Saturday, September 13, 2008

बस इसीलिये हार जाती है हमारी हिन्दी !

फ़िर आ गया है हिन्दी दिवस और शुरू हो गए हैं वही पारम्परिक शगुन.पिछले दिनों जनसत्ता में जाने माने साहित्यकार श्री राजकिशोर का एक लेख राष्ट्रभाषा को लेकर प्रकाशित हुआ था और उसके कुछ ही दिनों बाद मेरे शहर के शिक्षाविद,व्यंग्यकार और कार्टूनिस्ट श्री जवाहर चौधरी का एक पत्र जनसत्ता में ही प्रतिक्रियास्वरूप छपा.श्री चौधरी ने उस पत्र में जो मुद्दे उठाए थे वे बहुत गंभीर और ध्यान देने योग्य हैं .ऐन हिन्दी दिवस के पूर्व उसी पत्र को आज यहाँ जारी कर रहा हूँ…..

अंग्रेज़ी अंग्रेज़ों के राज यानी दो सौ साल में उतनी नहीं बढ़ी जितनी पिछले साठ साल में। इस यथार्थ का की पड़ताल के लिए हिंदी वालों को अपना अंतस खंगालना होगा। पैसा, सुख-समृद्धि इसके कारण प्रतीत होते हैं तो भी इसकी सूक्ष्मता में जाने की ज़रूरत है। जो बाज़ार अंग्रेज़ी की अनिवार्यता घोषित करते हुए नौकरियां देता है वही अपना "धंधा' करने के लिए हिंदी सहित दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं पर निर्भर दिखाई देता है।

टीवी, फ़िल्में और अख़बार आज संचार के मुख्य माध्यम है। इनमें ९५ प्रतिशत विज्ञापन हिंदी के होते हैं। रामायण, महाभारत जैसे कार्यक्रम तो थे ही हिंदी के, लेकिन कौन बनेगा करोड़पति या इसी श्रृंखला के तमाम लॉटरी-जुआ सरीखे कार्यक्रम हिंदी में ही चलाए गए। धंधेबाज़ उसी भाषा का दामन पकड़ लेते हैं जिसमें उन्हें पैसा मिलने की गुंजाइश दिखाई देती हो। पैसा मिले तो हमारा हीरो सीख कर हर भाषा बोलने लगता है। साक्षात्कार देते समय जो सुंदरी अंग्रेज़ी के अलावा कुछ नहीं उगलती वह पैसा मिलने पर भोजपुरी, अवधी, खड़ी बोली, आदि सभी तरह की हिंदी बोल लेती है।

हाल ही में एक नवोदित गायिका को हिंदी गाने के लिए अवार्ड मिला। आभार व्यक्त करते हुए उसने अंग्रेज़ी झाड़ी तो संचालक ने उससे हिंदी में बोलने का आग्रह किया। हिंदी के चार-छह शब्द उसने जिस अपमानजनक ढंग से बोले उसे भूलना कठिन है। भाषा का सरोकार धन और धंधे से हो गया है और यही चिंता का विषय माना जाना चाहिए। थैली दिखाते सामंती बाज़ार के आगे लगता है हमारी ज़बान पतुरिया हो जाती है!

बहुत-सी पत्र-पत्रिकाएँ भाषा के सामान्य, लेकिन आवश्यक मानदंडों की उपेक्षा करते हुए जिस तरह की भाषाई विकृतियां प्रस्तुत कर रही हैं उस पर हल्ला मचाने की आवश्यकता है। लेकिन हम में यानी हिंदीभाषियों में अपनी मातृभाषा के प्रति प्रेम और प्रतिबद्धता अभी तक जागृत नहीं हो पाई है जबकि अन्य भारतीय भाषाओं में यह विकसित है। उर्दू, मराठी, बांग्ला, तमिल, तेलुगू, मलयालम आदि भाषाएं प्रतिबद्धता के साथ विकसित हो रही हैं। ये सारी अंग्रेज़ी का प्रयोग करतीं हैं, लेकिन यह उनकी प्राथमिकता नहीं होती है।दो मराठी या बांग्ला भाषी लोग अंग्रेज़ी जानते हुए भी अपनी भाषा में बात करते हुए गर्व करते हैं। लेकिन हिंदी में प्रायः ऐसा नहीं होता। हिंदी वाला अपनी अच्छी हिंदी को किनारे कर कमज़ोर अंग्रेज़ी के साथ खुद को ऊंचा समझने के भ्रम को पुष्ट करता है। यदि हम ऐसी जगह फंसे हों जहां बर्गर और पित्ज़ा ही उपलब्ध हों तो मजबूरी में उसे खाना ही है, पर इसका मतलब नहीं है कि अपने पाकशास्त्र को खारिज ही कर दें। आज की शिक्षा व्यवस्था में अंग्रेज़ी का हस्तक्षेप अधिक है। इसलिए माना कि फ़िलहाल विकल्प नहीं है। अंग्रेज़ी में ही पढ़िए, लेकिन शेष कामों में अंग्रेज़ी को जबरन घुसेड़ने और गर्व करने की क्या ज़रूरत है.

गांधीजी ने राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी की वकालत की थी। वे स्वयं संवाद में हिंदी को प्राथमिकता देते थे। आज़ादी के बाद सरकारी काम शीघ्रता से हिंदी में होने लगे, ऐसा वे चाहते थे। राजनीतिक संगठनों से कुछ आशा बंधी थी कि कि वे हिंदी को लेकर ठोस और गंभीर कदम उठाएंगे। भाजपा, सपा और अन्य क्षेत्रीय दलों में उम्मीदेंअधिक थीं। लेकिन भारतीय सभ्यताऔर संस्कृति से ऑक्सीज़न लेने वाले दल भी अंग्रेज़ी में दहाड़ते देखे जा सकते हैं। हिंदी को वोट मांगने और अंग्रेज़ी को राज करने की भाषा हम ही बनाए हुए हैं। कुछ लोग सोचेते हैं कि केन्द्र में राजनीतिक सक्रियता के लिए अंग्रेज़ी ज़रूरी है। ऐसा सोचते वक्त यह भुला दिया जाता है कि लालू प्रसाद, रामविलास पासवान, सोनिया गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी जैसे शीर्ष पर बैठै नेता बिना अंग्रेज़ी की दक्षता के सक्रिय और सफल है।

14 comments:

Ashok Pande said...

"... थैली दिखाते सामंती बाज़ार के आगे लगता है हमारी ज़बान पतुरिया हो जाती है!"

- बहुत सार्थक, बहुत सच्चा और कड़वा लिखा है. यहां प्रस्तुत करने का शुक्रिया संजय भाई.

Sajeev said...

सही कहा भाई, मुझे हिन्दी ब्लॉग्गिंग से ही अब उम्मीदें हैं, सरकारी उपक्रम सब पिट गए हैं,

अनिल रघुराज said...

संजय भाई, वाकई बड़े ही बेलाग अदाज़ में सच्ची बात लिखी गई है। जबरदस्त प्रतिक्रिया है। पढ़कर मन खुश हो गया।
धन्यवाद।

मैथिली गुप्त said...

कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती

शिरीष कुमार मौर्य said...

जवाहर चौधरी एक बेह्तरीन लेखक है!
आपके शहर के है और मेरे भी परिचित है.
उन्हे मेरा अभिवादन और इस पोस्ट के लिये शुक्रिया.
हिन्दी की हालत पर क्या कहा जाये -
"केशव कहि न जाये का कहिये"

drdhabhai said...

मित्र हिंदी मैं लिखते रहों,बोलो और अपने बच्चों को भी प्रेरित करो कि हिंदी मैं बोलें उन्हें गर्व महसूस करने दें ...हिंदी यूं ही बढती जायेंगी

अनुनाद सिंह said...

लेखक के विचार बहुत अcछे लगे, साधुवाद।

किन्तु इतना कहने से काम नहीं चलेगा। वर्तमान परिस्तियों और सीमाओं को ध्यान में रखते हुए भारत की भाषा समस्या का व्यावहारिक समाधान भी प्रस्तुत करने की आवश्यकता है ताकि लोगों में आशा की किरण दिखे। ये भारत के बुद्धिजीवियों के लिये एक बहुत बड़ी चुनौती ऐ।

Gyan Dutt Pandey said...

ओह, मैं पिछले ड़ेढ़ साल से हिन्दी लिखने का यत्न कर रहा हूं। इधर हिन्दी विद्वता वाले निम्न वर्णीय मानते हैं, उधर दफ्तरी कामकाज में हिन्दी का तालमेल कम है।
मुझे तो कभी कभी स्थिति हताश लगती है।

Sanjeet Tripathi said...

बहुत बढ़िया लिखा गया है।

और हां भाई साहब, रविवारीय भास्कर में आपकी कविता पढ़ी मैनें, दिल खुश हो गया।

दिलीप कवठेकर said...

इस कडवे सच से आंख न रोई तो क्या.

मगर आप के किसी अन्य लेख (कम नहीं..अधिक नाम ’कमा’ रही है हिंदी ! )में लिखे गये अनुसार, हम में यह न्यूनगंड या हीन भावना (Inferiority Complex)ना हो यह प्रयास तो करना ही पडेगा.वहां व्यक्त की गयी आपकी शिकायत में बडा ही अचूक उत्तर छिपा है, इस समस्या का, कि हम साहित्य की हिन्दी, मंच की हिन्दी , मनोरंजन की हिन्दी, और राजभाषा की हिन्दी ऐसे बंटवारे न करें भाषा के.हिन्दी के प्रचार के लिये साहित्य के मठाधीश दीगर मंचो से हिन्दी की सेवा करने वालों को भी थोडे आदर की दृष्टि से देखें.

हिन्दी ब्लोगिंग भी अच्छा कार्य कर रही है. मान्यता आदि के चक्कर में ना पडे> लगे रहो ब्लोग वालों...

आप का वह लेख भी अच्छा बन पडा है. शायद मुझे यह फ़क्र हासिल हो की उसे अपने ब्लोग ’मानस के अमोघ शब्द ’ पर पोस्ट करूं.

Dr. Chandra Kumar Jain said...

दृष्टिकोण की मौलिकता को
जगह दी है आपने, इसमें मुझे
आपकी मौलिकता स्पष्ट दृष्टिगोचर
हो रही है....आभार चिन्तक का और
साधुवाद आपकी हिन्दीमय प्रस्तुति का.
============================
चन्द्रकुमार

siddheshwar singh said...

कोंपलें फ़िर फ़ूट आईं शाख पर कहना उसे,
वो न समझा है न समझेगा मगर कहना उसे .

अजित वडनेरकर said...

बहुत बढ़िया लिखा है चौधरी जी ने।

हम तो बस इतना ही कहेंगे कि हिन्दी प्रेम को हमारी हीन भावना न समझो यारों...हम इसे आपकी मूर्खता समझते हैं । हिन्दी की कमाई खानेवालों, आपने नमक अदा न किया तो क्या हिन्दी बेस्वाद हो गई ? यह तो उस अंग्रेजी के सर चढ़कर बोल रही है जिसे तुमने सिर चढ़ाया । दुश्मनी तो अंग्रेजी से हमारी भी नहीं । पर अपनी मां और पड़ौसन आंटी में हमे फर्क करना आता है :)
हे प्रभु , इन्हें माफ मत करना , क्योंकि ये जानते हैं कि ये क्या कर रहे हैं .....
:)

Jawahar choudhary said...

संजय जी
आज आपका ब्लाग देख पाया हूं ।
दरअसल पता नहीं था ।
आपका और प्रतिक्रिया देने वाले सभी हिन्दी प्रेमियों का आभार ।
कभी समय मिले तो मेरा ब्लाग भी आएं ।
* जवाहर चौधरी
jawahar choudhary.blogspot.com