जानेमाने फ़िल्मकार कमाल अमरोही के सुपुत्र ताजदार अमरोही ने नब्बे के दशक में धर्मयुग में अपनी छोटी अम्मी यानी जानी मानी अदाकारा से अपनी पहली मुलाक़ात का भावपूर्ण बयान लिखा था. ग़नीमत की मुझे आज (मीनाकुमारी की बरसी : ३१ मार्च ) को सही सलामत हाथ लग गया।लेख लम्बा है उसका संपादित अंश यहाँ आपकी पेशे-नज़र है।
मैं कोई छह सात बरस का रहा होऊंगा जब मैने सुना कि बाबा (कमाल अमरोही) ने दूसरी शादी कर ली।ये सुन कर पाँव से ज़मीन खिसक गई कि मेरीसौतेली माँ फ़िल्मी हीरोइन है. अमरोहा के अर्जुन टाकीज़ में फ़िल्म लगी थी चाँदनी चौक जिसमें उस औरत ने काम किया था जिससे मेरे वालिद ने शादीकी है. मन में खलबली थी कि देखूँ तो सही आख़िर वह औरत है कैसी. दोस्तो के साथ थियेटर जा पहुँचा.बहरहाल अगल-बगल के लोगों से पूछा कि फ़िल्ममें मीनाकुमारी कौन सी हैं ? माशाअल्लाह ! वह तो निहायत ख़ूबसूरत थीं.
उन्हीं दिनों ख़बर मिली कि बाबा मुम्बई में बीमार हैं और मुझे अपने ताया के साथ उनकी मिज़ाजपुर्सी के लिये जाना है।लम्बे सफ़र के बाद मुम्बई पहुँचे.बाबाके घर पहुँचते ही मैने बाबा के कमरे में मौजूद बहुत सारी औरतों में से एक ने शायद अमरोहा से आए बच्चे की घबराहट को भाँप चुकी थी सो बड़े प्यारसे मुझे पुकारा और कहा इधर आओ बेटे॥मेरे पास....ये सब जो खड़ीं हैं ये सब तुम्हारी ख़ादिमाएँ (सेविकाएँ) हैं और मै हूँ तुम्हारी छोटी अम्मी.जैसे किसीदुल्हन की ठोडी उठा कर उसका चेहरा देखते हैं ठीक वैसे मेरी छोटी अम्मी ने मेरा चेहरा अपने हाथों में ले लिया. ये थी मेरी छोटी अम्मी से मेरी पहली मुलाक़ात.
मैं तक़रीबन आठ दिन मुम्बई में रहा और जब अमरोहा लौटने का दिन आया तो मै छोटी अम्मी से मिलने उनके कमरे में पहुँचा।वे आईने के सामने बैठींमेकअप कर रहीं थीं.मै उनके क़रीब गया और सलाम कर के कहा छोटी अम्मी इजाज़त दीजिये,अगर मुझसे कोई गुस्ताख़ी तो गई हो तो माफ़ कर दीजियेगा.मैं वापस जा रहा हूँ अमरोहा.अम्मी ने फ़ौरन अपना मेकअप छोड़ दिया और मुझे से मुख़ातिब होकर बोलीं क्यों जा रहे हो ?मैने कहा,बस छुट्टियाँ पूरी हो रहीं हैं वहाँ मुझे स्कूल जाना है.अम्मी बोलीं ...लेकिन स्कूल तो यहाँ भी बहुत सारे हैं.
अम्मी बोलीं ...लेकिन स्कूल तो यहाँ भी बहुत सारे हैं।मैं बोला...लेकिन मुझे तो यहाँ सिर्फ़ आठ दिनों के लिये भेजा गया था.अम्मी ने बनावटी ग़ुस्से से कहा....और अब अगर हम तुम्हें वापस न भेजें तो ....तो तुम क्या कर लोगे.मैंने कहा....क्या आप सचमुच मुझे नहीं भेजेंगी ?
ऐसा कह कर मैं फ़फ़क फ़फ़क कर रोने लगा। दर-असल इन आठ दिनों मैं छोटी अम्मी के लाड़ प्यार ने मुझे इस बात का अहसास करवा दिया थाकि सौतेली माँ न तो डायन होती है,न ज़िंदा जलाती है,न बच्चे को पीटती है,न भूखा मारती है ,न बाल पकड़ कर चूल्हे में डालती है,न आँखें फ़ोड़ती है,जैसा की मैने अमरोहा में सुन रखा था .....इन आठ दिनो में तो मै ख़ुद पर इतराने लगा कि कितनी अच्छी है मेरी छोटी अम्मी.छोटी अम्मी मुझे बाबा के पास ले आईं और कहने लगीं "चंदन (कमाल साहब को मीनाजी का संबोधन)मैं नहीं चाहती कि ताजदार मुंबई (तब बंबई)से वापस जाए".......बाबा ने झट से जवाब दिया......मंजू (मीनाजी को कमाल साहब का संबोधन)तुम जैसा ठीक समझो !
ये लेख काफ़ी बड़ा है और ब्लॉग लेखन की मर्यादा के मद्देनज़र इसके शेष भाग फ़िर कभी...आज तो बज़रिये ताजदार अमरोही मीनाकुमारी के कोमल मन की यात्रा तो हमने कर ही ली.
8 comments:
आज के दिन इस मर्मस्पर्शी लेख ने आँखें नम कर दीं. कृपया आगे भी विस्तार से लिखिए..
बहुत खूब संस्मरण खोजकर लाये हैं आप, मीनाकुमारी के बारे में सचिन (पिलगांवकर) ने भी कुछ लिखा है, वह मैं खोज रहा था, लेकिन नहीं मिला… बहरहाल इसे ही पढ़कर तृप्त हो लेते हैं…
मीना कुमारी जी के जीवन के इस पहलू से अवगत कराने का शुक्रिया।
बहुत ही अच्छा लगा यह पहलू मीना कुमारी जी के विषय में..और थोड़ा विस्तार दिजियेगा. आभार.
मीनाकुमारी पर ये आलेख आँख की कोर को भीगो देता है।
बालक ताजदार से उनका संवाद इस बात का ख़ुलासा करता है
उनके भीतर एक महान औरत हर वख़्त ज़िन्दा रहते थी। मीनाजी की स्मृति को सलाम ।
बेहतरीन लेख पढ़वाने का शुक्रिया।
बड़ा सुकोमल पक्ष सामने आया मीना जी का ..इसे प्रस्तुत करने के लिए आपका शुक्रिया संजय भाई ...
एक अप्रैल के दैनिक भास्कर में ख्यात फ़िल्म समीक्षक श्री जयप्रकाश चौकसे का स्तभ परदे के पीछे मीनाकुमारी को समर्पित है।कुछ बातें मर्मस्पर्शी बन पडीं हैं।पढिये………………
मीनाकुमारी 31 मार्च को अपनी लम्बी बीमारी के इलाज का बिल अदा न कर सकीं लेकिन चित्रगुप्त के दरबार में अपने जीवन का हिसाब-किताब का अंतिम लेखा-जोखा करने पहुँच गईं।भुगतान के लिये कोई भी रिश्तेदार आगे नहीं आया ; उनके ख़ाविंद
कमाल अमरोही का मानना था कि उनकी महजबीन (मीनाकुमारी का मूल नाम)दस साल
पहले उनका घर छोड चुकी है अत: उनकी कोई जवाबदेही नहीं बनती। वे भूल गये कि बरसों रूकी हुई पाकीज़ा में मीनाकुमारी ने बिना मेहनताने के काम किया था।
कभी कभी एक घूँट ब्राँडी पीने वाली मीनाकुमारी ने गुरूदत्त की साहेब बीवी और ग़ुलाम
में ऐसी बीवी की भूमिका अभिनीत की थी जिसे अपने पति को कोठों से निजात दिलाने
कि लिये शराब पीना पडती है।कालांतर में पति तो वापस आ जाता है परतु उसे शराब की लत लग जाती है।उस वक्त तक मीनाकुमारी बेतहाशा शराब पीने लगीं थीं।यह तो सुना है कि अच्छे कलाकार पात्र की त्वचा के भीतर प्रवेश कर विश्वसनीय अभिनय करते हैं परंतु मीना जी के इस प्रकरण में बीवी का पात्र ही कलाकार की आत्मा में प्रवेश कर गया।
मीनाकुमारी एक बेहद त्रस्त आत्मा थीं जिसे सारी उम्र भांति-भांति कि शोषण का शिकार
होना पडा।इस पैदाइशी कलाकार का कमाल देखिये कि वह बीमारी से निढाल/निर्जीव पडी रहती परतु शाट तैयार होते ही न जाने कहाँ से उनमें कलाकारों की शक्ति आ जाती
कैमरा उनके लिये शक्ति का स्रोत था।
गौरतलब है कि 31 मार्च 1972 को जब मीनाकुमारी की मौत हुई तब वें 39 बरस कीं थीं।एक छोटे से कालखंड मे शानदार अभिनय का पर्याय बन चुकी इस महान अदाकारा
को सलाम !
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