Monday, March 24, 2008

वाक़ई....अल्लाह के प्यारे बंदे हैं कैलाश खेर


नाटा क़द और उस पर तारी मोहक मुस्कान। आवाज़ की फेंक ऐसी ऊँची जहॉं जाकर दीगर आवाज़े बेसुरी हो जाएँ। खुरदुरी, बतियाती सी, शब्दों के पोशीदा राज़ खोलती सी आवाज़ हैं कैलाश खेर। शुरू में अनजानी सी ये आवाज़ अब जन-जन की आवाज़ बनती जा रही है। अभी हाल ही में कानों में मिठास घोल रहे गीतों के मुखड़े शो मी योर जलवा, बम लहरी, या रब्बा, दीवानी तेरी दीवानी, सैंया तो कानों पर छा रहे हैं। नये ज़माने के संगीत में पुरानेपन को महफ़ूज़ रखने में कैलाश खेर का नाम अव्वल होता जा रहा है। कैलाश खेर ने अपने अस्तित्व के लिये चमकीली फ़िल्मी दुनिया में खासी लड़ाई लड़ी और पॉंच बरस की इस यात्रा में कैलाश खेर हिन्दुस्तानी मिट्टी की ख़ुशबू वाली आवाज़ बन गए हैं।


कला यात्रा और जीवन के बारे में कैलाश खेर से जब बात हुई तो उन्होंने बहुत सकुचाते हुए कहा भैया कहॉं कुछ किया है मैने। मैं तो हिन्दुस्तान के क़स्बों की आम आवाज़ हूँ जो इस देश की अनेक आवाज़ों के ज़ज़्बे को लेकर माया नगरी मुंबई चला आया है। कैलाश खेर जब बोल रहे थे तो लग रहा था किसी सूफ़ी-दरवेश से बात हो रही है। उन्होंने बताया कि बचपन से संगीत का जुनून था और एक लपट अन्दर से मुझे जला रही थी जैसे कह रही हो निकल कैलाश। यहॉं से निकल। कैलाश खेर ने बताया प्ले ब्लैक में तो मुझे म्यूज़िक डायरेक्टर का हुक्म बजाना है। तो अपनी बात नहीं कहूँगा तो ज़िंदा कैसे रहूँगा ? सो बैण्ड बनाया कैलासा। नौजवानों ने शानदार रिस्पॉन्स दिया। खोसला का घोंसला (चक दे फट्टे) और सलामे इश्क़ (या रब्बा) हर जगह चर्चा में रहे।


कैलाश खेर इश्तेहारों के जिंगल्स गाकर अपनी संगीत यात्रा की शुरूआत करने वाले इस कलाकार के स्टेज शो हमेशा चर्चा में रहते हैं। कैलाश खेर फ़ख्र से बताते हैं कि हमेशा काया के भीतर से आवाज़ आती रही "तू किसी और लोक का वासी है।' मैं भागता रहा। मठों, मज़ारों, आश्रमों, साधुओं, पीर-औलियाओं के आस्ताने पर रात रात भर जाग कर गाता रहा । ये जो मेरी आवाज़ की रेंज सुनते हैं न आप, ये शायद इन सारे स्थानों से उठाकर माथे पर लगाई धूल का प्रताप है। कैलाश खेर बोले मैं तो बंजारा हूँ भैया। रोटी की तलाश में आज मुंबई डेरा डाले हूँ.... क्या मालूम कल आपको कहीं और मिलूँ। मालवा तो मेरे दादा गुरु का दरबार है (कैलाश खेर के गुरु हैं पं. मधुप मुदगल और मधुपजी के गुरु रहे हैं पं. कुमार गंधर्व) सो यहॉं आना मेरे लिये तीर्थ यात्रा जैसा है। सूफ़ी संगीत में जिसका मन रमता हो वह फ़िल्मी गीत क्यों गाता है ? कैलाश खेर बोले; बंधु ! मैं बहता नीर हूँ उस नदिया का जिसे इस बात की परवाह नहीं कि किनारे अच्छे हैं या ख़राब।


(चित्र में ख़ाकसार स्टेज शो के दौरान कैलाश खेर से बतियाते हुए.....ये शो इन्दौर में 16 मार्च को सम्पन्न हुआ/तस्वीर सौजन्य : रीगल फ़ोटो हाउस)

3 comments:

Unknown said...

वाकई अल्लाह के बन्दे हैं जी वे… बढ़िया जानकारी दी आपने,

Sanjeet Tripathi said...

नो डाउट!!
इस बन्दे की आवाज़ मे जो कशिश है माशाअल्लाह!!

anuradha srivastav said...

कैलाश की आवाज़ में मौलिकता है।