Thursday, March 27, 2008

हिन्दी नाटक ......बातें ज़्यादा.......नाटक कम (संदर्भ : विश्व रंगमंच दिवस : 27 मार्च )


आज विश्व-रंगमंच दिवस है। मेरे शहर इन्दौर के दो तीन अख़बारों ने हिन्दी नाटक को लेकर कई प्रश्न उठाए हैं.लेकिन एक बात तो कोई करना ही नहीं चाहता. हिन्दी नाटक की सबसे बड़ी परेशानी है दर्शक.जी हाँ हुज़ूर आप-हम.एक तो हम नाटक देखना नहीं चाहते ....और देखना भी चाहते हैं तो बिना पैसा चुकाए. हिन्दी नाटक न फ़ूलने-फ़लनेके कुछ ख़ास कारणों की तरफ़ आज तो कम से कम ध्यान जाना ही चाहिये......


-समकालीन हिन्दी नाटक आज रूंपातर पर जी रहा है.....गुजराती और मराठी में जैसा नया लेखन हो रहा है वैसा हिन्दी में हो ही नहीं रहा। अब सर्वेश्वरदयाल सक्सैना,मणि मधुकर,रमेश मेहता,मुद्रा राक्षस या मोहन राकेश को लेकर हम कब तक हिन्दी नाटक की डुगडुगी बजाएंगे.


-हमने पिछले दो दशकों में हिन्दी नाटक को गिरीश कर्नाड,ब.व..कारंत,विजय तेंडुलकर,बादल सरकार और विमल मित्र के बूतेपर बहुत खींच लिया....अब अगर हिन्दी नाटक को नई उम्र के दर्शक चाहिये तो नये सोच , परिवेश और समसामयिक स्थितियोंके नज़रिये से नाटक लिखे जाने चाहियें.


-क्या आप जानते हैं कि मराठी में लगभग हर महीने एक नया नाटक लिखा जा रहा है और दो नये नाटक मंचन के लियेतैयार हैं।


-मराठी/ गुजराती रंगमंच पर काम करने वाले कलाकार सिर्फ़ नाटक से जीविकोपार्जन कर पा रहे हैं....हिन्दी में ऐसी स्थिति बन ही नहीं पा रही।हिन्दी रंगकर्मी,टी।वी।सीरियल्स,इश्तेहार और फ़िल्म में काम किये बिना 'सरवाईव' ही नहीं कर पा रहा।जो इज़्ज़त,पैसा,वैभव और नाम मराठी/गुजराती/बांग्ला निर्देशक को मिलता है वह हिन्दी में लगभग गुम सा हो चला है...इसीलिये आपको हिन्दी नाटकों के निर्देशक अभिनय भी करते मिल जाएंगे।


-नाटक (मंच से परे) प्रबंधक जैसी कोई ची़ज़ हम हिदी वाले पैदा ही नहीं कर पाए। अभिनेताओं से ही चाय-पिलाने,खाना मंगवाने,प्रॉपर्टीज़ या वेशभूषा की जुगाड करने और तो और टिकिट बेचने का काम भी करवा लिया जाता है.....दीगर क्षेत्रों में इसके लिये ख़ास लोग होते हैं जो सिर्फ़ या तो अभिनय करते हैं या ड्रामा मैनेजमैंट देखते हैं।


- हिन्दी नाटकों के परिदृष्य को देखें तो राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (रानावि) को छोड़कर कोई ऐसा दूसरा संस्थान नहीं जो नए ख़ून को तैयार कर रहा हो....मराठी और गुजराती में ये स्थिति है कि वहाँ पर नियमित रूप से कार्यशालाएँ हो रहीं हैं,अभिनय सिखाने वाले वरिष्ठ रंगकर्मी,अभिनेता अभिनय/स्वर अभिनय की क्लासेस ले रहे हैं और रंगकर्मियों की नई जमाततैयार कर रहे हैं.....सिखाने वाले भी कमा रहे है और सीखने वालों को भी लाजवाब मशवरे मिल रहे हैं।


-शबाना आज़मी,राज बब्बार,जया बच्चन,अनुपम खेर,शत्रुघ्न सिन्हा,राकेश बेदी,सतीश शाह,परेश रावल,नसीरूद्दीन शाह सेलेकर राजपाल यादव , मनोज जोशी (इन दोनो के नाटक का एक चित्र भी साथ दे रहा हूँ) तक की पीढ़ी के कलाकार जिन स्क्रिप्ट्स को लेकर हिन्दी रंगमंच पर अवतरित हुए हैं वे ज़्यादातर हिन्दी धारावाहिकों या फ़िल्मों से प्रभावित रही हैं,नतीजा ये कि जब तक प्रोड्यूसर को बुकिंग मिल रही है / जब तक सितारा कलाकारों की डेटस मिल रहीं हैं तब तकनाटक है वरना फ़िर वही ढ़ाक के तीन पात।


-मराठी / गुजराती की बात बार बार इसलिये कर रहा हूँ या इन भाषाओं के रंग आंदोलन की बात इसलिये कर रहा हूँ क्योंकिइनकी प्रस्तुतियों पर एक नज़दीकी नज़र रहती है मेरी और मेरे कुछ रंगकर्मी मित्र इन ज़ुबानों की पेशकश में शिरक़त कर रहे हैं सो फ़ीडबैक मिलता रहता है।


-मराठी / गुजराती नाटकों के बारे में आपको जानकर हैरत होगी कि नये निर्देशक नये की बाक़ायदा खोज करते हैं....यदि कोई क़ाबिल लेखक मिल जाता है तो नाटक के कथानक पर रात-दिन चर्चाएँ करते हैं/मशवरे करते हैं औरसाथ बैठकर सीन दर सीन नाटक लिखते है।लिखते वक़्त ख़ासतौर पर नई पीढ़ी के रंग-दर्शकों का ध्यान रखा जाता है.


-मराठी नाटकों की प्रस्तुति की तो बात ही निराली है....सुन कर नाटके की ये अंतर्कथाएँ भी एक कथानक से कम नहीं लगतीं...जैसे पिछले दिनों एक नाटक सही रे सही चर्चाओं में रहा ...इसी की बात करें....सही रे सही के लिये वरिष्ठ दर्शक (सीनियर सीटिज़न)कैसे आकर्षित किये जाएँ इसके लिये सभागार की टिकिट खिड़की से हटकर चौपटी पर सुबह घुमने वाले वरिष्ठ नाट्यप्रेमियों के लिये एक स्टॉल चौपाटी पर सुबह पाँच बजे से ही लगा दिया जाता था। दोपहर में महिलाएँ ज़्यादा फ़ुरसत में होतीं हैं अत: एकविशेष शो महिलाओं के लिये ही किया गया जिसमें पुरूषों को प्रवेश वर्जित था. मज़ा देखिये जिस दिन ये शो था उस दिन भारत पाकिस्तान का वन डे क्रिकेट मैच था...आयोजकों को संशय था ; न जाने क्या होगा.लेकिन दाद देनी होगी मराठी रंगप्रेम की .....शो हाऊस फ़ुल.


खैर आप भी कहेंगे.....हिन्दी वाला होकर मुझे दूसरे की कटोरी में ज़्यादा ही घी नज़र आ रहा है ...लेकिन क्या करूं हिन्दी रंगकर्म की दुर्दशा देख दिल रो उठता है। ऐसा लगता है ओम शिवपुरी,सुधा शिवपुरी,अब्राहिम अल्काज़ी,दिनेश ठाकुर,सत्यदेव दुबे जैसे महान रंगकर्मियों का अवदान फ़िज़ूल ही चला जाएगा क्योंकि हम अपनी विरासत को बचाते हुएकुछ नया नहीं गढ़ सके तब तक हम हमारी संस्कृति और परंपरा के साथ न्याय कैसे कर पाएँगे.


क्या एक दिन विश्व रंगमंच दिवस मना लेने......कुछ तक़रीरें करने और कुछ वक्तव्य उछाल देने से हिन्दी रंगकर्म बच सकेगा.मुझे लगता है हम हिदी वालों को बात कम करनीं चाहिये......नाटक ज़्यादा.......आप क्या सोचते हैं ?


8 comments:

Manish Kumar said...
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Manish Kumar said...

अभी मुझे चाँद चाहिए पढ़ रहा था। वहाँ भी हिंदी रंगमंच की वही कहानी है जो आप अपनी इस पोस्ट में बयाँ कर रहे हैं यानि पिछले १२- १४ सालों से कोई बदलाव नहीं आया.

दर्शक आएँगे कहाँ से? हमारे इलाके बिहार झारखंड में तो ऍसा कल्चर पनपा ही नहीं नाटक देखने का।. व्यक्तिगत समूह बीच बीच में नुक्कड़ नाटकों के रूप में क्रियाशील होते हैं तो रोजी रोटी की चिंता देर सबेर उनके कार्य की निरंतरता को प्रभावित कर ही देती है। नाटकों की परंपरा को हिंदी भाषी क्षेत्रों में आम जन तक पहुँचाने के सरकारी प्रयास हुए ही कहाँ हैं। और कलात्मक रंगमंच बिना सरकारी सहायता के जीवित रह सकता है ये शायद संभव नहीं।

Udan Tashtari said...

रोचक आलेख...अभी अभी विश्व रंगमंच दिवस पर आयोजित एक कार्यक्रम से लौटा हूँ जहाँ मेरा ब्लॉगिंग पर आख्यान था..विवेचना रंगमंडल एवं प्रगतीशील लेखक संघ के तत्वाधान में. बहुत आनन्द आया.

सुनीता शानू said...

अच्छा लेख है संजय भाई...हिन्दी नाटक ही क्यों कवि मंच का हाल तो और भी बुरा है आज कवि कविता लिखते ही नही चुटकले सुना कर ही काम चलाते है या फ़िर दो-चार घीसी-पीटी कविता ही हर जगह सुनाते रहते है...

विजय गौड़ said...

जो बाते कहना चाहता था, आपने खुद ही कह दी. क्या दर्स्को का रोना रोकर रन्गकर्मी अपनी कमजोरी को च्हुपा सकते है ? नया स्च्रिप्ट, तय्यार करने के विशय मै कोई ओर सोचेगा? सहित्य ओर कला को क्योन एक साथ जोड कर नही देखना चाह्ते है रन्गकर्मी ?

Unknown said...

संजय जी आपने सब कुछ तो लिख ही दिया है, अब मैं ज्यादा क्या लिखूं। मुझे लगता है कि नाटक देखने-दिखाने में "संस्कार" और "अनुशासन" का भी थोड़ा महत्व है, साथ ही वरिष्ठ कलाकारों द्वारा दिया जाने वाला योगदान भी, जैसे कि आज भी निळु फ़ुले और सदाशिव अमरापुरकर महाराष्ट्र के ग्रामीण भागों में जा-जाकर नाटक के जरिये संदेश फ़ैलाते हैं (वह भी मुफ़्त में), जबकि वे लोग मराठी में "स्टार" का दर्जा रखते हैं। खुद प्रशान्त दामले (जो कि एक दिन में पाँच विभिन्न नाटकों के शो करने के कारण गिनिज बुक में हैं) को भी फ़िल्मों से ज्यादा मजा नाटक में आता है, कुछ ऐसा ही हिन्दी में करना होगा, साथ ही वरिष्ठ कलाकारों को "जमीन" पर उतरना होगा तभी हिन्दी नाटकों का कल्याण होगा।

आनंद said...

टी.वी. ने सबसे ज्‍यादा सत्‍यानाश किया है। मेरी मानो तो शाम छ: बजे से रात 10 बजे तक हर तरह के प्रसारण पर बैन लगा दो। इससे नाटकों की समस्‍या तो हल होगी है, और भी कई समस्‍याएँ हल हो जाएंगी।

विभास said...

priy sanjay bhai,

vishwa rangmach diwas per aapka blog padha... pehle to aap is baat k liye badhai k patra hain ki aap kala aur usse judi vidhaoon aur usse judi shakhsiyaton ki aham taarikho ko dhyan rakhta hai...

aapne blogs per marathi rangmanch ko leker jo baatein kahi hain usme sirf yahi jodna chaahunga ki kuch mahino pehle jab indore me maine smita tai talwalkar ka interview kiya tha jo marathi rangmanch ki ek kaddawar shakhsiyat hain to unhe mumbai aur pune me marathi rangmanch k badtar hote ja rahe haalat per apni baat kahi thi... maharashtra me parallel marathi cinema ko aage badhane k liye to rajya sarkar aarthik roop se madad kar rahi hai lekin marathi rangmanch ko ubarne k liye mote taur per koi prayas nahi ho rahe...