जानेमाने फ़िल्मकार कमाल अमरोही के सुपुत्र ताजदार अमरोही ने नब्बे के दशक में धर्मयुग में अपनी छोटी अम्मी यानी जानी मानी अदाकारा से अपनी पहली मुलाक़ात का भावपूर्ण बयान लिखा था. ग़नीमत की मुझे आज (मीनाकुमारी की बरसी : ३१ मार्च ) को सही सलामत हाथ लग गया।लेख लम्बा है उसका संपादित अंश यहाँ आपकी पेशे-नज़र है।
मैं कोई छह सात बरस का रहा होऊंगा जब मैने सुना कि बाबा (कमाल अमरोही) ने दूसरी शादी कर ली।ये सुन कर पाँव से ज़मीन खिसक गई कि मेरीसौतेली माँ फ़िल्मी हीरोइन है. अमरोहा के अर्जुन टाकीज़ में फ़िल्म लगी थी चाँदनी चौक जिसमें उस औरत ने काम किया था जिससे मेरे वालिद ने शादीकी है. मन में खलबली थी कि देखूँ तो सही आख़िर वह औरत है कैसी. दोस्तो के साथ थियेटर जा पहुँचा.बहरहाल अगल-बगल के लोगों से पूछा कि फ़िल्ममें मीनाकुमारी कौन सी हैं ? माशाअल्लाह ! वह तो निहायत ख़ूबसूरत थीं.
उन्हीं दिनों ख़बर मिली कि बाबा मुम्बई में बीमार हैं और मुझे अपने ताया के साथ उनकी मिज़ाजपुर्सी के लिये जाना है।लम्बे सफ़र के बाद मुम्बई पहुँचे.बाबाके घर पहुँचते ही मैने बाबा के कमरे में मौजूद बहुत सारी औरतों में से एक ने शायद अमरोहा से आए बच्चे की घबराहट को भाँप चुकी थी सो बड़े प्यारसे मुझे पुकारा और कहा इधर आओ बेटे॥मेरे पास....ये सब जो खड़ीं हैं ये सब तुम्हारी ख़ादिमाएँ (सेविकाएँ) हैं और मै हूँ तुम्हारी छोटी अम्मी.जैसे किसीदुल्हन की ठोडी उठा कर उसका चेहरा देखते हैं ठीक वैसे मेरी छोटी अम्मी ने मेरा चेहरा अपने हाथों में ले लिया. ये थी मेरी छोटी अम्मी से मेरी पहली मुलाक़ात.
मैं तक़रीबन आठ दिन मुम्बई में रहा और जब अमरोहा लौटने का दिन आया तो मै छोटी अम्मी से मिलने उनके कमरे में पहुँचा।वे आईने के सामने बैठींमेकअप कर रहीं थीं.मै उनके क़रीब गया और सलाम कर के कहा छोटी अम्मी इजाज़त दीजिये,अगर मुझसे कोई गुस्ताख़ी तो गई हो तो माफ़ कर दीजियेगा.मैं वापस जा रहा हूँ अमरोहा.अम्मी ने फ़ौरन अपना मेकअप छोड़ दिया और मुझे से मुख़ातिब होकर बोलीं क्यों जा रहे हो ?मैने कहा,बस छुट्टियाँ पूरी हो रहीं हैं वहाँ मुझे स्कूल जाना है.अम्मी बोलीं ...लेकिन स्कूल तो यहाँ भी बहुत सारे हैं.
अम्मी बोलीं ...लेकिन स्कूल तो यहाँ भी बहुत सारे हैं।मैं बोला...लेकिन मुझे तो यहाँ सिर्फ़ आठ दिनों के लिये भेजा गया था.अम्मी ने बनावटी ग़ुस्से से कहा....और अब अगर हम तुम्हें वापस न भेजें तो ....तो तुम क्या कर लोगे.मैंने कहा....क्या आप सचमुच मुझे नहीं भेजेंगी ?
ऐसा कह कर मैं फ़फ़क फ़फ़क कर रोने लगा। दर-असल इन आठ दिनों मैं छोटी अम्मी के लाड़ प्यार ने मुझे इस बात का अहसास करवा दिया थाकि सौतेली माँ न तो डायन होती है,न ज़िंदा जलाती है,न बच्चे को पीटती है,न भूखा मारती है ,न बाल पकड़ कर चूल्हे में डालती है,न आँखें फ़ोड़ती है,जैसा की मैने अमरोहा में सुन रखा था .....इन आठ दिनो में तो मै ख़ुद पर इतराने लगा कि कितनी अच्छी है मेरी छोटी अम्मी.छोटी अम्मी मुझे बाबा के पास ले आईं और कहने लगीं "चंदन (कमाल साहब को मीनाजी का संबोधन)मैं नहीं चाहती कि ताजदार मुंबई (तब बंबई)से वापस जाए".......बाबा ने झट से जवाब दिया......मंजू (मीनाजी को कमाल साहब का संबोधन)तुम जैसा ठीक समझो !
ये लेख काफ़ी बड़ा है और ब्लॉग लेखन की मर्यादा के मद्देनज़र इसके शेष भाग फ़िर कभी...आज तो बज़रिये ताजदार अमरोही मीनाकुमारी के कोमल मन की यात्रा तो हमने कर ही ली.
Monday, March 31, 2008
Thursday, March 27, 2008
हिन्दी नाटक ......बातें ज़्यादा.......नाटक कम (संदर्भ : विश्व रंगमंच दिवस : 27 मार्च )
आज विश्व-रंगमंच दिवस है। मेरे शहर इन्दौर के दो तीन अख़बारों ने हिन्दी नाटक को लेकर कई प्रश्न उठाए हैं.लेकिन एक बात तो कोई करना ही नहीं चाहता. हिन्दी नाटक की सबसे बड़ी परेशानी है दर्शक.जी हाँ हुज़ूर आप-हम.एक तो हम नाटक देखना नहीं चाहते ....और देखना भी चाहते हैं तो बिना पैसा चुकाए. हिन्दी नाटक न फ़ूलने-फ़लनेके कुछ ख़ास कारणों की तरफ़ आज तो कम से कम ध्यान जाना ही चाहिये......
-समकालीन हिन्दी नाटक आज रूंपातर पर जी रहा है.....गुजराती और मराठी में जैसा नया लेखन हो रहा है वैसा हिन्दी में हो ही नहीं रहा। अब सर्वेश्वरदयाल सक्सैना,मणि मधुकर,रमेश मेहता,मुद्रा राक्षस या मोहन राकेश को लेकर हम कब तक हिन्दी नाटक की डुगडुगी बजाएंगे.
-हमने पिछले दो दशकों में हिन्दी नाटक को गिरीश कर्नाड,ब.व..कारंत,विजय तेंडुलकर,बादल सरकार और विमल मित्र के बूतेपर बहुत खींच लिया....अब अगर हिन्दी नाटक को नई उम्र के दर्शक चाहिये तो नये सोच , परिवेश और समसामयिक स्थितियोंके नज़रिये से नाटक लिखे जाने चाहियें.
-क्या आप जानते हैं कि मराठी में लगभग हर महीने एक नया नाटक लिखा जा रहा है और दो नये नाटक मंचन के लियेतैयार हैं।
-मराठी/ गुजराती रंगमंच पर काम करने वाले कलाकार सिर्फ़ नाटक से जीविकोपार्जन कर पा रहे हैं....हिन्दी में ऐसी स्थिति बन ही नहीं पा रही।हिन्दी रंगकर्मी,टी।वी।सीरियल्स,इश्तेहार और फ़िल्म में काम किये बिना 'सरवाईव' ही नहीं कर पा रहा।जो इज़्ज़त,पैसा,वैभव और नाम मराठी/गुजराती/बांग्ला निर्देशक को मिलता है वह हिन्दी में लगभग गुम सा हो चला है...इसीलिये आपको हिन्दी नाटकों के निर्देशक अभिनय भी करते मिल जाएंगे।
-नाटक (मंच से परे) प्रबंधक जैसी कोई ची़ज़ हम हिदी वाले पैदा ही नहीं कर पाए। अभिनेताओं से ही चाय-पिलाने,खाना मंगवाने,प्रॉपर्टीज़ या वेशभूषा की जुगाड करने और तो और टिकिट बेचने का काम भी करवा लिया जाता है.....दीगर क्षेत्रों में इसके लिये ख़ास लोग होते हैं जो सिर्फ़ या तो अभिनय करते हैं या ड्रामा मैनेजमैंट देखते हैं।
- हिन्दी नाटकों के परिदृष्य को देखें तो राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (रानावि) को छोड़कर कोई ऐसा दूसरा संस्थान नहीं जो नए ख़ून को तैयार कर रहा हो....मराठी और गुजराती में ये स्थिति है कि वहाँ पर नियमित रूप से कार्यशालाएँ हो रहीं हैं,अभिनय सिखाने वाले वरिष्ठ रंगकर्मी,अभिनेता अभिनय/स्वर अभिनय की क्लासेस ले रहे हैं और रंगकर्मियों की नई जमाततैयार कर रहे हैं.....सिखाने वाले भी कमा रहे है और सीखने वालों को भी लाजवाब मशवरे मिल रहे हैं।
-शबाना आज़मी,राज बब्बार,जया बच्चन,अनुपम खेर,शत्रुघ्न सिन्हा,राकेश बेदी,सतीश शाह,परेश रावल,नसीरूद्दीन शाह सेलेकर राजपाल यादव , मनोज जोशी (इन दोनो के नाटक का एक चित्र भी साथ दे रहा हूँ) तक की पीढ़ी के कलाकार जिन स्क्रिप्ट्स को लेकर हिन्दी रंगमंच पर अवतरित हुए हैं वे ज़्यादातर हिन्दी धारावाहिकों या फ़िल्मों से प्रभावित रही हैं,नतीजा ये कि जब तक प्रोड्यूसर को बुकिंग मिल रही है / जब तक सितारा कलाकारों की डेटस मिल रहीं हैं तब तकनाटक है वरना फ़िर वही ढ़ाक के तीन पात।
-मराठी / गुजराती की बात बार बार इसलिये कर रहा हूँ या इन भाषाओं के रंग आंदोलन की बात इसलिये कर रहा हूँ क्योंकिइनकी प्रस्तुतियों पर एक नज़दीकी नज़र रहती है मेरी और मेरे कुछ रंगकर्मी मित्र इन ज़ुबानों की पेशकश में शिरक़त कर रहे हैं सो फ़ीडबैक मिलता रहता है।
-मराठी / गुजराती नाटकों के बारे में आपको जानकर हैरत होगी कि नये निर्देशक नये की बाक़ायदा खोज करते हैं....यदि कोई क़ाबिल लेखक मिल जाता है तो नाटक के कथानक पर रात-दिन चर्चाएँ करते हैं/मशवरे करते हैं औरसाथ बैठकर सीन दर सीन नाटक लिखते है।लिखते वक़्त ख़ासतौर पर नई पीढ़ी के रंग-दर्शकों का ध्यान रखा जाता है.
-मराठी नाटकों की प्रस्तुति की तो बात ही निराली है....सुन कर नाटके की ये अंतर्कथाएँ भी एक कथानक से कम नहीं लगतीं...जैसे पिछले दिनों एक नाटक सही रे सही चर्चाओं में रहा ...इसी की बात करें....सही रे सही के लिये वरिष्ठ दर्शक (सीनियर सीटिज़न)कैसे आकर्षित किये जाएँ इसके लिये सभागार की टिकिट खिड़की से हटकर चौपटी पर सुबह घुमने वाले वरिष्ठ नाट्यप्रेमियों के लिये एक स्टॉल चौपाटी पर सुबह पाँच बजे से ही लगा दिया जाता था। दोपहर में महिलाएँ ज़्यादा फ़ुरसत में होतीं हैं अत: एकविशेष शो महिलाओं के लिये ही किया गया जिसमें पुरूषों को प्रवेश वर्जित था. मज़ा देखिये जिस दिन ये शो था उस दिन भारत पाकिस्तान का वन डे क्रिकेट मैच था...आयोजकों को संशय था ; न जाने क्या होगा.लेकिन दाद देनी होगी मराठी रंगप्रेम की .....शो हाऊस फ़ुल.
खैर आप भी कहेंगे.....हिन्दी वाला होकर मुझे दूसरे की कटोरी में ज़्यादा ही घी नज़र आ रहा है ...लेकिन क्या करूं हिन्दी रंगकर्म की दुर्दशा देख दिल रो उठता है। ऐसा लगता है ओम शिवपुरी,सुधा शिवपुरी,अब्राहिम अल्काज़ी,दिनेश ठाकुर,सत्यदेव दुबे जैसे महान रंगकर्मियों का अवदान फ़िज़ूल ही चला जाएगा क्योंकि हम अपनी विरासत को बचाते हुएकुछ नया नहीं गढ़ सके तब तक हम हमारी संस्कृति और परंपरा के साथ न्याय कैसे कर पाएँगे.
क्या एक दिन विश्व रंगमंच दिवस मना लेने......कुछ तक़रीरें करने और कुछ वक्तव्य उछाल देने से हिन्दी रंगकर्म बच सकेगा.मुझे लगता है हम हिदी वालों को बात कम करनीं चाहिये......नाटक ज़्यादा.......आप क्या सोचते हैं ?
Monday, March 24, 2008
वाक़ई....अल्लाह के प्यारे बंदे हैं कैलाश खेर
नाटा क़द और उस पर तारी मोहक मुस्कान। आवाज़ की फेंक ऐसी ऊँची जहॉं जाकर दीगर आवाज़े बेसुरी हो जाएँ। खुरदुरी, बतियाती सी, शब्दों के पोशीदा राज़ खोलती सी आवाज़ हैं कैलाश खेर। शुरू में अनजानी सी ये आवाज़ अब जन-जन की आवाज़ बनती जा रही है। अभी हाल ही में कानों में मिठास घोल रहे गीतों के मुखड़े शो मी योर जलवा, बम लहरी, या रब्बा, दीवानी तेरी दीवानी, सैंया तो कानों पर छा रहे हैं। नये ज़माने के संगीत में पुरानेपन को महफ़ूज़ रखने में कैलाश खेर का नाम अव्वल होता जा रहा है। कैलाश खेर ने अपने अस्तित्व के लिये चमकीली फ़िल्मी दुनिया में खासी लड़ाई लड़ी और पॉंच बरस की इस यात्रा में कैलाश खेर हिन्दुस्तानी मिट्टी की ख़ुशबू वाली आवाज़ बन गए हैं।
कला यात्रा और जीवन के बारे में कैलाश खेर से जब बात हुई तो उन्होंने बहुत सकुचाते हुए कहा भैया कहॉं कुछ किया है मैने। मैं तो हिन्दुस्तान के क़स्बों की आम आवाज़ हूँ जो इस देश की अनेक आवाज़ों के ज़ज़्बे को लेकर माया नगरी मुंबई चला आया है। कैलाश खेर जब बोल रहे थे तो लग रहा था किसी सूफ़ी-दरवेश से बात हो रही है। उन्होंने बताया कि बचपन से संगीत का जुनून था और एक लपट अन्दर से मुझे जला रही थी जैसे कह रही हो निकल कैलाश। यहॉं से निकल। कैलाश खेर ने बताया प्ले ब्लैक में तो मुझे म्यूज़िक डायरेक्टर का हुक्म बजाना है। तो अपनी बात नहीं कहूँगा तो ज़िंदा कैसे रहूँगा ? सो बैण्ड बनाया कैलासा। नौजवानों ने शानदार रिस्पॉन्स दिया। खोसला का घोंसला (चक दे फट्टे) और सलामे इश्क़ (या रब्बा) हर जगह चर्चा में रहे।
कैलाश खेर इश्तेहारों के जिंगल्स गाकर अपनी संगीत यात्रा की शुरूआत करने वाले इस कलाकार के स्टेज शो हमेशा चर्चा में रहते हैं। कैलाश खेर फ़ख्र से बताते हैं कि हमेशा काया के भीतर से आवाज़ आती रही "तू किसी और लोक का वासी है।' मैं भागता रहा। मठों, मज़ारों, आश्रमों, साधुओं, पीर-औलियाओं के आस्ताने पर रात रात भर जाग कर गाता रहा । ये जो मेरी आवाज़ की रेंज सुनते हैं न आप, ये शायद इन सारे स्थानों से उठाकर माथे पर लगाई धूल का प्रताप है। कैलाश खेर बोले मैं तो बंजारा हूँ भैया। रोटी की तलाश में आज मुंबई डेरा डाले हूँ.... क्या मालूम कल आपको कहीं और मिलूँ। मालवा तो मेरे दादा गुरु का दरबार है (कैलाश खेर के गुरु हैं पं. मधुप मुदगल और मधुपजी के गुरु रहे हैं पं. कुमार गंधर्व) सो यहॉं आना मेरे लिये तीर्थ यात्रा जैसा है। सूफ़ी संगीत में जिसका मन रमता हो वह फ़िल्मी गीत क्यों गाता है ? कैलाश खेर बोले; बंधु ! मैं बहता नीर हूँ उस नदिया का जिसे इस बात की परवाह नहीं कि किनारे अच्छे हैं या ख़राब।
(चित्र में ख़ाकसार स्टेज शो के दौरान कैलाश खेर से बतियाते हुए.....ये शो इन्दौर में 16 मार्च को सम्पन्न हुआ/तस्वीर सौजन्य : रीगल फ़ोटो हाउस)
Thursday, March 20, 2008
होली की रंगत में विदूषी माया गोविंद का मीठा गीत.
माया गोविंद का नाम लेते ही मन में श्रृंगार गीतिकाव्य की उजली परम्परा का स्मरण हो आता है. मायाजी ने हिन्दी काव्य मंच परलम्बी पारी खेली है. उनका मधुर स्वर गीत की कहन का आकर्षण बढ़ाता आया है. हिन्दी चित्रपट गीतों के लिये भी मायाजी ने बेहतरीन गीत लिखे हैं. आईये होली की रंगत में पढ़ लीजिये मायाजी का ये मीठा गीत.
चोरी चोरी आये सॅंवरिया
पिचकारी मारी सर र र र र।
राधे रानी रोक न पाई
कहती रह गई अर र र र र।
निकट आये जब श्याम सलोने
पीछे-पीछे ग्वालों की टोली,
डार दियो नैनन से जादू
चतुर कन्हाई, राधे भोली।
चतुर कन्हाई, राधे भोली।
चुरियॉं बोलीं कर र र र र।
कान्ह बजावन लागे मुरली
राधा जैसी हो गई पगली,
उमड़ी जैसे उमड़ी बदली
लागे राधे, बदली-बदली।
झूम के नाची, खुल गई पायल
घुँघरू बिखरे छर र र र र ।
"लाल' चुनरिया खींची "लाल' ने
"लाली' "लाली' हो गई "लाली'
"लाल' गुलाल या लाल गाल हैं
किसने चुराई किसकी लाली।
प्रेम पगे राधा के नैना
रस बरसावें झर र र र र ।
Tuesday, March 18, 2008
अपने ब्लॉग पर लगा लें नसीहत का ये गुलाल !
सबसे पहले तो आपको निकट आ रहे रंगों के त्योहार की अनेक शुभकामनाएँ.
टीम एडराग ने यानी मेरे साथियों ने होली पर पानी की बर्बादी रोकने के उद्देश्य से ये दो पॉइंटर बनाए हैं......जारी कर रहा हूँ आपके लिये यानी ब्लॉगर बिरादरी के लिये.इसे कॉपी कर अपने ब्लॉग पर लगा लीजिये और उम्मीद कीजिये हम सूखे रंगों से होली खेलने का माहौल बना सकें...लेकिन ऐसा करने की शुरूआत तो आपको ही करना होगी...तो इस बार होली...सूखे रंगों से.....लेकिन भीगे मन से.
(इस शुभंकर का सत्वाधिकार : आपका अधिकार)
आपके भाल.....भावनाओं का ये गुलाल.
Monday, March 17, 2008
मार्च 1982 के धर्मयुग में गुलाब सिंह की एक भावपूर्ण कविता.
नन्हे का ख़त
भूले बिसरे लिखते
सिलसिले तमाम
नन्हे को ख़त
बड़के भइया के नाम !
इस चिट्ठी को जैसे
तार बाँचना
बहना को पालकी ओहार बाँचना
बापू की झूकी हुई मुछों का काँपना
अम्मा की आँखों की
हार बाँचना
सुबह शाम की लीकों
लिपटे भीतर-बाहर
हारे मनमारे से
सेहन - दालान
बौरायीं आँगन के आम की टहनियाँ
चढ़ते फागुन के
दिन चार बाँचना
गुमसुम बैठीं भाभी
टेक कर कुहनियाँ
कंधों पर उतरा अंधियार बाँचना
देखो जी !
यह ख़त भी अनदेखा मत करना
घर भर का राम - राम
गाँव का सलाम !
भूले बिसरे लिखते
सिलसिले तमाम
नन्हे को ख़त
बड़के भइया के नाम !
इस चिट्ठी को जैसे
तार बाँचना
बहना को पालकी ओहार बाँचना
बापू की झूकी हुई मुछों का काँपना
अम्मा की आँखों की
हार बाँचना
सुबह शाम की लीकों
लिपटे भीतर-बाहर
हारे मनमारे से
सेहन - दालान
बौरायीं आँगन के आम की टहनियाँ
चढ़ते फागुन के
दिन चार बाँचना
गुमसुम बैठीं भाभी
टेक कर कुहनियाँ
कंधों पर उतरा अंधियार बाँचना
देखो जी !
यह ख़त भी अनदेखा मत करना
घर भर का राम - राम
गाँव का सलाम !
Monday, March 10, 2008
क्या आपके शहर में है कोई बड़ी टीचर !
मेरे शहर में थीं...आज ही सवेरे उन्होंने पिच्यानवे बरस की उमर में आख़िरी साँस ली.नाम था उनका श्रीमती मैत्रयी पद्मनाभन. सन 1929 में इन्दौर आईं थीं . ब्याह हुआ था उनका शहर के जाने माने महाविद्यालय होल्कर कॉलेज के व्याख्याता श्री एन.पद्मनाभन साहब से. उल्लेखनीय है कि विश्व-विख्यात नृत्यांगना श्रीमती रूक्मिणीदेवी अरूंडेल पद्मनाभन साहब की बहन थीं.रूक्मिणीजी का नाम एक बार राष्ट्रपति पद के लिये भी चला था.
बहरहाल....मैत्रेयी उन चंद ख़ुशनसीब शिक्षाविदों में से थीं जिन्हे मैडम माँटेसरी जैसी महान शख्सियत का सान्निध्य मिला.चैन्ने से इन्दौर आने के पहले मैत्रेयी को एनी बसेंट की छाया में रहने का मौक़ा भी मिला और जब श्रीमती बसेंट थियॉसॉफ़िकल सोसायटी के काम में मसरूफ़ थीं इस तरह से मैत्रेयी के मन पर भी थियॉसॉकल भावधारा के प्रभाव पड़ा. शायद यही वजह थी किसी धर्म विशेष में संलग्न रहने के बजाय जीवनपर्यंत कर्मयोग की अनुगामिनी रहीं.
श्रीमती पद्मनाभन जब इन्दौर आईं थीं तब उनकी आयु थी मात्र 14 बरस.अंग्रेज़ी वातावरण और शिक्षा में परवरिश होने के बावजूद युवा मैत्रेयीने इन्दौर की आबोहवा ही नहीं , भाषा, खानपान और संकृति को तत्काल अपना लिया. 1942 में उन्हें अध्यापन का कार्य ऐसा भाया कि उन्होने इस पवित्र कामको अपनी ज़िन्दगी का मिशन बना लिया. शासकीय स्तर पर स्थापित किये गए संस्थान बाल विनय मंदिर में उन्होने मध्यम-वर्गीय परिवारों के बच्चों को अंग्रेज़ी माध्यम से न्यूनतम फ़ीस पर शिक्षित करने का बीड़ा उठाया और इस स्कूल को मध्य प्रदेश काश्रेष्ठतम शिक्षा संस्थान बना कर ही दम लिया. अब मैत्रेयी पद्मनाभन प्रदेश का जाना माना नाम बन चुका था और वे किसी के लिये बड़ी टीचर तो किसी के लिये अम्मा.1966 में बड़ी टीचर श्रेष्ठ शिक्षक के रूप में राष्ट्रपति सम्मान से नवाज़ीं गईं . डेली कॉलेज जैसे पब्लिक स्कूल जिसमें राजे - महाराजों के बच्चे ही शिक्षा पाते थे; के सामने बड़ी टीचर ने बाल विनय मंदिर में सहशिक्षा,बस सुविधा और भोजन सुविधा प्रारंभ कर शहर के शिक्षा परिदृष्य में धूम मचा दी.
सुबह सवेरे जीवन की शुरूआत करने वालीं बड़ी टीचर का कमरा किताबों और अपने विद्यार्थियों की नोट-बुक्स का कबाड़खाना था. आज के स्कूलों के प्रिंसीपल जब ए.सी कमरों में बैठ कर शिक्षा को एक इंडस्ट्री बनाने पर आमादा हैं (बना ही चुके हैं हुज़ूर)तब अपने जीवन के अंतिम दिनों तक बड़ी टीचर एक या दो सूती साड़ी पहन कर आनंदित रहतीं.अंतिम समय तक ख़ुद अपने हाथ से खाना पकातीं.
बड़ी टीचर को संगीत से बहुत लगाव था. जानना सुखद होगा कि पद्मनाभन दम्पत्ति ने ध्रुपद गायकी के अनन्य साधक और डागर बंधुओं से बाक़ायदा गंडा बधवा कर तालीम हासिल की. इन्दौर के एकाधिक सांगीतिक आयोजनों में यह संगीतप्रेमी जोड़ी हमेशा नज़र आती रहीं .
यूँ बड़ी टीचर चार बेटों की माँ रहीं लेकिन विभिन्न प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थानों के हज़ारों विद्यार्थियों को दीक्षित करने वाली बड़ी टीचर हज़ारों बच्चों की वात्सल्यमयी माँ हीं थीं.उनके तीन बेटे भारतीय सेना के जाँबाज़ सैनिक रहे . ज्यॆष्ठ पुत्र विंग कमांडर पी.गौतम उन (शायद एकमात्र) सैनिकों में से एक रहे हैं जिन्हें दो बार परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया. ये दुर्योग ही था कि सन 1971 के पाकिस्तान युध्द के बाद पालम हवाई अड्डे से एक ट्रायल फ़्लाइट के दौरान विंग कमाण्डर गौतम का विमान क्षतिग्रस्त हुआ जिसमें उनकी दु:खद मृत्यु हुई.
बड़ी टीचर में मौजूद एक वीर प्रसूता के जज़्बे की बानगी देखिये.....गौतम की मृत्यु के बाद एक अख़बारनवीस ने एक सैनिक की माँ की प्रतिक्रिया जाननी चाही तो बड़ी टीचर का जवाब था........काश गौतम हाल ही में समाप्त हुए भारत-पाक युध्द में मौत को गले लगाततो मैं कम से कम एक शहीद की माँ तो कहलाती.
बड़ी टीचर के तीसरे पुत्र श्री कृष्णा बनारस हिन्दू विश्व-विद्यालय में प्राध्यापक रहे हैंऔर विश्व-विख्यात दार्शनिक और आध्यात्मिक विभूति जे.कृष्णमूर्ति के अनुयायी हैं और जे . कृष्णमूर्ति के बह्मलीन होने के बाद उनकी विचारधारा और कार्यों का संपादन करते हैं.
अपने विध्यार्थियों को बब्बू बुलाने वाली 95 वर्षीय मैडम आज अपनी देह से मुक्त होकर परलोक सिधार गईं हैं.अपनी माँ के दिवंगत होने पर तो सभी की आँखों में आँसू आते हैं लेकिन जीवन की दीक्षा देने वाली अपनी अम्मा यानी बड़ी टीचर के लिये इन्दौर के हज़ारों विद्यार्थियों की आँखें इस दु:ख भरी ख़बर से डबडबा रहीं हैं आखिर बड़ी टीचर साक्षात सरस्वती माँ हीं तो थीं.
(चित्र में ख़ाकसार श्रीमती मैत्रेयी पद्मनाभन को आदर के फूल भेंट करते हुए....ये तस्वीर सन 2007 के विश्व बधिर दिवस की है )
Sunday, March 9, 2008
ऊर्दू शायरी परिदृष्य से अनायास ओझल हो जाना एक सितारे का !
दोस्तो...,मध्य-प्रदेश के पौराणिक शहर उज्जैन के शायर थे भाई अहमद कमाल परवाज़ी.विगत दिनो उनका इंतेक़ाल हो गया. साठ के आसपास के थे और बैंक मेंनौकरी किया करते थे. विगत दस - पन्द्रह बरसों में जो नाम म.प्र. केशायरी के परिदृष्य पर उभर कर आए हैं उनमें कमाल भाई वाक़ई कमाल के थे.जुदा अंदाज़ और लाजवाब कहन के उस्ताद अहमद कमाल परवाज़ी ने थोड़े हीसमय में मंच और अदब की दुनिया में एक आदरणीय मुकाम हासिल कर लिया था.आज मुशायरों में जिस तरह से फ़िरक़ापरस्ती की बात की जा रही है वे उससे ख़ासीदूरी रखते थे और ऊर्दू की ईमानदार ख़िदमत को इबादत का दर्जा देते थे.अहमद कमाल परवाज़ी के जाने से ग़ज़ल के मेयार से एक दमदार आवाज़ गुमहो गई है.उन्हें ख़िराजे अक़ीदत पेश करते हुए अपने संकलने से उनके अशआर आपकेलिये पेश कर रहा हूँ .....मुझे यक़ीन है कि उनका क़लाम पढ़कर आपखु़द ब ख़ुद इस बात का अंदाज़ा लगा लेंगे कि हमने किस पाये का शायर खोया है.
उनकी एक ग़ज़ल के दो शे'र:
छत पे सूरज को बुझाने के लिये मत आना
छत पे सूरज को बुझाने के लिये मत आना
मैं तो तेरे ही तसव्वुर की महक में गुम हूँ
तू मेरा ध्यान बँटाने के लिये मत आना
ये रंग देखिये.......
एक ही तीर है तरकश में तो उजलत न करो
ऐसे वक़्तों में निशाना भी ग़लत लगता है
(उजलत: जल्दबाज़ी)
एक ग़ज़ल के दो शे'र कुछ यूँ हैं.....
कहर गुज़रा तो अज़ाब आएंगे
नींद आई तो ख़्वाब आएंगे
क़त्ल कर देंगी नेकियाँ इक दिन
ख़ून पीने सवाब आएंगे
और ये अंदाज़ देखें कमाल भाई का.....
वो साफ़ बोलने वालों की जान ले लेंगे
मुकाम देने से पहले ज़ुबान ले लेंगे
मेरा सवाल है जो चार सौ कमाते हैं
वो कितने दिन में घर का मकान ले लेंगे
ये शे'र देखिये.......
रोशनी को और गहरा कर के देखा जाएगा
अब तेरा चेहरा अंधेरा कर के देखा
और अब आख़िर में..... अहमद कमाल परवाज़ी
की बेहद लोकप्रिय ग़ज़ल के अशाअर मुलाहिज़ा फ़रमाइये....
फ़कीरों से खुशामद की कोई उम्मीद मत रखना
अमीरे शहर तुम हो ये ज़हमत तुमको करना है
तुम्हारे फ़ैसले पर फ़ैसले सब छोड़ रख्खे हैं
अगर नफ़रत भी करना है तो नफ़रत तुमको करना है
हम अपना काम करते चले जाएंगे महफ़िल से
फ़िर इसके बाद ऊर्दू की हिफ़ाज़त तुमको करना है.
उनकी एक ग़ज़ल के दो शे'र:
छत पे सूरज को बुझाने के लिये मत आना
छत पे सूरज को बुझाने के लिये मत आना
मैं तो तेरे ही तसव्वुर की महक में गुम हूँ
तू मेरा ध्यान बँटाने के लिये मत आना
ये रंग देखिये.......
एक ही तीर है तरकश में तो उजलत न करो
ऐसे वक़्तों में निशाना भी ग़लत लगता है
(उजलत: जल्दबाज़ी)
एक ग़ज़ल के दो शे'र कुछ यूँ हैं.....
कहर गुज़रा तो अज़ाब आएंगे
नींद आई तो ख़्वाब आएंगे
क़त्ल कर देंगी नेकियाँ इक दिन
ख़ून पीने सवाब आएंगे
और ये अंदाज़ देखें कमाल भाई का.....
वो साफ़ बोलने वालों की जान ले लेंगे
मुकाम देने से पहले ज़ुबान ले लेंगे
मेरा सवाल है जो चार सौ कमाते हैं
वो कितने दिन में घर का मकान ले लेंगे
ये शे'र देखिये.......
रोशनी को और गहरा कर के देखा जाएगा
अब तेरा चेहरा अंधेरा कर के देखा
और अब आख़िर में..... अहमद कमाल परवाज़ी
की बेहद लोकप्रिय ग़ज़ल के अशाअर मुलाहिज़ा फ़रमाइये....
फ़कीरों से खुशामद की कोई उम्मीद मत रखना
अमीरे शहर तुम हो ये ज़हमत तुमको करना है
तुम्हारे फ़ैसले पर फ़ैसले सब छोड़ रख्खे हैं
अगर नफ़रत भी करना है तो नफ़रत तुमको करना है
हम अपना काम करते चले जाएंगे महफ़िल से
फ़िर इसके बाद ऊर्दू की हिफ़ाज़त तुमको करना है.
Saturday, March 1, 2008
क्या काम के हैं ये रंगीन पन्ने ?
बजट आया ...बजट आया...लो साहब आया और गया।
मेरी ज़िंदगी क्या फर्क पड़ा !
वही सुबह है ...वही शाम है
काम ही काम है
बड़ी बड़ी रपटें ....
रंगीन पन्ने
विश्लेषण ....बहसें...
चिंताएं
समीक्षाएं
वही नून...लकड़ी है
वही जवान होती लड़की है
उसके हाथ पीले करने की चिंताएं हैं
लड़का लग जाए काम पर तो समझो ...
गंगा नहाए हैं
बड़े-बडों के चोचले हैं
राजनेताओं के वादे बड़े पोपले हैं
ये लिखते हुए शाम हो गयी
फ़िर ज़िंदगी तमाम हो गई
खटते रहो .....पिसते रहो
नई सुबह की उम्मीद में
खदबदाते रहो
जिनके वारे - न्यारे हैं
उनका है बजट...उनकी है बचत
हमारे लिये तो बस यही एक आस है
बजट के चार रंगीन पन्नों की
रद्दी हमारे पास है
मेरी ज़िंदगी क्या फर्क पड़ा !
वही सुबह है ...वही शाम है
काम ही काम है
बड़ी बड़ी रपटें ....
रंगीन पन्ने
विश्लेषण ....बहसें...
चिंताएं
समीक्षाएं
वही नून...लकड़ी है
वही जवान होती लड़की है
उसके हाथ पीले करने की चिंताएं हैं
लड़का लग जाए काम पर तो समझो ...
गंगा नहाए हैं
बड़े-बडों के चोचले हैं
राजनेताओं के वादे बड़े पोपले हैं
ये लिखते हुए शाम हो गयी
फ़िर ज़िंदगी तमाम हो गई
खटते रहो .....पिसते रहो
नई सुबह की उम्मीद में
खदबदाते रहो
जिनके वारे - न्यारे हैं
उनका है बजट...उनकी है बचत
हमारे लिये तो बस यही एक आस है
बजट के चार रंगीन पन्नों की
रद्दी हमारे पास है
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