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आइये सबसे पहले ठीक करें मन के वास्तु !
हम देखा-देखी करने या फ़ैशन के अनुसरण में कुछ ऐसे माहिर हैं कि इसके लिये तो हमें किसी विश्व स्तर के सम्मान से नवाज़ा जा सकता है । कपड़े हों, संगीत या हेयर स्टाइल; हम तुरत-फुरत कोई भी नई चीज़ बिना
सोचे-विचारे अपनाने को तत्पर रहते हैं । इस बात में हमारी कोई दिलचस्पी नहीं कि हमारी संस्कृति, संस्कार और सोच के माफ़िक होगा या नहीं यह अनुसरण ? ताज़ा मामला वास्तु शास्त्र का है । मैं यह नहीं कहता कि वास्तु शास्त्र का कोई अस्तित्व नहीं है या उसका कोई महत्व नहीं । लेकिन मेरा कहना है कि किताबों में पढ़कर वास्तु संबंधी सुधार करना या परिवर्तन करना ख़तरनाक है । हमने दक्षिण-मुखी भवन ख़ारिज करना शुरू कर दिये हैं । हम ईशान कोण पर मंदिर बनाना सीख गए हैं; इसी क्षेत्र में पानी का कुआँ या हौज बनाना सीख गए हैं। अच्छा है, यदि इन सुधारों से आपके मन और जीवन में यदि सुख की सृष्टि होती है तो निश्चित ही यह प्रसन्नता की बात है। आपका स्वास्थ्य, आपका कारोबार, आपका दाम्पत्य यदि वास्तु शास्त्र के अनुसरण से सुखद बनता है तो इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है ? लेकिन इस आलेख का उन्वान है "मन के वास्तु' को ठीक करना । आइए, इसके बारे में ओर अधिक ख़ुलासा करें ।
यह जग-ज़ाहिर है कि हमारे विचार-वाणी और कर्म का पूरा ताना-बाना मन ही रचता है । जब हम मन के वास्तु को ठीक करने की बात करते हैं तो आशय यह है कि हम अपने परिवार, अपने सहकर्मियों और अपने मित्रों के साथ किस तरह का व्यवहार करते हैं ? समाज में आपकी भूमिका क्या है ?
तमाम वास्तु रचनाओं में श्रेष्ठतम परामर्श अर्जित करने के बावजूद यदि मनुष्य ने अपने अहंकार, दंभ और आवेश पर नियंत्रण नहीं किया तो जीवन के सारे सुयश बेमानी हैं। कारोबार से यदि शुरू करें तो हमें देखना होगा कि हम अपने सप्लायर्स, अपने सहकर्मियों, अपने ग्राहकों के साथ किस तरह पेश आते हैं ? यदि आप अपने सहकर्मी से अनथक परिश्रम की उम्मीद तो करते हैं लेकिन स्वयं आरामतलब हैं तो कौन-सा वास्तु आपको सफलता देगा ? यदि आप अपने सप्लायर्स से मनचाहा माल तो मॅंगवा लेते हैं लेकिन उसे नियत समय पर भुगतान नहीं करते हैं तो किस पेढ़ी पर बैठकर आप कारोबार को कामयाब बनाएँगे? सप्लायर्स के बिलों में से पैसे काटकर हम कौन-सा करिश्मा कर रहे हैं? परिवार के फ्रंट पर देखें तो हालात बेहद ख़राब है । छोटे, बड़ों की परवाह नहीं करते और बड़े सिर्फ़ इसी बात पर अड़े हैं कि हमसे तो ग़लती हो ही नहीं सकती ! परिवारों में या तो वाणी के दुरूपयोग की भरमार है या फिर "अबोलों' का लम्बा सिलसिला। कोई झुकना नहीं चाहता। मकान का वास्तु करवा रखा है, लेकिन "घर' के मन-मण्डप के तोरण मुरझा रहे हैं । को़फ़्त होती है यह देखकर कि हम घर के बाहर सारे एडजस्टमेंट करना जानते हैं लेकिन घर में छोटे से छोटे मामले एडजस्ट नहीं कर सकते । हम दीपावली पर घर और द़फ़्तर की सफ़ाई में तो जुट जाते हैं लेकिन रिश्तों में जमे जाले झाड़ने की चिंता किसी को नहीं है । मुझे लगता है वह दिन दूर नहीं जब टैक्स, वास्तु और मेडीकल कंसलटेंट्स के बाद शीघ्र ही दाम्पत्य और परिवार सुधार करवाने वाले कंसलटेंट्स के बोर्ड भी बाज़ार में टॅंगे नज़र आएँगे।
रिश्तों की बात निकली तो मुझे ख़याल आया कि इन दिनों हमने शोहरत, दौलत और पैसा कमाने की होड़ में दो बड़ी प्यारी चीज़ें गॅंवा दी हैं । एक पड़ोस और दूसरा मित्र । हम क्लबों और पार्टियों में कुछ ऐसे मसरूफ़ हैं कि पड़ोसी का नाम जानने की औपचारिकता भर करते हैं । हमें उसके निजी दुख-दर्द से भला क्या लेना-देना ? हमारे बिज़नेस कॉन्टेक्ट्स खूब लम्बे हैं; सोशल कॉन्टेक्ट का क्या कहना; लेकिन हम पड़ोसी के कॉन्टेक्ट में नहीं हैं; बिज़ी जो ठहरे ! काम धेले भर के नहीं किंतु बिज़ी हैं । मित्र नाम का जीव तो जैसे ज़िंदा ही नहीं रहा अब । मेरी नज़रों में मित्र वह है जिसके घर बिना अपॉइंटमेंट लिये जाया जा सके और अप्रिय लगने की हद तक जाकर उसके सामने सच बात कह सकें। अब चूँकि सारे संबंध "लेन-देन' आधारित हैं, मित्रता भी दुर्लभ हो चली है। काम हैं तो आप मेरे मित्र, वरना मुझे आपसे क्या लेना-देना ? मैं जानता हूँ कि आप इस आलेख से सहमत होते हुए भी असहमत होने को मजबूर हैं, क्योंकि आप भी अकेले नहीं ;"समाज' का हिस्सा हैं और आपसे सरोकार रखने वाले सारे संबंध ही आपकी तासीर को तय करते हैं । लेकिन क्या अब भी मन के वास्तु को सुधारने के इलाज शेष हैं ? अच्छी बात करने का; शुभ संकल्प लेने का और नेक काम शुरू करने का कोई मुहूर्त नहीं होता । आइये, इसी पल से हम मन के वास्तु सुधारें !
कुछ बहुत छोटे-छोटे सुझावों को आचरण में लोकर हम अपने जीवन के आनंद को द्विगुणित कर सकते हैं। जैसे कहा जाता है कि ईशान कोण पर भारी वस्तु न रखी जाए । हमारा मानना है कि मन के ईशान कोण पर यदि फ़िक्र के भार यानी आवेश, क्लेश और तनाव न रखा जाए तो मन के वास्तु को सुधारने का यह पहला शर्तिया फार्मूला होगा । कभी-कभी हम आगे होकर परेशानी को आमंत्रण देते हैं जिसमें प्रमुख है पैसे की अंधाधुंध हवस। इसके लिए हम कारोबार का निरर्थक विस्तार करते हैं और मन को ख़ूब दौड़ाते हैं । स्वास्थ्य को दाव पर लगाते हैं और परिवार को नाराज़ करते हैं । विस्तार की रफ़्तार में बेईमानी और झूठ हमारे लिए एक प्रिय शस्त्र बन जाता है । अंततः इसी शस्त्र को तान कर दुनिया हमारे सामने खड़ी होती है और हम लगभग पराजित से होते हैं । काम उतना ही फैलाया जाए जितना हमारे जीवन और हमारे परिवार के लिए आवश्यक हो।
परिवार के स्तर पर हम बड़े हैं तो छोटो की भूलों को नकारें और उन्हें अपनाने की कोशिश करें। ध्यान रखें कि आपके द्वारा दिये जाने वाले स्नेह में आने वाली कमी के कारण ही आपके परिजन आपसे दूर होते हैं। कई लोग इस तरह का दंभ भी भरते हैं कि हमारा काम किसी छोटे के कारण नहीं अड़ता । लेकिन ध्यान रखने योग्य बात यह है कि परिजन, परिजन ही होते हैं और बेगाने हमेशा बेगाने । यदि आप परिवार में छोटे हैं तो हमेशा इस बात का ख़याल रखें कि बड़ों की छाया वटवृक्ष की तरह होती है । बुज़ुर्गों के अपने निजी पूर्वाग्रह होते हैंक्योंकि वे एक पीढ़ी विशेष का प्रतिनिधित्व करते हैं। हमे चाहिए कि हम सकारात्मक दृष्टिकोण से परिवार के वरिष्ठों का मन जीतने का प्रयास सतत करते रहें। संवादहीनता मन के वास्तु को बिगाड़ने में एक बड़ा तत्व है । यदि किसी एक परिजन विशेष के साथ आपकी संवादहीनता है तो परिवार के दीगर वरिष्ठ व्यक्तियों को चाहिये कि वे समन्वय का सूत्र ईजाद कर घर की सुख-शांति और सौहार्द को पुनर्स्थापित करें ।
मन के वास्तु को ठीक करने का एक अन्य फ़ार्मूला यह है कि आप अपने जीवन की प्राथमिकताओं को तय करें। एक उम्र विशेष में पहुँचने पर आप अपने आहार, संबंधों और अपने कारोबार और अपने सामाजिक सरोकार की ख़ास सुध लें । अपने अनुभव का लाभ नई पीढ़ी और समाज को देने का प्रयास करें । यदि आप सेवानिवृत्त हो चुके हैं और किसी विधा विशेष में पारंगत हैं तो कोशिश करें कि आपके अनुभव का लाभ नई पीढ़ी और समाज को मिले । इसमें एक महत्वपूर्ण बात यह है कि आप अपने वित्त प्रबंध एवं स्वास्थ्य के बारे में विशेष सतर्कता बरतें जिससे जीवन की संध्या बेला में आपका जीवन आनंदमय बन सके । कहते हैं कि मनुष्य मूलतः एक अत्यंत आनंदमय प्राणी है । परिस्थिति, परिवेश, पर्यावरण और प्रतिबद्धता ही मनुष्य के आचार-विचार पर प्रभाव डालती है। यदि सब कुछ ठीक चलता है तो मनुष्य निश्चित रूप से जीवन की ख़ुशियों की बरकत में बढ़ोतरी करता रहता है । इसी बरकत की वजह से उसके मन और मानस में आनंद का संचार होता रहता है । उम्मीद करें कि मन के इस शब्द चित्र को पढ़कर आप भी अपनी प्राथमिकताओं में परिवर्तन करेंगे और परम ऐश्वर्यशाली परमात्मा रचित "मनुष्य' नाम के सुंदर सृजन की सुध तत्काल से पहले लेंगे। आपके लिए आने वाले दिन सुदिन बनें, आपको श्रेष्ठ दृव्य और आरोग्य प्राप्त हों, यही शुभ-भाव।
2 comments:
आपके पोस्ट को पढ़कर इंदिरा गांधी का वह कथन याद आ रहा जिसमें उन्होंने कहा था कि "हमें सिर्फ़ यह नहीं सोचना है कि हमारी दुनिया कैसी हो बल्कि यह भी सोचना है कि इस दुनियां में रहने वाले लोग कैसे हों" यह उन्होंने भोपाल के भारत भवन में आयोजित एक कार्यक्रम में अपने एक भाषण के दौरान कहा था
आपने सही कहा है - लोग वास्तु अनुसार अपने भवन को सजा संवार तो लेते हैं, मगर अपने आचार व्यवहार विचार को संवारना भूल जाते हैं.
जब तक यह नहीं होगा, वास्तु के अनुसार महल भी खड़े कर लें, वह रहेगा खंडहर ही. आत्मा नहीं ही रहेगी उसमें.
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