Monday, March 17, 2008

मार्च 1982 के धर्मयुग में गुलाब सिंह की एक भावपूर्ण कविता.

नन्हे का ख़त

भूले बिसरे लिखते
सिलसिले तमाम
नन्हे को ख़त
बड़के भइया के नाम !
इस चिट्ठी को जैसे
तार बाँचना
बहना को पालकी ओहार बाँचना
बापू की झूकी हुई मुछों का काँपना
अम्मा की आँखों की
हार बाँचना

सुबह शाम की लीकों
लिपटे भीतर-बाहर
हारे मनमारे से
सेहन - दालान
बौरायीं आँगन के आम की टहनियाँ
चढ़ते फागुन के
दिन चार बाँचना
गुमसुम बैठीं भाभी
टेक कर कुहनियाँ
कंधों पर उतरा अंधियार बाँचना

देखो जी !
यह ख़त भी अनदेखा मत करना
घर भर का राम - राम
गाँव का सलाम !

2 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

सुन्दर रचना प्रेषित की है।बधाई।

रजनी भार्गव said...

सुन्दर रचना। आभार सहित,