Sunday, August 15, 2010
जश्ने आज़ादी को परवाज़ देती एक पारिवारिक ख़ुशी
किसी ने सच ही कहा है कि देशप्रेम की अभिव्यक्ति प्रसंग,मौक़े,दस्तूर,स्थान,धर्म और मज़हब की मोहताज नहीं होती.उसे किसी भी रूप में और रचनात्मक तरीक़े से व्यक्त किया जा सकता है. कुछ ऐसा ही भावुक इज़हार एक ऐसे शुभकामना पत्र में देखने में आया जिसमें परिवार में गूँजी नई किलकारी ख़ुशी जश्ने आज़ादी की ख़ुशी दूध में मिली शकर की मिठास की तरह घुल गई है.
इन्दौर में ही रहने वाले मेरे पारिवारिक मित्र महेश बंसल बरसों से
समाज,राजनीति,संस्कृति ,मीडिया क्षेत्र के मित्रों तथा अपने परिजनों को स्वतंत्रता-दिवस का शुभकामना पत्र भेजते आ रहे हैं. इस बरस कुछ ऐसी स्थिति बनी कि श्री बसंल को सेंट डिएगो(यू.एस) में बस चुके पुत्र प्रतीक और बहू सुरभि के परिवार में वृध्दि होने का समाचार आया. अभी तक महेश बंसल स्वतंत्रंता सेनानियों को केन्द्र में रखकर अपना शुभकामना पत्र बनाते आए थे.इस बार उन्होंने परिवार में आने वाले नये मेहमान को केन्द्र में रखकर कुछ नया करने का विचार बनाया. कहते हैं कि विचार का इंतेख़ाब करो तो उसे साकार करने का हौसला भी मिल जाता है. महेश बंसल अपनी पत्नी आशा के साथ जुलाई के अंतिम सप्ताह में विदेश .रवाना होने के पहले अपने शुभकामना पत्रों के लिफ़ाफ़े नाम-पते लिखकर तैय्रार कर गये और तैयार कर गए एक भावुकतापूर्ण संदेश जो परिवार में नई किलकारी के गूँज के साथ राष्ट्रप्रेम की बात भी करता है.
प्रतीक-सुरभि के यहाँ बेटी श्रेया का जन्म होते ही अस्पताल पहुँच कर दादा महेश बंसल ने उसके हाथ में दे दिया छोटा सा तिरंगा और इसी अवसर के चित्र को लेकर बन गया इस बार का शुभकामना पत्र .इस चित्र में नन्ही श्रेया ने अपनी मुट्ठी में मज़बूती से थाम रखा विजयी विश्व तिरंगा प्यारा.लिफ़ाफ़े पर लिखी इबारत मन को छूती हुई कहती है ...भारत माता हर एक नई मुस्कान;आपको करे प्रणाम.इस ग्रीटिंग को देखने के बाद मन में यह बात बहुत शिद्दत से महसूस होती है कि स्वतंत्रता दिवस या दीगर राष्ट्रीय पर्वों की अभिव्यक्ति को रस्मी न बना कर यदि बेतक़ल्लुफ़ अंदाज़ में किया जाए तो शायद हमारी मातृभूमि और उसके अमर सेनानियों के प्रति अधिक सार्थक और जज़बाती श्र्ध्दा जाग सके.
यदि आप महेश बंसल को उनके इस सुकार्य के लिये बधाई देना चाहते हों तो उनका ईमल पता नोट करें: maheshbansal123@gmail.com आज इसी प्रयास को मेरे शहर के दो समाचार पत्रों दैनिक भास्कर और नईनिया ने भी प्रमुखता से प्रकाशित किया है.
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Monday, August 9, 2010
रज्जू बाबू की याद के बहाने
शनिवार ७ अगस्त को वरेण्य पत्रकार राजेन्द्र माथुर का पिचहत्तरवाँ जन्म दिवस था. वरिष्ठ कवि और रज्जू बाबू के अनन्य सखा डॉ.सरोजकुमार,नईदुनिया के स्थानीय संपादक और मैं एक पुस्तक विमोचन समारोह में बतौर मेहमान मंच पर थे. यह कार्यक्रम इन्दौर प्रेस क्लब के राजेन्द्र माथुर सभागार में आयोजित था और मंच से सामने नज़र आ रही थी रज्जू बाबू की तस्वीर. जयदीप भाई ने बड़ी भावुकता से रज्जू बाबू को याद किया और उनकी क़ाबिलियत का ज़िक्र भी किया. डॉ.सरोजकुमार ने भी आत्मीयतापूर्वक रज्जू बाबू को स्मरण करते हुए बताया कि उन्हें इस बात की पीड़ा जीवन भर रहेगी कि जिन मुम्बई और दिल्ली शहरों में स्थित प्रतिष्ठित चिकित्सा संस्थानों में देश भर के सामान्य लोग बिना किसी ज़रिये और पहचान के इलाज करवा आते हैं उन्हीं शहरों में राजेन्द्र माथुर और शरद जोशी जैसी अनन्य विभूतियों ने मामूली नर्सिंग होम्स में अपनी अंतिम साँस ली.
सरोजकुमार जी ने बताया कि जिस समय रज्जू बाबू नईदुनिया से विदा लेकर दिल्ली प्रस्थान करने वाले थे उसके पहले इन्दौर की कई संस्थाओं ने श्री माथुर के सम्मान में विदाई समारोह आयोजित किये. इन आयोजकों में से अधिकांश की इच्छा यह रहती थी कि रज्जू बाबू जाते जाते नईदुनिया के प्रति अपनी कडुवाहट प्रकट करें या यह कहें कि इस कारण मैंने नईदुनिया छोड़ दी. लेकिन रज्जू बाबू ताज़िन्दगी एक शालीन व्यक्तित्व के धनी रहे और उसी के मुताबिक आचरण करते रहे. उन्होनें इन विदाई समारोहों में हमेशा यही कहा कि मैं एक बढ़िया अख़बार से बड़े अख़बार में जा रहा हूँ.
७ अगस्त को ही सुबह अंग्रेज़ी दैनिक इकॉनिमक टाइम्स पर नज़र गई और सुखद अनुभूति हुई संपादकीय पृष्ठ पर जाकर जहाँ वरिष्ठ पत्रकार मधुसूदन आनंद ने तक़रीबन चार कॉलम में बड़े आदर से रज्जू बाबू को याद किया. उन्होंने लिखा कि रज्जू बाबू पाठक को भी अख़बार और सत्ता की लड़ाई की महत्वपूर्ण कड़ी मानते थे और देर तक दफ़्तर में बैठकर पाठकों के पत्रों को अख़बार के लिये प्रकाशन हेतु चुनते थे.
यह बताना प्रासंगिक होगा कि मूल रूप से एक अंग्रेज़ी प्राध्यापक के रुप में अपना करियर प्रारंभ कर चुके राजेन्द्र माथुर एक सजग स्वाध्यायी थे.देश विदेश की राजनीति के अलावा मैंने उन्हें इन्दौर के तक़रीबन हर हिन्दी नाटक और संगीत के जल्से में एक चैतन्य श्रोता/दर्शक के रूप में देखा था. शनिवार को ही मेरे शहर के एक पत्रकार से भी मुलाक़ात हुई और उसने बताया कि रज्जू बाबू हमेशा कहते थे कि हिन्दी में चार लाइन सशक्त लाइन्स लिखने के लिये अंग्रेज़ी की चार सौ लाइन नियमपूर्वक पढ़ा करों.
आज जब पत्रकारिता में अविश्वसनीय ग्लैमर और पैसा उपलब्ध है ऐसे में राजेन्द्र माथुर जैसे वैष्णव पत्रकार की याद आते ही श्रध्दा से सर झुक जाता है. रज्जू बाबू हमेशा आदरणीय बने रहेंगे.
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Saturday, July 31, 2010
मोहम्मद रफ़ी;कुछ ऐसी बातें जो अब सच लग रहीं हैं.
बहुत मुख़्तसर में अपनी बात कहना चाहता हूँ क्योंकि आज रफ़ी साहब पर कुछ पढ़ने से ज़्यादा बेहतर होगा उन्हें सुना जाए. तीस बरस पहले गुज़र चुका यह सुरीला दरवेश आज भी यदि हमारे दिलोदिमाग़ में मौजूद है तो उसकी वजह बस इतनी भर है कि वह बहुत नेक इंसान थे और इस दुनिया ए फ़ानी से दुआओं का दौलत बटोर कर ले गए.रफ़ी साहब की बरसी के दिन दिल में छटपटाहट हो रही है और कुछ विचार आ रहे हैं जो आपके साथ बाँट कर हल्का हो जाना चाहता हूँ.
-रफ़ी साहब ज़िन्दा होते हुए जितने थे , उससे कहीं ज़्यादा हैं हमारे बीच.
-वे गुज़र जाने के बाद एक घराना बन गए हैं.तो जो भी उनके अंदाज़ में गा रहा है और उन्हें दोहरा है वह रफ़ी घराने का चश्मे-चिराग़ है.
-रफ़ी को दोहराया नहीं जा सकता,उनके अहसास को अपनी आवाज़ में समो कर गाया जा सकता है.
-रफ़ी साहब के गीतों को सुनकर ही हमें पता लगता है कि समकालीन समय का बेसुरापन क्या है और कितना ख़तरनाक़ भी.
-रफ़ी साहब ने सुगम संगीत की विधा में अपना काम कर के बता दिया कि शब्द प्रधान गायकी किस बला का नाम है और कविता/शायरी का निबाह क्या होता है.
-रफ़ी और लता हमारे समय के दो ऐसे बेजोड़ गायक हैं जिन्हें सुनकर इस बात की तसल्ली होती है कि फ़लाँ शब्द ऐसे ही बोला जाता है. इस लिहाज़ से मैं उन्हें तलफ़्फ़ुज़ की डिक्शनरी कहना चाहूँगा.
-दुनिया में हिन्दी चित्रपट गीतों की बात चले और रफ़ी साहब ख़ारिज कर दिये जाएँ ऐसा संभव ही नहीं.
-रफ़ी साहब जैसी गुलूकारी के लिये एक नेक तबियत होना बहुत ज़रूरी है वरना आपकी गायकी से सचाई का पता नहीं मिलेगा.
-रफ़ी साहब अपनी आवाज़ से जिस तरह के करिश्मे गढ़ गए हैं उन्हें सुनकर अंदाज़ लगाना मुश्किल है (बल्कि इस तरह का मतिभ्रम जायज़ भी है) कि रफ़ी साहब ने इन गीतों को गाया है ये गीत रफ़ी साहब की गायकी के लिये लिखे गए.
-जो रफ़ी ने गाया है उसे काग़ज़ पर लिख कर पढ़िये आपको समझ में आ जाएगा कि रफ़ी का दैवीय स्वर क्या है.उन्होंने किस बुलन्द अहसास के साथ शब्दों को जिया है.
-रफ़ी साहब शब्द को शून्य तक ले जाते थे...तब शून्य की गायकी बुलन्द हो जाती थी...भाव गाने लगता था.
-रफ़ी साहब गाते-गाते ख़ुद ग़ायब हो जाते थे..अभिनेता,सिचुएशन या दृश्य साकार हो जाता था, यही वजह है कि उनके गीतों का ऑडियो सुनने पर तस्वीर साकार हो जाती है.
आख़िरी बात...रफ़ी जैसा गायक फ़िर नहीं होगा..शर्तिया.रफ़ी जैसा गाने के लिये,गुनगुनाने के लिये शब्द के पार जाकर अहसास के समंदर में गोता लगाना होगा...गाते गाते गायक ग़ायब हो जाए तो समझिये वहीं मोहम्मद रफ़ी गा रहे हैं.
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Saturday, May 1, 2010
ले लो, ले लो झुमके अमलतास के
इन दिनों सुबह सैर पर निकल रहा हूँ तो रास्ते में जगह जगह अमलतास फूला हुआ है.
चटख़ रंगो वाले गुलमोहर की बहार भी छाई हुई है लेकिन अमलतास का शबाब कुछ और ही है. हरे पत्तों से लदा पेड़ तपती धूप में कब पीले झुमकों में तब्दील हो जाता है मालूम ही नहीं पड़ता. एक झूमर की शक्ल में कई झूमर लटके हैं अमलतास के. सिंथेटिक रंगों की दुनिया में रहने वाले हमारी नस्ल इस ख़ालिस पीलेपन को निहारने का वक़्त ही नहीं निकाल पाती है. सुबह के घुमन्तुओं में भी कुछ ही ऐसे मिले जो ठिठक कर अमलतास या गुलमोहर के नीचे खड़े हो जाएं और देखें तो कि कुदरत क्या खेल रच रही है. परमात्मा को देखा नहीं मैंने और न ही इस तरह की मान्यता भी है मन में लेकिन जब भी कु़दरत के इन करिश्मों को निहारता हूँ तो लगता है कि इन्हीं पेड़ों में बसा होगा वह.
अमलतास का एक फूल नहीं होता बल्कि पूरा एक कंदील पेड़ पर लटकता है.रात में पूर्णिमा के पूरे चाँद में अमलतास को देखा तो लगा जैसे किसी ने दीवाली की रात में पीले कंदील रोशन कर दिये हैं. तेज़ धूप में मेरे मालवा में दीगर दरख्तों को जहाँ झुरझुरी सी आ रही है और शाख़ें सूखी सी हैं वहीं अमलतास के पत्ते हरे कच्च हैं और फूल के इन झुमकों के तो क्या कहने.निसर्ग के लिये जिस तरह की बेपरवाही है और नई पीढ़ी में बेख़बरी का भाव है ऐसे में सोचता हूँ बहुत से पेड़ों के बीच ये अमलतास बड़ा वीराना और अकेला सा ही है . इसके झुमकों की ख़ास बास यह भी है कि वह बड़े हल्के वज़न के हैं और ज़रा सी हवा चलने पर झूमने लगते हैं .चूँकि ये झूमना भी दाएँ-बाएँ न होकर ऊपर-नीचे है तो उसमें एक ख़ास तरह की लयकारी दीखती है.
दिन में जैसे जैसे धूप बढ़ती है...अमलतास के झुमके कुछ और पीले होकर दमकने लगते हैं. इनके चटकीलेपन की वजह यह भी है कि फूलों के अनुपात में अमलतास के पत्ते भी नये-नकोरे और ज़्यादा हरे हरे हो गए हैं यूँ ये हरापन तो नैपथ्य में चला गया है और सर्वत्र फूलों का साम्राज्य ही नज़र आने लगता है. इस दौरान मुझे अमलतास कुछ इतराता नज़र आता है मानो आसपास के पेड़ों को संदेश देना चाहता हो कि मैं तो तुम्हारे मुक़ाबले ज़्यादा भरा-पूरा हूँ.हम ग्राफ़िक डिज़ाइनिंग वाले कांट्रास्ट रचने के लिये रंगों को एकाकार और विलग करते ही रहते हैं लेकिन क़ुदरत के सामने तो हमारा कम्प्यूटरी कांट्रास्ट क़मज़ोर ही दिखाई देता है.
इस अमलतास आख्यान को कविवर सरोजकुमार की कविता से विराम देते हैं;
अमलतास की रंगत का कितना अनूठा भान देते हैं न उनके शब्द:
बीत गए केशरिया
दिन पलाश के
ले लो, ले लो, झुमके अमलतास के
ओ पीपल,नीम, बड़,सुरजना
कौन जिसे नहीं है मुरझना ?
डलिया में दो दिन की
सौ दिन फूल के
कोई फ़िर क्यों मुरझे बिन हुलास के ?
झूल रहे चमकीले सौ-सौ फ़ानूस
इंक़लाब ? पीली तितलियों के जुलूस
सूरज के घोड़े बहके
ऐसी आग,
धूप निकल भागी है,बिन लिबास के
मौसम के हाथों पर मेहंदी के चित्र
धू धू दोपहरी,ये तपस्वी विचित्र
किसकी विरूदावलि के
स्वर्ण मालकौंस
कोई तो बतलावे, ये तलाश के
ले लो, ले लो, झुमके अमलतास के
(चित्र ख़ाकसार ने अपने मोबाइल से लिया है)
Wednesday, April 7, 2010
कुमार गंधर्व के जन्मदिन पर विविध भारती की सुरीली सौग़ात.
पं.कुमार गंधर्व अपनी विशिष्ट गायकी के साथ मालवा के लोक-संगीत और निरगुणी पदों के गायन के लिये हम सब संगीतप्रेमियों के चहेते हैं. 8 अप्रैल को उनके जन्मदिन से विविध भारती द्वारा अपने लोकप्रिय कार्यक्रम संगीत-सरिता में एक नई श्रंखला प्रारंभ हो रही है जिसमें कुमारप्रेमियों को कुछ अनमोल और अनसुनी बंदिशे सुनने को मिलेंगी. यह कार्यक्रम इसलिये भी विशेष बन पड़ा है क्योंकि इसे प्रस्तुत करने जा रहीं हैं कुमार जी सुपुत्री और शिष्या कलापिनी कोमकली. 21 अप्रैल तक चलने वाली इस प्रस्तुति में जानेमाने गायक और रंगकर्मी शेखर सेन कलापिनी से कुमारजी की स्वर यात्रा पर बतियाएंगे. कार्यक्रम का प्रसारण समय वही है यानी प्रात:7,30 बजे।कलापिनी बतातीं हैं कि इस कार्यक्रम में अल्पायु से संगीत परिदृष्य पर बालक कुमार की आमद कैसे हुई इसका ज़िक्र तो है ही साथ में उन रागों की बानगी भी है जो कुमारजी ने स्वयं रचे थे. उल्लेखनीय है कि पं.कुमार गंधर्व मूल रूप धारवाड़ अंचल में पैदा हुए, मुम्बई आकर प्रो.देवधर के शिष्य बने और अपनी रूण्गावस्था के दौरान मालवा के देवास क़स्बे में आकर बसे. यह वही देवास है जहा उस्ताद रज्जब अली ख़ा साहब भी हुए और जिनकी गायकी का असर उस्ताद अमीर ख़ाँ की गायकी में भी सुनाई दिया.
कलापिनी ने ये भी बताया कि कुमार गंधर्व एकमात्र ऐसे संगीतज्ञ हुए हैं जिन्होंने मालवांचल की बोली मालवी और उसके लोकगीतों को बंदिशों का स्वरूप दिया. उत्तरप्रदेश की अवधि का असर तो कई उत्तर भारतीय संगीत की बंदिशों में सुनाई दिया है जैसे बाजूबंद खुल खुल जाए,बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए,लागी लगन, बरसन लागी सावन बूंदिया लेकिन मालवी का शुमार कुमारजी ने ही किया. गीत-वर्षा एलबम में कई मालवी लोकगीत बंदिश का आकार लिये हुए हैं.
कार्यक्रम में बातचीत कर रहे शेखर सेन ने मुझे बताया कि पं.कुमार गंधर्व पूरे शास्त्रीय संगीत परम्परा में ऐसे स्वर साधक हैं जिनकी हर एक प्रस्तुति में रचनाधर्मिता के दर्शन होते हैं. उनके बारे में बात करना और कुछ दुर्लभ बंदिशों को सुनना अपने आप में एक अविस्मरणीय अनुभव है. उम्मीद करें कि संगीत-सरिता में स्वरों का यह झरना तपते वैशाख में हम सब संगीतप्रेमियों के लिये एक अदभुत अनुभव होगा.
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Sunday, April 4, 2010
आज से उजाले अपनी यादों के लेकर आ रहे हैं सलीम ख़ान
विविध भारती एफ़.एम. सेवा पर ’उजाले अपनी यादों के’श्रोताओं का बेहद पसंदीदा कार्यक्रम रहा है. हाल ही में हुए कार्यक्रम परिवर्तन के मुताबिक अब यह कार्यक्रम प्रत्येक रविवार को अपराह्न ४ बजे प्रसारित होगा. कार्यक्रम की समय सीमा भी एक घंटे की कर दी गई है.४ अप्रैल से प्रारंभ होने वाली नई श्रंखला में अतिथि कलाकार के रूप में इस कार्यक्रम में आ रहे हैं मशहूर संवाद लेखक जोड़ी सलीम-जावेद के सलीम ख़ान.विविध भारती के लोकप्रिय उदघोषक यूनुस ख़ान ने सलीम ख़ान से यह लम्बा इंटरव्यू उनके बांद्रा स्थित गैलेक्सी अपार्टमेंट में रेकॉर्ड किया है
उल्लेखनीय है कि इन्दौर में जन्मे और पढ़े-लिखे सलीम ख़ान संवाद लेखन के पहले अभिनय की दुनिया में क़िस्मत आज़माने मुम्बई तशरीफ़ लाए थे. उजाले अपनी यादों के कार्यक्रम में सलीम ख़ान ने गुज़रे ज़माने के अपने उस शहर इन्दौर की बेशुमार यादों को ताज़ा किया है. जिसमें मालवा का खानपान,पहनावा,रीति-रिवाज और रहन-सहन शामिल हैं.याद किया है अपनी उन माशूकाओं को जो अब दादी-नानी बन चुकीं हैं.और जानकारी दी है अपनी तेज़ रफ़्तार से भागने वाली उस मोटरसायकल की जो उन दिनों शहर इन्दौर में चर्चा का केन्द हुआ करती थी. हाँ इन्दौर के फ़्लाइंग क्लब का स्मरण भी आया है इस बातचीत में; जहाँ एक प्रशिक्षित पायलेट के रूप में सलीम ख़ान हवाई जहाज़ उडाया करते थे.यूनुस ख़ान से हुई इस गुफ़्तगू में रतलाम, जावरा,देवास,उज्जैन जैसे गावों और क़स्बों का ज़िक्र भी आया है.
कई कड़ियों में प्रसारित होने वाली इस बातचीत में इंदौर के मोहल्ले, सिनेमाघर, स्कूल और कॉलेजों की यादें भी सम्मिलित हैं.रेकॉर्डिंग की लम्बाई के मद्देनज़र हो सकता है कि विविध भारती के श्रोताओं को पूरा एक एपिसोड इन्दौर पर सुनने को मिले.एक ख़ास कड़ी में सलीम ख़ान अपने साहबज़ादे और अभिनेता सलमान पर बतियाएंगे.दो कडियों में उनकी पत्नी सलमा और अभिनेत्री हेलन पर भी चर्चा हुई है.
ग़ौरतलब है कि सलीम ख़ान एक शानदार किस्सागो हैं और उनके ज़हन में साठ के दशक से लेकर आज तक के सिनेमा,उसकी निर्माण प्रक्रिया,कहानी लेखन, अदाकारी,संगीत और निर्देशन को लेकर सैकड़ों क़िस्से ताज़ा हैं.तो विविध भारती एफ़.एम.पर सुनना न भूले ..उलाले अपनी यादों के...
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Friday, March 5, 2010
मुझे कौन चाहता है ?
मेरे बच्चे और पत्नी
जिनके लिए मैं हमेशा एक बेयरर चैक हूँ
ख़ुशियों का, उल्लास का या अपनेपन का.
कुछ परिजन ?
जो चाहते हैं कि मैं उनसे हमेशा सहमत हो जाऊँ
वे कुछ भी कहें; मैं उनकी हाँ में हाँ मिलाऊँ
कुछ मित्र
जो मुझे ज्ञानमार्गी,ज़िद्दी,अपनी बात पर
अड़ा रहने वाला शख़्स मानते हैं..सामने तारीफ़ करते हैं;
पीछे एक दूसरे से खुसफ़ुसाहट करते हैं;
ये बड़ा सनकी सोल्जर है …!
कुछ कलाकार
जो फ़ुसफ़ुसाते हैं कि ये माइक
पर आया तो इवेंट खा जाता है और पूरा माइलेज लूट लेता है
सामने मिलूँ तो कहते हैं वाह क्या आवाज़ दी है भगवान ने आपको
और क्या कमाल का अंदाज़ है आपका,क्या स्वर और शब्द फ़ूटते हैं मुख से !
मेरे ग्राहक
जो काम निकले तो गुण-ग्राहक हो जाते हैं मेरे
और जब उनकी शर्तों पर न बिकूँ तो बिना मुझे बताए
किसी और को दे देते हैं सारा काम
कुछ पाठक
जो पढ़ते ही कहते हैं …लिखता तो
ठीक है लेकिन बहुत ठसके से लिखता है,
कहाँ से लाता है ज़ुबान की ऐसी रवानी
सामने मिल जाए वही पाठक तो कहेगा
आह ! क्या ग़ज़ब का लिखा था आपने
पूरा चित्र खड़ा कर दिया !
कभी कभी सोचता हूँ कि मैं ही चाहता हू मुझे
इन सारे दोषों के साथ जो मुझमें मेरे आसपास
के लोग देखते हैं मुझमें..
उन सबका ऐसा सोचना मुझे और बेहतर करने की
हिम्मत जो देता है,लड़ने की जज़्बा देता है अपने आप से .
और इन लोगों की तारीफ़.
.तारीफ़ का क्या है हुज़ूर …
ये सभागार की वह तालियाँ हैं
जो बजती हैं थोड़ी देर के लिये
और फ़िर ख़ामोश हो जातीं हैं.
इनके भरोसे कोई ज़िन्दगी कटती है;
या फ़िर कोई कुछ कर सकता है ;
बातें हैं ये;बातों का क्या.
जिनके लिए मैं हमेशा एक बेयरर चैक हूँ
ख़ुशियों का, उल्लास का या अपनेपन का.
कुछ परिजन ?
जो चाहते हैं कि मैं उनसे हमेशा सहमत हो जाऊँ
वे कुछ भी कहें; मैं उनकी हाँ में हाँ मिलाऊँ
कुछ मित्र
जो मुझे ज्ञानमार्गी,ज़िद्दी,अपनी बात पर
अड़ा रहने वाला शख़्स मानते हैं..सामने तारीफ़ करते हैं;
पीछे एक दूसरे से खुसफ़ुसाहट करते हैं;
ये बड़ा सनकी सोल्जर है …!
कुछ कलाकार
जो फ़ुसफ़ुसाते हैं कि ये माइक
पर आया तो इवेंट खा जाता है और पूरा माइलेज लूट लेता है
सामने मिलूँ तो कहते हैं वाह क्या आवाज़ दी है भगवान ने आपको
और क्या कमाल का अंदाज़ है आपका,क्या स्वर और शब्द फ़ूटते हैं मुख से !
मेरे ग्राहक
जो काम निकले तो गुण-ग्राहक हो जाते हैं मेरे
और जब उनकी शर्तों पर न बिकूँ तो बिना मुझे बताए
किसी और को दे देते हैं सारा काम
कुछ पाठक
जो पढ़ते ही कहते हैं …लिखता तो
ठीक है लेकिन बहुत ठसके से लिखता है,
कहाँ से लाता है ज़ुबान की ऐसी रवानी
सामने मिल जाए वही पाठक तो कहेगा
आह ! क्या ग़ज़ब का लिखा था आपने
पूरा चित्र खड़ा कर दिया !
कभी कभी सोचता हूँ कि मैं ही चाहता हू मुझे
इन सारे दोषों के साथ जो मुझमें मेरे आसपास
के लोग देखते हैं मुझमें..
उन सबका ऐसा सोचना मुझे और बेहतर करने की
हिम्मत जो देता है,लड़ने की जज़्बा देता है अपने आप से .
और इन लोगों की तारीफ़.
.तारीफ़ का क्या है हुज़ूर …
ये सभागार की वह तालियाँ हैं
जो बजती हैं थोड़ी देर के लिये
और फ़िर ख़ामोश हो जातीं हैं.
इनके भरोसे कोई ज़िन्दगी कटती है;
या फ़िर कोई कुछ कर सकता है ;
बातें हैं ये;बातों का क्या.
Thursday, January 14, 2010
मन को पतंग बना लो
उड़ती है वह बेख़बर
जैसा उड़ाने वाला चाहे
कितना समर्पण है उसमें
न कोई चाहना
न कोई शर्त
हवा के रूख़ को
हमसफ़र बना कर
उड़ती रहती है
वह अनंत आकाश में
हम मन को भी पतंग
बना लें तो कितना अच्छा हो
अनंत में उड़ते रहें
बिना किये परवाह
कौन उड़ा रहा है
कौन काट डालेगा
क्या होगा मेरा अस्तित्व
क्या होगा मेरा मुस्तक़बिल
बस उड़ते रहें बेख़बर
अपनी शर्तों और पूर्वग्रहों
से कितना बिगाड़ लिया है
हमने अपने शुध्द,मासूम मन को
अपने आग्रहों से,
अपने अहंकार से
अपनी मनमानी से
जानते हैं कि हो जाना है
एकदिन अनंत में विलीन
तो भी सच से मुँह फ़ेर कर
हम अड़े हैं अपनी बात पर
आओ बेख़बर उड़ने का शऊर
पतंग से सीख लें.
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