फ़िल्म संगीत से मोहब्बत करने वालों के लिये अजातशत्रुजी का नाम अपरिचित नहीं है.देश के लोकप्रिय हिन्दी दैनिक नईदुनिया में वे बरसों से गीत-गंगा स्तंभ लिख रहे हैं.दुर्लभ ग्रामोफ़ोन रेकाँर्डों के संकलनकर्ता भाई सुमन चौरसिया के कलेक्शन से अनेक दुर्लभ गीत चुन कर अजातशत्रुजी ने ऐसी लिखनी चलाई है कि आप सोच में पड़ जाते हैं कि जो बात संगीतकार,गीतकार या गायक ने नहीं सोची वह अजातशत्रुजी कैसे लिख जाते हैं. लेकिन मित्रों यही तो है कलम की कारीगरी.ख्यात स्तंभकार जयप्रकाश चौकसे(दैनिक भास्कर के दैनिक फ़िल्म स्तंभ परदे के पीछे के लेखक) अजातशत्रुजी को चित्रपट संगीत समीक्षा का दादा साहब फ़ालके कहते हैं सो ठीक भी है. 31 जुलाई जैसी बेरहम तारीख़ फ़िल्म जगत और हम संगीत के दीवानों के लिये ज़माने भर का दर्द समेट लाती है. रफ़ी साहब इसी दिन तो हमसे दूर चले गये थे.
अजातशत्रुजी ने गीत-गंगा में जब जब भी गीतों की मीमांसा की है वह भाषा का एक नया मुहावरा बन गई है.मैने रफ़ी साहब की सत्ताइसवीं बरसी पर उन आलेखों में से जिन में रफ़ी साहब की गायकी पर अजातशत्रुजी के भावपूर्ण और काव्यात्मक वक्तव्य हैं उन्हे संपादित कर एक छोटा सा संचयन किया है.जिन्होने अजातशत्रुजी और उनकी गीत-गंगा का स्नान किया है वे तो इन पंक्तियों से वाकफ़ियत रखते ही हैं लेकिन ब्लाँग बिरादरी में अजात'दा' से अपरिचित मित्रों के लिये ये संचयन निश्चित ही मर्मस्पर्शी होगा.मैने गागर में सागर भरने की छोटी सी कोशिश की है..समय समय पर अजात'दा' की क़लम-निगारी की बानगियाँ आप तक पहुँचाने की कोशिश करूँगा.
आइये; रफी साहब को ख़िराजे अक़ीदत पेश करते हुए इन पंक्तियों को पढ़ते हैं.आपकी टिप्पणियों का इंतज़ार रहेगा इसलिये कि मै उन्हे इनके लेखक तक पहुँचाना चाहुँगा (अजात'दा' नये ज़माने की चीज़ों जैसे कंप्यूटर,मोबाइल आदि से कोसो दूर रहने वाले एकांतप्रेमी जीव हैं..उन्हे फ़ेसलेस रहना ज़्यादा पसंद है)छोटे मुँह बडी़ बात कहने के लिये माफ़ करें(लेकिन कहे बिना चैन कहाँ) बताइये तो अजातशत्रुजी की ये पंक्तियों क्या ये किसी नज़्म ..ग़ज़ल या गीत से कम वज़नदार हैं ? और हाँ ये भी कहना अप्रासंगिक नहीं होगा कि यदि आपने इन पंक्तियों को पढ़ लिया तो देखियेगा 31 जुलाई को रफ़ी साहब की गायकी आपको कैसे भीगा देती है भीतर तक...
-इन दिनों रफ़ी की आवाज़ को सुनना, जब वे दुनिया में नहीं हैं, एक अजीब से अनुभव से गुज़रना है।आज उन्हें सुनकर जवानी के और गुज़रे कितने सालों के आत्मीय डिटेल्स नज़र आते हैं और निकट की किसी ख़ास आत्मीय चीज़ के खो जाने की कसक सताती है।
-यह कमाल रफ़ी को जन्म से हासिल था कि वे अहिन्दू और अमुसलमान होकर भजन तथा नात ऐसी गा जाएँ कि मुस्लिम भजन सुनकर पिघल उठे, हिन्दू नात सुनकर बह जाए और आदमी का आँसू जाति-धर्म भूलकर ज़मीन पर टपक उठे।
-रफ़ी के भजन सुनकर आपको याद आता चला जाएगा कि एक हिन्दू मोहम्मद रफ़ी था कोई... जो प्रभाती और संध्या-वंदन बन कर हमारे गुज़रे जीवन में आया था और गौ की रोटी के आटे-सा हमें नर्म-नर्म सानकर चला गया।
-काश ! ऐसा होता कि लिखे हुए अक्षर गाने लगते तो मैं आपसे क़ुबूल करवा लेता कि रफ़ी इस दुनिया के लिए कितना बड़ा तोहफ़ा थे !
-अपने में मसरूफ़ रफ़ी प्रेम-गीत को इतनी बुलंदी और मिठास से गाते हैं कि उनके बजाए ख़ुद मोहब्बत पुकार करती महसूस होती है !
-रफ़ी ? उनके बारे में तो अल्फ़ाज़ पीछे छूट जाते हैं। अपनी प्रणय-पुकार में वे ऐसी मेलडी रचते हैं कि मिश्री के पहाड़ सर झुकाते जाते हैं और कानों की वादी में फूल झरते जाते हैं।
-रफ़ी साहब शब्दों की आत्मा में उतरकर गाते थे। अर्थों को वे सब तरफ़ से बरसाती की तरह ओढ़ लेते हैं और फिर ख़ुद ग़ायब हो जाते हैं। तब शून्य गाता है, भाव ख़ुद अपने को गाता है। एक-एक ल़फ़्ज़ ख़ुशी में, दु:ख में, इबादत में, भक्ति में, कातरता में डूबकर रस की चाशनी टपकाता हुआ आता है। रफ़ी ख़ूब जानते हैं कि गाने का अर्थ है भाव। शब्द अर्थ में घुल जाए और भाव सीधे गायक की "एब्सेंस' में से निकलकर फ़िज़ॉं को तरबतर कर दे। यही वजह है कि रफ़ी साहब की आवाज़ और आवाज़ के पीछे की ख़ामोशी पाकर, गीत ज़िंदा हो उठते हैं।
-मंच पर रफ़ी को गाने वाले शौकिया अक्सर भूल जाते हैं कि रफ़ी शब्द गाते हुए भी शब्दों के पार रहते थे और तभी शब्द को चा़र्ज़्ड कर उसे नई आग से वापस भेजते थे। मात्र ल़फ़्ज़ों को गाने वालों को समझना चाहिए कि गाना लौटता तो ल़फ़्ज़ों में है, पर वह जाता ल़फ़्ज़ों के पार मौन में है। यही गायन के भीतर गायक का मौजूद रहना है और उसी गायन के भीतर ग़ायब रहना भी !
-रफ़ी हमें हैरान करते हैं। हैरान इसलिए कि वे किस सादगी से गाते हैं और किस अधिकार से भाव को ज़िंदा करते हैं। कुछ इस तरह कि संगमरमर पिघलकर हवा होता जा रहा है और हवा वापस फूल में तब्दील होकर सुगंध का ताजमहल खड़ा कर रही हो।
-रफ़ी की गायकी कितनी सीधी और सच्ची है.फूल की तरह हवा में लहराते हुए और गायन के लिये प्रवाह बनाते हुए.प्यारे लफ़्ज़ और लफ़्ज़ भी वैसे जैसे कि पहले हमारे मोहल्लों में फ़क़ीर सुबह सुबह दरवज्जे पर ऐसे ही गाते थे और गु़रूर , छल-कपट के ख़िलाफ़ जगाते थे.
-रफ़ी साहब का गाना यानी 'एफ़र्टलेस' रवानी और उसी के साथ जज़्बात की लौ को तेज़ और तेज़ करते जाना.इसे ही कहते हैं पानी में आग लगाना या हवा में से जलती हुई मोमबत्ती पैदा कर देना.आप ख़ुश होते हैं...परेशान होते हैं...रिलीफ़ महसूस करते हैं...सोचते हैं;अरे सब कुछ इतना आसान है और खु़द से निजात पाने के अहसास में ठहरते हैं कि गाना ख़त्म होते ही वापस पत्थर का संसार लौट आता है और रोज़मर्रा के पत्थर में तब्दील हो जाते हैं.
-रफ़ी साहब की तारीफ़ में कुछ भी कहना ल़फ़्जों को ल़फ़्जों की कब्र में उलटना-पुलटना है और कब्र में ही रह जाना है। एकमात्र इंसाफ़ या ढंग की बात यही है कि हम गीत को सुनें और चुप रह जाएँ। ऐसा चुप रह जाना सबसे बोल पड़ना और सबसे जुड़ जाना भी है।
(इस ब्लाँग के साथ जारी किया गया चित्र भारतीय डाक तार विभाग द्वारा मों.रफ़ी साहब मरहूम की याद में जारी किया डाक टिकिट है)