Monday, July 30, 2007

दिल की तिज़ोरी में सहेज लें रफ़ी साहब पर अजातशत्रुजी के वक्तव्य


फ़िल्म संगीत से मोहब्बत करने वालों के लिये अजातशत्रुजी का नाम अपरिचित नहीं है.देश के लोकप्रिय हिन्दी दैनिक नईदुनिया में वे बरसों से गीत-गंगा स्तंभ लिख रहे हैं.दुर्लभ ग्रामोफ़ोन रेकाँर्डों के संकलनकर्ता भाई सुमन चौरसिया के कलेक्शन से अनेक दुर्लभ गीत चुन कर अजातशत्रुजी ने ऐसी लिखनी चलाई है कि आप सोच में पड़ जाते हैं कि जो बात संगीतकार,गीतकार या गायक ने नहीं सोची वह अजातशत्रुजी कैसे लिख जाते हैं. लेकिन मित्रों यही तो है कलम की कारीगरी.ख्यात स्तंभकार जयप्रकाश चौकसे(दैनिक भास्कर के दैनिक फ़िल्म स्तंभ परदे के पीछे के लेखक) अजातशत्रुजी को चित्रपट संगीत समीक्षा का दादा साहब फ़ालके कहते हैं सो ठीक भी है. 31 जुलाई जैसी बेरहम तारीख़ फ़िल्म जगत और हम संगीत के दीवानों के लिये ज़माने भर का दर्द समेट लाती है. रफ़ी साहब इसी दिन तो हमसे दूर चले गये थे.


अजातशत्रुजी ने गीत-गंगा में जब जब भी गीतों की मीमांसा की है वह भाषा का एक नया मुहावरा बन गई है.मैने रफ़ी साहब की सत्ताइसवीं बरसी पर उन आलेखों में से जिन में रफ़ी साहब की गायकी पर अजातशत्रुजी के भावपूर्ण और काव्यात्मक वक्तव्य हैं उन्हे संपादित कर एक छोटा सा संचयन किया है.जिन्होने अजातशत्रुजी और उनकी गीत-गंगा का स्नान किया है वे तो इन पंक्तियों से वाकफ़ियत रखते ही हैं लेकिन ब्लाँग बिरादरी में अजात'दा' से अपरिचित मित्रों के लिये ये संचयन निश्चित ही मर्मस्पर्शी होगा.मैने गागर में सागर भरने की छोटी सी कोशिश की है..समय समय पर अजात'दा' की क़लम-निगारी की बानगियाँ आप तक पहुँचाने की कोशिश करूँगा.


आइये; रफी साहब को ख़िराजे अक़ीदत पेश करते हुए इन पंक्तियों को पढ़ते हैं.आपकी टिप्पणियों का इंतज़ार रहेगा इसलिये कि मै उन्हे इनके लेखक तक पहुँचाना चाहुँगा (अजात'दा' नये ज़माने की चीज़ों जैसे कंप्यूटर,मोबाइल आदि से कोसो दूर रहने वाले एकांतप्रेमी जीव हैं..उन्हे फ़ेसलेस रहना ज़्यादा पसंद है)छोटे मुँह बडी़ बात कहने के लिये माफ़ करें(लेकिन कहे बिना चैन कहाँ) बताइये तो अजातशत्रुजी की ये पंक्तियों क्या ये किसी नज़्म ..ग़ज़ल या गीत से कम वज़नदार हैं ? और हाँ ये भी कहना अप्रासंगिक नहीं होगा कि यदि आपने इन पंक्तियों को पढ़ लिया तो देखियेगा 31 जुलाई को रफ़ी साहब की गायकी आपको कैसे भीगा देती है भीतर तक...


-इन दिनों रफ़ी की आवाज़ को सुनना, जब वे दुनिया में नहीं हैं, एक अजीब से अनुभव से गुज़रना है।आज उन्हें सुनकर जवानी के और गुज़रे कितने सालों के आत्मीय डिटेल्स नज़र आते हैं और निकट की किसी ख़ास आत्मीय चीज़ के खो जाने की कसक सताती है।


-यह कमाल रफ़ी को जन्म से हासिल था कि वे अहिन्दू और अमुसलमान होकर भजन तथा नात ऐसी गा जाएँ कि मुस्लिम भजन सुनकर पिघल उठे, हिन्दू नात सुनकर बह जाए और आदमी का आँसू जाति-धर्म भूलकर ज़मीन पर टपक उठे।


-रफ़ी के भजन सुनकर आपको याद आता चला जाएगा कि एक हिन्दू मोहम्मद रफ़ी था कोई... जो प्रभाती और संध्या-वंदन बन कर हमारे गुज़रे जीवन में आया था और गौ की रोटी के आटे-सा हमें नर्म-नर्म सानकर चला गया।


-काश ! ऐसा होता कि लिखे हुए अक्षर गाने लगते तो मैं आपसे क़ुबूल करवा लेता कि रफ़ी इस दुनिया के लिए कितना बड़ा तोहफ़ा थे !


-अपने में मसरूफ़ रफ़ी प्रेम-गीत को इतनी बुलंदी और मिठास से गाते हैं कि उनके बजाए ख़ुद मोहब्बत पुकार करती महसूस होती है !


-रफ़ी ? उनके बारे में तो अल्फ़ाज़ पीछे छूट जाते हैं। अपनी प्रणय-पुकार में वे ऐसी मेलडी रचते हैं कि मिश्री के पहाड़ सर झुकाते जाते हैं और कानों की वादी में फूल झरते जाते हैं।


-रफ़ी साहब शब्दों की आत्मा में उतरकर गाते थे। अर्थों को वे सब तरफ़ से बरसाती की तरह ओढ़ लेते हैं और फिर ख़ुद ग़ायब हो जाते हैं। तब शून्य गाता है, भाव ख़ुद अपने को गाता है। एक-एक ल़फ़्ज़ ख़ुशी में, दु:ख में, इबादत में, भक्ति में, कातरता में डूबकर रस की चाशनी टपकाता हुआ आता है। रफ़ी ख़ूब जानते हैं कि गाने का अर्थ है भाव। शब्द अर्थ में घुल जाए और भाव सीधे गायक की "एब्सेंस' में से निकलकर फ़िज़ॉं को तरबतर कर दे। यही वजह है कि रफ़ी साहब की आवाज़ और आवाज़ के पीछे की ख़ामोशी पाकर, गीत ज़िंदा हो उठते हैं।


-मंच पर रफ़ी को गाने वाले शौकिया अक्सर भूल जाते हैं कि रफ़ी शब्द गाते हुए भी शब्दों के पार रहते थे और तभी शब्द को चा़र्ज़्ड कर उसे नई आग से वापस भेजते थे। मात्र ल़फ़्ज़ों को गाने वालों को समझना चाहिए कि गाना लौटता तो ल़फ़्ज़ों में है, पर वह जाता ल़फ़्ज़ों के पार मौन में है। यही गायन के भीतर गायक का मौजूद रहना है और उसी गायन के भीतर ग़ायब रहना भी !

-रफ़ी हमें हैरान करते हैं। हैरान इसलिए कि वे किस सादगी से गाते हैं और किस अधिकार से भाव को ज़िंदा करते हैं। कुछ इस तरह कि संगमरमर पिघलकर हवा होता जा रहा है और हवा वापस फूल में तब्दील होकर सुगंध का ताजमहल खड़ा कर रही हो।
-रफ़ी की गायकी कितनी सीधी और सच्ची है.फूल की तरह हवा में लहराते हुए और गायन के लिये प्रवाह बनाते हुए.प्यारे लफ़्ज़ और लफ़्ज़ भी वैसे जैसे कि पहले हमारे मोहल्लों में फ़क़ीर सुबह सुबह दरवज्जे पर ऐसे ही गाते थे और गु़रूर , छल-कपट के ख़िलाफ़ जगाते थे.
-रफ़ी साहब का गाना यानी 'एफ़र्टलेस' रवानी और उसी के साथ जज़्बात की लौ को तेज़ और तेज़ करते जाना.इसे ही कहते हैं पानी में आग लगाना या हवा में से जलती हुई मोमबत्ती पैदा कर देना.आप ख़ुश होते हैं...परेशान होते हैं...रिलीफ़ महसूस करते हैं...सोचते हैं;अरे सब कुछ इतना आसान है और खु़द से निजात पाने के अहसास में ठहरते हैं कि गाना ख़त्म होते ही वापस पत्थर का संसार लौट आता है और रोज़मर्रा के पत्थर में तब्दील हो जाते हैं.




-रफ़ी साहब की तारीफ़ में कुछ भी कहना ल़फ़्जों को ल़फ़्जों की कब्र में उलटना-पुलटना है और कब्र में ही रह जाना है। एकमात्र इंसाफ़ या ढंग की बात यही है कि हम गीत को सुनें और चुप रह जाएँ। ऐसा चुप रह जाना सबसे बोल पड़ना और सबसे जुड़ जाना भी है।




(इस ब्लाँग के साथ जारी किया गया चित्र भारतीय डाक तार विभाग द्वारा मों.रफ़ी साहब मरहूम की याद में जारी किया डाक टिकिट है)

Sunday, July 29, 2007

ग्रामोफ़ोन रेकाँर्डस के नयानाभिराम आवरण


अब जबकि सीडीज़,एम.पी. थ्री,आईपाँड्स और कैसेट्स का दौर पूरे शबाब पर है ग्रामोफ़ोन रेकाँर्डस हैं कि परिदृश्य से बाहर होते जा रहे हैं.जिनके पास ये रेकाँर्डस हैं वे जानते हैं कि इनके आवरण या कवर कितने आकर्षक आते रहे है. इनको सुनने के लिये लिये छोटे रेकाँर्ड प्लेयर्स के अलावा रेडियोग्राम्स का फ़ैशन भी चला था.जिनके ड्राइंगरूम्स में रेडियोग्राम्स रखे होते थे वे वाक़ई अभिजात्य वर्ग के लोग होते थे गोया रेडियोग्राम स्टेटस सिंबल हुआ करता था.अभी हाल ही मे मैने 78 आरपीएम रेकाँर्डों (जिन्हें चूडी़ वाले बाजे पर बजाया जाता था) के और दुर्लभ रेकाँर्ड्स के संकलनकर्ता सुमन चौरसिया से आग्रह किया कि वे समय समय पर कुछ आवरण देते रहें जिन्हे हम संगीतप्रेमी मित्रों के लिये इस ब्लाँग पर प्रस्तुत करते रहें.सुमन भाई तुरंत तैयार हो गए.दे गए मुझे चंद रेकाँर्ड्स.देखिये इन्हे आँखों को कितना सुकून देते हैं . ग़ौरतलब है कि जिन वर्षों में ये आवरण छपे हैं तब हमारे देश में आँफ़सेट और बहुरंगी मुद्रण की तकनीक लोकप्रिय नहीं हुई थी.ब्लाँक से ही होती थी छपाई लेकिन फ़िर भी ख़ूबसूरती बला की सी होती थी.आवरण दर-असल एक तरह का लिफ़ाफ़ा होता था..मोट ग़त्ते या कार्डबोर्ड पर छपा हुआ.एकतरफ़ एलबम का नाम..अमूमन कलाकार का चित्र और दूसरी ओर कलाकार का परिचय..एलबम में प्रकाशित गीतों की सूची और अन्य तकनीकी डिटेल्स यानी..संगीतकार,गीतकार,एलबम की थीम का विवरण और जारी करने वाली कम्पनी का नाम, पता , रेकाँर्ड नम्बर आदि..कभी कभी सामने की ओर कोई कलात्मक डिज़ाइन या पेंटिग की रंगत होती थी (यथा बच्चन जी की मधुशाला..गायक मन्ना डे, संगीतकार: जयदेव)
और कलाकार का चित्र पीछे की या दूसरी ओर होता था.रेकाँड संग्रहकर्ताओं की की दुनिया बड़ी निराली होती है दोस्तो..जल्द ही सुमन भाई के बारे में एक ब्लाँग आप तक पहुँचेगा.फ़िलहाल तो रेकाँर्ड के आकर्षक आवरणों को देखने का आनन्द लीजिये.मुझे पूरा यक़ीन है कि इन रेकाँर्ड्स के चित्र देखकर आप में से कई यादों के उन गलियारों के सैर कर लेंगे जब दिल और दुनिया बडे़ सुकून से रहती थी.ज़िन्दगी में बड़ी तसल्ली थी..इंसान की सबसे बडी़ दौलत थी शांति.आज जिस तरह से नये मोबाइल हैण्डसेट ख़रीदने का क्रेज़ बढ़ चला है तब रेकाँर्ड ख़रीदना भी एक जुनून हुआ करता था.हालाँकि ये रेकाँर्ड जीवन में वैसा अतिरेक और अतिक्रमण नहीं करते थे जैसे मोबाइल कर रहा है.दोस्तो रेकाँर्डस के ये चित्र हो सकता है बिना संगीत आपको ज़्यादा मज़ा न दे सकें लेकिन कोशिश करियेगा कि इन कवर्स में दस्तेयाब सुरीले संगीत की खु़शबू आपके मन की गहराई तक पहुँच सके . हो सका तो आगे भी श्री सुमन चौरसिया के हस्ते ये सिलसिला जारी रखेंगे..इंशाअल्लाह !


Friday, July 27, 2007

हिन्दी प्रेमी ब्लाँग लेखकों और पाठकों के लिये एक ख़ास ख़बर !



अस्सी बरस पुरानी हिन्दी पत्रिका वीणा अब नये कलेवर में

हँस और सरस्वती के साथ जिस महत्वपूर्ण हिन्दी पत्रिका को विशेष आदर की दृष्टि से देखा / पढा़ जा रहा है उसमें से एक है इन्दौर से श्री मध्य भारत हिन्दी साहित्य समिति द्वारा प्रकाशित मासिक पत्रिका वीणा.हिन्दी साहित्य समिति की गतिविधियों से हिन्दी जगत बाख़बर है फ़िर भी यहाँ यह दोहराने में कोई हर्ज नहींझोगा कि महात्मा गाँधी के पावन चरण दो बार(1918 और 1935) इस संस्था के परिसर में पडे़.अस्सी बरस की इस पत्रिका ने कई वित्तीय और प्रकाशकीय उतार चढ़ाव देखे हैं फ़िर भी यह इसका पुण्य और हिन्दी सेवियों की लगन है कि यह नियमित रूप से प्रकाशित होती रही है.वरिष्ठ साहित्यकार डाँ श्यामसुंदर व्यास स्वास्थ्यगत कारणों से इसके संपादक पद से अभी अभी निवृत्त हुए है और डाँ राजेंद्र मिश्र ने यह ज़िम्मेदारी बख़ूबी सम्हाल ली है. उनके साथ पदेन संपादक के रूप में पं.गणेशदत्त ओझा,उप-संपादक के रूप में श्री सूर्यकांत नागर और राकेश शर्मा,प्रबंध संपादक के रूप में प्रो.चन्द्रशेखर पाठक की ऐसी टीम है जो पूरी लगन और निष्ठा से हिन्दी के इस पावन प्रकल्प में अपना सहयोग दे रही है.संपादक डाँ.राजेन्द्र मिश्र ने आते ही अपनी योग्यता को साबित किया है और वीणा को नया कलेवर देकर इसके पन्नों मे जैसे नई रागिनी छेड़ दी है..

अपने ब्लाँग पर ये ख़बर जारी करने का निमित्त ये भी है कि हमारे हिन्दी ब्लाँगर बिरादरी वीणा जैसे प्रतिष्ठित प्रकाशन के बारे में जाने.बडे़ सादा परिवेश में प्रकाशित होने वाली वीणा के पास इस काँर्पोरेट परिदृष्य में ऐसा कोई तामझाम या प्रमोशन कैम्पेन हे नहीं जिससे वह अपने आपको व्यक्त कर सके. ब्लाँग की दुनिया निश्चित रूप से हिन्दी प्रेमियों की एक ताक़त बन कर उभरी है और वीणा के शहर का एक साधारण सा ब्लाँगर होने के नाते मेरा नैतिक कर्तव्य है कि मै और आप ..हम सब वीणा के लिये जो कुछ कर सकते हों करें.

आपसे ये भी गुज़ारिश कर रहा हूं कि मेरी इस प्रविष्टि को बाक़ायदा काँपी कर अपने ब्लाँग पर भी सूचना(और बेझिझक आपकी अपनी प्रविष्टि या सूचना बज़रिये ई-मेल) के रूप में जारी करें.
इसमें हमारे एग्रीगेटर और चर्चाओं में रहने वाले और लोकप्रिय चिट्ठाकार खा़सी मदद कर सकते हैं .
सदस्य बनकर भी सहयोग किया जा सकता है.नीचे इसके बारे में विवरण दे रहा हूँ:
वीणा के जुलाई अंक के आवरण का चित्र ऊपर दे दिया है.

प्रकाशित सामग्री में से कुछ बानगियाँ भी दे रहा हूं

जुलाई अंक के संपादकीय से एक अंश
(भावभूमि :हाल ही में न्यूयार्क में सम्पन्न हुआ विश्व हिन्दी सम्मेलन)

अगर हिन्दी को आना है तो सबसे पहले उसे स्कूलों में एक शिक्षा माध्यम के रूप में अपनाना होगा नहीं तो विश्व भाषा के लिये किए जाने वाले प्रयास एक तमाशा बन कर रह जाएंगे.हिन्दी विश्व की भाषा बन जाएगी , भारत की भाषा नहीं और जब तक वह भारत की भाषा नहीं बनती,तब तक उसके विश्व भाषा बनने का कोई भी अर्थ नहीं है.जब तक हिन्दी दिल्ली में नही होगी तब तक उसका लंदन या न्यूयार्क में होना प्रासंगिक नहीं है.
- राजेन्द्र मिश्र.

लघुकथा : सनकी
ब्रीफ़केस बंद करता हुआ वह जैसे ही बाहर निकला, अर्दली ने झुककर सलाम किया.
अर्दली को उसने इशारे से बुलाया तथा बीस रूपये का नोट बतौर बख्शीश देते हुए बोला...चाय पानी के लिये.

साहब ये तो बहुत ज़्यादा है...!

उसके ईमानदार चेहरे की ओर उसने मुग्धभाव से देखा तथा बीस का नोट लेकर
बदले में पचास का थमाते हुए गाडी़ स्टार्ट कर दी.

स्टेयरिंग घुमाते हुए वह सोचने लगा...'काश ! अंदर की कुर्सी पर अर्दली जैसा आदमी होता !

और अर्दली सोचने लगा ...काश ! ख़ुदा ने हर आदमी को इस जैसा बनाया होता.
-सतीश दुबे

इसी अंक के अन्य ह्स्ताक्षर : गुरूदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर,स्वामी वाहिद क़ाज़मी,
डाँ.माधवराव रेगुलपाटी,सूर्यकांत नागर,जवाहर चौधरी,पदमा सिंह.

हिन्दी मासिक पत्रिका : वींणा

संपादक:डाँ राजेन्द्र मिश्र.
मोबाइल: 09302104498


शुल्क :

विदेशों में : 20 डाँलर
वार्षिक मूल्य : रू.150/-
आजीवन : रू.500/-
(ध्यान रहे 7 अगस्त 2007 से यह शुल्क बढाकर रू.1500/- किया जा रहा है)
अपना ड्राफ़्ट ’वीणा मासिक पत्रिका के नाम से भेजें,इन्दौर मे देय)
संपर्क:
श्री मध्यभारत हिन्दी साहित्य समिति
11 रवीन्द्रनाथ टैगोर मार्ग
इन्दौर 452 001 मध्य प्रदेश
दूरभाष: 0731-2516657
(अमूमन संपादकीय टीम शाम 5 बाद उपलब्ध रहती है

कोई ई मेल आई डी नहीं है..कोई संदेश हो तो मेरे ईमेल
पर भेज दें मै उसे पहुँचा दूंगा:sanjaypatel1961@gmail.com

Thursday, July 26, 2007

की-बोर्ड से हुक़्म बजा लाने वाला अलादीन !


बेटे कहना मानते नहीं ...कर्मचारियों के पास हैं सौ बहाने.
आज ही मेरे एक मित्र ने एक ऐसी ई-मेल प्रेषित की कि मै देख कर हैरान रह गया!
लिंक नीचे दे रहा हूं..यहाँ से आप इसे अपने ब्राउज़र पर चिपका लें और देखें एक अफ़लातून नज़ारा..आपके कहने पर
क्या कोई इतना समर्पित हो सकता है?
एक मज़ेदार लिंक है ये...बच्चों ...बूढों सभी को मज़ा देगी.
वक़्त काटने के लिये एकप्यारा खिलौना है ये...
मन में जो आए कहिये उससे..जो उस विज़्युअल में मौजूद है
जहाँ तक मुमकिन होगा वह आपका हुक़्म बजा लाएगा.
समझिये अलादीन का चिराग़ है वह..
जैसे ही वह कंप्यूटर पर काम करता नज़र आए...नीचे दिये हुए बाँक्स में आदेश दे डालिये.
अंग्रेज़ी में लिखना होगा अपना हुक़्म...
स्टैंण्ड अप....राईट आँन दि व्हाइट बोर्ड,ईट फ़्रूट या काँल योर माँम...
या और कुछ ..( ये सब तो मैने कहा था और हुआ )
बस दिक़्कत यही है कि भाई अंग्रेज़ी ही समझता है...
उम्मीद है एक दिन हमारी ब्लाँग बिरादरी के निष्णांत कलाकार बंदे को
हिन्दी में भी हुक़्म बजा लाना सिखा ही देंगे.
आमीन.
http://www.subservientprogrammer.com/main.aspx

Wednesday, July 25, 2007

क्रिकेट कोच के लिये एक अचूक समाधान


देखिये मैं रहता हूं रायबहादुरों के शहर इन्दौर में.उपाधियाँ तो उनके साथ ही चली गईं जिन्हे दी गईं थीं.अब रह गए हैं हम जो बिन पूछे ही राय देते रहते हैं तो इस लिहाज़ से हम भी तो थोड़े बहुत रायबहादुर हो हे गए न ? मनुष्य,परिवेश,शहर,राज्य या राष्ट्र जब संकट में हो तो हमारा फ़र्ज़ भी तो बनता है कि हम अपनी ओर से कुछ योगदान दें ..बहुत दिनों से अख़बारों में पढ़ रहा हूँ कि भारतीय क्रिकेट टीम के लिये एक अदद कोच नहीं मिल रहा ! दिमाग़ पर ज़ोर डाला तो अपने पिटारे में अमोघ शस्त्र की तरह एक समाधान मिला.आप और माननीय पँवार साहब मुलाहिज़ा फ़रमाएँ ...जँचे तो उपयोग में लाएँ..राष्ट्रवादी संगठन एकदम प्रसन्न हो जाएँ (ख़ुश नहीं...उर्दू का शब्द है ) नितांत स्वदेशी समाधान है.

करना कुछ नहीं है नीचे दिये गए विभागों की सार सम्हाल के लिये पूर्व खिलाडियों या साज़िश (साँरी षड़यंत्र) के तहत टीम से निकाले गए खिलाडि़यों (यथा:इरफ़ान पठान,सुरेश रैना,मों.कैफ़,मुरली कार्तिक आदि)की नियुक्ति करना है.ध्यान इतना ही रखना है कि हर विभाग के लिये एक एक कोच रखना होगा..इस तरह से कुल ....कोचेज़ की नियुक्ति हो जाएगी.टोटल अभी इसलिये नहीं किया कि अभी राय देने के मूड में हूँ और गणित (जो कि मेरा कमज़ोर विषय रहा है) रचनात्मक प्रकल्पों मे विघ्न डालता है...तो साहेबान,मेहरबान देखिये नीचे वाली सूची को ....



-बैटिंग कोच

-फ़ास्ट बाँलिंग कोच

-स्पिन बाँलिंग कोच

-आँफ़ साइड फ़िल्डिंग कोच

-आँन साइड फ़िल्डिंग कोच

-क्लोज़ इन फ़िल्डिंग कोच

-विकेट कीपिंग कोच

-फ़िटनेस कोच

-केप्टन को गाइड करने वाला कोच

-वाइस केप्टन को गाइड करने वाला कोच

-ट्वेल्थमेन को गाइड करने वाला कोच


इस तरह से आप देखेंगे और देखना भी चाहिये (आख़िर देश की इज़्ज़त का सवाल है) कि हर विभाग के लिये एक ज़िम्मेदार व्यक्ति की नियुक्ति हो जाती है तो कोई अकेला कोच नहीं कह सकेगा के ग़लती मेरी नहीं है.इससे देश के पुराने और समय से पहले रिटायर्ड हो चुके (या कर दिये गए) खिलाड़ियों को रोज़गार मिलेगा...ग्यारह लोगों की नियुक्ति निश्चित रूप से ख़र्चे का सौदा है लेकिन शर्तिया कहता हूँ एक विदेशी कोच की से सस्ता है..हर हाल में सस्ता है! और कितना ताज़ा है सर !रिलायंस फ़्रेश की तरह .देखिये अजीत वाडेकर,बापू नाडकर्णी और हेमू अधिकारी के बाद जब पहली बार जाँन राइट या ग्रेग चैपल की नियुक्ति की गई तब भी तो तकलीफ़ आई थी न ? तो ये अलहदा नया-नकोरा विचार थोड़ा रिस्की ज़रूर प्रतीत होता है लेकिन देखियेगा कि काँसेप्ट चल ही नहीं निकलेगा ट्रेंड सैटर भी साबित होगा...आपने किया..पीछे पीछे दूसरे देश भी इसे फ़ाँलो करेंगे.ज़रा सोचिये (प्लीज़) क्या नज़ारा होगा एयरपोर्ट पर कि क्रिकेट टीम के साथ ग्यारह कोच भी उतरेंगे वर्ल्ड कप लेकर..हाल-फ़िलहाल तो ये सपना लगता है (महामहिम कलाम साहब कहते भी तो हैं न कि सपने देखना चाहिये)लेकिन साकार ज़रूर हो सकता है .पँवार साहब कर डालिये इस विचार को साकार.आप रातों रात इस काँसेप्ट के अविष्कारक कहलाएंगे (एक ख़ालिस भारतीय के रूप में मुझे इस विचार के लिये कोई राँयल्टी नहीं चाहिये ! ) गणेश उत्सव नज़दीक आ रहा है ...मंगलमूर्ति का ध्यान कर इस शुभ विचार का मंगलाचरण कर ही दीजिये..और कोच को लेकर सारी अटकलों को विराम दे दीजिये !

( टीप>जैसे उर्दू ग़ज़ल में रिवायत है कि किसी भी नई रचना को किसी उस्ताद से पहले जँचवा लेते हैं ; उसे इसलाह करना कहते हैं . मै उस्ताद आलोक पुराणिक से गुज़ारिश करूंगा कि वे इस विचार की इसलाह कर दें बडी़ कृपा होगी ..उनके मुरीदों में यदि कोई पढे़ तो उन्हे ख़बर कर दे जिससे इस देश की एक राष्ट्रव्यापी समस्या का समाधान अविलंब निकल आए...मैने भी ठान रखी है कि जब तक उस्ताद जी इसकी इसलाह करने की ज़हमत नहीं उठाते मैं ये काँसेप्ट माननीय पँवार साहब को फ़ाँरवर्ड नहीं करूंगा )

Saturday, July 21, 2007

कभी कभी चित्र ...शब्द से बेहतर बोलते हैं


इस चित्र की इबारत कहती है....
Save Trees ...Trees Save.क्या इस तरह के चित्र देखकर भी हमारी समवेदनाएं हमें निसर्ग के प्रति प्यार नहीं जगाती ?

Friday, July 20, 2007

ब्लाँगर बिरादरी के लिये एक प्रेमपूर्ण भेंट







मित्रों..वंदेमातरम.

जुलाई का अंतिम सप्ताह प्रारंभ होने वाला है.नज़दीक आ रहा है अगस्त का महीना...स्वातंत्र्य उत्सव इस बार दो संयोग लेकर आ रहा है.प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 के डेढ़ सौ वर्ष पूर्ण हो रहे है और इस बार का स्वतंत्रता दिवस हमारे लिये हीरक जयतीं वर्ष की सौग़ात लेकर आ रहा है.यानी आज़ादी के साठ वर्ष पूर्ण हो रहे हैं इस 15 अगस्त को.मै एक छोटी सी एडवरटाईज़िंग एजेंसी चलाता हूँ ..मेरी क्रिएटिव टीम ने इन दो राष्ट्रीय स्वाभिमान के प्रसंगों के लिये शुभंकर (लोगो) रचे हैं . इन्हे मै ब्लागर बिरादरी को सौंपते हुए अति-प्रसन्नता का अनुभव करता हूँ.राष्ट्रप्रेम कभी भी मेरे लिये पार्ट-टाइम पसंद या चोचला नहीं रहा है और मेरा मानना है कि मुल्क से मुहब्बत किसी उत्सव और तारीख़ की मोहताज नही रहती.ब्लाँग पर जारी करने का उद्देश्य है कि आप सब इसे अपने ब्लाँग पर बेझिझक इस्तेमाल करें..स्टेशनरी पर लगाएं..स्टीकर बनाएं...पोस्टर बनाएं..दफ़्तर में लगाएं ..घर पर सजाएं...कोई काँपी राइट नहीं ..कोई कमर्शियल अपेक्षा नहीं....किसी नामोल्लेख की ज़रूरत नहीं...जितनी जल्द यह सब होगा इन दो गौरव प्रसंगों की भाव-भूमि बनेगी.बस आशा इतनी भर है कि आपको ये प्रयास ठीक ठाक लगे तो दो प्यार भरे बोल लिख भेजियेगा..हमारी टीम को मेहनत सार्थक हो जाएगी..यदि आप पृथक से इसे ई-मेल पर मंगवाना चाहते हैं तो मुझे विशेष रूप से adraag@gmail.com पर सूचित करें.ब्लाँग बिरादरी से मिले स्नेह के एवज़ में ये प्रयास छोटा ज़रूर है लेकिन इसके पीछे छुपा राष्ट्रप्रेम काजज़्बा बडा़ है ...नेक है...जय हिंद.

Thursday, July 19, 2007

हारो इंडिया हारो

अपुन बोले तो ?
जाहिल , गँवार , सनकी सोल्जर
काम का न काज का
दुश्मन अनाज का
खाएगा-पियेगा कुछ नईं
खाली पीली बोम मारने का
अपुन के देश के
सबसे बडी़ पोश्ट का चुनाव

दो बुज़ुर्ग लगा हे काम पे
देश लाम पे
काई कू पचडा़ मे पड़ता रे ये लोग
एसी कोन सी माया मिल जाती हे रे
खासम खास बनके
किसी से मिलने का नई
चोराए पे चाय पीने का नई
मोहल्ले की बेटी में लगन में
जाने का नई
गरबा गाने का नई
गनपति लाने का नई
काय के खासम खास...
बकवास...
एक तो जीतेगा
ये तो नक्की हे रे
हारेगा दूसरा ?

नई रे
हारेगा हम...तुम
जो मईना भर मरता
पचता...
बच्चे का फ़ीस टेम पे नई भरता
बीवी को सिनेमा नई दिखाने ले जाता
पुलिस से डरता
क़ानून से डरता
शराफ़त से रेता

हमकू ज हारने का रे
हम कोन ?

भारत का आम जनता
हमारे पीछे कोने रोने वाला
इनकू चुनाव में याद आता
हम इनका माई-बाप बन जाता
क्यों करने का चिंता
कोन जीतेगा
कोन बनेगा सदर
अपनी तो वोई च लोकल ट्रेन
वोई टिफ़िन का डिब्बा
वोई ठंडा लंच
वोई सुबह आठ से रात आठ
तीज न त्यौहार
संडे न मंडे
हर लम्हा रोटी की चिंता का कारोबार
हारेगा हम...आप
क्योंकि ये मुलूक हमारा
हम इसके वासी
ये हमारा मादरे वतन
हमारे पहली मुहब्बत
और करो मुहब्बत
मुहब्बत में तो हारना ई च पडता
हम हें इंडिया
हमारे दम से इंडिया
हारो इंडिया हारो !

Wednesday, July 18, 2007

मोबाईल झूठ से घिर गई है ज़िन्दगी हमारी


मोबाइल तो ज़िन्दगी का वैसा ही हिस्सा हो गया है जैसे धूप,हवा और पानी.लेकिन इस साधन ने हमें काफ़ी हद तक झूठ की ओर धकेला है.हम सब ही उन तरीक़ों को इस्तेमाल कर रहे हैं जो निश्चित रूप से हममे मौजूद मनुष्य को मार रहे हैं.कैसे ? कुछ बानगियाँ देखें:

-मोबाइल बजा...आपकी फ़ोन बुक में काँल करने वाले का नाम है..आप अटेण्ड नहीं करना चाह रहे.. . बजने दीजिये घंटी.(पहला झूठ)

-मोबाइल बजा...आप नहीं जान रहे कौन काँल कर रहा है...आपने काँल अटेण्ड किया..सामने वाला कह रहा है...भैया दफ़्तर में हैं क्या ? आपने पूछा..क्यों ? काँलर : नहीं मै एक दस मिनट के लिये आना चाहता था...आप कहें तो..
आप मिलना नहीं चाहते..तो जवाब दे दीजिये...भाई साहब एक्चुली क्या है कि मैं दफ़्तर से आठ कि.मी.दूर हूँ अभी.तो यदि मुमकिन हो तो कल का रख लें (दूसरा झूठ)

-आपका जाना-पहचाना नम्बर चमक रहा है मोबाइल के स्क्रीन पर..आपका मन नहीं उठाने का..थोड़ी देर बाद थक कर काँलर ने घंटी देना बंद कर दी...अब टूँ..टूँ बजी है...एस.एम.एस. आया है ..उसी का जिसका काँल आपने अभी अभी अटेण्ड नहीं किया..संदेश में लिखा है...योर चैक इज़ रैडी...काँटेक्ट इमीजियेटली...(आपका भुगतान तैयार है,तत्काल संपर्क करें)आप तुरंत काँल कर रहे हैं ..कहते हैं मैडम आपका मिस काँल देखा..कैसे याद किया था...मैडम:मैने आपको एस.एम.एस.भी तो किया था सर ! आपने नहीं देखा क्या ? जी नहीं..बताएँ..मैडम: सर वो आपका पैमेंट था न ..आपकी डायरेक्टर साहब से बात हुई थी...चैक तैयार है सर..जी मैडम अभी आया(सरे आम तीसरा झूठ)

-पत्नी का फ़ोन है घर से (लैण्ड्लाईन नम्बर दिख गया है स्क्रीन पर) आपने फ़ोन उठाया..हाँ डियर बोलो..उन्होने पूछा..कहाँ हो आप..आपका जवाब रास्ते में ..सुनिये...बोर्नविटा ख़त्म हो गया है लेते आइयेगा...अरे यार तुम हमेशा लेट फ़ोन करती हो...मै तो तक़रीबन घर के गेट के पास ही आ गया हूं (जबकि कम से कर आधा कि.मी. दूर हैं) कहाँ हो दिख तो नहीं रहे...आपका जवाब ..अरे यहीं काँलोनी के चौकीदार से बात कर रहा हूं (चौथा झूठ)

-किसी ने आपको फ़ोन किया है...नम्बर आपका जाना पहचाना है...फ़ोन बुक में दर्ज़ नहीं है इसलिये नाम नहीं आ रहा मोबाइल के स्क्रीन पर ...आप उसे अटैण्ड नहीं करना चाह रहे हैं...वह ज़्यादा समझदार है...उसने तय किया है कि वह आज आपसे संपर्क कर के ही रहेगा...उसने पास बैठे मित्र के मोबाइल से आपको काँल किया है..आप नम्बर नहीं पहचानते सो आपने उठा लिया..लाइन पर वही है जिसको आप टालना चाहते हैं..हाँ मै रवि बोल रहा हूँ संजय भाई..मैने अभी फ़ोन लगाया था आपने उठाया नहीं...जवाब..यार मोबाइल पहली मंज़िल पर मेरे केबिन में रह गया था..बस अभी एंटर हुआ हूं..लेकिन ये नम्बर तो तुम्हारा नहीं (तफ़तीश कर रहे हैं हुज़ूर!)एक और मोबाइल ले लिया क्या ?अब सामने वाले को भी तो झूठ बोलना पडे़गा..सो उसका जवाब..नहीं नया नहीं लिया एक मित्र बैठे हैं यहाँ पर उनसे लेकर काँल किया तुम्हे.(यहाँ तक सच बोला है वह..अब झूठ सुन लीजिये) दर-असल अभी अभी मेरे मोबाइल की बैटरी डाउन हो गई न इसलिये इनसे लेकर लगाया है.(भरी धूप में पाँचवा झूठ )

-और अब आख़िरी झूठ...किसी का जाना पहचाना नम्बर घरघरा रहा है आपके मोबाइल पर...आप टाल रहे हैं..वह बेचारा शाम तक आपको ट्राय करता रहा...शाम को किसी से आपका लैण्ड्लाइन नम्बर मिला ..वह पूछ रहा है..यार आपको दिन भर से ट्राय कर रहा हूं ..बात ही नहीं हो पा रही..क्या मोबाइल नम्बर बदल गया..आपका जवाब..नहीं भाई घर भूल आया हूं आज..उसने जानकारी दी: घर पर भी कोई नहीं उठा रहा...आपका जवाब..कोई है ही कहाँ घर पर..तुम्हारी भाभी शाँपिंग करने गई है और बच्चे स्कूल !(छठा झूठ)

तो मित्रों ...ये झुनझुना हमें अव्वल दर्ज़े का झूठा बना रहा है..और ले जा रहा है ऐसी ग़र्त में जहाँ से वापस लौटना संभव नहीं.किसी अच्छाई के लिये या मजबूरी में एक - आध झूठ बोलना पडे़ तो समझ में आता है लेकिन दिन भर हम झूठ से घिरे रहें ..ठीक नहीं लगता..क्या यह भी एक खरा सच नहीं कि जिस झूठ का इस्तेमाल हम दूसरों के साथ कर रहे हैं वैसा ही कोई और भी हमारे साथ कर रहा है या कर सकता है...बददुआ नहीं दे रहा लेकिन कटु सच्चाई यही है कि किसी दिन हम सब (मै भी) मोबाइल झूठ के कारण ज़िन्दगी में बड़ा नुकसान कर बैठेंगे...अब जब भी आपके मोबाइल पर घंटी बजे तो यह भी सोचियेगा कि कहीं कोई मित्र/परिजन तकलीफ़ में तो नहीं..कहीं किसी को आपकी मदद की दरकार तो नहीं...कहीं कोई बीमार तो नहीं...दूर रिश्तेदारी में किसी बूढ़े काका के गुज़र जाने का समाचार तो नहीं..और दु:ख ही क्यों..कोई खु़शी देने वाली या सुकून भरी ख़बर भी तो हो सकती है....बहन का रिश्ता पक्का तो नहीं हो गया...बिटिया का रिज़ल्ट तो नहीं आ गया...आपका प्रमोशन तो नहीं हो गया..कोई सम्मान तो नहीं मिल गया आपको...पिताजी गाँव में ज़मीन का तीस साल पुराना केस तो नहीं जीत गए..माँ को आपकी याद तो नहीं आ रही...मित्र आपसे ये बताने को बेताब तो नहीं कि आज ही के दिन हमारी दोस्ती शुरू हुई थी ..

बहुत से अच्छे - बुरे समाचारों,बातों और मुलाक़ातों के सिलसिले समेट लाता है किसी का फ़ोन..ज़रूरी नहीं कि हर घंटी आपको परेशान करने के लिये ही बज रही है...तो सकता है कोई और भी परेशान हो रहा हो.

Monday, July 16, 2007

पं.कुमार गंधर्व बोले...गाना तो बाहर क्या देखना ?


मालवा और कुमार गंधर्व जैसे दूध में मिश्री.हमारा मालवा दूध जैसा पावन और हमारे कुमारजी का गाना मिश्री जैसा मीठा.धारावाहिक रामायण की लोकप्रियता शबाब पर थी.मुंबई में किसी म्युज़िकल सर्कल में सुबह की महफ़िल जमी है.रामायण के कारण खचाखच रहने वाली महफ़िल पर भी असर है आज.फ़िर भी सुनने वालों में कुमारजी के स्थायी मुरीद तो हैं हीं.लाजवाब गाया है आज कुमार जी. सभा समाप्त हुई है..मिलने जुलने वाले,शिष्य परिवार,और हाँ रेलेजी,पंढरीनाथ कोल्हापुरे और सबसे विशिष्ट हैं मराठी के जाने-माने साहित्यकार और कुमारजी के अनन्य सखा पु.ल.देशपांडे.ग्रीन रूम में आकर मराठी में पूछ रहे हैं ..कुमार आपने तो यहाँ जब भी गाया है तब सैकड़ों श्रोता रहे हैं..आज मामला ख़ाली ख़ाली था तब भी आपका गाना तो अदभुत था...कैसे?...दिल थाम कर पढ़ लीजिये दोस्तो पं.कुमार गंधर्व का जवाब..और ये भी ध्यान रहे कि ऐसे जवाब में काफ़ी कुछ अव्यक्त है...कृपया उसे पकड़्ने की कोशिश करियेगा.कुमार जी बोले:
जब गाना तो बाहर क्या देखना...मै गाने को अपने भीतर को सुनाता हूं..किसी और को सुनाने आया ही नहीं कभी .

Sunday, July 15, 2007

असफलता के ज्वलंत कारण.

हम जानते हैं कि ऐसे बहुत सारे कारण हैं जो हमारी सफलता में रोड़े अटकाते हैं..लेकिन हम चाहते हुए भी एक ऐसी लिस्ट तैयार नहीं कर पाते जो ये जता सके कि हाँ इन कारणों से हमारी व्यवसायिक क़ामयाबी में ख़लल पड़ता.एक छोटी सी कोशिश के तहत आइये नोट कर लीजिये वे बाह्य और आंतरिक कारण को हमारे कामकाज में ख़लल डालते हैं.हो सकता मेरे द्वारा तैयार की गई लिस्ट में एक दो कारण आप कम कर दें या बढ़ा दें.मैने सप्रयास इन कारणों पर चैक रखना शुरू किया और महसूस किया कि काफ़ी हद तक शिथिलता में कमी आई है.इन कारणों को जान लेने के बाद ज़रूरी है कि किसी तरह से इनसे बाहर निकला जाए..यदि आप भी कुछ नए कारण सूचीबध्द कर सकें तो मुझे भी उससे अवगत कराइयेगा.शुक्रिया.

बाह्य कारण:
- फ़ोन/मोबाइल की रूकावटें
- भेंट/मुलाक़ातें/सभाएँ
- बिना सूचना आकर मिलने वाले
- अत्यधिक काग़ज़ी कार्य
- संवाद की कमी
- नीतियों प्रक्रियाओं की कमी
- प्रबंधन में अरूचि
- योग्य एवं निपुण सहयोगियों का न होना
- सहकर्मियों द्वारा निर्देशों का अनुसरण नहीं करना
- टीम भावना का अभाव
- स्वार्थ,ईर्ष्या

आंतरिक कारण:
- काम टालने की आदत
- प्रतिनिधित्व की कमी
- अस्पष्ट उद्देश्य
- आत्मविश्वास/निर्णय क्षमता में कमी
- दोषपूर्ण स्व-प्रबंध
- आलस्य,प्रमाद और तनाव
- योजना बनाने में असमर्थता
- कमज़ोर कार्य सूची
- कार्य का अव्यवस्थित वितरण
- सही कार्य के लिये ग़लत व्यक्ति का चयन
- एक समय में बहुत कुछ कर गुज़रने की निरर्थक कोशिश
- दूसरों पर विश्वास की कमी
- दोषपूर्ण समय प्रबंध.



और अंत मे सबसे महत्वपूर्ण बात: हम जिनको समय देते हैं उनके लिये उपलब्ध नहीं होते....जहाँ पहुँच जाते हैं वहा पूर्व सूचना नहीं देते...दोनो ही स्थितियों में हम ही नुकसान में रहते हैं...आदमी चाँद पर चला गया...इंटरनेट से जुड़ गया ..लेकिन समय प्रबंधन के मामले में अभी भी बहुत पिछडे़ हुए है.इस मामले में मै आपके साथ एक वाक़या बाँटना चाहुँगा.मेरे एक मित्र हैं..उद्योगपति हैं..दुनिया भर में घुमते रहते हैं.विगत दिनों हाँगकाँग में थे वे.बताने लगे कि जिस होटल में वे ठहरे थे उसी में उनका मेज़बान पास के उप-नगर से आकर ठहरा था.सवेरे साथ में दोनो ने स्विमिंग की.एक प्याली चाय पीने के बाद मेरे मित्र ने अपने कोरियाई मित्र से पूछा तो हम कितनी देर बाद आपकी फ़ेक्ट्री का मुआयना करने चल सकते हैं..कोरियाई उद्योगपति बोला अभी नौ बज रहे हैं...मै आपको नौ सत्रह पर होटल की लाँबी में मिलता हूं.मेरे मित्र चकित कि ये कैसा टाइम शेड्यूल..खै़र..दोनो ने टाइम पर सहमति जताई और चल पडे़ अपने कक्ष में तैयार होने.मेरे मित्र बताने लगे कि सत्रह मिनट में बीसवीं मंज़िल पर पहुँचना,हज़ामत बनाना,नहाना और तैयार होकर लाँबी में पहुँचना थोड़ा असंभव सा प्रतीत हो रहा था सो मेरे मित्र महज़ कपडे़ बदल कर लाँबी में आ पहुँचे सवा नौ बजे..सोचने लगे कि ये कोरियाई सारा काम निपटा कर कैसे नीचे आएगा..लेकिन देखते हैं कि जैसे ही घडी़ ने नौ सत्रह बजाए श्रीमान लाँबी में हाज़िर ..न पहले न नौ सत्रह के बाद ...एक्ज़ेट नौ सत्रह...मेरे मित्र ने पूछा क्या वे नहाए नहीं तो जवाब मिला शेव भी कर ली,नहा भी लिये...कपडे़ भी बदल लिये और कमरे में बुलवा कर दो टोस्ट भी खा लिये...तो तैयार होने में कितना वक्त लिया...कोरियाई ने कहा...बस सात मिनट तैयार होने के ....सात मिनट ब्रेकफ़ास्ट के और तीन मिनट कमरे में आने - जाने के......अब बताइये क्या कहेंगे आप इसे...क्या आपको नहीं लगता कि हमारी जीवन शैली में अभी भी समय आख़िरी प्राथमिकता है.हम मैनेजमेंट तो ख़ूब पढ़ चुके...अब उसे आज़माने का दौर आ गया है.

Saturday, July 14, 2007

टू मिनिट रिपोर्टिंग के चोचले

कभी बतौर एंकर या आयोजक कई आयोजनों से जुड़्ने का सुअवसर मिलता रहा है इन बरसों में.पिछ्ले दिनों पत्रकार मित्र दीपक असीम ने आजकल अख़बारों में उभर कर आई प्रतिस्पर्धा के चलते रिपोर्टरों के कामकाज और व्यवहार में आई एक विचित्र क़िस्म की हड़बड़ी को खा़सी मज़म्मत की थी.दीपकजी ने मुख़्तसर में अपनी बात कह दी लेकिन उसे पढ़ने के बाद मैने उन कार्यक्रमों को अपने मानस में उभारा तो उनकी बात में दम नज़र ही नहीं आया बल्कि मुझे लगा कि इन बरसों में जब तकनीक बढ़ चली है तब तो मनुष्य के जीवन में ठहराव आना चाहिये लेकिन हो उल्टा रहा है.आज अख़बारों ने शहरी गतिविधियों के बढ़ते एक ऐसी फ़ौज को दफ़्तर में नियुक्त कर लिया है जो या तो पार्ट-टाइमर या बत्तौर ट्रेनी काम कर रहे हैं.ये शुभारंभ या संगीत के जल्सों या फ़ैशन शोज़ में नामज़द किये जाते हैं .आप इनका पहनावा देखिये लगता नहीं कि आप किसी युवा रिपोर्टर से रूबरू हैं...बिखरे बिखरे बाल...लड़कियों को देखिये तो नाभि के ऊपर पहना हुआ टाँप..लड़के जीन्स पहने..शर्ट आधा बाहर आधा भीतर...हाथ में एक राइटिंग पैड है , गले में मोबाइल के हेड्फ़ोन के तार लटके हुए.कैमरा भी इन्ही ने लाद लिया है कंधे पर.

आयोजक के पास आन पहुँचे हैं.वो बेचारा कलाकार और श्रोता-दर्शक के वक़्त पर सभागार में नहीं पहुँचने के कारण पहले ही विचलित है.आप (रिपोर्टर महोदय/महोदया) ने उसे घेर लिया है.सर ! कब शुरू करेंगे क्रियाकर्म (कार्यक्रम)? अब आप इनकी बातचीत पर भी ग़ौर करियेगा..सोचियेगा क्या ये हिन्दी अख़बार के नुमाइन्द हैं ? सर एक्च्युली मुझे प्रेस जल्दी पहुँचना है .हमारे यहाँ डेड-लाइन ही सिक्स थर्टी की है.कब शुरू हो जाएगा आज का कंसर्ट ? आयोजक : पौने छह तक कोशिश करते हैं.कार्यक्रम निर्धारित समय से पौन घंटा पीछे चल रहा हैं. सर पौने छह यानी सेवेन फ़ोर्टी फ़ाइव ? नहीं मैडम फ़ाइव फ़ोर्टी फ़ाइव. ओह ! साँरी ...सर ये मदनमोहनजी कब तक आ जाएंगे..आयोजक माथा फ़ोड लेता है..कार्यक्रम संगीतकार स्वर्गीय मदनमोहन की बरसी पर आयोजित है और उन्हे याद करते हुए शीर्षक दिया गया है”फ़िर वही शाम’ आयोजक सोच रहा है कि कैसे इस बालिका को समझाए कि मदनमोहन को गुज़रे दो दशक से ज़्यादा हो चुके हैं.मदनजी स्वर्ग से तो लौटने से रहे.आयोजक ने जब समझा दिया है तो वह कह रही है अच्छा तो सर ये जो कलाकार हैं ये मदनमोहनजी की रचनाए गाएंगे ? आयोजक: जी.तो सर टाइम पर तो प्रोग्राम स्टार्ट नहीं हो रहा है तो आप मुझे बता दीजिये न कि आज के कलाकार क्या क्या गाने वाले हैं..अरे मैडम वे आ तो जाएं..फ़िर आप ही पूछ लीजियेगा उनसे.

बात चल ही रही है कि कलाकार आ गए..रिपोर्टर का चेहरा खिल उठा है..वो बेचारा रास्ते में ट्राफ़िक जाम से निकलकर आया है और चाहता है कि साउंड सिस्ट्म की पड़ताल कर ले.. अपने प्रतीक्षारत साज़िंदों से चर्चा कर ले..इतने में रिपोर्टर वीर बालिका प्रकट हो गई है...

सर एक्स्क्यूज़ मी प्लीज़... आज आप क्या क्या सुनाने वाले हैं ?

कलाकार : मैडम प्लीज़ आप कंसर्ट में बैठिये न. आपको मज़ा आएगा..सुनिये तो सही हमारी पेशकश

रिपोर्टर : सर क्या बताऊं हमारे सर (उनके सीनियर)हैं न उनके दो बार फ़ोन आ चुके हैं और अगले पंद्रह मिनट में मुझे यहाँ से निकलकर प्रेस पहुँचना है और ये रिपोर्ट फ़ाइल करना है. सर आप तो मुझे गानों की सूची दे दीजिये..संगतकार कलाकार के नाम नोट करवा दीजिये..मेरा काम हो जाएगा.

कलाकार : पर मैडम मैंने कैसा गाया है वह आप कैसे जानेंगीं..

रिपोर्टर :यहाँ मेरे एक मित्र बैठे हैं वे मुझे प्रेस मे मुझे मोबाइल पर नोट करवा देंगे. एक बात और ज़रा मंच पर बैठ कर एक एक्शन दे दीजिये न ..हमारा फ़ोटोग्राफ़र भी निकलना चाहता है आपकी एक तस्वीर ले कर ...वह भी फ़्री सर !

कलाकार बैठ गया है मंच पर...एक्शन चल रहा ..बनावटी सा. बालिका प्रसन्न है ..वह आज टाइम पर रिपोर्ट फ़ाइल कर देगी.जल्दी से जल्दी की ये जो स्थितियाँ हैं; ये क्या संदेश दे रहीं है...रपटकार ने कार्यक्रम सुना नहीं है..जाना नहीं है कि क्या कुछ घटेगा ..लाइव कंसर्ट के फ़ील से बाबस्ता नहीं होना चाहता आज का युवा अख़बारनवीस.ये कैसी प्रतिस्पर्धा...इसे मजबूरी कहना बेहतर होगा.अख़बार का प्रतिनिधि याचक की मुद्रा में नज़र आए ; अच्छा नहीं लगता.अव्वल तो उसे मालूम ही नहीं पड़ने देना चाहिये कि वह मौजूद है..वरना वह कैसे किसी इवेंट का अंडर-करंट ले पाएगा....लेकिन ये सब चल रहा है..शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम में तो हालत और भी ज़्यादा ख़राब है ..एक कलाकार बजा रहा है ...दूसरा रात को ग्यारह बजे बैठेगा ..गाने ..तब तक कैसे रूका जाए...राग का नाम पूछ लिया आर्टिस्ट से..और कहा है सर ज़रा तानपूरा लेकर ग्रीनरूम में ही एक पोज़ दे दीजिये..हम निकल लेते है..घोर हड़बडी़ मची है..राग मारवा गाया गया था..छपा है मालकौंस..तबला बजा था...ढोलक छप रहा है...तानपूरे पर संगत दी फ़लाँ साहब ने तो लिखा जा रहा है सितार पर थे..श्री... अब मज़ा ये है कि तानपूरा संगति देने का वाद्य है जबकि सितार एकल वादन का एक स्वतंत्र वाद्य..शास्त्रीय गायन के साथ तानपूरा बजता है इन्होने छाप मारा है सितार.मजमे को पूरा ही तान दिया है.मेंडोलियन को गिटार और की बोर्ड को केसियो लिख मारेंगे..जबकि केसियो एक ब्रांडनेम भर है...

तो हुज़ूर सब चल रहा है क्योंकि वक़्त बहुत तेज़ चल रहा है...लेकिन बात ग़लत है..वक़्त नहीं मनुष्य बहुत तेज़ चल रहा है...तकनीक बहुत तेज़ चल रही है. या अल्लाह ! ये सारा तामझाम न जाने हमें कहाँ ले जाकर कर छोडे़गा ?
या यूं भी कह सकते हैं..कहीं का भी नहीं छोडे़गा.मिनिट्स में अपने काम को निपटा लेने के ये क़ायदे हैं या चोचले ? आप ही तय करिये.

Tuesday, July 10, 2007


आइये सबसे पहले ठीक करें मन के वास्तु !

हम देखा-देखी करने या फ़ैशन के अनुसरण में कुछ ऐसे माहिर हैं कि इसके लिये तो हमें किसी विश्व स्तर के सम्मान से नवाज़ा जा सकता है । कपड़े हों, संगीत या हेयर स्टाइल; हम तुरत-फुरत कोई भी नई चीज़ बिना
सोचे-विचारे अपनाने को तत्पर रहते हैं । इस बात में हमारी कोई दिलचस्पी नहीं कि हमारी संस्कृति, संस्कार और सोच के माफ़िक होगा या नहीं यह अनुसरण ? ताज़ा मामला वास्तु शास्त्र का है । मैं यह नहीं कहता कि वास्तु शास्त्र का कोई अस्तित्व नहीं है या उसका कोई महत्व नहीं । लेकिन मेरा कहना है कि किताबों में पढ़कर वास्तु संबंधी सुधार करना या परिवर्तन करना ख़तरनाक है । हमने दक्षिण-मुखी भवन ख़ारिज करना शुरू कर दिये हैं । हम ईशान कोण पर मंदिर बनाना सीख गए हैं; इसी क्षेत्र में पानी का कुआँ या हौज बनाना सीख गए हैं। अच्छा है, यदि इन सुधारों से आपके मन और जीवन में यदि सुख की सृष्टि होती है तो निश्चित ही यह प्रसन्नता की बात है। आपका स्वास्थ्य, आपका कारोबार, आपका दाम्पत्य यदि वास्तु शास्त्र के अनुसरण से सुखद बनता है तो इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है ? लेकिन इस आलेख का उन्वान है "मन के वास्तु' को ठीक करना । आइए, इसके बारे में ओर अधिक ख़ुलासा करें ।

यह जग-ज़ाहिर है कि हमारे विचार-वाणी और कर्म का पूरा ताना-बाना मन ही रचता है । जब हम मन के वास्तु को ठीक करने की बात करते हैं तो आशय यह है कि हम अपने परिवार, अपने सहकर्मियों और अपने मित्रों के साथ किस तरह का व्यवहार करते हैं ? समाज में आपकी भूमिका क्या है ?

तमाम वास्तु रचनाओं में श्रेष्ठतम परामर्श अर्जित करने के बावजूद यदि मनुष्य ने अपने अहंकार, दंभ और आवेश पर नियंत्रण नहीं किया तो जीवन के सारे सुयश बेमानी हैं। कारोबार से यदि शुरू करें तो हमें देखना होगा कि हम अपने सप्लायर्स, अपने सहकर्मियों, अपने ग्राहकों के साथ किस तरह पेश आते हैं ? यदि आप अपने सहकर्मी से अनथक परिश्रम की उम्मीद तो करते हैं लेकिन स्वयं आरामतलब हैं तो कौन-सा वास्तु आपको सफलता देगा ? यदि आप अपने सप्लायर्स से मनचाहा माल तो मॅंगवा लेते हैं लेकिन उसे नियत समय पर भुगतान नहीं करते हैं तो किस पेढ़ी पर बैठकर आप कारोबार को कामयाब बनाएँगे? सप्लायर्स के बिलों में से पैसे काटकर हम कौन-सा करिश्मा कर रहे हैं? परिवार के फ्रंट पर देखें तो हालात बेहद ख़राब है । छोटे, बड़ों की परवाह नहीं करते और बड़े सिर्फ़ इसी बात पर अड़े हैं कि हमसे तो ग़लती हो ही नहीं सकती ! परिवारों में या तो वाणी के दुरूपयोग की भरमार है या फिर "अबोलों' का लम्बा सिलसिला। कोई झुकना नहीं चाहता। मकान का वास्तु करवा रखा है, लेकिन "घर' के मन-मण्डप के तोरण मुरझा रहे हैं । को़फ़्त होती है यह देखकर कि हम घर के बाहर सारे एडजस्टमेंट करना जानते हैं लेकिन घर में छोटे से छोटे मामले एडजस्ट नहीं कर सकते । हम दीपावली पर घर और द़फ़्तर की सफ़ाई में तो जुट जाते हैं लेकिन रिश्तों में जमे जाले झाड़ने की चिंता किसी को नहीं है । मुझे लगता है वह दिन दूर नहीं जब टैक्स, वास्तु और मेडीकल कंसलटेंट्‌स के बाद शीघ्र ही दाम्पत्य और परिवार सुधार करवाने वाले कंसलटेंट्‌स के बोर्ड भी बाज़ार में टॅंगे नज़र आएँगे।

रिश्तों की बात निकली तो मुझे ख़याल आया कि इन दिनों हमने शोहरत, दौलत और पैसा कमाने की होड़ में दो बड़ी प्यारी चीज़ें गॅंवा दी हैं । एक पड़ोस और दूसरा मित्र । हम क्लबों और पार्टियों में कुछ ऐसे मसरूफ़ हैं कि पड़ोसी का नाम जानने की औपचारिकता भर करते हैं । हमें उसके निजी दुख-दर्द से भला क्या लेना-देना ? हमारे बिज़नेस कॉन्टेक्ट्‌स खूब लम्बे हैं; सोशल कॉन्टेक्ट का क्या कहना; लेकिन हम पड़ोसी के कॉन्टेक्ट में नहीं हैं; बिज़ी जो ठहरे ! काम धेले भर के नहीं किंतु बिज़ी हैं । मित्र नाम का जीव तो जैसे ज़िंदा ही नहीं रहा अब । मेरी नज़रों में मित्र वह है जिसके घर बिना अपॉइंटमेंट लिये जाया जा सके और अप्रिय लगने की हद तक जाकर उसके सामने सच बात कह सकें। अब चूँकि सारे संबंध "लेन-देन' आधारित हैं, मित्रता भी दुर्लभ हो चली है। काम हैं तो आप मेरे मित्र, वरना मुझे आपसे क्या लेना-देना ? मैं जानता हूँ कि आप इस आलेख से सहमत होते हुए भी असहमत होने को मजबूर हैं, क्योंकि आप भी अकेले नहीं ;"समाज' का हिस्सा हैं और आपसे सरोकार रखने वाले सारे संबंध ही आपकी तासीर को तय करते हैं । लेकिन क्या अब भी मन के वास्तु को सुधारने के इलाज शेष हैं ? अच्छी बात करने का; शुभ संकल्प लेने का और नेक काम शुरू करने का कोई मुहूर्त नहीं होता । आइये, इसी पल से हम मन के वास्तु सुधारें !

कुछ बहुत छोटे-छोटे सुझावों को आचरण में लोकर हम अपने जीवन के आनंद को द्विगुणित कर सकते हैं। जैसे कहा जाता है कि ईशान कोण पर भारी वस्तु न रखी जाए । हमारा मानना है कि मन के ईशान कोण पर यदि फ़िक्र के भार यानी आवेश, क्लेश और तनाव न रखा जाए तो मन के वास्तु को सुधारने का यह पहला शर्तिया फार्मूला होगा । कभी-कभी हम आगे होकर परेशानी को आमंत्रण देते हैं जिसमें प्रमुख है पैसे की अंधाधुंध हवस। इसके लिए हम कारोबार का निरर्थक विस्तार करते हैं और मन को ख़ूब दौड़ाते हैं । स्वास्थ्य को दाव पर लगाते हैं और परिवार को नाराज़ करते हैं । विस्तार की रफ़्तार में बेईमानी और झूठ हमारे लिए एक प्रिय शस्त्र बन जाता है । अंततः इसी शस्त्र को तान कर दुनिया हमारे सामने खड़ी होती है और हम लगभग पराजित से होते हैं । काम उतना ही फैलाया जाए जितना हमारे जीवन और हमारे परिवार के लिए आवश्यक हो।

परिवार के स्तर पर हम बड़े हैं तो छोटो की भूलों को नकारें और उन्हें अपनाने की कोशिश करें। ध्यान रखें कि आपके द्वारा दिये जाने वाले स्नेह में आने वाली कमी के कारण ही आपके परिजन आपसे दूर होते हैं। कई लोग इस तरह का दंभ भी भरते हैं कि हमारा काम किसी छोटे के कारण नहीं अड़ता । लेकिन ध्यान रखने योग्य बात यह है कि परिजन, परिजन ही होते हैं और बेगाने हमेशा बेगाने । यदि आप परिवार में छोटे हैं तो हमेशा इस बात का ख़याल रखें कि बड़ों की छाया वटवृक्ष की तरह होती है । बुज़ुर्गों के अपने निजी पूर्वाग्रह होते हैंक्योंकि वे एक पीढ़ी विशेष का प्रतिनिधित्व करते हैं। हमे चाहिए कि हम सकारात्मक दृष्टिकोण से परिवार के वरिष्ठों का मन जीतने का प्रयास सतत करते रहें। संवादहीनता मन के वास्तु को बिगाड़ने में एक बड़ा तत्व है । यदि किसी एक परिजन विशेष के साथ आपकी संवादहीनता है तो परिवार के दीगर वरिष्ठ व्यक्तियों को चाहिये कि वे समन्वय का सूत्र ईजाद कर घर की सुख-शांति और सौहार्द को पुनर्स्थापित करें ।

मन के वास्तु को ठीक करने का एक अन्य फ़ार्मूला यह है कि आप अपने जीवन की प्राथमिकताओं को तय करें। एक उम्र विशेष में पहुँचने पर आप अपने आहार, संबंधों और अपने कारोबार और अपने सामाजिक सरोकार की ख़ास सुध लें । अपने अनुभव का लाभ नई पीढ़ी और समाज को देने का प्रयास करें । यदि आप सेवानिवृत्त हो चुके हैं और किसी विधा विशेष में पारंगत हैं तो कोशिश करें कि आपके अनुभव का लाभ नई पीढ़ी और समाज को मिले । इसमें एक महत्वपूर्ण बात यह है कि आप अपने वित्त प्रबंध एवं स्वास्थ्य के बारे में विशेष सतर्कता बरतें जिससे जीवन की संध्या बेला में आपका जीवन आनंदमय बन सके । कहते हैं कि मनुष्य मूलतः एक अत्यंत आनंदमय प्राणी है । परिस्थिति, परिवेश, पर्यावरण और प्रतिबद्धता ही मनुष्य के आचार-विचार पर प्रभाव डालती है। यदि सब कुछ ठीक चलता है तो मनुष्य निश्चित रूप से जीवन की ख़ुशियों की बरकत में बढ़ोतरी करता रहता है । इसी बरकत की वजह से उसके मन और मानस में आनंद का संचार होता रहता है । उम्मीद करें कि मन के इस शब्द चित्र को पढ़कर आप भी अपनी प्राथमिकताओं में परिवर्तन करेंगे और परम ऐश्वर्यशाली परमात्मा रचित "मनुष्य' नाम के सुंदर सृजन की सुध तत्काल से पहले लेंगे। आपके लिए आने वाले दिन सुदिन बनें, आपको श्रेष्ठ दृव्य और आरोग्य प्राप्त हों, यही शुभ-भाव।

Friday, July 6, 2007

ठूंठ से उभरते शिल्प क्या कहते हैं




हमने न जाने कितनी बेरहमी से पेड़ों से बरताव किया है.स्वयंसेवी संस्थाओं के आव्हान,सरकारी फ़रमान और पर्यावरण पर काम करने वाले हमारे सेवियों के आग्रह के बावजूद हम सबक़ नहीं ले रहे और नि:सर्ग को बेतहाशा नुकसान पहुँचा रहे हैं.एक समय था मनुष्य और प्रकृति का बडा़ प्रेमपूर्ण संग-साथ था.ग्रीन पीस द्वारा जारी ये तस्वीरें आपको कहीं भीतर तक छुएगी.क्या हम वाक़ई संवेदनशील हैं...या ऐसा करने का ढोंग कर रहे हैं ? सवाल मैने नहीं पूछा प्रकृति पूछ रही है और जवाब तो देना ही पडे़गा हमें..

Thursday, July 5, 2007

शहनाई और खु़दाई


शहनाईनवाज़ उस्ताद बिसमिल्लाह खा़न साहब न केवल महान संगीतकार थे बल्कि एक सूफ़ियाना तबियत के इंसान भी थे . उनका फ़क्कड़्पन और सादगी उनके संगीत से कहीं ऊंची थी .उनके इन्तेक़ाल के ठीक बाद इक शब्द-चित्र लिखने का मौक़ा मिला था.छपने के बाद कई प्रतिक्रियाएँ मिलीं जिनमें से एक थी मध्य-प्रदेश के जाने वैद्यराज पं.रामनारायण शास्त्री के सुपुत्र शी महेशचंद्र शास्त्री की.यह प्रतिक्रिया इसलिये विशिष्ट थी क्योंकि उसमें महेशजी के पूज्य पिता से जुड़ा़ एक सच्चा वाक़या था.संगीतप्रेमियों और ख़ाँ साहब के मुरीदों के लिये उस पत्र से वह संस्मरण जस का तस यहाँ....

इन्दौरी के भंडारी मिल में उस्ताद का शहनाई वादन चल रहा था.पू.पिताजी (पं.रामनारायणजी शास्त्री) ने कार्यक्रम समापन के बाद् ख़ाँ साहब से कहा...आपके वादन से श्रोता को तो अलौकिक अनुभूति होती है...आपको कैसा लगता है?

उस्ताद बोले: खुदा की खु़दाई दिखाई देती है