Tuesday, May 13, 2008

हारमोनियम के बेजोड़ कलाकार ….बंडू भैया चौघुले

पेटी (हारमोनियम) बजाने वाला वैसे भी मन ही मन में गाता है। बंदिशें तो उसके दिल-दिमाग़ में तब भी गाती रहती हैं जब वह सो रहा, घूम रहा या ख़ामोश बैठा हुआ होता है। हारमोनियम बजाने वाले की तासीर क्या हो शायद इसका "मॉडल' पेश करने के लिये ही ईश्वर ने श्री बंडू भैया चौघुले को धरती पर भेजा होगा। आज इन्दौर के इस मूक
सगीत साधक की बात अपने इस चिट्ठे पर करते हुए मन आदर से भरा हुआ है। सिंथेटिक होते संगीत के इस दौर में बंडू भैया को याद करना मेरे लिये किसी तीर्थ यात्रा जैसा है.


(एक दुर्लभ चित्र :बंडू भैया और मामा साहेब मुजुमदार<कुर्सी पर >
पीछे खडे हैं युवा कुमार गंधर्व)



स्व. माधवरावजी चौघुले के शिष्य-पुत्र बंडू भैया महू के रास्ते इन्दौर आ बसे। एकांतप्रिय, सरल, शुद्धचित्त और सहज बंडू भैया के पिता माधवरावजी पेटीवाले नाम से ज़्यादा जाने गए . बल्कि यह कहना बेहतर होगा कि पेटी वादन की परम्परा की एक परिपक्व पहचान में उनका योगदान कभी भी बिसराया नही जाएगा। कीर्तनों, भजनों में मन रमाने वाले माधवरावजी, होलकर रियासत (इन्दौर) में पनाह पाकर संतुष्ट थे। ज़िंदगी और संगीत दोनों को माकूल आसरा जो मिल गया। महाराज तुकोजीराव होलकर अनन्य संगीतप्रेमी थे। राजाश्रय से ही उस ज़माने में संगीत फलता-फूलता था। प्रायवेट, सामाजिक सांगीतिक संस्थाओं और प्रायोजन के सिलसिले तो बहुत बाद में शुरू हुए। मुराद ख़ॉं, इमदाद ख़ॉं, नत्थन ख़ॉं, रज्जब अली ख़ॉं, बशीर ख़ॉं, बुँदू ख़ॉं उस ज़माने के चर्चित और गुणी फ़नकार थे। विभिन्न महोत्सवों, ख़ासकर फागुन माह की बैठकें बाहर से बुलाई गायिकाओं से जलवाफ़रोज़ होतीं थीं। सॉंच को आँच नहीं; माधवरावजी का सच्चा और खरा काम पूजा जाने लगा .

माधवरावजी का इतना सारा ज़िक्र इसलिये ज़रूरी था कि यह जाना जा सके कि बंडू भैया किस थाती के मालिक थे। घर में कीर्तन, शास्त्रीय संगीत, भजन, नाट्य-संगीत यूँ पसरा पड़ा रहता था जैसे हम संसारियों के घर में अचार, चटनी, मुरब्बे और शरबत। घुट्टी में मिला संस्कार बालक कृष्णराव (बंडू भैया का नाम) को एक परिपक्व संगीतज्ञ बनाने में ख़ासा काम आया। उस्ताद रज्जब अली ख़ॉं, भास्कर बुआ बखले, केशवराव भोसले, सवाई गंधर्व, बाल गंधर्व, पं. मल्लिकार्जुन मंसूर, गंगूबाई हंगल,बेगम अख़्तर, हीराबाई बड़ोदेकर और उस्ताद अमीर ख़ॉं साहब की संगति करते हुए बंडू भैया ने अपने को तपाया। जुदा-जुदा घरानों, गायकी की विभि शैलियों और उसमें भी किये जा रहे प्रयोगों से बंडू भैया को अपनी कारीगरी को निखारने के अवसर स्वतः ही मिलते गए। बंडू भैया की शख़्सियत से यह बात अपने आप साबित हो जाती है और हिम्मत भी देती है कि एक तनहा आदमी बिना किसी लाग लपेट, लॉबिंग और लालच के अपना काम करता रहे तो क़ामयाबी उसकी चेरी बन दरवाज़े की चौखट पर प्रतीक्षा करती रहती है। क़ामयाबी को तलाशने दूर नहीं जाना पड़ता। न ही उसके लिये किसी तरह के छल-कपट का आसरा लेना पड़ता है जैसा कि आज के कई कलाकार कर रहे हैं। कलाकारों की संगति के साथ मौन और मित्रता का भाव धारण कर बंडू भैया अपनी पैठ गहरी करते गए। हालात यूँ बने कि इन्दौर आने वाला बड़ा से बड़ा कलाकार हारमोनियम के मामले में आश्वस्त रहता कि इन्दौर में संगति के लिये बंडू भैया हैं न!

इन्दौर में शास्त्रीय संगीत को स्थापित करने का पुण्य कार्य करने वाली अग्रणी संस्था अभिनव कला समाज की घड़ावन में पहली ईंट रखने वाले कलाकरों में बंडू भैया को बिसराना बेमानी होगा। अभिनव कला समाज की जाजम पर जिन कलाकारों की आमद हुई; उन्हें बंडू भैया की पेटी का पारस स्पर्श अवश्य मिला। कुमारजी को मामा साहेब मुजुमदार मालवे में ले ही आए थे। बंडू भैया और कुमारजी भी मिले, ख़ूब यारबाज़ बने और एक दूसरे के प्रशंसक भी। साठ के दशक में देवास से बंडू भैया को लिखे एक पत्र से इस बात की पावती मिलती है। आकाशवाणी के लिये एक कार्यक्रम में रेकॉर्डिंग के बाद कुमारजी टेप सुनकर लिखते हैं "बंडू भैया तूने कितनी सुंदर संगति की है। रेकॉर्डिंग सुनकर ही तुम्हें अंदाज़ लगेगा। पूरे कार्यक्रम में कहीं कोई सुर यहॉं-वहॉं नहीं हुआ। अब मुंबई-पुणे जाकर वहॉं संगति देने वालों को ये टेप सुनवाकर कहूँगा कि देखिये ऐसे होती है हारमोनियम संगत।' ऐसा था कुमारजी का सौजन्य-भाव और ऐसी थी बंडू भैया की क़ाबिलियत। मित्रों !

गुज़रे ज़माने के गुणी कलाकार दरअसल सज्जनता से लकदक थे। लंपट पना और हल्कापन उनके पास नहीं फटकता था। बंडू भैया भी आजीवन इन्हीं गुणों से महकते रहे। वह महक अखण्ड है; अमर है। न उनकी बातों से कभी कर्कश बात निकली, न बाजे से। घोर पीड़ा के क्षण हों या बाजे पर तार-सप्तक के सुर; बंडू भैया कभी बेसुरे नहीं हुए और न अपनी पेटी को होने दिया। बंडू भैया का ईमान, नेकी और इख़लाक पेटी में जा समाया और स्वरों की मिठास बंडू भैया में आ समाई। बंडू भैया ने साबित किया कि साधना, यश, घराना, गुरु-परम्परा और कलाकारी से बड़ी बात है बेहतर इंसान होना। जीवन-व्यवहार की मिठास बाजे की मिठास पर भारी हो तो कलाकार पूजा जाता है वरना गाना-बजाना तो बहुत से करते रहे हैं और कर रहे हैं। पेटी में हवा का भरना बंडू भैया के हाथ यूँ करते जैसे कोई योगीराज प्राणायाम में ओहम-सोहम कर रहा हो। न कहीं कोई प्रतिघात न कहीं कोई तनाव। हवा बाजे में श्वास की तरह सहजता से आती और वैसे ही विसर्जित हो जाती।

(कुमार जी के साथ एक महफ़िल में हारमोनियम पर संगति देते बंडू भैया)

संगति के साथ एकल वादन में बंडू भैया बेजोड़ थे। शास्त्रीय रागों, ठुमरियों के अलावा मराठी नाट्य संगीत वादन में वे विलक्षण थे। बंदिश की कहन हौले-हौले यूँ बढ़ती जैसे कोई पुजारी अपने ठाकुर का श्रृंगार कर रहा है। न किसी प्रकार की हड़बड़ी, न लयकारी की विचलित करने वाली गड़बड़ी। राग को सजाना कोई मशीनी काम नहीं। जैसे मंदिर में किसी सुंदर मूर्ति को सजाते वक्त पुजारी को यही सोचना पड़ता है कि ठाकुरजी स्वयं बिराजे हैं। वैसी ही तसल्ली से बाजे की रीड्स को सजाना पड़ता है। मानना पड़ता है कि राग अमूर्त नहीं। बंदिश, स्वर और ताल की अक्षत, रोली-चंदन और पुष्प मन की थाली में सजे हुए हैं। बोल व्यवहार, कलाकारी, आचरण और आहार की सादगी शुचिता से समृद्ध और बनावट से परे बंडू भैया का व्यक्तित्व कभी भी प्रशस्ति का मोहताज नहीं रहा। जो भी किया मनःपूर्वक। गृहस्थी, नौकरी या हारमोनियम वादन, सभी पूरी एकाग्रता और तन्मयता से। सिद्धहस्त होने के बावजूद एवं अपने वादन के शीर्ष समय में भी उनका वादन उतनी ही रंजकता या तत्परता से भरा रहा जैसे कोई शाग़िर्द के रूप में अपनी युवावस्था के दौरान होता है। आज जीवन और संगीत परिदृश्य में जिस तरह के बिखराव हैं उसके मद्देनज़र साधना के इन सोपानों को उघाड़ने की ख़ास ज़रूरत है और इसीलिये इतने विस्तार से बंडू भैया की कला, ज़िंदगी और कारीगरी को रेखांकित किया गया है। हमारी विरासतें ही हमें मनुष्यता के धरातल पर खड़ा रखती हैं। सुखद-स्वर्णिम अतीत का स्मरण किये बिना वर्तमान प्रेरणा और भविष्य प्रशस्ति से वंचित रहता है। संगीत और कलाएँ हाइटेक होती जा रही हैं लेकिन उसमें बंडू भैया चौघुले जैसे मूक साधकों के अवदान की चमक कभी मद्धिम नहीं होगी। हम उन्हें याद न करें तब भी नहीं। बंडू भैया को याद कर के हम अपने आप को ही धनी बना रहे हैं। वे तो अपना पक्का काम कर के चले गए। हमें जीवन के सुरों को साधना है, कर्म की "सम' सिरजना है और आनंदमय "भैरवी' के आलोक से समृद्ध होना है तो बंडू भैया जैसे तपस्वी की याद को बरक़रार रखना होगा।

4 comments:

VIMAL VERMA said...

बंडू भैया चौघुले के बारे में आपने जिस अंदाज़ में बताया वो काबिले तारीफ़ है....आप हमारे बीच संगीत के गहरे साधक हैं..हम तो आपके कायल है कि संगीत से जुड़े लोगों के बारे में कम से कम बहुत बारीकी से जानते है...और ये जानकारी हमारे साथ बांटते हैं...तबला,सितार,वीणा,शास्त्रीय गायकी के बारे मएं तो इधर उधर से जानकारी मिल ही जाती..पर चौघड़े साहब के बारे में बताकर बहुत अच्छा काम किया है....उनकी कोई रचना भी सुनवाते तो और आनन्द आ जाता...फिर भी आप से उम्मीद ये की जाती है संजय भाई कि इसी तरह लोगों के बारे में जानकारी देते रहियेगा।

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

बहुत सुँदर भावभीनी श्रध्धाँजलि दी आपने ,
एक गुणी, कलाकार की,
तप साधना को !
ऐसी ही आलेख पढकर
सार्थकता मिलती है
--- लावण्या

अजित वडनेरकर said...

संजय भाई , तर गए इस पोस्ट को पढ़ कर ।
ऐसे साधकों के बारे में जानकारी देकर आप सचमुच संगीत जगत की बहुत बड़ी सेवा कर रहे है।
किसी दायरे में न बांधें तो सच्ची समाज सेवा यही है। आभारी हूं आपका ।

sanjay patel said...

अनुगृहीत हूँ...आप सबका प्रतिसाद पाकर. मेरी पोस्ट बंडू भैया की पेटी से ज़्यादा सुरीली नहीं हो सकती ..