Sunday, December 27, 2009
क्रिसमस पर मन को सुक़ून देते सदभावना के संदेश !
कल बड़ा दिन था. मेरे शहर के चर्च के बाहर वैसा ही उल्लास और उमंग नज़र आई जैसी दीपावली पर मंदिरों के बाहर और ईद के दिन मस्ज़िदों के बाहर नज़र आती है.
सजे धजे क्रिश्चियन भाई-बहन और उनकी उंगली थामें प्यारे बच्चों के चेहरे पर क्रिसमस की ख़ुशी साफ़ देखी जा सकती थी. इस बीच एक मित्र ने बताया कि मुंबई के चर्च के पादरी सिध्दि विनायक मंदिर जाकर गणपति के सम्मुख दीया प्रज्ज्वलित करेंगे और उसके बाद मंदिर के पुजारी चर्च जाकर तुलसी का पौधा रोपेंगे. मन रोमांचित हो गया ये बात सुनकर. दिल ने भीतर से कहा यही है तो हमारे देश की गंगा-जमनी तहज़ीब. इसी से तो जाना जाता है हमारा वजूद. इन बातों को लेकर मैं ख़ुश हो ही रहा था कि मोबाइल पर एस.एम.एस. आने शुरू हो गये. कुछ जाने पहचाने मित्रों के नाम देखे तो सहज ही जिज्ञासा हो आई कि भला क्रिसमस के दिन ये क्या कहना चाहते हैं. संदेश थे तो अंग्रेज़ी में लेकिन सभी चार-पांच संदेशों में मैरी क्रिसमस लिखा हुआ था. किसी किसी में भगवान यीशु की करूणा ज़िक्र भी था. मैसेज अच्छे तो थे ही लेकिन सबसे अच्छी बात यह थी कि भेजने वाले भी क्रिश्चियन नहीं थी और पानेवाला यानी मैं भी क्रिश्चियन नहीं....
ख़ैर उस वक़्त तो मैं मैसेज पढ़ कर अपने काम में लग गया लेकिन आज थोड़ी तसल्ली से उन्हें फ़िर पढ़ा तो सोचने लगा कि सदभावना की यह अभिव्यक्तियाँ कितनी भावपूर्ण है,कितनी आत्मीय है. अच्छा लगा कि हम दीगर धर्मों और तहज़ीबों का अनुसरण करने वाले भी दूसरे सप्रदाय के त्योहारों को अपना मानने लगे हैं.शायद यही समय की ज़रूरत भी है और धर्म-निरपेक्ष देश की संस्कृति भी. लेकिन साथ ही मानस में यह प्रतिप्रश्न भी उभरा कि ये एस.एम.एस महज़ कुछ भी भेजना है इसलिये तो नहीं भेज दिये गए हैं....ये सोचकर कि रोज़ रोज़ ही तो मित्रता,दिन शुभ हो या मैनेजमेंट के मैसेज भेजते हैं;चलो आज हैप्पी क्रिसमस ही सही. अगर यह कारण रहा हो तो सोचकर लगा कि हम भला ऐसा क्यों करते हैं. क्या ये सदभावना का दिखावा नहीं. यह बात भी मन में आई कि इन संदेशों को भेजने वाले मित्रों ने क्या किसी अपने क्रिश्चियन परिचित,पडौसी और मित्र को बड़े दिन की बधाई दी ? जितनी ख़ुशी संदेशो को प्राप्त कर हुई थी वह मन के प्रतिप्रश्नों से काफ़ूर हो गई....आप क्या सोचते हैं...मन में उथल-पुथल मची है तो सोचा आपसे बतियाकर जी हल्का कर लिया जाए.
बहरहाल ! दिल की गहराई से बड़े दिन की बधाई...
Thursday, November 26, 2009
आज है मुनव्वर राना और राजकुमार केसवानी का जन्मदिन.
सबसे पहले तो इन दोनो सुख़नवर की लम्बी उम्र की कामना करें.मुनव्वर राना और राजकुमार केसवानी को अलग-अलग इलाक़े के इंसान हैं लेकिन दोनो में एक समानता है कि ये अपनी शर्तों पर अपनी ज़िन्दगी बसर करते हैं.दोनों में ज़िन्दादिली एक स्थायी भाव है और मस्तमौला तबियत के धनी हैं,इंसानी तक़ाज़ों को कभी दरकिनार नहीं करते और जो भी काम करते हैं बड़ी ईमानदारी से करते हैं.
मुनव्वर राना का घर पूरा हिन्दुस्तान है.हम इन्दौरी भरम पाल लेते हैं कि इन्दौर उनका दूसरा घर है जबकि हक़ीकत यह है कि मुनव्वर भाई जहाँ जाते हैं अपना परिवार-दोस्त बना लेते हैं.उर्दू शायरी में रिश्तों को लेकर मुनव्वर भाई जो बातें कहीं हैं वे न केवल बेमिसाल हैं बल्कि एक लम्हा आपको अपनी ज़ाती ज़िन्दगी में झाँकने पर मजबूर भी करतीं हैं.दोस्त बनाने में मुनव्वर भाई का जवाब नहीं;और यक़ीनन वे दोस्ती निभाते भी हैं.अच्छा खाना मुनव्वर भाई की क़मज़ोरी है.वे कहते हैं ...जहाँ अच्छा खाना;वहाँ मुनव्वर राना.मुनव्वर भाई की सालगिरह पर उन्हीं की ग़ज़ल मुलाहिज़ा फ़रमाएँ:
हमारा तीर कुछ भी हो,निशाने तक पहुँचता है
परिन्दा कोई मौसम हो ठिकाने तक पहुँचता है
धुआँ बादल नहीं होता,कि बचपन दौड़ पड़ता है
ख़ुशी से कौन बच्चा कारख़ाने तक पहुँचता है
हमारी मुफ़लिसी पर आपको हँसना मुबारक हो
मगर यह तंज़ हर सैयद घराने तक पहुँचता है.
राजकुमार केसवानी की पहली पहचान अख़बारनवीस के बतौर है और दिसम्बर महीना नज़दीक़ आते ही राजभाई की पूछ-परख कुछ ज़्यादा ही हो जाती है क्योंकि यही वह पहला शख़्स है जिसने भोपाल गैस त्रासदी के लिये भारत सरकार को बहुत पहले चेताया था. राजकुमार केसवानी एक भावुक कवि भी हैं और उनकी रचनाओं में परिवेश और ज़िन्दगी के कई कलेवर नज़र आते हैं.वे दैनिक भास्कर के रविवारीय परिशिष्ट रस-रंग का सफल संपादन कर चुके हैं और देश के अख़बारों में हर हफ़्ते शाया होने वाले रविवासरीय पन्नों से रस-रंग को बहुत आगे निकाल चुके हैं.वे एक संजीदा इंसान इसलिये भी हैं कि हर तरह का वह संगीत जिसमें सुर की रूह मौजूद है राजभाई सुनना और गुनना पसंद करते हैं.स्वयं उनके निजी संकलन में कई बेमिसाल बंदिशें मौजूद हैं जिनमें फ़िल्म संगीत,ग़ज़ले और क्लासिकल रचनाओं का शुमार है.वर्ल्ड क्लासिक फ़िल्में भी राजभाई की कमज़ोरी रही हैं.सूफ़ी परम्परा के पुरोधा बाबा रूमी पर राजकुमार केसवानी के मजमुए में झर रहीं रूहानियत महसूस करने की चीज़ है. राजभाई की एक कविता आपके साथ बाँटना चाहता हूँ
बचपन में
मेरे पास
सिर्फ़ बचपन था
और वह
सबको
अच्छा लगता था
बुढ़ापे मे अब
मेरे पास
रह गया है
सिर्फ़ बचपना
और वह
किसी को
अच्छा नहीं लगता.
तो लीजिये दोस्तो,आज उर्दू-हिन्दी की शब्द-सेवा करने वाले दो प्यारे इंसानों को उनके जन्मदिन की बधाई देत हुए मैं अपनी बात को विराम देता हूँ.
बधाई....मुनव्वर राना....राजकुमार केसवानी.
मुनव्वर राना का घर पूरा हिन्दुस्तान है.हम इन्दौरी भरम पाल लेते हैं कि इन्दौर उनका दूसरा घर है जबकि हक़ीकत यह है कि मुनव्वर भाई जहाँ जाते हैं अपना परिवार-दोस्त बना लेते हैं.उर्दू शायरी में रिश्तों को लेकर मुनव्वर भाई जो बातें कहीं हैं वे न केवल बेमिसाल हैं बल्कि एक लम्हा आपको अपनी ज़ाती ज़िन्दगी में झाँकने पर मजबूर भी करतीं हैं.दोस्त बनाने में मुनव्वर भाई का जवाब नहीं;और यक़ीनन वे दोस्ती निभाते भी हैं.अच्छा खाना मुनव्वर भाई की क़मज़ोरी है.वे कहते हैं ...जहाँ अच्छा खाना;वहाँ मुनव्वर राना.मुनव्वर भाई की सालगिरह पर उन्हीं की ग़ज़ल मुलाहिज़ा फ़रमाएँ:
हमारा तीर कुछ भी हो,निशाने तक पहुँचता है
परिन्दा कोई मौसम हो ठिकाने तक पहुँचता है
धुआँ बादल नहीं होता,कि बचपन दौड़ पड़ता है
ख़ुशी से कौन बच्चा कारख़ाने तक पहुँचता है
हमारी मुफ़लिसी पर आपको हँसना मुबारक हो
मगर यह तंज़ हर सैयद घराने तक पहुँचता है.
राजकुमार केसवानी की पहली पहचान अख़बारनवीस के बतौर है और दिसम्बर महीना नज़दीक़ आते ही राजभाई की पूछ-परख कुछ ज़्यादा ही हो जाती है क्योंकि यही वह पहला शख़्स है जिसने भोपाल गैस त्रासदी के लिये भारत सरकार को बहुत पहले चेताया था. राजकुमार केसवानी एक भावुक कवि भी हैं और उनकी रचनाओं में परिवेश और ज़िन्दगी के कई कलेवर नज़र आते हैं.वे दैनिक भास्कर के रविवारीय परिशिष्ट रस-रंग का सफल संपादन कर चुके हैं और देश के अख़बारों में हर हफ़्ते शाया होने वाले रविवासरीय पन्नों से रस-रंग को बहुत आगे निकाल चुके हैं.वे एक संजीदा इंसान इसलिये भी हैं कि हर तरह का वह संगीत जिसमें सुर की रूह मौजूद है राजभाई सुनना और गुनना पसंद करते हैं.स्वयं उनके निजी संकलन में कई बेमिसाल बंदिशें मौजूद हैं जिनमें फ़िल्म संगीत,ग़ज़ले और क्लासिकल रचनाओं का शुमार है.वर्ल्ड क्लासिक फ़िल्में भी राजभाई की कमज़ोरी रही हैं.सूफ़ी परम्परा के पुरोधा बाबा रूमी पर राजकुमार केसवानी के मजमुए में झर रहीं रूहानियत महसूस करने की चीज़ है. राजभाई की एक कविता आपके साथ बाँटना चाहता हूँ
बचपन में
मेरे पास
सिर्फ़ बचपन था
और वह
सबको
अच्छा लगता था
बुढ़ापे मे अब
मेरे पास
रह गया है
सिर्फ़ बचपना
और वह
किसी को
अच्छा नहीं लगता.
तो लीजिये दोस्तो,आज उर्दू-हिन्दी की शब्द-सेवा करने वाले दो प्यारे इंसानों को उनके जन्मदिन की बधाई देत हुए मैं अपनी बात को विराम देता हूँ.
बधाई....मुनव्वर राना....राजकुमार केसवानी.
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Friday, November 6, 2009
उड़ गया....कागद कारे करने वाला हँस अकेला !
आज सुबह आकाशवाणी समाचार में वरिष्ठ हिन्दी पत्रकार श्री प्रभाष जोशी के अवसान का समाचार सुना. यूँ लगा जैसे मालवा का एक लोकगीत ख़ामोश हो गया. उनके लेखन में मालवा रह-रह कर और लिपट-लिपट कर महकता था. नईदुनिया से अपनी पत्रकारिता की शुरूआत करने वाले प्रभाषजी के मुरीदों से बड़ी संख्या उनसे असहमत होने वालों की है. लेकिन वे असहमत स्वर भी महसूस करते रहे हैं कि पत्रकारिता में जिस तरह के लेखकीय पुरूषार्थ की ज़रूरत होती है; प्रभाषजी उसके अंतिम प्रतिनिधि कहे जाएंगे. आज पत्रकारिता में क़ामयाब होने के लिये जिस तरह के हथकंडे अपनाए जा रहे हैं ; प्रभाषजी उससे कोसों दूर अपने कमिटमेंट्स पर बने रहे. दिल्ली जाकर भी वे कभी भी मालवा से दूर नहीं हुए. बल्कि मैं तो यहाँ तक कहना चाहूँगा कि श्याम परमार, कुमार गंधर्व,प्रभाष जोशी और प्रहलादसिंह टिपानिया के बाद मालवा से मिली थाती को प्रभाषजी के अलावा किसी ने ईमानदारी से नहीं निभाया; यहाँ तक कि अब मालवा में रह कर पत्रकारिता,कला,कविता और संगीत से कमा कर खाने वालों ने भी नहीं. जनसत्ता उनके सम्पादकीय कार्यकाल और उसके बाद के समय में जिस प्रतिबध्द शैली में काम करता रहा है उसके पीछे कहीं न कहीं प्रभाषजी का पत्रकारीय संस्कार अवश्य क़ायम है. राहुल बारपुते जैसे समर्थ पत्रकार के सान्निध्य में प्रभाषजी ने अख़बारनवीसी की जो तालीम हासिल की उसे ज़िन्दगी भर निभाया. आज पत्रकारिता क्राइम,ग्लैमर और राजनीति के इर्द-गिर्द फ़ल-फूल रही है,कितने ऐसे पत्रकार हैं जो कुमार गंधर्व के निरगुणी पदों का मर्म जानते हैं,कितने केप्टन मुश्ताक अली या कर्नल सी.के.नायडू की धुंआधार बल्लेबाज़ी की बारीकियों को समझते हैं,कितने ऐसे हैं जो अपने परिवेश की गंध को अपने लेखन में बरक़रार रख पाते हैं; शायद एक-दो भी नहीं.राजनेताओं से निकटता आज पत्रकारिता में गर्व और उपलब्धि की बात मानी जाती है. प्रभाषजी जैसे पत्रकारों ने इसे हमेशा हेय समझा बल्कि मुझे तो लगता है कि कई राजनेता उनसे सामीप्य पाने के लिये लालायित रहे लेकिन जिसे उन्होंने ग़लत समझा ; ग़लत कहा...किसी व्यक्ति से तमाम विरोधों के बावजूद यदि प्रभाषजी को लगा कि नहीं उस व्यक्ति में कमज़ोरियों की बाद भी कुछ ख़ास बात है तो उसे ज़रूर स्वीकारा.अभी हाल ही में उन्होंने इंदिराजी की पुण्यतिथि पर दूरदर्शन के एक टॉक-शो में शिरक़त की थी और इंदिराजी की दृढ़ता और नेतृत्व -क्षमता की प्रशंसा की थी जबकि उन्हीं इंदिराजी को आपातकाल और उसके बाद कई बार प्रभाषजी ने अपने कागद-कारे में लताड़ भी लगाई थी.
बहरहाल...हिन्दी पत्रकारिता ही नहीं हिन्दी जगत में भी आज का दिन एक दु:ख भरे दिन के रूप में याद किया जाएगा क्योंकि हिन्दी की धजा को ऊंचा करने वाले प्रभाष जोशी आज हमारे बीच नहीं रहे हैं.....प्रभाष दादा क्या आप आज भी कुमार जी का यह पद सुन रहे हैं....उड़ जाएगा हँस अकेला.
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Friday, July 10, 2009
उज्जैन में एक हीरो की तरह विदा हुए पं.ओम व्यास
लग रहा था वह किसी की अंतिम यात्रा नहीं;श्रावण मास में उज्जैन में निकलने वाली भगवान महाकाल की शाही सवारी है.पूरे देश में उज्जैन को और अधिक ख्याति देने वाले जनकवि ओम व्यास की पार्थिव देह को दिल्ली में 8 जुलाई को दिल्ली से उनके गृहनगर लाया गया.कलेक्टर,कमिश्नर,आई.जी.एस.पी,राजनेता,कवि,कलाकार,संस्कृतिकर्मी,चित्रकार और कई ऐसे अनजान चेहरे जिन्हें कोई नहीं जानता अपने अजीज ओम को विदा देने के लिये उज्जैन की सड़कों पर उतर आए थे. संख्या क्या बताऊं..तीन हज़ार या पांच हज़ार...शायद न बता पाऊं... लोग अपने आँसू रोक नहीं पा रहे थे. राजकीय सम्मान की तरह एक वाहन पर उनका पार्थिव शरीर सजाया गया था. आगे पुलिस बैण्ड चल रहा था. ओम व्यास अपने गृहनगर की सड़कों पर आज एक हीरो की तरह पूरे ग्यारह किमी. घूमे. अनुशासन ले लिये सड़क पर बैरिकेट्स लगे थे जिससे अंतिम यात्रा और सामान्य यातायात दोनो निर्बाध चलते रहें.पुष्प वर्षा हो रही थी. और अब सबसे आश्चर्यजनक बात ! जगह जगह स्टेज बनाकर, लाउडस्पीकर लगाकर पूरे उज्जैन में ओम व्यास की पूर्व-रेकॉर्डेड रचनाओं का प्रसारण हो रहा था. बड़ी बात यह है कि ये काम न प्रशासन ने किया , न किसी नामचीन संस्था ने, आम दुकानदारों ने बाज़ार बंद रखकर ओम व्यास के लिये यह काव्यात्मक श्रध्दांजली देने का ग़ज़ब का कारनामा किया. एक कवि की ताकत आम आदमी होता है, जिसे वह न नाम से जानता है , न सूरत से ...लेकिन बस अपने प्यारे कवि से मोहब्बत करता है.आज उज्जैन की सड़कों पर बना ये मंज़र हमारे नगर को पहचान देने वाले पं.सूर्यनारायण व्यास,शिवमंगल सिंह सुमन और सिध्देश्वर सेन की कड़ी में एक और चचित नाम जोड़ गया....ओम व्यास "ओम"
उपरोक्त आँखोंदेखा विवरण पं.ओम व्यास के पारिवारिक मित्र नितिन गामी ने उज्जैन में मालवा के इस धारदार कवि की अंत्येष्टि मे सम्मिलित होने के बाद सुनाया.
ओम भाई को गए तीन दिन हो गए हैं लेकिन यादें हैं कि पीछा ही नहीं छोड़तीं . ऐसा लगता है कि जैसे वे अभी किसी कवि-सम्मेलन में भाग लेने उज्जैन से बाहर गए हैं और बस आज ही लौट आएंगे.पिछले दिनों मेरे मित्र डॉ.जी.एस.नारंग बता रहे थे कि वे अपने रिश्तेदार के यहाँ उज्जैन कुछ दिनों के लिये गए हुए थे. उन्हें नियमित रूप से सुबह की सैर का क़ायदा बना रखा था. निममित क्रमानुसार जब डॉ.नारंग एक दिन कोठी रोड पर घूमने निकले तो देखा एक कुर्ता पहना हुआ आदमी, चोटीधारी आगे आगे चल रहा है और पीछे पीछे दस-बीस लोग ठहाका लगाते हुए चल रहे हैं. डॉ.नारंग ने अपने स्वजन से पूछा कि ये कौन जा रहा है और उसके पीछे चलते हुए लोग क्यों ठहाका लगा रहे हैं तो पता लगा ये ख्यात कवि ओम व्यास है, सुबह सैर पर निकले हैं और पीछे चल रहे लोग उनकी बातों पर ठहाके लगा रहे हैं.मित्र ने पूछा क्या कविता सुना रहे होंगे,तो बताया गया कि नहीं वे तो बात करते करते ऐसी बात कर जाते हैं कि हँसी रोकना मुश्किल हो जाता है.मुझे लगता है किसी व्यक्ति के अवाम का दुलारा होने का और प्रमाण क्या हो सकता है.
विगत दिनों ओम व्यास लगातार इन्दौर आ रहे थे और काव्य पाठ कर मजमा लूट रहे थे.मेरे एक परिचित ने कहा व्यास जी से कहिये कि बार बार एक शहर में न आया करें.मैंने ये बात एक एस.एम.एस के ज़रिये ओम भाई तक प्रेषित की. ओम भाई ने तत्काल जवाब दिया जजमान बुलाए तो जाना ही पड़ता है भिया,और किसी को तकलीफ़ है तो वो न बुलाए अपन को.ओम व्यास के पास मंचीय ज़रूरत के मुताबिक चुटकुलेबाज़ी का चूरण तो था ही लेकिन विशुध्द कविता भी थी वरना वह हिन्दी मंच पर इस क़दर सफल और धुँआधार पारी नहीं खेल सकता था.कबाड़ख़ाना पर भाई रवीन्द्र व्यास ने एक टिप्पणी में सही कहा है कि इसमें कोई शक नहीं कि ओम व्यास में एक हास्य कवि से कुछ अधिक की संभावनाएँ मौजूद थी.कबाड़ख़ाना के कमेंट बॉक्स में ही युवा कवि डॉ.कुमार विश्वास की मार्मिक टिप्पणी ज़रूर पढ़ियेगा.
कस्बाई आदमी जब बड़े फ़लक पर सफलता अर्जित करने लगता है तो उसके मन में आर्थिक महत्वाकांक्षाएं उड़ान भरने लगतीं हैं, और इसमें कुछ बुरा भी नहीं.ओम भाई भी अपने परिवार को बेहतर परवरिश देने के लिये लगातार यात्राएं करते रहे और अथक परिश्रम से अपने परिवार को सँवारते रहे. मैंने एक बार कहा ओम भाई आपका ड्रेस सेंस बड़ा ग़ज़ब का है, हमेशा कलफ़ लगा कुर्ता और पेंट पहनते हैं ! उन्होंने तुरंत जवाब दिया भैया आजकल पैकिंग का ज़माना है , कविता को जमाना है तो फ़ैब इण्डिया जाना है और वहाँ के कपड़े लाना है. अपने आप को नहीं बदलो तो समय अपने को आउट कर देता है. हमारे कवि भाई लोग एक सफ़ारी में कवि सम्मेलनों का पन्द्रह दिन का टूर निपटा लेते थे अब ऐसा नहीं चलता.
आयोजक आजकल आपके कपड़ों और सूटकेस के ब्रांड से आपकी कविता का लेवल और पारिश्रमिक तय करने लगा है.
फ़िर कहने लगे मैं पन्द्रह दिन के लिये अमेरिका गया तो पन्द्रह चड्डी-बनियान साथ ले गया.मैने आश्चर्य प्रकट किया तो बोले ऐसा है हिन्दी कविता पढ़ने के लिये डॉलर में पेमेंट लो और रात को प्रोग्राम से आने के बाद कपड़े धोने बैठो तो ये किसने सिखाया अपने को.
ओम व्यास मित्रों से जब भी मिलते तो कोई उपहार या स्मृति चिह्न ज़रूर भेंट कर देते,पिछले दिनों वे मेरे लिये रतलाम का मशहूर इत्र ले आए थे. इत्र तो कभी न कभी ख़त्म हो जाएगा लेकिन उसमें ओम व्यास नाम के मुस्कुराहट देने वाले फूल की ख़ुशबू कभी कम न होगी.
Sunday, July 5, 2009
इन्दौर का सिख मोहल्ला अब कहलाएगा भारतरत्न लता मंगेशकर मार्ग
दुनिया की सबसे सुरीली आवाज़ लता मंगेशकर का जन्म (28 सितम्बर 1929) इन्दौर में हुआ है. आने वाले सितम्बर में लताजी पूरे 80 बरस की हो जाने वालीं हैं.इन्दौर की नगर पालिक निगम ने सैध्दांतिक रूप उस एक प्रस्ताव को मंज़ूरी दे दी है जिसके तहत इन्दौर के सिख मोहल्ले की दो सड़कों में से एक का नाम भारतरत्न लता मंगेशकर मार्ग कर दिया जाएगा. उल्लेखनीय है कि इसी सिख मोहल्ले में अपनी मौसी के घर में लताजी का जन्म हुआ था.
इन्दौर नगर पालिक निगम की महापौर डॉ.उमाशशि शर्मा और सभापति शंकर लालवानी ने व्यक्तिगत रूचि लेकर इस प्रस्ताव को पारित करवाने में अथक प्रयास किये. उल्लेखनीय है कि सन 1984 से लता मंगेशकर अलंकरण पुरस्कार समारोह भी इन्दौर में आयोजित किया जाता रहा है जिसमें अब तक चौबीस गायक और संगीतकार सम्मानित किये जा चुके हैं. मध्य प्रदेश के संस्कृति विभाग द्वारा सुगम संगीत के क्षेत्र में दिया यह देश का सबसे बड़ा पुरस्कार है. हालाँकि स्वयं लताजी इस पुरस्कार में कभी नहीं आईं हैं .हाँ ये बता दूँ कि लताजी के नाम से स्थापित इस अहम पुरस्कार से आशा भोंसले और पं.ह्र्दयनाथ मंगेशकर भी नवाज़े जा चुके हैं.सन 1983 में इन्दौर में ही लता-रजनी के नाम से लताजी का भव्य लाइव शो भी आयोजित किया जा चुका है और उसी समारोह में तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुनसिंह ने लताजी के नाम से इस प्रतिष्ठा अलंकरण की स्थापना की घोषणा की थी.
उस दौर में जब नेताओं के नाम से ही सड़कें और मूर्तियों के नामकरण का चलन है इन्दौर ने एक सड़क को सर्वकालिक महान स्वर-कोकिला के नाम समर्पित करने का फ़ैसला लेकर प्रशंसनीय पहल की है. सबसे बड़ी बात यह है कि इन्दौर नगर पालिक निगम में इस शुभ काम के लिये सही समय (लताजी 80 वाँ जन्मवर्ष) का चयन किया है साथ ही यह काम लताजी के जीवन काल मे होने जा रहा है जो समस्त लता मुरीदों के लिये अत्यंत हर्ष का विषय है.
मैंने बीती शाम मुंबई फ़ोन कर के लता दीदी को इस पहल की सूचना दी जिस पर उन्होंने अपनी मीठी आवाज़ में धन्यवाद कहा. मैंने उनके स्वर में इस बात की असीम प्रसन्नता महसूस की कि उनकी जन्मभूमि ने यह भावनात्मक तोहफ़ा उन्हें दिया.यूँ देखा जाए तो लता मंगेशकर जैसी अज़ीम शख़्सियत के लिये कोई भी सम्मान बहुत छोटा है लेकिन जब आपकी जन्मस्थली आपको याद करे तो बात ही कुछ और होती है.
Monday, June 8, 2009
आइये कविवर ओम व्यास के स्वास्थ्य लाभ की कामना करें
वह मालवा का ऐसा सशस्त काव्य हस्ताक्षर है जिसने इन दिनों हिन्दी काव्य मंचों को अपनी अनूठी कहन और शिल्प से ठहाकों से लबरेज़ कर रखा है. एक विशष्ट स्वांग और अभिव्यक्ति का कवि पं.ओम व्यास ओम भोपाल के एक निजी नर्सिंग होम में जीवन और मृत्यु के बीच संघर्षरत है. जब मैं यह बात लिख रहा हूँ तब तक पूरे देश को मालूम पड़ चुका है कि विदिशा (म.प्र) से एक कवि-सम्मेलन से कार द्वार लौटते हुए देश के तीन कवि;ओमप्रकाश आदित्य,नीरज पुरी और लाड़सिंह गुर्जर एक भीषण सड़क दुर्घट्ना में ८ जून की अलसुबह काल कवलित हो गए. प.व्यास और युवा कवि जॉनी बैरागी इसी कार में थे. कवि अशोक चक्रधर,विनीत चौहान और प्रदीप चौबे भोपाल में व्यास और बैरागी की देखरेख में लगे रहे.इधर इन्दौर,उज्जैन,रतलाम,खण्डवा,भोपाल, जैसे प्रदेश के दीगर शहरों के अलावा देश भर के काव्य-प्रेमियों के बीच इस ह्रदयविदारक घटना का समाचार मोबाइल फ़ोन्स और एस.एम.एस के ज़रिये फ़ैलता रहा. इसी सुबह कला-प्रेमियों को रंगकर्मी हबीब तनवीर के इंतक़ाल की ख़बर भी मिली थी.
पं.ओम व्यास ओम ने विगत पाँच वर्षों में अपनी हास्य कविताओं से न केवल देश में वरन विदेशों ख़ासकर अमेरिका के हिन्दी काव्य-प्रेमियों के बीच अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाई है. वे अपने परिवेश,परिवार और संबंधों से निराले काव्य-बिम्ब तलाशने में माहिर रहे हैं.जैसे मज़ा ही कुछ और है शीर्षक कविता की ये पंक्तियाँ देखिये:
दाँतों से नाख़ून काटने का
छोटों को ज़बरद्स्ती डॉटनें का
पैसे वालों को गाली बकने का
मूँगफ़ली के ठेले से मूँगफ़ली चखने का
कुर्सी पर बैठकर कान में पेन डालने का
और रोडवेज़ की बस की सीट से स्पंज निकालने का
मज़ा ही कुछ और है
कभी नहीं उन्वान से एक रचना में पं.व्यास कहते हैं:
साले की बुराई
शक्की की दवाई
उधार प्रेमी को अपने दोस्त से मिलाना
पत्नी को अपनी असली इनकम बताना
कुत्ते के नवजात पिल्ले को सहलाना
और पहलवान की बहन से इश्क़ लड़ाना
कभी नहीं-कभी नहीं
हास्य कविताओं के अलावा माँ और पिता शीर्षक से रची अपनी कविता से पं.ओम व्यास ने पूरे देश के कविता प्रेमियों को लगभग सिसकने पर विवश किया है.
बानगी देखें:
माँ
चिन्ता है,याद है,हिचकी है
बच्चे की चोट पर सिसकी है
माँ चूल्हा,धुँआ,रोटी और हाथों का छाला है
माँ ज़िन्दगी की कड़वाहट में अमृत का प्याला है
माँ त्याग है,तपस्या है,सेवा है
माँ फूँक से ठंडा किया हुआ कलेवा है
पिता
रोटी है,कपड़ा है,मकान हैं
पिता छोटे से परिंदे का बड़ा आसमान हैं
पिता से ही बच्चों के ढ़ेर सारे सपने हैं
पिता हैं तो बाज़ार के सब खिलौने अपने हैं
आज जब हास्य के नाम पर कविता लतीफ़े में तब्दील होती जा रही है,ओम व्यास जैसे कवियों ने अपने समर्थ क़लम से काव्य की आन में बढोत्तरी की है. पं.ओम व्यास के लिये चिकित्सकों का कहना है कि आगामी 24 घंटे उनके लिये बेहद चुनौतीपूर्ण हैं.आइये हम सब मिल कर प्रार्थना करें कि इस यशस्वी और लाड़ले कवि के सर से ये ख़तरा भी टल जाए. प.ओम व्यास ने घर-घर में हँसी बाँटी है;लाखों मुरीदों की दुआएं उनके साथ हैं.
हाँ बात ख़त्म करते करते बता दूँ कि पं.ओम व्यास बी.एस.एन.एल.में कार्यरत हैं और उज्जैन उनका शहर है लेकिन पूरे देश में उनके मित्रों और चाहने वालों की लम्बी फ़ेहरिस्त है.इन दिनों ओम भाई कविता पाठ शुरू करने के पहले दाद बटोरने के लिए एक नवेला रूपक गढ़ रहे हैं.वे कहते हैं मैं आपके शहर में काव्यपाठ से आने के पहले उज्जैन के विश्व्व प्रसिध्द महाकाल मंदिर गया था . वहाँ भगवान महाकाल से भेंट हो गई.तो मुझे बोले ओम जो तेरे कविता पाठ में सुमड़ा जैसा बैठा रहे और दाद न दे तो उज्जैन आकर मुझे सिर्फ़ उसके शर्ट का रंग बता देना, बाक़ी मैं देख लूंगा.ऐसा कहते ही पं.ओम व्यास की बात पर तालियों और ठहाकों की धूम मच जाती है.
महाकाल को काल को टालने वाला देव कहा गया है,आइये उन्हीं महाकाल भगवान से प्रार्थना करें कि अपने नगर के इस युवा कवि के सर से काल को टालें और पूरे व्यास परिवार की ख़ुशियों को लौटा दें.
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Friday, April 17, 2009
लिखावट को सुन्दर बनाने वाला एक जुनूनी हिन्दी प्रेमी
इसे कोई दैवीय प्रेरणा कहें या जुनून; श्याम शर्मा नाम का ये शख्स है बहुत फ़ितरती.
मेरे शहर के नगर पालिक निगम का यह युवा इंजीनियर यूँ तो भवनों के निर्माण की अनुमति जारी करता है लेकिन इसके साथ ही एक और ख़ास काम वह बीते कई बरसों से कर रहा है और वह है हिन्दी की लिखावट यानी हैण्डराइटिंग को सँवारने का काम.वह सैकड़ों कि.मी.की दूरी की परवाह किये बग़ैर अपनी कार में सवार हो जाता है और दूरस्थ अंचलों में जाकर हिन्दी सुलेख का प्रशिक्षण देने लगता है. श्याम शर्मा जिसे हम मित्र श्याम भाई कहते हैं कई हुनर जानते हैं.वे कविता लिखते है, अभिनय करते हैं, गाना गा सकते हैं और सुधार सकते हैं आपकी हैण्डराइटिंग.श्याम भाई इस काम के लिये किसी तरह की व्यावसायिक अपेक्षा नहीं रखते . आप उन्हें याद भर कर लीजिये और श्याम भाई चले आएंगे आपके शहर/गाँव में.
श्याम भाई हिन्दी लिखावट की दुर्दशा पर बहुत दु:खी रहते हैं और मानते हैं कि यह इसलिये है कि हम सुलेख के प्रति बहुत लापरवाह होते हैं.उनका मानना है कि चूँकि धीरज नाम की चीज़ ज़िन्दगी से गुम ही हो गई है तो यह अधीरता हमारे अक्षरों में भी प्रतिध्वनित होती रहती है. वे हिन्दी सुलेख की तकनीक बेहद आसान तरीक़े से सिखाते हैं और कुछ दो-तीन फ़ामूलों के ज़रिये आपकी लिखावट में चमत्कारिक सुन्दरता ला सकते हैं. आपको जानकर ख़ुशी होगी कि शयाम भाई को मध्य-प्रदेश शासन उनके इस कारनामे के लिये साक्षरता पुरस्कार से भी नवाज़ चुका है और आउटलुक जैसी नामचीन पत्रिका उन पर पूरे पेज की स्टोरी भी कर चुकी है.
प्रचार प्रसार से बेख़बर श्याम भाई की इस हिन्दी सेवा के मद्देनज़र इन्दौर में स्थापित हुई नई-नकोरी सांस्कृतिक संस्था मोरपंख 18 अप्रैल को श्याम भाई का अभिनंदन करने जा रही है. इसी अवसर पर हिन्दी – उर्दू की दोस्ती के नाम एक शानदार कवि-सम्मेलन की आयोजना भी है जिसमें मुनव्वर राना, डॉ.राहत इन्दौरी, अशोक चक्रधर ,ओम,व्यास,जगदीश सोलंकी,देवल आशीष और माणिक वर्मा और प्रो.राजीव शर्मा जैसे जानेमाने काव्य हस्ताक्षर शिरक़त करने जा रहे हैं.इसी आयोजना में श्याम भाई की पुस्तिका तुरतं सीखो – सुन्दर लिखो का विमोचन भी होगा. श्याम भाई इस पुस्तिका को नि:शुल्क वितरित करेंगे. इसी पुस्तिका पर एकाग्र एक वैबसाइट हिन्दी-सुलेख के नाम से भी जारी कर दी गई है जिसकी सैर कर आप अपनी हिन्दी लिखावट सुधार सकते हैं,सुन्दर बना सकते हैं.
हिन्दी को निश्चित रूप से ऐसे ही सेवियों की ज़रूरत है. अंग्रेज़ी और बॉलपेन ने वाक़ई हमारी लिखावट को बिगाड़ा है. स्कूलों में भी अब बच्चों की लिखावट के प्रति कोई चिंता नहीं जताई जा रही है.श्याम भाई ने जीवन में बहुत संघर्ष किया है वे मानते हैं कि कन्यादान,विद्यादान और अग्निदान में से कोई भी एक काम कर लेने से मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है अत: वे हिन्दी सुलेख की सीख देकर पुण्य कमाना चाहते हैं.
माँ हिन्दी को ऐसे ही सपूतों की ज़रूरत है. सलाम श्याम शर्मा.
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Wednesday, March 11, 2009
आज फ़िर याद आ गईं दिव्यमयी महादेवीजी
सरस्वती का साक्षात स्वरूप मानीं जाने वालीं हिन्दी कविता की पूजनीय हस्ताक्षर महादेवी वर्मा का जन्मदिन होली के दिन ही आता है. 1984 में लायन्स क्लब की युवा इकाई लियो क्लब के लिये महादेवीजी को इन्दौर न्योता था. लोक साहित्य के जाने माने लेखक दादा रामनारायण उपाध्याय के ज़रिये हमें मालूम पड़ा कि महादेवी जी खण्डवा आ रहीं हैं. पहुँच गए हम उनसे मिलने . हिन्दी के वरिष्ठ कवि श्रीयुत श्रीकांत जोशी के निवास पर महादेवी जी से मुलाक़ात हुई. नीले किनार वाली सूती सफ़ेद साड़ी ,आँखों पर काले मोटे फ़्रेम का चश्मा और पाँवों में साधारण सी स्लीपर. स्वर ऐसा खरज में डूबा हुआ कि बोलें तो लगे कि पाताल में से गूँज रही है ये आवाज़.पूछने लगीं क्यों बुलाना चाहते हैं इन्दौर.मैंने बताया युवाओं का संगठन है हमारा आप आएँगी तो प्रेरणा मिलेगी कुछ नया करने की. ठहाका लगाकर बोलीं मेरे लिये समय होगा आप सबके पास.हाँ कहने पर प्रसन्न हुई. आने का आश्वासन दे दिया.
उन दिनों न तो मोबाइल था न एस.टी.डी., इन्दौर से इलाहाबाद ट्रंककॉल मिलाना पड़ता था. मेरे मित्र आदित्य बस इसी काम मे लगे रहते.मालूम पड़ा वे हिंदी साहित्य समिति के आयोजन में शिरक़त के लिये इन्दौर आने वालीं है. उसके पहले भोपाल पहुँचेंगी. हम उन्हें आग्रह करने भोपाल पहुँच गए. भारत भवन में कार्यक्रम था. सीढ़ियों से नीचे उतरनें लगीं .मैं और इन्दौर से आए सारे साथी पीछे पीछे. डॉ.शिवमंगल सिंह सुमन ने एहतियातन हाथ थाम लिया महादेवीजी और बोले दीदी सम्हल कर. कहीं गिर न पडें ! महादेवीजी ने स्फ़ूर्त जवाब दिया मैं अब गिर भी गई तो क्या सुमन ( और हमारी और मुड़ कर इशारा करते हुए बोलीं) सम्हालना तो इस पीढ़ी को पड़ेगा ये न गिर न पड़े.
दो दिन बाद महादेवीजी इन्दौर आईं.लेकिन उसके पहले भोपाल में एक हादसा हो गया. सर्किट हाउस में महादेवीजी गिर पड़ीं और पैर में सूजन आ गई.भीषण पीड़ा ने घेर लिया महादेवीजी को लेकिन वादे के मुताबिक प्रेमचंद स्मृति प्रसंग में इन्दौर आईं.अमृत राय भी साथ में थे उस कार्यक्रम में.हमें इजाज़त दे दी थी सो हमने सैकड़ों निमंत्रण पत्र बाँट कर महादेवीजी की सभा को प्रचारित किया. रात आठ बजे कार्यक्रम था. सात बजे आयोजन स्थल पर फ़ोन आया कि महादेवीजी ने पैर की पीड़ा के कारण हमारे कार्यक्रम में आने से असमर्थता प्रकट की है. हम सब युवा साथियों को तो जैसे काटो तो ख़ून नहीं.तक़रीबन तीन – चार हज़ार श्रोता सदी की इस समर्थ काव्यमूर्ति से रूबरू होने को बेसब्र. मैं अपने साथी के साथ हिन्दी साहित्य समिति के आयोजन में पहुँचा. जैसे ही महादेवीजी मंच से उतरी और कार की तरफ़ आईं तो मैने कहा महादेवीजी कृपापूर्वक आयोजन स्थल पर चलिये न. उन्होंने कहा मेरा पैर साथ नहीं दे रहा. जब बात नहीं बनती दिखी तो मैंने अपना आख़री प्रस्ताव उनके सामने रखा और कहा चलिये संबोधन मत दीजिये. आयोजन स्थल पर मौजूद हज़ारों श्रोताओं को दर्शन तो दे दीजिये. पूछने लगीं क्या वाक़ई लोग आ गए होंगे. मैंने बताया चल कर देख लीजिये. कितनी दूर है आपका आयोजन स्थल उन्होंने पूछा. मैने कहा बमुश्किल पाँच मिनट के अंतराल पर. कहने लगी बोलूंगी नहीं. मैने कहा आप बस चल कर दर्शन दे दीजिये.वे राज़ी हो गईं.
आयोजन स्थल पर कार आई. महादेवीजी पिछली सीट पर बैठीं है. वरिष्ठ कवि श्रीयुत बालकवि बैरागी को हमने आयोजन की भावभूमि रखने के लिये आमंत्रित किया था. खुले मैदान में था वह कार्यक्रम . चारों तरफ़ कनातें लगीं हुईं थी. हमने एक पूरी कनात हटा दी और कार को मंच के ठीक सामने ले आए. हज़ारों लोगों नें तालियाँ बजा कर महादेवीजी का स्वागत किया. मैं और बालकविजी खिड़की के पास आए और हाथ जोड़ कर कहा मंच पर चलेंगी महादेवीजी. वे बच्चे सी तुनक कर बोलीं बात यहाँ तक आने की हुई थी मंच पर जाने की नहीं.मैंने मन में सारे आराध्य मनाते हुए उनसे कहा ; महादेवीजी एक बात कहूँ यदि आप इजाज़त दें ? कहो . मैने विनम्रता से कहा महादेवीजी मंच पर मत चलिये, क्या यहाँ आपकी कार में माइक ला दें तो संबोधित करेंगी.निवेदन करते हुए मेरे माथे पर पसीना आ रहा था. जनता एकदम ख़ामोश और स्तब्ध और जानने को बेसब्र कि हो क्या रहा है आख़िर . महादेवीजी ने कहा लाओ माइक लाओ , बोलूँगी लेकिन सिर्फ़ पाँच मिनट. हम सारे युवा साथियों को तो जैसे मनचाही मुराद मिल गई. बालकविजी ने प्रस्तावना रखी और महादेवीजी की पीड़ा का क़िस्सा बयान किया. डेली कॉलेज नाम के प्रतिष्ठित स्कूल के बच्चों ने स्वागत गीत गाया. हाँ बता दूँ कि महादेवीजी बचपन इसी डेली कॉलेज परिसर में बीता जहाँ उनके पिता प्राध्यापन के लिये रहे थे. गीत समाप्त होते ही ड्रायवर की सीट पर माइक रखा गया और महादेवीजी ने अपना संबोधन देते हुए कहा था कि समाज में साहित्यकार की ज़िम्मेदारी ज़्यादा बड़ी है. उसे सोचने के शऊर दिया है भगवान ने. महादेवीजी जब बोल रहीं थी तब पूरे माहौल में गरिमा और अनुशासन देखने लायक़ था.
आज इस बात को तक़रीबन पच्चीस बरस बीत गए. उसके बाद कई बड़े – छोटे आयोजन से जुड़ने और उन्हें संयोजित करने का मौक़ा आया लेकिन सन 1984 की वह शाम भुलाए नहीं भूलती. आज फ़िर स्मृति के तहख़ाने से वह तस्वीर बाहर आ गई तो सोचा चलिये बहुत दिनों बाद हिन्दी साहित्य की इस वरेण्य सारस्वत प्रतिमा का वंदन करते हुए यह वाक़या आपसे साझा कर लिया जाए.
चित्र में महादेवीजी प्रमुख हिन्दी समाचार पत्र नईदुनिया बाँचते हुए. साथ में ख़ाकसार है.
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Sunday, January 11, 2009
शब्दों से कहीं बेहतर और कुछ ज़्यादा ही कहते हैं चित्र
पहले भी कहीं लिखा था कि इन्दौर में जनसत्ता एक दिन बाद मिलता है. उसके बाद भी उसका समाचार संकलन,ले-आउट और भाषा संस्कार मन को लुभाता है. मेरा शहर तो बाक़ायदा अख़बारों की मण्डी बन चला है और तमाम कौतुक रचते अख़बार रोज़ सुबह निगाहों के सामने होते हैं.कुछ बाक़ायदा ख़रीद कर पढ़ता हूँ और कुछ मुझे पटाने के लिये सौजन्य प्रति के रूप में मेरे आँगन में तशरीफ़ ले आते हैं. समकालीन समाचार पत्र परिदृष्य में चटकीले,रंगीन और बिना मतलब के चित्रों की भरमार नज़र आ रही है. कुछ चित्र तो ऐसे होते हैं कि लगता है कि एकदम पोज़ देकर तैयार किये गए हैं.ये निश्चित ही चिढ़ाने का काम करते हैं.
जनसत्ता के चित्रों की बात ही निराली है. मेरे मालवा में भी इन दिनों कोहरा,मावठा (ठंड के दिनों में हुई बारिश) और कड़ाके की ठंड का आलम है और इन सब से जुड़े कुछ डिस्पैच अख़बारों में नमूदार भी हो रहे हैं . इसी बीच जनसत्ता में तीन चित्र कड़कड़ाती ठंड के हवाले से छ्पे और देखने में भी आए. आप भी नज़र डाले कि छायाकार ने कितनी सतर्कता,रागात्मकता और रचनात्मकता से इन चित्रों को खींचा है.
मुझे पूरा यक़ीन है कि ये चित्र आपको भी कंपकपा देंगे.
(रज़ाई और हाथ तापने वाले चित्र विशाल श्रीवास्तव के हैं)
जनसत्ता के चित्रों की बात ही निराली है. मेरे मालवा में भी इन दिनों कोहरा,मावठा (ठंड के दिनों में हुई बारिश) और कड़ाके की ठंड का आलम है और इन सब से जुड़े कुछ डिस्पैच अख़बारों में नमूदार भी हो रहे हैं . इसी बीच जनसत्ता में तीन चित्र कड़कड़ाती ठंड के हवाले से छ्पे और देखने में भी आए. आप भी नज़र डाले कि छायाकार ने कितनी सतर्कता,रागात्मकता और रचनात्मकता से इन चित्रों को खींचा है.
मुझे पूरा यक़ीन है कि ये चित्र आपको भी कंपकपा देंगे.
(रज़ाई और हाथ तापने वाले चित्र विशाल श्रीवास्तव के हैं)
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Thursday, January 1, 2009
नये साल के लिये कुछ तल्ख़ प्रस्ताव !
है तो यह अंग्रेज़ी रिवायत कि नये साल के लिये कुछ रिज़ॉल्यूशन्स पास किये जाएँ लेकिन सच कहूँ एक मौक़ा ज़रूर देती है यह कि आप गुज़रे के बारे में सोचें और तय करें कि आपको आगे क्या करना है. मैंने सोचा मन कट्ठा कर के कुछ तो तय कर लिया जाए ; देखें कितना निभ पाता है.
साझा प्रोजेक्ट्स में हाथ न डाला जाए; जो ख़ुद से हो सके वही करूँ.क्योंकि जीवन इतना ज़्यादा माँग करता है कि आप अपने खुद के लिये ही ठीक से कुछ नहीं कर पाते तो बाक़ी दोस्तों और परिचितों के लिये या उनके साथ कुछ कर पाएँ ये मुमकिन नहीं.
भावुकता एक बुरी बीमारी है. कोई भी काम आया; आपने हाँ कर दी.बाद में होता यह है कि किये वादों से पीछे हटना पड़ता है और आपके पास सिवा दु:ख और पश्चाताप के कुछ और नहीं बच पाता.
“ना” कहने और करने का शऊर पैदा करें.अंत में भी हाँ कहना पड़ता है . जो न कर सकें, उसे तुरंत नकार दें.बाद में ज़्यादा मुश्किलें पैदा होतीं हैं और मित्रों/परिजनों में ग़लत संदेश जाता है कि आप वादे के कच्चे हैं या अपनी बात को निभाना नहीं जानते.
सच कहने की आदत से पीछे हटा जाए.ये आदत लोगों को तकलीफ़ देती है और आप अप्रिय बनते हैं.लोगों को जो अच्छा लगता है वह कहने का जज़्बा पैदा करें.ज़माने ने कभी सच बोलने वालों को प्यार/इज़्ज़त नहीं दी.
ऐसे आयोजनों में जाने से बचें जो सिर्फ़ और सिर्फ़ औपचारिक होते जा रहे हैं.आप दुनिया को दिखाने के लिये शिरकत करना चाह रहे हैं.आपकी कोई निजी दिलचस्पी इन जमावडों में नहीं है लेकिन सिर्फ़ लोक-व्यवहार के लिये आप अपना समय,पैसा और उर्जा व्यर्थ कर रहे हैं.अपने आपको ख़र्च कर रहे हैं.
जीवन को अनुशासित बनाने की कोशिश करना है. खाने का समय,सोने का समय,दफ़्तर का समय यदि घड़ी के काँटे से चलना सीख गया तो बच जाओगे वरना ख़ुद भी तकलीफ़ पाओगे,परिवार को भी तकलीफ़ दोगे और मित्र / परिचित भी दु:खी होंगे.
जीवन की प्राथमिकताएँ तय करना है. कब कौन सा काम करना है. वह कितना विशिष्ट है और उससे मुझे/समाज/परिवार को क्या लाभ होने वाला है इसकी स्पष्टता करनी है. बस भिड़े हुए हैं इस तरह से नहीं करना है कोई काम.
देखिये लिख तो गया,कर पाता हूँ या नहीं अगले बरस के अंत में देखेंगे.सनद रहे प्रवचन देने,किसी को प्रेरित करने या अपने आपको विलक्षण साबित करने के लिये नहीं लिखा है यह सब. बस मन को एक एक्सप्रेशन चाहिये था सो लिख डाला. हाँ आख़िर में इतना ही कहना चाहूँगा कि पिछले बरस में मेरी वजह से किसी का दिल दुखा हो तो माफ़ करें.
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