे ही हिंदी के, लेकिन कौन बनेगा करोड़पति या इसी श्रृंखला के तमाम लॉटरी-जुआ सरीखे कार्यक्रम हिंदी में ही चलाए गए। धंधेबाज़ उसी भाषा का दामन पकड़ लेते हैं जिसमें उन्हें पैसा मिलने की गुंजाइश दिखाई देती हो। पैसा मिले तो हमारा हीरो सीख कर हर भाषा बोलने लगता है। साक्षात्कार देते समय जो सुंदरी अंग्रेज़ी के अलावा कुछ नहीं उगलती वह पैसा मिलने पर भोजपुरी, अवधी, खड़ी बोली, आदि सभी तरह की हिंदी बोल लेती है।

हाल ही में एक नवोदित गायिका को हिंदी गाने के लिए अवार्ड मिला। आभार व्यक्त करते हुए उसने अंग्रेज़ी झाड़ी तो संचालक ने उससे हिंदी में बोलने का आग्रह किया। हिंदी के चार-छह शब्द उसने जिस अपमानजनक ढंग से बोले उसे भूलना कठिन है। भाषा का सरोकार धन और धंधे से हो गया है और यही चिंता का विषय माना जाना चाहिए। थैली दिखाते सामंती बाज़ार के आगे लगता है हमारी ज़बान पतुरिया हो जाती है!

बहुत-सी पत्र-पत्रिकाएँ भाषा के सामान्य, लेकिन आवश्यक मानदंडों की उपेक्षा करते हुए जिस तरह की भाषाई विकृतियां प्रस्तुत कर रही हैं उस पर हल्ला मचाने की आवश्यकता है। लेकिन हम में यानी हिंदीभाषियों में अपनी मातृभाषा के प्रति प्रेम और प्रतिबद्धता अभी तक जागृत नहीं हो पाई है जबकि अन्य भारतीय भाषाओं में यह विकसित है। उर्दू, मराठी, बांग्ला, तमिल, तेलुगू, मलयालम आदि भाषाएं प्रतिबद्धता के साथ विकसित हो रही हैं। ये सारी अंग्रेज़ी का प्रयोग करतीं हैं, लेकिन यह उनकी प्राथमिकता नहीं होती है।दो मराठी या बांग्ला भाषी लोग अंग्रेज़ी जानते हुए भी अपनी भाषा में बात करते हुए गर्व करते हैं। लेकिन हिंदी में प्रायः ऐसा नहीं होता। हिंदी वाला अपनी अच्छी हिंदी को किनारे कर कमज़ोर अंग्रेज़ी के साथ खुद को ऊंचा समझने के भ्रम को पुष्ट करता है। यदि हम ऐसी जगह फंसे हों जहां बर्गर और पित्ज़ा ही उपलब्ध हों तो मजबूरी में उसे खाना ही है, पर इसका मतलब नहीं है कि अपने पाकशास्त्र को खारिज ही कर दें। आज की शिक्षा व्यवस्था में अंग्रेज़ी का हस्तक्षेप अधिक है। इसलिए माना कि फ़िलहाल विकल्प नहीं है। अंग्रेज़ी में ही पढ़िए, लेकिन शेष कामों में अंग्रेज़ी को जबरन घुसेड़ने और गर्व करने की क्या ज़रूरत है.

गांधीजी ने राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी की वकालत की थी। वे स्वयं संवाद में हिंदी को प्राथमिकता देते थे। आज़ादी के बाद सरकारी काम शीघ्रता से हिंदी में होने लगे, ऐसा वे चाहते थे। राजनीतिक संगठनों से कुछ आशा बंधी थी कि कि वे हिंदी को लेकर ठोस और गंभीर कदम उठाएंगे। भाजपा, सपा और अन्य क्षेत्रीय दलों में उम्मीदेंअधिक थीं। लेकिन भारतीय सभ्यताऔर संस्कृति से ऑक्सीज़न लेने वाले दल भी अंग्रेज़ी में दहाड़ते देखे जा सकते हैं। हिंदी को वोट मांगने और अंग्रेज़ी को राज करने की भाषा हम ही बनाए हुए हैं। कुछ लोग सोचेते हैं कि केन्द्र में राजनीतिक सक्रियता के लिए अंग्रेज़ी ज़रूरी है। ऐसा सोचते वक्त यह भुला दिया जाता है कि लालू प्रसाद, रामविलास पासवान, सोनिया गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी जैसे शीर्ष पर बैठै नेता बिना अंग्रेज़ी की दक्षता के सक्रिय और सफल है।

Friday, September 5, 2008

नेक सीख से ज़िन्दगी सवाँरने वाला शिक्षक !



हमने अपने बचपन में माड़साब,गुरूजी,सर,टीचरजी जैसे संबोधन सुने हैं.अब बड़ी हो रही पीढ़ी मैम तक आ गई है. शिक्षक दिवस की बेला में मुझे लगता है जीवन में स्कूल के अध्यापक ने हमारे जीवन को कितना सँवारा.किताबों की सीख तो अपनी जगह है लेकिन जीवन को कई नेक मशवरों से सुरभित करने वाले टीचर्स की अहमियत कभी कम नहीं हो सकती. ज़िन्दगी के कई सलीक़े हमें अच्छे शिक्षक से ही मिले हैं. बीते दौर के पालक आश्वस्त थे कि बच्चे का भविष्य फ़लाँ टीचर के सान्निध्य में महफ़ूज़ है.

आपके –मेरे ज़माने की बनिस्बत आज के विद्यार्थी अपने गुरूजनों के साथ ज़्यादा मित्रवत हो गए हैं.दहशत वाले टीचर्स का दौर अब लगभग समाप्त हो गया है. और इसके सकारात्मक परिणाम भी आ रहे हैं.चश्में से झाँकती खड़ूस माड़साब अब लगभग न के बराबर हैं.लेकिन यह भूलना बेमानी होगा कि अनुशासन और डर से ऊपर उठकर कई ऐसे शिक्षक होते थे जो पूरी निष्ठा के साथ अपने विद्यार्थियों के भविष्य को सँवारने का काम करते थे.मुझे लगता है स्कूल में बीता वह अनुशासित समय ही बेहतर ज़िन्दगी के की नींव का निर्माण करता है.

अब वह दृष्य नहीं जब शिक्षक एक मध्यम-वर्गीय पृष्ठभूमि से आता था. सायकल के हैंडल पर लटकी थैली जिसमें स्टील या पीतल का टिफ़िन है और पीछे कैरियर में लगी वह कॉपियाँ जिन्हें वह घर से चैक कर के लाया है. मासिक टेस्ट या छमाही परीक्षाओं की उत्तर पुस्तिकाएँ या परिणाम पुस्तिकाएँ(आज की प्रोग्रेस रिपोर्ट) भी के कैरियर पर नज़र आतीं थी और शुरू हो जाती थी यह घबराहट कि आज तो रिज़ल्ट मिलने ही वाला है.सर आ गए हों तो दौड़ कर उनके पास जाकर नमस्कार कहना और उनका सामान स्टाफ़ रूम तक ले जाने में एक क़िस्म गौरव हुआ करता था.


अब तो प्रिंसिपल महंगी प्रीमियम कारों में स्कूल आ रहे हैं और मैम शानदार परफ़्यूम लगाए अपनी मारूति अल्टो या सैंट्रो में चले आ रहीं हैं.स्टाफ़ रूम्स एयरकंडीशण्ड हो गए हैं और स्कूल में ही सर्व हो रहा है शानदार भोजन.टीचर्स डे के शानदार सैलिब्रेशन हो रहे हैं.पैरेंट्स कमेंटिया महंगे उपहार टीचर्स को बाँट रहीं हैं.फ़ाइव स्टार होटलों से इंडियन,काँटिनेंटल,चायनीज़ फ़ूड के मेनू सजकर आ रहे हैं,स्कूल का किचन आज बंद है , रोज़ ही तो खाते हैं न यहाँ का खाना.

लेकिन ये तस्वीर शहरों की है.शिक्षक का पद आज भी गाँवों और छोटे क़स्बों में बहुत आदरणीय है और जिस तरह के अभाव वहाँ पर देखने में आते हैं वे आपके रोंगटे खड़े कर सकते हैं.आज भी सुदूर अंचलों का शिक्षक न जाने कितनी दूर से अपने स्कूल पहुँचता है,ख़ुद स्कूल ताला खोलता है,बच्चों से मदद लेकर की सफ़ाई,पानी का इंतज़ाम और दीगर कई छोटे-बड़े कामों को अंजाम देता है.इसके अलावा चुनाव,साक्षरता अभियान,परिवार नियोजन,जनगणना से संबधित न जाने कितने ही सरकारी कामों को अंजाम देने की ज़िम्मेदारी भी उस पर है. लेकिन ये सब करना उसकी विवशता है जो अंतत: उसकी तक़दीर का हिस्सा बन गई है.पानी टपकाती कवेलू वाली छतें और टाटपट्टी के अभाव में सीले वातावरण में कक्षा लेने की बातें तो जगज़ाहिर हैं , जिसकी शिकायत करना बेचारा शिक्षक इसलिये बेमानी समझता है कि ख़ुद उसकी तनख़्वाह ही दो – तीन महीनों में मिलती है.वह तो प्रणाम सर,नमस्कार टीचरजी/सर सुनकर ही प्रसन्न हो जाता है और मुस्कुराते हुए अपने स्कूल के मासूम और प्यारे बच्चों के चेहरों को देख कर ही इत्मीनान कर लेता है.


आज़ादी के बाद तमाम चीज़ें बदल रहीं हैं लेकिन दु:ख है कि शिक्षक जैसी महान संस्था के लिये आज भी बहुत कुछ किया जाना शेष है. एक ज़माना था कि गुणी शिक्षकों से ही किसी स्कूल के अच्छे-बुरे होने की शिनाख़्त होती थी.शहरों में शिक्षक के स्टेटस में ज़रूर परिवर्तन आया है लेकिन विद्यार्थियों का आदर-भाव घटा है.पालकों के मन में भी आश्वासन नहीं हमारे बच्चों का भविष्य की सुध शिक्षक ले लेगा.यही वजह है कि आज कोचिंग एक बड़े उद्योग के रूप में फल-फूल रहा है.

परमाणु संधि,कश्मीर समस्या,गणेश उत्सवों के ख़र्चीले पाण्डालों,ऊपर जा रहे सैंसेक्स,और घटती-बढ़ती मुद्रा-स्फ़ीति की दरों के बीच आइये आप-हम सब मिल कर उन तमाम शिक्षकों का कम से कम स्मरण तो करें जिनसे मिली सलाहियतें हमारी व्यावसायिक और कामकाजी सफ़लताओं का आधार रहीं है.प्रणाम सर/टीचरजी

Tuesday, September 2, 2008

ज़माने को बार-बार याद करना होगा कि उसका पहला और आखरी बंधन भाषा है

ये ललित निबंध लिखा है जाने माने साहित्यकार और चित्रपट संगीत पर अदभुत शब्दलोक के रचनाकार श्री अजातशत्रु ने. सन 2001 में खंडवा से प्रकाशित नवगीत एवं ललित निबंध की पत्रिका अक्षत में मैंने इसे पढ़ा तो लगा कि लेखन पर एक नज़रिया ये भी हो सकता है. आप भी पढ़िये इस क़ुदरती शब्द-शिल्पी का ये अंदाज़ें बयाँ.


वर्षों से मैं अपने आप आसमान में उड़ता रहा हूँ। उस पंछी की तरह जिसके पास ठोस काया नहीं है, जिसकी परछाई शून्य में नहीं पड़ती, जो वहॉं है ही नहीं, और उड़ता जा रहा है।

सदियॉं हुईं, शब्दों से, अर्थों से, तर्कों से, धारणाओं से, दावों से, सिद्धांतों से, थ्योरियों से, शून्य में किसी भी किस्म का रूप बनाने से मुझे स्वभावतः वितृष्णा हो गयी है। भाषा की ओर से मेरा पूर्णतः मोहभंग हो चुका है। यही पहला और आखिरी भटकाव है जो आदमी को दमघोट जेल में कसे हुए है, जैसे चिड़िया के गले को कोई दारासिंग तार से कस दे।

दुनिया के महानतम वेद और किसी आदि शंकराचार्य की उस पर विद्ववतापूर्ण टीका से - जो भाषा के ख़िलाफ़ भाषा के भीतर ही बौद्धिक मैथुन हैं - मेरी आस्था नष्ट हो गयी है। शब्द में जो कुछ पाया जा सकता है, वह खुद मरणधर्मा और मौत का भय है। परमात्मा का पवित्रतम नाम जो जपा जाये, वह भी मुक्ति नहीं दिला सकता - क्योंकि भाषा ही कदम-कदम पर आत्महत्या है। यह भ्रम है कि महानतम कविता या उपन्यास रचकर कोई मुक्त हो जायेगा। नहीं, वह कोल्हू के बैल की तरह भाषा के ही चक्कर में फॅंसा रहेगा। मुक्ति वहॉं - वहॉं कतई नहीं है, जहॉं-जहॉं भाषा है।

ज़माने को बार-बार याद करना होगा कि उसका पहला और आखरी बंधन भाषा है और तब बार-बार उसे पहचानना होगा कि वह भाषा को नष्ट कैसे करे। इसके लिए उसे सर्वप्रथम भाषा पर अविश्वास करना होगा। इस गुरूर को तोड़ना होगा कि महान किताब पढ़कर या लिखकर वह कहीं पहुँच सकता है। उसे भाषा का जन्म जन्मांतर का शत्रु मानना होगा। कल्पना की कोई भी उड़ान जो भाषा के भीतर है, फॉंसी को काट नहीं सकती। मैं हज़ार किताबे लिख डालूं पर मैं एक अक्षर नहीं लिखता। मेरा प्रतिपाद्य विषय हमेशा शून्य है। वह मुझे सूर्य की उपस्थिति की तरह स्पष्ट है। मैं वर्षों से उसी पर बोलता और लिखता आ रहा हूँ। पर कोई नहीं जानता कि मैं दरअसल कुछ नहीं कह रहा हूँ। मेरा सारा लेखन शून्य की टीका है। मेरा सारा बोलना शून्य की स्थापना है। मैं सतत् बोलते हुए सतत् मौन हूँ। मैं हज़ारों ढ़ंगों से बोलते हुए भी यही बता रहा हूँकि बोलने-बतियाने और समझने-समझाने को कोई विषय नहीं है। मैं हर क्षण मौत का खंडन कर रहा हूँ - क्योंकि भाषा ही मौत है।

मैं आश्वस्त हूँ कि मैं बहुत आगे की बात कर रहा हूँ। आने वाले ५०-१०० सालों में बच्चा-बच्चा जान जायेगा कि लेखन, वार्ता, बहस.... सब मज़ाक है। एक वेश्या का दूसरी वेश्या से कहा हुआ अश्लील घिनौना, चीप जोक, जो वहीं भूल जाने के लिए है। तुलसी जानते थे कि उन्होंने कोई रामायण नहीं लिखी। कबीर स्पष्ट थे कि उन्होंने कोई "बीजक' नहीं रचा। आदि शंकराचार्य अवगत थे कि उन्होंने "ब्रह्म' की स्थापना में स्वयं ब्रह्म को और उसके वर्णन को - यानी भाषा को नष्ट किया है। महानतम वेद कुछ नहीं कह रहा है, पर क्योंकि कहा रहा है, इसलिए वेद मान लिया गया है। सत्य न भाषा के पार, है, न भाषा में है और न समाधि में है। वह सत्य भी नहीं क्योंकि भाषा के नष्ट हो जाने पर "सत्य' शब्द भी नहीं गढ़ा जा सकता।

लेखक को दी हैं ! वह जो कुछ कहने के लिए नई भाषा गढ़ता है। और वह जो कुछ नहीं को स्पष्ट करने के लिए भाषा रचते भी दरअसल भाषा को तोड़ रहा होता है। हिन्दी में फ़िलहाल मुझे दूसरी कोटि का लेखक नहीं मिलता। सब भाषा के नामर्द हैं मैं पलासनेर के खले में दुनिया से कटा हुआ आश्वस्त हूँ।

(अजातशत्रुजी मुबंई के उपनगर उल्हासनगर में रहते हैं और अब सुदीर्घ प्राध्यापन यात्रा के बाद ज़िन्दगी का भरपूर मज़ा ले रहे हैं.देश के जाने माने हिन्दी अख़बार नईदुनिया में दुर्लभ गीतों का उनका स्तंभ गीत-गंगा ख़ासा लोकप्रिय रहा है. निबंध की अंतिम पंक्ति में जिस पलासनेर का ज़िक्र है वह म.प्र.के नगर खंडवा ज़िले में बसा अजातशत्रुजी का पुश्तैनी गाँव है)