ये ललित निबंध लिखा है जाने माने साहित्यकार और चित्रपट संगीत पर अदभुत शब्दलोक के रचनाकार श्री अजातशत्रु ने. सन 2001 में खंडवा से प्रकाशित नवगीत एवं ललित निबंध की पत्रिका अक्षत में मैंने इसे पढ़ा तो लगा कि लेखन पर एक नज़रिया ये भी हो सकता है. आप भी पढ़िये इस क़ुदरती शब्द-शिल्पी का ये अंदाज़ें बयाँ.
वर्षों से मैं अपने आप आसमान में उड़ता रहा हूँ। उस पंछी की तरह जिसके पास ठोस काया नहीं है, जिसकी परछाई शून्य में नहीं पड़ती, जो वहॉं है ही नहीं, और उड़ता जा रहा है।
सदियॉं हुईं, शब्दों से, अर्थों से, तर्कों से, धारणाओं से, दावों से, सिद्धांतों से, थ्योरियों से, शून्य में किसी भी किस्म का रूप बनाने से मुझे स्वभावतः वितृष्णा हो गयी है। भाषा की ओर से मेरा पूर्णतः मोहभंग हो चुका है। यही पहला और आखिरी भटकाव है जो आदमी को दमघोट जेल में कसे हुए है, जैसे चिड़िया के गले को कोई दारासिंग तार से कस दे।
दुनिया के महानतम वेद और किसी आदि शंकराचार्य की उस पर विद्ववतापूर्ण टीका से - जो भाषा के ख़िलाफ़ भाषा के भीतर ही बौद्धिक मैथुन हैं - मेरी आस्था नष्ट हो गयी है। शब्द में जो कुछ पाया जा सकता है, वह खुद मरणधर्मा और मौत का भय है। परमात्मा का पवित्रतम नाम जो जपा जाये, वह भी मुक्ति नहीं दिला सकता - क्योंकि भाषा ही कदम-कदम पर आत्महत्या है। यह भ्रम है कि महानतम कविता या उपन्यास रचकर कोई मुक्त हो जायेगा। नहीं, वह कोल्हू के बैल की तरह भाषा के ही चक्कर में फॅंसा रहेगा। मुक्ति वहॉं - वहॉं कतई नहीं है, जहॉं-जहॉं भाषा है।
ज़माने को बार-बार याद करना होगा कि उसका पहला और आखरी बंधन भाषा है और तब बार-बार उसे पहचानना होगा कि वह भाषा को नष्ट कैसे करे। इसके लिए उसे सर्वप्रथम भाषा पर अविश्वास करना होगा। इस गुरूर को तोड़ना होगा कि महान किताब पढ़कर या लिखकर वह कहीं पहुँच सकता है। उसे भाषा का जन्म जन्मांतर का शत्रु मानना होगा। कल्पना की कोई भी उड़ान जो भाषा के भीतर है, फॉंसी को काट नहीं सकती। मैं हज़ार किताबे लिख डालूं पर मैं एक अक्षर नहीं लिखता। मेरा प्रतिपाद्य विषय हमेशा शून्य है। वह मुझे सूर्य की उपस्थिति की तरह स्पष्ट है। मैं वर्षों से उसी पर बोलता और लिखता आ रहा हूँ। पर कोई नहीं जानता कि मैं दरअसल कुछ नहीं कह रहा हूँ। मेरा सारा लेखन शून्य की टीका है। मेरा सारा बोलना शून्य की स्थापना है। मैं सतत् बोलते हुए सतत् मौन हूँ। मैं हज़ारों ढ़ंगों से बोलते हुए भी यही बता रहा हूँकि बोलने-बतियाने और समझने-समझाने को कोई विषय नहीं है। मैं हर क्षण मौत का खंडन कर रहा हूँ - क्योंकि भाषा ही मौत है।
मैं आश्वस्त हूँ कि मैं बहुत आगे की बात कर रहा हूँ। आने वाले ५०-१०० सालों में बच्चा-बच्चा जान जायेगा कि लेखन, वार्ता, बहस.... सब मज़ाक है। एक वेश्या का दूसरी वेश्या से कहा हुआ अश्लील घिनौना, चीप जोक, जो वहीं भूल जाने के लिए है। तुलसी जानते थे कि उन्होंने कोई रामायण नहीं लिखी। कबीर स्पष्ट थे कि उन्होंने कोई "बीजक' नहीं रचा। आदि शंकराचार्य अवगत थे कि उन्होंने "ब्रह्म' की स्थापना में स्वयं ब्रह्म को और उसके वर्णन को - यानी भाषा को नष्ट किया है। महानतम वेद कुछ नहीं कह रहा है, पर क्योंकि कहा रहा है, इसलिए वेद मान लिया गया है। सत्य न भाषा के पार, है, न भाषा में है और न समाधि में है। वह सत्य भी नहीं क्योंकि भाषा के नष्ट हो जाने पर "सत्य' शब्द भी नहीं गढ़ा जा सकता।
लेखक को दी हैं ! वह जो कुछ कहने के लिए नई भाषा गढ़ता है। और वह जो कुछ नहीं को स्पष्ट करने के लिए भाषा रचते भी दरअसल भाषा को तोड़ रहा होता है। हिन्दी में फ़िलहाल मुझे दूसरी कोटि का लेखक नहीं मिलता। सब भाषा के नामर्द हैं मैं पलासनेर के खले में दुनिया से कटा हुआ आश्वस्त हूँ।
(अजातशत्रुजी मुबंई के उपनगर उल्हासनगर में रहते हैं और अब सुदीर्घ प्राध्यापन यात्रा के बाद ज़िन्दगी का भरपूर मज़ा ले रहे हैं.देश के जाने माने हिन्दी अख़बार नईदुनिया में दुर्लभ गीतों का उनका स्तंभ गीत-गंगा ख़ासा लोकप्रिय रहा है. निबंध की अंतिम पंक्ति में जिस पलासनेर का ज़िक्र है वह म.प्र.के नगर खंडवा ज़िले में बसा अजातशत्रुजी का पुश्तैनी गाँव है)
5 comments:
बेहद आकुल और बेचैन कर देने वाला गद्य.
अशोक जी से सहमत हूँ....
वह सत्य भी नहीं क्योंकि भाषा के नष्ट हो जाने पर "सत्य' शब्द भी नहीं गढ़ा जा सकता।
yh nukta khasa kabilegaur hai...shukriya is nibandh ke liye...
Sanjaybhai
Very richly worded essay.
Thanx.
-Harshad Jangla
Atlanta, USA
अंततः यह सब विचार भी भाषा में ही संभव हो पा रहा है।
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