Thursday, November 27, 2008

विवाह समारोहों में ख़त्म हो रही आत्मीयता,बढ़ता जा रहा भौंडापन !


इन दिनों विवाह समारोहों की धूम रही. एक विचित्र बात इन समारोहों में ये देखने में आई कि सर्वत्र आर्थिक मंदी का ढोल बज रहा है लेकिन ब्याह-शादियों के ये प्रसंग इसका अपवाद ही कहे जाने चाहियें.बेतहाशा पैसा ख़र्च होता है इनमें.डेकोरेशन हो,संगीत हो या व्यंजन ; कहीं भी ऐसा नहीं लगता कि धंधा मंदा चल रहा है.

एक उद्योगपति परिवार में बेटी की शादी थी.रजनीगंधा के फूलों से स्टेज सजाया गया था. यक़ीन जानिये तक़रीबन बीस फ़ीट की हाइट थी उस बैकड्रॉप या मंच नैपथ्य की जिसके सामने दूल्हा-दूल्हन खड़े उपहार,आशीर्वाद क़ुबूल कर रहे थे.किसी ने कहा कि स्टेज डेकोरेशन ख़र्च में तो एक ग़रीब की बेटी के हाथ पीले हो जाते.

दूसरी एक शादी में शहर से तक़रीबन बीस किलोमीटर दूर जाना पड़ा.मेज़बान ने अपनी फ़ैक्ट्री के परिसर में ये आयोजन रचा था. मेरे शहर से दूर इस आयोजन स्थल के लिये जब जब मैं कार ड्राइव कर रहा था तो रास्ते में ग्रामीण बस्तियाँ भी पड़ रही .इन्हें गाँव नहीं कह सकता क्योंकि सड़क के किनारे बसी इन बस्तियों में बमुश्किल आठ – दस घर नज़र आ रहे थे. एक के आगे अच्छी रोशनी थी. कार धीमी कर ली मैंने.देखा तो घर के दालान में तीस-चालीस महिलाएँ रंग-बिरंगे परिधान में सजी बैठी हैं.दस-बीस पुरूष भी हैं.एक कोने में खटिया पर दुल्हन अपनी सखियों के संग बैठी हैं.गीत गाए जा रहे हैं और गूँज रही है मालवी ढोल की आवाज़. कुछ महिलाएँ उस पर पारम्परिक नृत्य कर रहीं हैं.हर एक के चेहरे पर मस्ती छाई है. आर्थिक रूप से बहुत ग़रीब भी नहीं दीख रहा है वह परिवार पर फ़िज़ूल की शानो-शौक़त भी नहीं नज़र आ रही.मन इस दृश्य को देख कर तृप्त सा है कि हमारा देश और उसकी सच्ची संस्कृति तो जैसे यहीं पसरी पड़ी हो.पूरे परिवेश में मिट्टी की महक है और अपनापन जैसे पूरे शबाब पर है. मैंने अपने बेटे-बेटी और पत्नी से कहा देखो ये रही शादी ब्याह की सच्ची ख़ुशी और रंगत.

गाड़ी आगे बढ़ा ली है मैने , दूर जो जाना है. अंधेरे में शायद पहली बार ख़ुद कार ड्राइव कर के अपने शहर से इतनी रात गए निकला हूँ. अब नज़र आ रहा है कुछ उजाला और
चमचमाती हुई कारें. आ पहुँचा हूँ उद्योगपति मित्र के विवाह प्रसंग में जहाँ आज संगीत की रात है. गाड़ी से उतरा हूँ तो देखता हूँ सिक्युरिटी वालों ने मुख्य द्वार पर स्वागत किया है. घराती नदारद हैं.परिसर में पहुँचते हैं देखता हूँ कि लाखों रूपये ख़र्च कर के सजावट की गई है. मुबंई से एक नर्तक दल आया है और कानफ़ोडू डीजे पर अंग्रेज़ी संगीत की धूम है. परिसर में एक स्टेज पर ये सब चल रहा है. भड़कीली ड्रेस में एक एंकर पर्सन लड़की नकली हँसी से माहौल में उत्तेजना बढ़ा रही है. गाना-बजाना चल रहा है. मेज़बान और मेहमान इस चकल्लस के मज़े ले रहे हैं.ट्रे में शराब के ग्लास और स्नैक्स लेकर वैटर्स घूम रहे हैं.आसमान में अब आतिशबाज़ी भी शुरू हो गई है.हम काफ़ी देर तक इस धूमधाम में परिवार के मुखिया या उनकी पत्नी को ढूँढ रहे हैं लेकिन निराश ही होते हैं. डांस पार्टी में वह खीं खीं करती लड़की दूल्हे और उसके मित्रों और परिजनों को मंच पर बुला कर नचा रही है.पूरा मजमा है कि आनंद में चूर है.लगभग पौन घंटा ये नौटंकी देखने के बाद मेरा परिवार महसूस करता है कि अब खाना खा लेना चाहिये वरना घर लौटने में देरी हो जाएगी.खाना एक दूसरे लॉन में है. वहाँ चले आए हैं हम. तरह तरह के व्यंजन महक रहे हैं.प्लेट उठाते हैं और खा –पीकर चले आए हैं हम अपनी गाड़ी में. न किसी से नमस्कार हो पाई है,न किसी ने पूछा है कि आपने खाना खाया या नहीं और न ही हम दूल्हे से मिल कर मुबारक़बाद दे पाए हैं.मेरा बेटा एक भोला सा प्रश्न उछाल देता है डैडी ऐसे तो हम किसी की भी पार्टी में भी जा सकते हैं, खाना खा सकते हैं ; चाहे उसने हमें बुलाया हो या न हो. मुझे लग रहा है कि इस तरह के बेफ़िक्र और बेख़बर मेज़बानी के बारे में बेटे का आकलन ठीक ही है.

अब हम सड़क पर आ गए हैं और फ़िर उन्हीं ग्रामीण बस्तियों से गुज़रते हुए शहर की तरफ़ लौट रहे हैं.वही ब्याह वाला घर आ गया है. अभी भी वहाँ चहल –पहल है. उसी दालान में जिसे मालवा में ओटला कहा जाता है सारे मेहमान और मेज़बान बैठे हैं.पंगत लगी है.सादा सा खाना नज़र होता है ऐसे आयोजनों में जिसमें आम तौर पर सब्ज़ी,पूड़ी,नुक्ती(बूँदी)रायता,दाल,सेंव,भजिये आदि व्यंजन होते हैं.ढोल अब भी बज रहा है लेकिन थोड़ा आहिस्ता जिससे खाने में ज़्यादा ख़लल न पड़े.परिजन मनुहार कर कर के खाना परोस रहे हैं.सादगी का जमावड़ा है.हँसे है, ठहाके हैं.कोई ख़ास तामझाम नहीं लेकिन लग रहा है कि इन व्यंजनों के साथ प्रेम की मदभरी पवन उस परिवार के आंगन में थिरक रही है.मैं मन ही मन सोच रहा हूँ जहाँ हम गए थे वहाँ इस प्रेम का पारावर क्यों न था. क्या हमारा समाज दिखावे और भौंड़ेपन में ज़्यादा रस लेने लगा है.क्या अपनापन,आत्मीयता,ख़ुलूस,परम्परा,विरासत और संस्कार जैसे शब्द बेमानी होते जा रहे हैं.घर लौटने के बाद पूरी रात सो नहीं पाया हूँ मैं,सोच रहा हूँ हम क्या थे और क्या हो गए....कल न जाने क्या होंगे.

Monday, November 10, 2008

गुणीजनों हो सके तो मुझे माफ़ करना.

मुझे क्या आता है ?

भीमसेन जोशी के भारतरत्न होने पर एक आदरांजलि
शब्दों का अतिरेकी जंजाल और सुने सुनाए संस्मरण
वह तो नहीं आता जो पंडितजी के कंठ से झरता है

रज़ा के रचना संसार और उनकी कूँची का प्रवाह
जिसकी समीक्षा कर मैं आत्मप्रवंचना से भर जाता हूँ
वह तो नहीं आता जो रज़ा साहब के ब्रश से बहता है

मेहंदी हसन की ग़ज़लों पर उस्तादी दिखाता मेरा क़लम
जिसकी तारीफ़ का क़िला बना कर मैं इठलाता हूँ
वह तो नही आता जो उस्ताद के गले में हरक़त करता है

बिरजू महाराज के कथक से आलोकित होता मंच
जिसकी वाह वाह से कर देता हूँ मैं किसी पत्रिका के पन्ने काले
वह तो नहीं आता जो महाराजजी की परनों और तोडों में थिरकता है

ज़ोहरा अंबालेवाली और अमीरबाई के गीतों में सिरजता माधुर्य
जिसमें सजी धुन का तबसिरा कर मैं झूम जाता हूँ
वह तो नहीं आता जो उनके तीन मिनट के करिश्मे में सुनाई देता है

एम.एस.सुब्बुलक्ष्मी के पावन स्वर में स्पंदित होता मार्दव
जिसे सुन मैं ध्यान मग्न हो एक कविता गढ़ देता हूँ
वह तो नहीं आता जो उनके कंठ से बहे शब्द को प्रार्थना बना देता है

पंडितजी,उस्तादों,विदूषियों,नृत्याचार्यों और चित्रकारों का किया कराया
सब को बता कर मैं भांड-मिरासियों के गौत्र का वंशज ही तो बन रहा हूँ
इन सब कला-साधकों का ज़र्रा भी बन न सकूँगा मैं अगले दस जन्मों में
तो फ़िर अकड़ता हूँ किस बात पर,किस औक़ात पर
गुणीजनों हो सके तो मुझे माफ़ करना.

Monday, October 6, 2008

श्रोता की खसलत कार्यक्रम का सत्यानाश कर देती है !

बात थोड़ी लम्बी कह गया हूँ ; यदि दस से पन्द्रह मिनट का समय दे सकते हैं तो ही इसे पढ़ें.हाँ इस पोस्ट में व्यक्त किये गए दर्द को समझने के लिये एक संगीतप्रेमी का दिल होना ख़ास क्वॉलिफ़िकेशन है.

बीते तीस बरसों से तो मंच पर बतौर एक एंकर पर्सन काम कर ही रहा हूँ और उसके पहले भी संगीत की महफ़िलों में जाने का जुनून रहा ही है. सौभाग्याशाली हूँ कि पिता और दादा की बदौलत संगीत का भरापूरा माहौल घर-आँगन में ही मिलता रहा.अब जब से मैं ख़ुद एंकर या सांस्कतिक पत्रकार के रूप में सक्रिय हुआ तब से भाँति भाँति के कलाकारों और उससे भी ज़्यादा सुनने वालों से मिलने,बतियाने और विभिन्न कलाकारों और गायन/वादन की कला के बारे में समझने का अवसर मिल रहा है.संगीत विषय पर पढ़ता भी रहता हूँ सो अच्छा ख़ासा समय संगीत के इर्द-गिर्द चला जाता है या यूँ कहना बेहतर होगा कि मेरे इर्द-गिर्द संगीत होता है.मंच से परे भी कार्य-स्थल और निवास पर भी तक़रीबन पूरे दिन संगीत का संगसाथ बना रहता है.देश के कई कलाकारों से भी लगातार संपर्क में रहता हूँ सो तब भी संगीत की ही चर्चा होती रहती है. यहाँ तक जो बात मैने कही है उसे पढ़कर आपको लग रहा होगा कि मैं आत्ममुग्ध हो अपने को ही महिमामंडित कर रहा है.जी नहीं हुज़ूर नाचीज़ को इस तरह की कोई ग़लतफ़हमी नहीं है कि मैं कोई बड़ा कारनामा कर रहा हूँ ;मामला इतना भर है संगीत मुझे ऑक्सीजन देता है और मुझे इंसान बनाए रखता है. दर असल में कहना कुछ और चाहता हूँ

बहुतेरे अवसरों पर जिन संगीतप्रेमियों से मुलाक़ात होती है उनमें कुछ विशिष्ट प्रजाति के होते हैं.हाँ यह साफ़ करता चलूँ और स्वीकार कर लूँ कि संगीत बहुत सब्जेक्टिव टर्म है यानी तरह –तरह के लोग और तरह तरह् की पसंद.लेकिन अपनी पसंद से भी जो लोग किसी महफ़िल में आते हैं तो वहाँ भी एक विशिष्ट क़िस्म की अतृप्तता महसूस करते हैं.कहने को म्युज़िक सर्कल्स में ये लोग अपने आप को सुर-सुजान कहलवाना पसंद करते हैं लेकिन तबियत में विशिष्ट खसलत लिये हुए होते हैं.उदाहरण के लिये एक सज्जन हैं जो चाहे शायरी की महफ़िल में हों या संगीत की;हमेशा अपनी फ़रमाइश लेकर खड़े हो जाते हैं....एक आयटम ख़त्म हुई; कहेंगे...गिरिजाजी (विदूषी गिरिजा देवी)आज भैरवी ठुमरी के पहले एक चैती ज़रूर होना चाहिये ! ग़ज़ल की महफ़िल है तो जगजीतजी (जगजीत सिंह) आविष्कार फ़िल्म का आपका और चित्राजी वाला बाबुल मोरा सुना दीजिये न प्लीज़....प्रहलादसिंह टिपानिया ने अच्छा-भला माहौल बना रखा है कबीरपंथी गीतों का और आप श्रीमान खड़े हो गए...पेलाद दादा हलके गाड़ी हाँको रे रामगाड़ीवाला सुना दीजिये न ! कलापिनी कोमकली गा रही है जैजैवंती से समाँ बंध गया है और उन्होनें तानपूरे के तार भैरवी के लिये मिलाना शुरू किया ही है और आप जनाब नमूदार हुए हैं महफ़िल में और कहेंगे ...मैडम ! कुमारजी का झीनी झीनी झीनी रे चदरिया तो हुआ ही नहीं......कई बार तो कलाकार सहज होकर उनकी बात सुन लेता है लेकिन कई बार कार्यक्रम ऐसा बेमज़ा होता है कि फ़िर उसके सुरीले होने की आस बाक़ी ही नहीं रहती. तो ये तो हुए मुफ़्त के फ़रमाइशीलाल.जैसे कलाकार सिर्फ़ और सिर्फ़ इन्हें ही अपनी रचनाएँ सुनाने यहाँ आया है.

अब एक दूसरी ब्रीड ऐसी है जो थोड़ी सी सुरीली खसलत वाली है. इनका मामला कुछ यूँ है कि ये श्रीमान गाते हैं...ठीक ठाक ही गाते हैं लेकिन किसी और का गाया पसंद नहीं करते.जैसे पुराने गीतों के किसी कार्यक्रम में बैठे हैं;समझ लीजिये मुकेश या रफ़ी साहब की याद में कोई कार्यक्रम चल रहा है तो ये सभागार में ही अच्छा भला गा रहे गायक की मज़म्मत कर देंगे.यार ! खोया खोया चाँद में रफ़ी साहब वाला फ़ील नहीं आ रहा,नहीं नहीं; मुकेशजी ने सारंगा तेरी याद में ... ऐसे नहीं गाया है अब साहब बताइये रफ़ी और मुकेश वाला ही फ़ील कहाँ से आयेगा,वह तो इन दो महान कलाकारों के साथ ही चला गया न .बात यहीं ख़त्म हो जाती तो ठीक , श्रीमान सभागार में ही पास वाली सीट पर बैठी अपनी श्रीमती को खोया खोया चाँद गाकर सुना रहे हैं;गोया याद दिलाना चाहते हों कि ऐसा था रफ़ी/मुकेश की गायकी का फ़ील (?)पास वाले भी झेल रहे हैं इस (बे)सुरीलेपन को.

एक और ज़ात है इन सुर-सुजानों की , हमेशा किसी आर्टिस्ट को किसी दूसरे से कम्पेयर करेंगे यानी उसकी दूसरे से तुलना करेंगे. जैसे अभी पं.जसराज मेरे शहर में आए थे , लाइव शो था और सुनने वाले थे तक़रीबन दस हज़ार.जैसे ही पहली रचना ख़त्म की श्रीमान मेरे पास आ गए ; यार तुम कैसे झेल पा रहे हो इस शोर शराबे में पंडितजी का गायन (जनाब को मेरी तासीर मालूम नहीं कि मैं तो पण्डितजी जैसे महान कलाकार को सुनने नहीं; देखने के लिये भी भरे बाज़ार में चला जाऊँ) मैंने कहा क्यों ? क्या हुआ ? नहीं यार अपने यहाँ दस साल पहले शरद पूर्णिमा पर भीमसेन जी आए थे; याद है ? मैने कहाँ हाँ ! आहा हा हा...क्या रंग जमा था भिया (मेरे शहर में भैया को भिया कहते हैं) वह बात नहीं बना पाए हैं जसराज आज . क्या लचर गा रहे हैं . मैने उनसे बहस करना ठीक नहीं समझा और मशवरा दिया कि ये तो आजकल ऐसा ही गा रहे हैं,शहर में विख्यात गायक शान का लाइव शो भी चल रहा है , सुना है वहाँ काफ़ी रंग जम रहा है. भाई साहब बोले क्या बात कर रहे हो..जगह मिल जाएगी, मैने कहा हाँ शायद मिल ही जाए,आप एक बार ट्राय तो कीजिये....सुर सुजान चलते बने और मैने राहत की साँस ली.अब आप बताइये कितना ग़लत है किसी कलाकार की गायकी की किसी और से तुलना करना.सबका अपना अपना रंग है,घराना है,गुरूजन अलग अलग हैं,परम्पराएँ भी अलग.
पर नहीं उनको तो जसराज जी में भीमसेन जी का रंग चाहिये.मज़ा ये है कि भीमसेन जी से पूछिये तो वे जसराजजी की तारीफ़ करेंगे और जसराज जी के सामने भीमसेनजी की चर्चा चलाइये तो वे कहेंगे भीमसेनजी की क्या बात है.

इसी स्टाइल में एक और गौत्र वाले साह्ब भी हैं . वे क्या करते हैं कि जैसे आज प्रभा अत्रे को सुन रहे हैं तो कहेंगे भाई साहब पिछले साल पुणे के सवाई गंधर्व में जो इन्होंने बागेश्री सुनाई थी वह बात आज सुनाई नहीं दे रही है.मैं सोचता हूँ कि ये ऐसी बेवकूफ़ी की बात क्यों कर रहे हैं .हर दिन अलग होता है, मूड अलग होता है , आख़िर कलाकार भी तो इंसान है.याद आ गई उस्ताद बिसमिल्ला ख़ाँ साहब से बरसों पहले स्पिक मैके की वह महफ़िल जब ख़ाँ साहब बोले थे राग, रसोई , पागड़ी(पगड़ी) कभी-कभी बन जाए. बाद में समझ में आया कि श्रीमान आपको बताना चाहते हैं कि पिछले साल भी ये भी सवाई गंधर्व समारोह सुनने पुणे गए थे.


आज ये आलेख लिखते लिखते मुझे मेहंदी हसन साहब की याद आ गई. बरसों पहले वे एक शो के लिये मेरे शहर में तशरीफ़ लाए थे .शो का समय था रात आठ बजे का. ख़ाँ साहब साढ़े छह बजे आ गए,साज़ मिलवा लिये यानी ट्यून करवा लिये,साउंड का बेलेंसिंग कर लिया और फ़ारिग़ हो गए तक़रीबन सात बजे.फ़िर मुझसे कहा कोई कमरा है ग्रीन रूम के पास ऐसा जो ख़ाली हो,मैने पूछा क्या थोड़ा आराम करेंगे ? बोले नहीं शो शुरू होने के पहले जब तक मुमकिन होगा ख़ामोश रहना चाहता हूँ.मैं उन्हें एक कमरे में ले गया.वहाँ दरवाज़ा भीतर से बंद कर बैठा ही था तो बाहर से किसी ने खटखट की.दरवाज़ा खोला तो सामने आयोजन से जुड़े एक शख़्स खड़े थे , बोले कमिश्नर साहब आए हैं मिलना चाहते हैं मेहंदी हसन साहब से.मैने कहा वे अब शो प्रारंभ होने तक बोलेंगे नहीं , आप उन्हें शो के बाद मिलवाने ले आइये मैं ज़िम्मेदारी लेता हूँ कि ख़ाँ साहब से मिलवा दूँगा.जनाब कहने लगे आप समझते नहीं हैं साहब उखड़ जाएंगे,मैने कहा कहाँ हैं साहब और कमिश्नर से मिलने चला. मैने उन्हें हक़ीक़त बताई; वे एक संजीदा इंसान थे,बोले नहीं मैं नहीं मिलना चाह रहा, मेरी बेटी को ऑटोग्राफ़ चाहिये था.मैने उनकी बेटी की ऑटोग्राफ़ बुक ली और आश्वस्त किया कि उनका काम हो जाएगा.वे तसल्ली से श्रोताओं में जाकर बैठ गये.कमरे में लौटा तो देखा उस्तादजी जैसे ध्यान मुद्रा में बैठे थे. आँखों से अश्रु बह रहे थे. ख़ाँ साहब की टाइमिंग देखिये ठीक पौने आठ बजे उन्होंने आँखें खोलीं और मेरी तरफ़ देख कर मुस्कुराए; कहने लगे चलें जनाब दुकान सजाएँ.मैंने कहा हाँ चलते हैं लेकिन ख़ाँ साहब ये पैतालिस मिनट की ये ख़ामोशी क्या थी. बोले भाई मेरे आज जो जो ग़ज़ले गाने का मन बनाया है उनके मुखड़ों से दुआ-सलाम कर रहा था.फ़िर मैने पूछा कि इस दौरान आँखें क्यों भींज गईं थी आपकी ?ख़ाँ साहब बोले हाँ भाई उस वक़्त ख़ुदा का शुक्रिया अदा कर रहा था कि परवरदिगार तू कितना रहमदिल है कि मुझ नाचीज़ से मौसीक़ी के ज़रिये अपनी ख़िदमत करवा रहा है.सोचिये मेहंदी हसन साहब जैसा बड़ा आर्टिस्ट भी अपने आप से गुफ़्तगू के रूप में थोड़ा सा होमवर्क करना चाहता है.ऐसे में कोई सिरफ़िरा श्रोता एक महान कलाकार का ये नाज़ुक वक़्त चुरा कर कितना बड़ा पाप कर सकता है.कहने की ज़रूरत नहीं कि वह रात मेहंदी हसन साहब की गायकी की एक आलातरीन रात थी.ऐसी जो कभी कभी गाई जाती है बड़े नसीब से सुनने को मिलती है.

मुझे लगता है कि श्रोता हर तरह से अपनी पसंद/नापसंद तय करने का अधिकार रखता है . बल्कि ये उसका हक़ है लेकिन सच्चा और खरा श्रोता सजग,संवेदनशील और सह्रदय होता है..वह जानता है न जाने कितने तप और रियाज़ के बाद कोई कलाकार अपनी प्रस्तुति को लेकर पूरी उम्मीद के साथ आपसे रूबरू होता है. आपकी थोड़ी सी भी नासमझी कलाकार के पूरे मूड को बिगाड़ सकती है. अब बताइये साहब कि संगीत की महफ़िल में कोई बड़बोला , फ़रमाइशीलाल अपनी कोई फ़रमाइश लेकर कलाकार को डिस्टर्ब कर दे तो क्या हो.या कोई फ़ैन ऑटोग्राफ़ लेने के लिये गायक को परेशान करे ये तो ठीक नहीं.ईमानदार श्रोता वह है जो रहमदिल होकर कलाकार की तपस्या का मान करे और सह्र्दय होकर उसकी कला को दाद देकर उसे नवाज़े; उसका हौसला बढ़ाए.


कभी ठंडे दिल से सोचियेगा कि क्या मै ठीक कह रहा हूँ.

Sunday, September 28, 2008

इठलाइये उन गीतों के लिये जिनमें लता की आत्मा का वास है.



कभी कभी गंगा घर चल कर आ जाती है. हुआ यूँ कि 27 सितम्बर की शाम को इन्दौर में लता दीनानाथ ग्रामोफ़ोन रेकार्ड
संग्रहालय का शुभारंभ था.इसी आयोजन में सम्मानित किये ऐसे क़लमकार जिन्होंने अपने लेखन से संगीत के सुरीलेपन में निरंतर इज़ाफ़ा किया है. रविराज प्रणामी का नाम भी इस सूची में शरीक था.अनायास कामकाजी व्यस्तता के चलते ख़बर आई कि रविराजजी इन्दौर नहीं आ पा रहे हैं.उन्होंने अपनी विवशता व्यक्त करते हुए आयोजन में पढ़े जाने के लिये एक वक्तव्य ई-मेल किया.लता मंगेशकर पर लिखे गए इस भावपूर्ण आलेख आप सब लता प्रेमी भी पढ़ सकें इसके लिये मैंने रविराज भाई से इजाज़त माँगी जो उन्होंने सहर्ष दी. बताता चलूँ कि रविराज प्रणामी ने अपने कैरियर का आग़ाज़ बतौर खेल-पत्रकार किया था लेकिन मन हमेशा से चित्रपट संगीत की बारीक़ियों को समझने में रूचि लेता रहा. इन्दौर में लम्बे समय तक पत्रकारिता करने के बाद रविराज जी मुम्बई चले गए और जनसत्ता की साप्ताहिक पत्रिका सबरंग में कई शानदार परिशिष्ट निकाले.विविध भारती के लिये भी चित्रपट संगीत के कई शोध-परक कार्यक्रम किये.आलेख रचे और निरंतर कई पत्र-पत्रिकाओं में लिखते रहे हैं.आजकल मुंबई में ही है और रिलायंस समूह में कार्यरत हैं.संगीत रविराजजी का पहला प्यार है और अपनी गूढ़ विवेचना से वे हमेशा एक नया नज़रिया पेश करते हैं.

लता मंगेशकर के जन्मदिवस पर रविराज प्रणामी का ये आलेख आपको ज़रूर पसंद आएगा इस कामना के साथ लता मंगेशकर
को हम-आप संगीतप्रेमियों की अनंत शुभेच्छाएँ.




हमारी पांचो इन्द्रियों के अपने अपने अमृत सुख हैं. कर्णेंदीय अमृत है — लता मंगेशकर का गन्धर्व गायन. धन्य हो विज्ञान का कि लता कालखंड से गुज़रने के अहोभाग्य के बाद भी इस कालजयी सुरगंगा की स्वरलहरियों से हम और हमारी आने वाली पीढ़ियां वंचित नहीं रहेंगी. जैसे कि तानसेन की आवाज़ को लेकर आज हम अफसोस में जीते हैं, आने वाला कल कभी ये अफसोस लिये नहीं होगा कि लता मंगेशकर की आवाज़ और उनका गायन कैसा था.


आज ना वो संगीतकार रहे, ना गीतकार या शायर, ना सुकून और धैर्य भरा वो दौर कि तन्मयता के साथ लता के हर नए गायन का रसास्वादन हो और उस नए लता गीत का विश्लेषण हो, सम्प्रेषण हो, आत्मतृप्ति का बोध हो. तो ऐसे में लता जी की कंठगंगा से नया कुछ ना आना, समयोचित है. कोई अफसोस नहीं कि लताजी आज नहीं गा रही हैं. उनके ना गाने की कसक अब नहीं रही. उनका गाया इतना है हमारे पास कि इस लोक में तो तर गये. अफसोस तब होता जब मदन मोहन, नौशाद साहब, बर्मन दा, शंकर जयकिशन, रोशन साहब, याकि लक्षमीकांत प्यारेलाल या पंचम दा जैसे गुणवंत संगीतकारों का वजूद होता और लता ना गातीं . "कितने अजीब रिश्ते हैं यहां के" जैसे गीत अब जो बनते भी रहे हैं उनके लिये, तो वो सिर्फ संगीतकार विशेष की उस इच्छा की पूर्ति के लिए कि लता ने भी गाया है उनके लिए. वरना तो लता के आखिरी स्वर प्रसाद के लिए हमें कहीं पंचम दा या लक्ष्मीप्यारे के ज़माने में ही झांकना पड़ता है. मेरे लिए उनका दिया आखिरी स्वर प्रसाद है "ऊपर खुदा आसमां नीचे ज़मीं " जो नुसरत फतेह अली खान के लिए उन्होने गाया था.
जब तक लताजी पेशेवर दौर में रहीं मानो टेक्नॉलॉजी भी विकसित नहीं होना चाहती थी. और जब अघोषित तौर पर ही उन्होने भैरवी गाने का निर्णय लिया, उनके नशे में डूबी टैक्नॉलॉजी को भी जैसे होश आया.


सिंथेसाइज़र के आ जाने के बाद और न्यूएंडो जैसे म्यूज़िक रिकॉर्डिंग सिस्टम के चलन के बाद फिल्मी गीतों का स्वरूप पूरी तरह बदलता चला गया है. अब सिंथेसाइज़र ने तमाम साज़िन्दों को निकम्मा कर दिया है और जिस तरह ये साज़िन्दे अपनी आत्मा अपने वालों से गीतों में उंडेला करते थे उसका अभाव गीतों में साफ नज़र आने लगा है. अब गायक—गायिकाओं के लिए भी गाना रियाज़ का नहीं बल्कि संगीतकारों से सम्बन्ध बनाने का काम हो गया है. अब गाना कब बनता है, कब उसका ट्रैक तैयार हो जाता है, कब सिंगर उसे गा देता है, पता ही नहीं चलता बस पता चलता है तो सिर्फ इतना कि गीत अब दिल को सुकून पहुंचाने या दिल को बहलाने का ज़रिया नहीं रह गये बल्कि धूम मचाने का आधार बन गये हैं और अब युवा पीढ़ी के शगल के लिये ज़्यादा से ज़्यादा आउटपुट भरे म्यूज़िक सिस्टम बाज़ार में मिलने लगे हैं जिससे इन म्यूज़िक सिस्टम को सुहाते गीतों की रचना करना संगीतकारों की मजबूरी भी बन गयी और सहूलियत भी.


जब तक कोई धरा हीरे उगलती है उसके उत्खनन और दोहन का दौर बना रहता है. हीरों का उत्सर्जन जब वहां बन्द हो जाता है तो ख्याल आता है उन हीरों की विवेचना का उनके मोल लगाने का और उन्हें सहेजने का. ऐसे हज़ारों बेशकीमती अनमोल रत्न देने के बाद और पार्श्व गायन की अपनी षष्ठिपूर्ति के बाद ये समय है लता गीतों की जुगाली का और खुद पर इस बात के लिए इठलाने का कि हमें उन गीतों की समझ है जिनमें लता नाम की आत्मा का वास है.

Wednesday, September 24, 2008

इन्दौर में लता दीनानाथ मंगेशकर ग्रामोफ़ोन रेकॉर्ड संग्रहालय का शुभारंभ २७ को



पुराने गीत-संगीत ने भारतीय अवाम को जो सुख और सुकून अता किया है; वह बेमिसाल है। स्वर-साम्राज्ञी भारतरत्न लता मंगेशकर के जन्मदिवस की पूर्व संध्या में ऐसे ही मधुर संगीत के दुर्लभ ग्रामोफ़ोन रेकॉड्र्स की विशाल लायब्रेरी "लता दीनानाथ मंगेशकर ग्रामोफ़ोन रेकॉर्ड संग्रहालय' का शुभारंभ शनिवार, २७ सितम्बर २००८ को संध्या ४.३० बजे,इन्दौर के उपनगर पिगडंबर (राऊ) में होगा. यह संग्रहालय दुर्लभ ग्रामोफ़ोन रेकॉर्ड्स के संकलनकर्ता श्री सुमन चौरसिया का कारनामा है. वे पिछले चालीस बरसों से एक जुनूनी की तरह पूरे देश से इन ध्वनिमुद्रिकाओं को संकलित कर रहे हैं.
उल्लेखनीय है कि संगीतप्रेमियों, शोधार्थियों, कलाकारों एवं मीडिया के लिए देशभर में अपनी तरह की इस पहली म्यूज़िक लायब्रेरी में शास्त्रीय, लोक, सुगम एवं फ़िल्म संगीत के २८ हज़ार से भी ज़्यादा नायाब रेकॉर्ड्स संग्रहित हैं। संगीतप्रेमी जानते हैं कि इन्दौर में जन्मीं लताजी आगामी २८ सितम्बर को जीवन के ८० वर्ष पूर्ण करने जा रहीं हैं। "लता दीनानाथ मंगेशकर ग्रामोफ़ोन रेकॉर्ड संग्रहालय' भारतीय चित्रपट संगीत में पं. दीनानाथ मंगेशकर एवं लताजी के महान अवदान को समर्पित है। शुभारंभ-प्रसंग में अपने लेखन से भारतीय चित्रपट एवं गीत-संगीत को समृद्ध करने वाले चित्रपट संगीत स्तंभकार श्री अजातशत्रु, फ़िल्म इतिहासकार श्रीयुत् श्रीराम ताम्रकर, वरिष्ठ फ़िल्म समीक्षक श्री जयप्रकाश चौकसे, राजस्थान पत्रिका के फ़िल्म समीक्षक श्री एम.डी. सोनी, फ़िल्म संगीत विषयों के लेखक श्री विश्वनाथ चटर्जी एवं सांस्कृतिक पत्रकार श्री रविराज प्रणामी का सम्मान भी होगा।


लताजी के जन्मदिन रविवार, २८ सितंबर को संगीतप्रेमी इस नव-निर्मित लायब्रेरी में प्रात: ११ से संध्या ५ बजे के बीच अपनी पसंद के लता-गीत सुन सकते हैं। इसी मौक़े पर संग्रहालय में श्रीनिवास पुजारी द्वारा लताजी के दुर्लभ चित्रों की प्रदर्शनी भी लगाई जाएगी। श्री अजातशत्रु की मीमांसा से लकदक लता मंगेशकर के दुर्लभ और अनसुने गीतों पर एकाग ग्रंथ "बाबा तेरी सोनचिरैया' की अग्रिम बुकिंग भी इस अवसर पर प्रारंभ होगी।

मंगेशकर ग्रामोफ़ोन संग्रहालय में हैं.......
-लगभग २८ हज़ार रेकॉर्डस
-सन् १९०२ का दुर्लभ रेकॉर्ड
-लता मंगेशकर के प्रथम गीत की ध्वनि मुद्रिका
-मास्टर मदन की आठ दुर्लभ रचनाएँ.
-मास्टर दीनानाथ मंगेशकर की हिन्दी रेकॉर्ड
-अधिकतम रेकॉडर्स ७८ आर.
-चौकोर रेकॉर्ड,रंगबिरंगी रेकॉर्ड.
-शास्त्रीय,फ़िल्म,लोक एवं सुगम संगीत, ग़ज़ल, क़व्वाली एवं पश्चिमी संगीत का अनमोल ख़ज़ाना

Monday, September 22, 2008

लावण्या बेन भी तो मना रहीं हैं आज अपना जन्मोत्सव.



ब्लॉग बिरादरी की एक अत्यंत स्नेहल क़िरदार...लावण्या शाह.रहतीं हैं अमेरिका में लेकिन दिल है हिन्दुस्तानी. वे परिवेश,संगीत,कविता,छायाकारी के शानदार सिलसिले अपने ब्लॉग पर जारी रखती हैं.आज (22 सितम्बर ) उन्होंने मेरे जन्मदिन पर एक पोस्ट लिख डाली लेकिन उनका बड़प्पन देखिये कि यह नहीं बताया कि आज स्वयं उनका जन्मदिन भी है. मैं उन्हें बड़े नेह से मोटाबेन (हिन्दी में कहूँ तो बड़ी बहन) कहता आता रहा हूँ और वे भी बड़ी बहन जैसा स्नेह देतीं रहीं है. एक दिन चैट पर अनायास लावण्या बेन ने मेरी जन्मतिथि पूछ ली और मज़ा देखिये कि तारीख़ सुनते ही वे इस संयोग को जानकर चमत्कृत सी थीं कि उनकी मेरी जन्मतिथि एक ही है यानी 22 सितम्बर। एक और सयोग यह कि हम दोनो को परिवार में कविता और संगीत विरासत में मिला है. आप सब जानते ही हैं कि लावण्या बहन ख्यात कवि-गीतकार पं.नरेन्द्र शर्मा (प्रथम प्रोड्यूसर : विविध भारती , जिन्होंने इस प्रसारण संस्था को विविध भारती नाम भी दिया) की सुपुत्री हैं.पं.शर्मा ने ज्योति कलश छलके(भाभी की चूड़ियाँ)सत्यं शिवं सुन्दरम (सत्यं,शिवं,सुन्दरम)राम का गुणगान करिये जैसे गीत और भक्ति पद रचे.

आइये मौक़ा भी है और दस्तूर भी लावण्या बेन को बधाई दें
शब्द का लावण्य हो
संस्कार की अनुगामिनी
स्नेह की तुम सुरसरी हो
संगीत की रस-भामिनी
सृजनशील हो संस्कार हो
भावना आत्मीयता का
प्रेममय विस्तार हो.

Saturday, September 13, 2008

बस इसीलिये हार जाती है हमारी हिन्दी !

फ़िर आ गया है हिन्दी दिवस और शुरू हो गए हैं वही पारम्परिक शगुन.पिछले दिनों जनसत्ता में जाने माने साहित्यकार श्री राजकिशोर का एक लेख राष्ट्रभाषा को लेकर प्रकाशित हुआ था और उसके कुछ ही दिनों बाद मेरे शहर के शिक्षाविद,व्यंग्यकार और कार्टूनिस्ट श्री जवाहर चौधरी का एक पत्र जनसत्ता में ही प्रतिक्रियास्वरूप छपा.श्री चौधरी ने उस पत्र में जो मुद्दे उठाए थे वे बहुत गंभीर और ध्यान देने योग्य हैं .ऐन हिन्दी दिवस के पूर्व उसी पत्र को आज यहाँ जारी कर रहा हूँ…..

अंग्रेज़ी अंग्रेज़ों के राज यानी दो सौ साल में उतनी नहीं बढ़ी जितनी पिछले साठ साल में। इस यथार्थ का की पड़ताल के लिए हिंदी वालों को अपना अंतस खंगालना होगा। पैसा, सुख-समृद्धि इसके कारण प्रतीत होते हैं तो भी इसकी सूक्ष्मता में जाने की ज़रूरत है। जो बाज़ार अंग्रेज़ी की अनिवार्यता घोषित करते हुए नौकरियां देता है वही अपना "धंधा' करने के लिए हिंदी सहित दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं पर निर्भर दिखाई देता है।

टीवी, फ़िल्में और अख़बार आज संचार के मुख्य माध्यम है। इनमें ९५ प्रतिशत विज्ञापन हिंदी के होते हैं। रामायण, महाभारत जैसे कार्यक्रम तो थे ही हिंदी के, लेकिन कौन बनेगा करोड़पति या इसी श्रृंखला के तमाम लॉटरी-जुआ सरीखे कार्यक्रम हिंदी में ही चलाए गए। धंधेबाज़ उसी भाषा का दामन पकड़ लेते हैं जिसमें उन्हें पैसा मिलने की गुंजाइश दिखाई देती हो। पैसा मिले तो हमारा हीरो सीख कर हर भाषा बोलने लगता है। साक्षात्कार देते समय जो सुंदरी अंग्रेज़ी के अलावा कुछ नहीं उगलती वह पैसा मिलने पर भोजपुरी, अवधी, खड़ी बोली, आदि सभी तरह की हिंदी बोल लेती है।

हाल ही में एक नवोदित गायिका को हिंदी गाने के लिए अवार्ड मिला। आभार व्यक्त करते हुए उसने अंग्रेज़ी झाड़ी तो संचालक ने उससे हिंदी में बोलने का आग्रह किया। हिंदी के चार-छह शब्द उसने जिस अपमानजनक ढंग से बोले उसे भूलना कठिन है। भाषा का सरोकार धन और धंधे से हो गया है और यही चिंता का विषय माना जाना चाहिए। थैली दिखाते सामंती बाज़ार के आगे लगता है हमारी ज़बान पतुरिया हो जाती है!

बहुत-सी पत्र-पत्रिकाएँ भाषा के सामान्य, लेकिन आवश्यक मानदंडों की उपेक्षा करते हुए जिस तरह की भाषाई विकृतियां प्रस्तुत कर रही हैं उस पर हल्ला मचाने की आवश्यकता है। लेकिन हम में यानी हिंदीभाषियों में अपनी मातृभाषा के प्रति प्रेम और प्रतिबद्धता अभी तक जागृत नहीं हो पाई है जबकि अन्य भारतीय भाषाओं में यह विकसित है। उर्दू, मराठी, बांग्ला, तमिल, तेलुगू, मलयालम आदि भाषाएं प्रतिबद्धता के साथ विकसित हो रही हैं। ये सारी अंग्रेज़ी का प्रयोग करतीं हैं, लेकिन यह उनकी प्राथमिकता नहीं होती है।दो मराठी या बांग्ला भाषी लोग अंग्रेज़ी जानते हुए भी अपनी भाषा में बात करते हुए गर्व करते हैं। लेकिन हिंदी में प्रायः ऐसा नहीं होता। हिंदी वाला अपनी अच्छी हिंदी को किनारे कर कमज़ोर अंग्रेज़ी के साथ खुद को ऊंचा समझने के भ्रम को पुष्ट करता है। यदि हम ऐसी जगह फंसे हों जहां बर्गर और पित्ज़ा ही उपलब्ध हों तो मजबूरी में उसे खाना ही है, पर इसका मतलब नहीं है कि अपने पाकशास्त्र को खारिज ही कर दें। आज की शिक्षा व्यवस्था में अंग्रेज़ी का हस्तक्षेप अधिक है। इसलिए माना कि फ़िलहाल विकल्प नहीं है। अंग्रेज़ी में ही पढ़िए, लेकिन शेष कामों में अंग्रेज़ी को जबरन घुसेड़ने और गर्व करने की क्या ज़रूरत है.

गांधीजी ने राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी की वकालत की थी। वे स्वयं संवाद में हिंदी को प्राथमिकता देते थे। आज़ादी के बाद सरकारी काम शीघ्रता से हिंदी में होने लगे, ऐसा वे चाहते थे। राजनीतिक संगठनों से कुछ आशा बंधी थी कि कि वे हिंदी को लेकर ठोस और गंभीर कदम उठाएंगे। भाजपा, सपा और अन्य क्षेत्रीय दलों में उम्मीदेंअधिक थीं। लेकिन भारतीय सभ्यताऔर संस्कृति से ऑक्सीज़न लेने वाले दल भी अंग्रेज़ी में दहाड़ते देखे जा सकते हैं। हिंदी को वोट मांगने और अंग्रेज़ी को राज करने की भाषा हम ही बनाए हुए हैं। कुछ लोग सोचेते हैं कि केन्द्र में राजनीतिक सक्रियता के लिए अंग्रेज़ी ज़रूरी है। ऐसा सोचते वक्त यह भुला दिया जाता है कि लालू प्रसाद, रामविलास पासवान, सोनिया गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी जैसे शीर्ष पर बैठै नेता बिना अंग्रेज़ी की दक्षता के सक्रिय और सफल है।

Friday, September 5, 2008

नेक सीख से ज़िन्दगी सवाँरने वाला शिक्षक !



हमने अपने बचपन में माड़साब,गुरूजी,सर,टीचरजी जैसे संबोधन सुने हैं.अब बड़ी हो रही पीढ़ी मैम तक आ गई है. शिक्षक दिवस की बेला में मुझे लगता है जीवन में स्कूल के अध्यापक ने हमारे जीवन को कितना सँवारा.किताबों की सीख तो अपनी जगह है लेकिन जीवन को कई नेक मशवरों से सुरभित करने वाले टीचर्स की अहमियत कभी कम नहीं हो सकती. ज़िन्दगी के कई सलीक़े हमें अच्छे शिक्षक से ही मिले हैं. बीते दौर के पालक आश्वस्त थे कि बच्चे का भविष्य फ़लाँ टीचर के सान्निध्य में महफ़ूज़ है.

आपके –मेरे ज़माने की बनिस्बत आज के विद्यार्थी अपने गुरूजनों के साथ ज़्यादा मित्रवत हो गए हैं.दहशत वाले टीचर्स का दौर अब लगभग समाप्त हो गया है. और इसके सकारात्मक परिणाम भी आ रहे हैं.चश्में से झाँकती खड़ूस माड़साब अब लगभग न के बराबर हैं.लेकिन यह भूलना बेमानी होगा कि अनुशासन और डर से ऊपर उठकर कई ऐसे शिक्षक होते थे जो पूरी निष्ठा के साथ अपने विद्यार्थियों के भविष्य को सँवारने का काम करते थे.मुझे लगता है स्कूल में बीता वह अनुशासित समय ही बेहतर ज़िन्दगी के की नींव का निर्माण करता है.

अब वह दृष्य नहीं जब शिक्षक एक मध्यम-वर्गीय पृष्ठभूमि से आता था. सायकल के हैंडल पर लटकी थैली जिसमें स्टील या पीतल का टिफ़िन है और पीछे कैरियर में लगी वह कॉपियाँ जिन्हें वह घर से चैक कर के लाया है. मासिक टेस्ट या छमाही परीक्षाओं की उत्तर पुस्तिकाएँ या परिणाम पुस्तिकाएँ(आज की प्रोग्रेस रिपोर्ट) भी के कैरियर पर नज़र आतीं थी और शुरू हो जाती थी यह घबराहट कि आज तो रिज़ल्ट मिलने ही वाला है.सर आ गए हों तो दौड़ कर उनके पास जाकर नमस्कार कहना और उनका सामान स्टाफ़ रूम तक ले जाने में एक क़िस्म गौरव हुआ करता था.


अब तो प्रिंसिपल महंगी प्रीमियम कारों में स्कूल आ रहे हैं और मैम शानदार परफ़्यूम लगाए अपनी मारूति अल्टो या सैंट्रो में चले आ रहीं हैं.स्टाफ़ रूम्स एयरकंडीशण्ड हो गए हैं और स्कूल में ही सर्व हो रहा है शानदार भोजन.टीचर्स डे के शानदार सैलिब्रेशन हो रहे हैं.पैरेंट्स कमेंटिया महंगे उपहार टीचर्स को बाँट रहीं हैं.फ़ाइव स्टार होटलों से इंडियन,काँटिनेंटल,चायनीज़ फ़ूड के मेनू सजकर आ रहे हैं,स्कूल का किचन आज बंद है , रोज़ ही तो खाते हैं न यहाँ का खाना.

लेकिन ये तस्वीर शहरों की है.शिक्षक का पद आज भी गाँवों और छोटे क़स्बों में बहुत आदरणीय है और जिस तरह के अभाव वहाँ पर देखने में आते हैं वे आपके रोंगटे खड़े कर सकते हैं.आज भी सुदूर अंचलों का शिक्षक न जाने कितनी दूर से अपने स्कूल पहुँचता है,ख़ुद स्कूल ताला खोलता है,बच्चों से मदद लेकर की सफ़ाई,पानी का इंतज़ाम और दीगर कई छोटे-बड़े कामों को अंजाम देता है.इसके अलावा चुनाव,साक्षरता अभियान,परिवार नियोजन,जनगणना से संबधित न जाने कितने ही सरकारी कामों को अंजाम देने की ज़िम्मेदारी भी उस पर है. लेकिन ये सब करना उसकी विवशता है जो अंतत: उसकी तक़दीर का हिस्सा बन गई है.पानी टपकाती कवेलू वाली छतें और टाटपट्टी के अभाव में सीले वातावरण में कक्षा लेने की बातें तो जगज़ाहिर हैं , जिसकी शिकायत करना बेचारा शिक्षक इसलिये बेमानी समझता है कि ख़ुद उसकी तनख़्वाह ही दो – तीन महीनों में मिलती है.वह तो प्रणाम सर,नमस्कार टीचरजी/सर सुनकर ही प्रसन्न हो जाता है और मुस्कुराते हुए अपने स्कूल के मासूम और प्यारे बच्चों के चेहरों को देख कर ही इत्मीनान कर लेता है.


आज़ादी के बाद तमाम चीज़ें बदल रहीं हैं लेकिन दु:ख है कि शिक्षक जैसी महान संस्था के लिये आज भी बहुत कुछ किया जाना शेष है. एक ज़माना था कि गुणी शिक्षकों से ही किसी स्कूल के अच्छे-बुरे होने की शिनाख़्त होती थी.शहरों में शिक्षक के स्टेटस में ज़रूर परिवर्तन आया है लेकिन विद्यार्थियों का आदर-भाव घटा है.पालकों के मन में भी आश्वासन नहीं हमारे बच्चों का भविष्य की सुध शिक्षक ले लेगा.यही वजह है कि आज कोचिंग एक बड़े उद्योग के रूप में फल-फूल रहा है.

परमाणु संधि,कश्मीर समस्या,गणेश उत्सवों के ख़र्चीले पाण्डालों,ऊपर जा रहे सैंसेक्स,और घटती-बढ़ती मुद्रा-स्फ़ीति की दरों के बीच आइये आप-हम सब मिल कर उन तमाम शिक्षकों का कम से कम स्मरण तो करें जिनसे मिली सलाहियतें हमारी व्यावसायिक और कामकाजी सफ़लताओं का आधार रहीं है.प्रणाम सर/टीचरजी

Tuesday, September 2, 2008

ज़माने को बार-बार याद करना होगा कि उसका पहला और आखरी बंधन भाषा है

ये ललित निबंध लिखा है जाने माने साहित्यकार और चित्रपट संगीत पर अदभुत शब्दलोक के रचनाकार श्री अजातशत्रु ने. सन 2001 में खंडवा से प्रकाशित नवगीत एवं ललित निबंध की पत्रिका अक्षत में मैंने इसे पढ़ा तो लगा कि लेखन पर एक नज़रिया ये भी हो सकता है. आप भी पढ़िये इस क़ुदरती शब्द-शिल्पी का ये अंदाज़ें बयाँ.


वर्षों से मैं अपने आप आसमान में उड़ता रहा हूँ। उस पंछी की तरह जिसके पास ठोस काया नहीं है, जिसकी परछाई शून्य में नहीं पड़ती, जो वहॉं है ही नहीं, और उड़ता जा रहा है।

सदियॉं हुईं, शब्दों से, अर्थों से, तर्कों से, धारणाओं से, दावों से, सिद्धांतों से, थ्योरियों से, शून्य में किसी भी किस्म का रूप बनाने से मुझे स्वभावतः वितृष्णा हो गयी है। भाषा की ओर से मेरा पूर्णतः मोहभंग हो चुका है। यही पहला और आखिरी भटकाव है जो आदमी को दमघोट जेल में कसे हुए है, जैसे चिड़िया के गले को कोई दारासिंग तार से कस दे।

दुनिया के महानतम वेद और किसी आदि शंकराचार्य की उस पर विद्ववतापूर्ण टीका से - जो भाषा के ख़िलाफ़ भाषा के भीतर ही बौद्धिक मैथुन हैं - मेरी आस्था नष्ट हो गयी है। शब्द में जो कुछ पाया जा सकता है, वह खुद मरणधर्मा और मौत का भय है। परमात्मा का पवित्रतम नाम जो जपा जाये, वह भी मुक्ति नहीं दिला सकता - क्योंकि भाषा ही कदम-कदम पर आत्महत्या है। यह भ्रम है कि महानतम कविता या उपन्यास रचकर कोई मुक्त हो जायेगा। नहीं, वह कोल्हू के बैल की तरह भाषा के ही चक्कर में फॅंसा रहेगा। मुक्ति वहॉं - वहॉं कतई नहीं है, जहॉं-जहॉं भाषा है।

ज़माने को बार-बार याद करना होगा कि उसका पहला और आखरी बंधन भाषा है और तब बार-बार उसे पहचानना होगा कि वह भाषा को नष्ट कैसे करे। इसके लिए उसे सर्वप्रथम भाषा पर अविश्वास करना होगा। इस गुरूर को तोड़ना होगा कि महान किताब पढ़कर या लिखकर वह कहीं पहुँच सकता है। उसे भाषा का जन्म जन्मांतर का शत्रु मानना होगा। कल्पना की कोई भी उड़ान जो भाषा के भीतर है, फॉंसी को काट नहीं सकती। मैं हज़ार किताबे लिख डालूं पर मैं एक अक्षर नहीं लिखता। मेरा प्रतिपाद्य विषय हमेशा शून्य है। वह मुझे सूर्य की उपस्थिति की तरह स्पष्ट है। मैं वर्षों से उसी पर बोलता और लिखता आ रहा हूँ। पर कोई नहीं जानता कि मैं दरअसल कुछ नहीं कह रहा हूँ। मेरा सारा लेखन शून्य की टीका है। मेरा सारा बोलना शून्य की स्थापना है। मैं सतत् बोलते हुए सतत् मौन हूँ। मैं हज़ारों ढ़ंगों से बोलते हुए भी यही बता रहा हूँकि बोलने-बतियाने और समझने-समझाने को कोई विषय नहीं है। मैं हर क्षण मौत का खंडन कर रहा हूँ - क्योंकि भाषा ही मौत है।

मैं आश्वस्त हूँ कि मैं बहुत आगे की बात कर रहा हूँ। आने वाले ५०-१०० सालों में बच्चा-बच्चा जान जायेगा कि लेखन, वार्ता, बहस.... सब मज़ाक है। एक वेश्या का दूसरी वेश्या से कहा हुआ अश्लील घिनौना, चीप जोक, जो वहीं भूल जाने के लिए है। तुलसी जानते थे कि उन्होंने कोई रामायण नहीं लिखी। कबीर स्पष्ट थे कि उन्होंने कोई "बीजक' नहीं रचा। आदि शंकराचार्य अवगत थे कि उन्होंने "ब्रह्म' की स्थापना में स्वयं ब्रह्म को और उसके वर्णन को - यानी भाषा को नष्ट किया है। महानतम वेद कुछ नहीं कह रहा है, पर क्योंकि कहा रहा है, इसलिए वेद मान लिया गया है। सत्य न भाषा के पार, है, न भाषा में है और न समाधि में है। वह सत्य भी नहीं क्योंकि भाषा के नष्ट हो जाने पर "सत्य' शब्द भी नहीं गढ़ा जा सकता।

लेखक को दी हैं ! वह जो कुछ कहने के लिए नई भाषा गढ़ता है। और वह जो कुछ नहीं को स्पष्ट करने के लिए भाषा रचते भी दरअसल भाषा को तोड़ रहा होता है। हिन्दी में फ़िलहाल मुझे दूसरी कोटि का लेखक नहीं मिलता। सब भाषा के नामर्द हैं मैं पलासनेर के खले में दुनिया से कटा हुआ आश्वस्त हूँ।

(अजातशत्रुजी मुबंई के उपनगर उल्हासनगर में रहते हैं और अब सुदीर्घ प्राध्यापन यात्रा के बाद ज़िन्दगी का भरपूर मज़ा ले रहे हैं.देश के जाने माने हिन्दी अख़बार नईदुनिया में दुर्लभ गीतों का उनका स्तंभ गीत-गंगा ख़ासा लोकप्रिय रहा है. निबंध की अंतिम पंक्ति में जिस पलासनेर का ज़िक्र है वह म.प्र.के नगर खंडवा ज़िले में बसा अजातशत्रुजी का पुश्तैनी गाँव है)

Thursday, August 14, 2008

ऐ मेरी काली माटी ,वीर प्रसूता,तू कभी बाँझ मत होना ! धन्य हे मेरे देश.


नरहरि पटेल मध्य-प्रदेश के प्रमुख शहर इन्दौर के बाशिंदे हैं.
मालवा उनका मादरे-वतन है.वे यहाँ की लोक संस्कृति,संगीत,गीत
नाट्य के वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी के रूप में जाने जाते हैं..मालवी ग़ज़लों पर नरहरिजी ने बहुत शिद्दत से काम किया है. अब तक उनके आठ मजमुए शाया हो चुके हैं.रेडियो के स्वर्णिम युग में वे आकाशवाणी इन्दौर के नाटको की चहेती आवाज़ रहे हैं .मध्य-प्रदेश में इप्टा के संस्थापकों के रूप में उनका नाम हमेशा शुमार किया जाता रहा है.आज जारी की रही कविता धन्य है मेरे देश नरहरि पटेल की लोकप्रिय रचनाओं में से एक रही है. ये कविता साठ के दशक में लिखी गई है लेकिन देश के हालात वही के वही हैं. इस रचना को पढ़ते हुए मन ये सोचकर दु:खी होता है कि ग्लोबलाइज़ेशन की जो बड़ी बड़ी बातें इन दिनों देश में हो रही है उनकी हक़ीक़त क्या हैं.



धन्य हे मेरे देश


धन्य हे मेरे देश...
जहॉं आज़ादी
जन्मसिद्ध अधिकार है
कर्तव्य बेकार है
आलस्य का बोल-बाला।
प्रमाद की गूँज
अश्लीलता का आग्रह
साम्प्रदायिकता के हाथ में
ईर्ष्या की माला।
आज़ादी का अर्थ मख़ौल
जो करना नहीं चाहिये, वह
किन्तु जो मन में आवे वही
सब कोई करने को तैयार है।
क्योंकि आज़ादी जन्मसिद्ध अधिकार है।

धन्य हे मेरे देश...
जहॉं मजबूरियॉं परास्त हैं
ऑपरचुनिटी खुली है
उनके लिये, जिन्हें वह मिली है।
सेवा के हामी सभी
पैसे के कामी सभी
गिनती के लोग
आम लोगों के जीवन का
अवमूल्यन कर देते हैं।
मज़ा तो यह है कि आम लोग
अर्थात् आप हम सब लोग
सब कुछ सह लेते हैं।

धन्य हे मेरे देश...
जहॉं हिन्दी के लिए
साधारण पहरुआ रोता है
और बोता है मन के आँसुओं के बीज
कि कभी तो हिन्दी उगेगी !
लेकिन कैसे उगेगी ?
जब उसके ही भाई
हिन्दी के सॉंई
अपनी ही औलाद को
मॉं के लिये मम्मी
पिता के लिये डैडी
सिखाने में गौरव अनुभव करते हैं।
जहॉं अहिन्दी भारतीय
अंग्रेज़ी के लिये जल मरते हैं।
मातृभाषा हिन्दी को
प्यार की जगह नफ़रत करते हैं।

धन्य हे मेरे देश...
जहॉं आदर्श
पुराणों में, वेदों में
तुलसीदास, आचार्य शुक्ल
और राजेन्द्र बाबू के
लेखों में भरे पड़े हैं।
या यूँ कहें मरे पड़े हैं!
उन्हें अपनाये कौन?
सभी मौन, सभी व्यस्त
व्यवहार और आदर्श में
कितना बड़ा फ़र्क़!

धन्य हे मेरे देश...
जहॉं प्रजातंत्र का कन्हैया
हर पॉंच साल में
मथुरा से लौट आता है
रास रचा जाता है
गोपियों को भुलावा देकर
वह फिर मथुरा चला जाता है।
गोपियॉं रोती हैं
और वह चैन की बंसी बजाता है।

धन्य हे मेरे देश...
जहॉं पश्चिम की हवा
हमारी संस्कृति में ट्रेस पास करती है
जीवन को छोड़ देती है
और जोड़ती है
हमारी चिन्तन धारों को
अवांछित विषैली धाराओं से
जो घातक है प्राणलेवा हैं
हे! देवा हे!

धन्य है मेरे देश...
जहॉं का मूर्धन्य कलाकार-क़लमकार
मौसम में ही गाता है कोयल के गीत
लेकिन जब पुरस्कृत हो जाता है
पद पा जाता है
तब पतझर के भरोसे
बाग़ को छोड़ जाता है।
क्योंकि वह मानता है
कि मौसम की तरह
उसे भी बदलने का अधिकार है।
इसी से जब बाग़ में फ़िज़ा है
तब उसके घर में बहार है।

धन्य है मेरे देश...
जहॉं जीवन को सुधारने की
उद्धारने की
बड़ी-बड़ी योजनाएँ हैं।
लेकिन योजना के नाम पर
विदेशी उधार बरक़रार
भाखड़ा नांगल और चम्बल में
बड़ी-बड़ी दरार
देशभक्तों में काला बाज़ार।
स्वार्थ, फ़रेबियों की भरमार
ओठों पर जय-हिंद का उच्चार
मन के अन्दर का सच्चापन
दे रहा अन्दर ही अन्दर
धिक्कार, धिक्कार, धिक्कार!

धन्य हे मेरे देश...
जहॉं प्रगति के नाम पर
भुखमरी है
जहॉं काल हमेशा
अकाल बन जाता है
और भारत माता का
शस्य श्यामल शरीर
अपने आप कंकाल बन जाता है!
यह हरित-वसना धरती मॉं
रेत ओढ़ना शुरू कर देती है
लेकिन इस मातमी-सूर्योदय के
त्यौहार में
यही प्रार्थना है
हे फूलों की घाटी के देश
तेरी स्वाधीन ग्रन्थि की बेला में
अब कोई ग़मगीन शाम मत होना।
ऐ मेरी काली माटी
वीर प्रसूता
तू कभी बॉंझ मत होना!

Sunday, August 10, 2008

शास्त्रीय संगीत के प्रति रूझान जगाता राग मियाँ मल्हार-पं.भीमसेन जोशी




कई मित्रों से जब शास्त्रीय संगीत सुनने का इसरार करता हूँ तो वे पूछते हैं ऐसा क्या सुनें जिससे क्लासिकल म्युज़िक के प्रति रूझान बढ़े ? एक सूची थमाता हूँ अक्सर जिसमें ये बंदिश ज़रूर होती जिसे आज पोस्ट कर रहा हूँ.आपको सुनाने का मक़सद तो है ही साथ ही लगातार बरस रहा मेह भी कुछ सुनने को विवश कर रहा है. सो सुनते सुनते ही आपको सुनाने का मन बना है.पं.भीमसेन जोशी का गाया राग मिया मल्हार उनकी हस्ताक्षर रचनाओं में से एक है.ये बहुत पुरानी रेकॉर्डिंग है जिसमें पंडितजी का दिव्य स्वर दमक रहा है.

जो शास्त्रीय संगीत कम सुनते हैं उन्हें बता दूँ कि जहाँ से एक दम ये बंदिश (बंदिश यानी कविता) शुरू हो रही है वह है एक संक्षिप्त सा आलाप.यानी गायक एक डिज़ाइन तैयार कर रहा है कि वह अपने गायन को कहाँ कहाँ ले जाएगा.एक तरह का प्लानिंग कह लीजिये इसे. फ़िर जहाँ तबला शुरू हो गया है वह विलम्बित है यानी धीमी गति है और पंडितजी इस विलम्बित के ज़रिये आपको बता रहे हैं कि किराना घराना गायन में मिया मल्हार को बरतते हैं.हर राग में कुछ स्वर ज़रूरी होते हैं और कुछ वर्जित . इसी से रागों में भिन्नता बनी रहती है. जब विलम्बित से राग का पूरा स्वरूप तय हो जाता है तब पंडितजी द्रुत गाएंगे.तबले की लयकारी तेज़ होगी और बंदिश भी बदलेगी.अमूमन विलम्बित और द्रुत बंदिशें अलग अलग रचना होतीं हैं यानी उनके बोल अलग होते हैं.ताल भी बदल जाती है. विलम्बित एक ताल में गाया जा रहा हो तो द्रुत तीन ताल में .

भीमसेनजी की गायकी में सरगम और तान का जलवा विलक्षण होता है. किराना घराने में बंदिश के शब्द कई बार साफ़ नहीं मिलते. शास्त्रीय संगीत सुनते वक़्त इसकी ज़्यादा चिंता न पालें.बस स्वर पर अपना ध्यान बनाए रखें.सुनें गायक किस तरह से एक ही बात को अलग अलग स्वरमाला में कैसे पिरोता जा रहा है. ध्यान रहे यह सब कॉपी-बुक स्टाइल में नहीं हो सकता. यानी शास्त्र तो अनुशासन में होता है , मशीनी भी कह लीजिये लेकिन रियाज़(जो शास्त्रीय संगीत का अभिन्न अंग है) सध जाने के बाद गायक ख़ुद अपनी कल्पनाशीलता का इस्तेमाल करत हुए अपना गान-वैभव सिरजता है.पंडितजी की गायकी का एक ऐसा शिखर हैं जहाँ वे किसी भी तरह के मैकेनिज़्म को भी धता बता देते हैं.उन्हें सुन कर (यहाँ द्रुत बंदिश में भी सुनियेगा और महसूस कीजियेगा)एक रूहानी भाव मन में उपजता है जिससे आप आनंद के लोक में चले जाते है. मियाँ मल्हार प्रकृति-प्रधान राग है लेकिन इसे किसी भी मौसम में सुना जा सकता है. और हाँ जब पं.भीमसेन जोशी मिया मल्हार गा रहे हों तो तपते वैशाख में भी बारिश का समाँ बन जाता है.

मैं संगीत का कोई बड़ा जानकार नहीं हूँ लेकिन सुन सुन कर ही शास्त्रीय संगीत का मोह मन में उपजा है. निश्चित ही इस शास्त्रीय संगीत धीरज मांगता है लेकिन एक बार आप इस ओर आ जाएँ तो आपको दीगर संगीत भी और अधिक सुरीला जान पड़ेगा. इस बंदिश को सुन लेने के बाद आप फ़िल्म चश्मेबद्दूर का गीत कहाँ से आए बदरा (संगीत:राजकमल/गायक:येशुदास+हेमंती शुक्ला/शब्द:स्व.इंदु जैन)सुनिये और महसूस कीजिये आपको वह गीत भी कितना सुहावन लगता है.यह भी साबित करता है कि लगभग सभी संगीत रचनाओं का आधार शास्त्रीय संगीत ही है.बल्कि फ़िल्म संगीत रचने वाले समय की मर्यादा में कितनी ख़ुबसूरत बात कह जाते हैं.


उम्मीद है पं.भीमसेन जोशी की यह रचना आपको निश्चित ही आनंद देगी.
मल्हार अंग का एक और राग पिछले दिनों कबाड़खाना पर भी सुना गया है.

Sunday, August 3, 2008

फ़्रेंडशिप डे-मित्र हो तो ऐसा

दोस्त ऐसा
जिसे कहो कुछ नहीं
समझ जाए

लिखो कुछ नहीं
पढ़ ले

आवाज़ दो
उसके पहले सुन ले

मुझे गुण-दोष सहित
स्वीकार करे

ग़र चोट लगे उसे
दर्द हो मुझे

कमाल मैं करूँ
गर्व हो उसे

अवसाद से उबार दे
स्नेह दे , सत्कार दे
आलोचना का अधिकार दे
रिश्तों को विस्तार दे

दु:ख में पीछे खड़ा नज़र आए
सुख का सारथी बन जाए

सिर्फ़ एक दिन फ़्रेंड न रहे
दिन-रात प्रति पल
धड़कता रहे सीने में

हैसियत और प्रतिष्ठा से सोचे हटकर
वही मित्र मुझे लगे प्रियकर.

Saturday, August 2, 2008

सखाराम बाइंडर,विजय तेंडुलकर और प्रिंटिंग प्रेस.


28 से ज़्यादा पूर्णाकार नाटक,7 एक-पात्रीय,6 बच्चों की नाटिकाएँ,लघु-कथाओं के 4 संकलन,3 निबंध संग्रह और 17 फ़िल्मों की पटकथाएँ रचने वाले ख्यात नाटककार विजय तेंडुलकर विगत 19 मई को हमसे बिछुड़े थे. अपने बेहतरीन कथानकों के लिये तेंडुलकरजी खासे चर्चित रहे और मूल मराठी मे लिखे गये नाटकों को हिन्दी और दीगर भाषाओं में अत्यधिक सराहा गया.

नाटककार जो भी अपने परिवेश,समाज और स्वाध्याय में महसूस करता है वही नाटक की शक्ल में क़लमबध्द होता है. यही बात विजय तेंडुलकर जैसे समर्थ लेखक पर भी लागू होती है. चूँकि एडवरटाइज़िंग और प्रिंटिंग के कारोबार से जुड़ा हूँ तो इन विधाओं पर भी प्रकाशित हो रहा साहित्य पढ़ता रहता हूँ.बस इसी वजह से प्रिंटिंग तकनीक पर प्रकाशित एक अंग्रेज़ी पत्रिका के पन्ने पलटा रहा था तो एक शीर्षक पर नज़र गई
विजय तेंडुलकर इन प्रिंट-वर्ल्ड ...एक लम्हा चौंक गया मैं.ज़रा इत्मीनान से जब वह ख़बर पढ़ी तो एक नई जानकारी मिली.

1960 में तेंडुलकर जी मराठा और लोकसत्ता दैनिक में काम करते थे. वे इन अख़बारों के प्रिंटिंग सैक्शन में घंटो बिताते...क़ाग़ज़ का आता , छपकर अख़बार बनता देखते रहते.उनके पिता भी एक छोटी प्रिंटिंग प्रेस चलाते थे.ख़बर में लिखा है कि सखाराम बाइंडर चरित्र इसी प्रेस अनुभव की उपज थी. अपनी भाषा शैली के लिये सखाराम बाइंडर अपने समय का सबसे विवादास्पद नाटक था. इस नाटक ने नैतिकता के नाम पर किये जाने वाले छदम व्यवहार पर भी कई प्रश्न-चिह्न उठाए थे. अख़बार और प्रेस के परिवेश का मंज़र संभवत: तेंडुलकरजी के अवचेतन में रहा हो और उसी से सखाराम का क़िरदार साकार हुआ हो.

Sunday, July 20, 2008

न ये चाँद होगा न तारे रहेंगे,मगर हम हमेशा तुम्हारे रहेंगे.



गीता दत्त की बरसी पर एक श्रध्दांजली एक दिन पहले लिख ही
चुका था.कुछ मित्रों के इसरार पर आज गीता जी का ही गाया
एक गीत सुनिये. फ़िल्म शर्त से लिये गए इस गीत को लिखा
एस.एच.बिहारी ने और संगीतकार हैं हेमंतकुमार.संयोग से इस
गीत को हेमंत दा ने भी गाया है और ख़ासा मकबूल भी हुआ है.
इसी गीत को गीता जी की आवाज़ में सुनिये ...लगता है एक
क़ामयाब कलाकार अपनी निजी ज़िन्दगी की दास्तान बयाँ कर रही
है.गीता दत्त की गायकी का मज़ा ही ये कि वे अपनी खरज भरी
लोक-संगीत के लिये परफ़ेक्ट आवाज़ में उल्लास,मस्ती और दर्द
को एक सी अथॉरिटी के साथ गाती हैं.यही प्लै-बैक सिंगिंग का
हुनर भी तो है...चलिये सुनते हैं उनकी बरसी की संध्या बेला में
ये गीत.
boomp3.com

Friday, July 18, 2008

मिश्री सी मीठी आवाज़ की पुण्यतिथि है कल


दुनिया में कुछ चीज़ों की तुलना ही नहीं की जा सकती। तुलना तो ठीक, उनके लिए उपमाएँ ढूँढना भी एक मुश्किल काम हो जाता है। भारतीय फ़िल्म संगीत में गीता दत्त का नाम भी कुछ ऐसा ही है। गीताजी की आवाज़ की रिक्तता आज भी जस की तस है। संगीत के सात सुरों में भी ऐसा ही होता है। आप गंधार की जगह पंचम नहीं लगा सकते। गीता दत्त ख़ालिस गीता दत्त ही हैं, इस "ख़ालिस' ल़फ़्ज़ को गीता ने अपने हर गीत में साबित किया।

गीता दत्त की आवाज़ में भाव पक्ष मधुरता पर हमेशा रहा। उनके वॉइस कल्चर में शास्त्रीय संगीत का अनुशासन कतई नहीं था, किंतु उसमें शब्दों के अनुरूप भावनाओं का ऐसा सैलाब उमड़ता कि सुनने वाला ठगा-सा रह जाता। गीताजी के गानों की फ़ेहरिस्त बहुत लंबी नहीं, किंतु इन चुनिंदा गीतों में हर रंग, मूड, सिचुएशन की तर्जुमानी सुनाई देती है । शायद यही वजह है कि अपने कम काम के बाद भी गीता दत्त मकबूल हैं, विलक्षण हैं, अपवाद भी हैं। जैसे दाल में हींग की ज़रा-सी चुटकी उसके पूरे स्वाद में नयापन रच देती है, गीताजी ने भी गीतों में एक नया स्वाद गढ़ा।

पूर्वी बंगाल के एक रईस ज़मीदार के घर में जन्मीं गीता रॉय (अभिनेता-निर्देशक गुरु दत्त से विवाह के बाद दत्त हुईं) का परिवार विभाजन के व़क़्त मुंबई आया। बंगाल में लड़की को गाना आना उतना ही ज़रूरी होता है जितना खाना बनाना। इन्हीं संस्कारों में रमी हुई किशोरी गीता भी गाती थी, जिन्हें फ़िल्म "भक्त प्रहलाद' के एक कोरस गीत में प्रमुख स्वर के रूप में गाने का मौक़ा मिला। फ़िल्मों में लोक संगीत को प्रमुखता देने वाले स्वर्गीय सचिन देव बर्मन ने गीत सुना और गीताजी से अपनी फ़िल्म "दो भाई' में एक गीत गवाया। बोल थे ...मेरा सुंदर सपना बीत गया। महज़ पन्द्रह बरस की गीता को जैसे अपने सपनों को बुनने का पूरा बहाना दे गया यह गीत। गीत को याद कर आप ख़ुद ही अंदाज़ लगा लें कि गीताजी ने अपने पहले ही गीत में किस आत्मविश्वास से शब्द में दबे दर्द को उभारा है। क्या वह कोई और गायिका कर सकती थी?

सन् १९५१ में फ़िल्म "बाज़ी' में गीताजी के एक गीत की रेकार्डिंग चल रही है - तदबीर से बिगड़ी हुई तक़दीर बना ले। निर्देशक गुरुदत्त आवाज़ सुनकर ठिठक गए और पता लगाया कि कौन है ये गायिका ; परिचय होता है, बढ़ता है और १९५३ में दोनों परिणय-सूत्र में बॅंध जाते हैं।गीता और गुरु दोनो तुनकमिज़ाज थे। गीता विवाह के वक़्त एक परिचित नाम हो चुकी थीं, जबकि गुरदत्त को अभी नाम कमाना बाकी था। बस, यहीं कलाकार का अहं आड़े आ गया। एक बीते सपने की तरह हॅंसी-ख़ुशी और आत्मीयता गुम होती गई। पीड़ा और ख़लिश घर की बिन-बुलाई मेहमान बनकर एक कलात्मक संबंध को द्वंद्व में तब्दील कर देती है। लगता है यही ख़लिश इन जैसे जीनियस कलाकारों की "रचनात्मकता' की पैरहन है। शायद त्रासदी से ही उभरती है"क्रिएटीविटी', लेकिन क्या समन्वय से सर्जकता को ज़्यादा माकूल माहौल मुहैया नहीं करवाया जा सकता ? शायद गुरु-गीता की अपनी मजबूरियॉं हों। वैसे गीताजी ने
गुरुदत्त की तकरीबन सभी फ़िल्मों में गाया। बल्कि कुछ फ़िल्मों में से गीता और इन गीतों को निकाल देने से फ़िल्म के माने ही बदल सकते हैं। इसके लिए एक फ़िल्म साहब, बीबी और ग़ुलाम का ज़िक्र ही काफ़ी होगा। न जाओ सैंया छुड़ा के बैंया इस गीत में जो पीड़ा भरे इसरार का तक़ाज़ा है, वह गीता दत्त और मीना कुमारी की ज़िंदगी का दर्द भरा वास्तविक सफ़ा भी है


सिसक, माधुर्य, प्रलाप, उल्लास, दर्द और मादकता को समानाधिकार से व्यक्त करती गीता दत्त ने इन सभी भावों को व्यक्तिगत ज़िंदगी में भी ख़ूब भोगा। रिश्तों की टूटन, शोहरत, फिर काम का न मिलना। तपस्या और भाग्य से सितारा बना जा सकता है लेकिन सितारे की अस्ताचल बेला न जाने कितने दर्द,अवसाद और क्लेश को आमंत्रित करती है.गुरु दत्त के जाने के बाद गीता ज़बरदस्त "डिप्रेशन' का शिकार रहीं। गर्दिश ने अलग आ घेरा। तीन बच्चों की परवरिश के लिए स्टेज शो करने शुरू किए। बेदर्द फ़िल्मी दुनिया ने गीता दत्त जैसी ख़ुशबूदार आवाज़ को बिसरा देना शुरू कर दिया। १९७१ आते-आते गीता दत्त ने अपने आपको शराब में डुबो लिया और २० जुलाई को आँखे मूँद लीं। पंद्रह बरस की उम्र में शुरू हुआ "सुदर सपना' वाकई बीत गया।

सेहरा में आती ठंडी हवा की तरह गीता दत्त की आवाज़ संगीतप्रेमियों को आज भी झकझोरती है। मैं मानता हूँ कि तलत साहब की तरह गीता दत्त की आवाज़ एक ख़ास मकसद से गढ़ी गई थी। इसीलिए हज़ारों गीतों के गुलदस्ते में तलत और गीता दत्त रूपी फूलों की ख़ुशबू बेमिसाल है, बेशकीमती है। पाठक मित्र मुझसे सहमत होंगे कि मन्ना डे की ही तरह गीता दत्त को जो भी मान दिया जाना था, नहीं दिया गया, वरना ज़रा इन गीतों पर गौर करें तो आप ख़ुद-ब-ख़ुद अंदाज़ लगा लेंगे कि गीता की रुह, आवाज़ और तासीर किस चीज़ की बनी थी –

जय जगदीश हरे (आनंद मठ), दे भी चुके हम दिल नज़राना (जाल), जाने क्या तूने कही (प्यासा), कोई दूर से आवाज़ दे चले आओ (साहब बीबी और ग़ुलाम) मेरा नाम चिन चिन चू (हावड़ा ब्रिज), जा जा जा, जा बेवफ़ा (आर-पार) जोगी मत जा (जोगन) मुझे जॉं न कहो मेरी जान(अनुभव) आदि ऐसे नायाब नगीने हैं जिन पर आज भी गीता दत्त का नाम हमारे दिलों में महफ़ूज़ है। गीता दत्त अपने नाम की तरह एक पवित्र स्वर है। संगीत का कारोबार फलता-फूलता रहेगा, गायक-गायिका आएँगे-गाएँगे, गीत रचे जाएँगे, लेकिन गीता दत्त की आवाज़, उनका फ़न, उनकी शख़्सियत सुबह के सच होने वाले सपने की ख़ुशी देती रहेगी।

आइये इस मिश्री सी मीठी आवाज़ को भी सुनते चलें.

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Thursday, July 17, 2008

कविता में हमेशा अपने अवसाद को उड़ेलने वाले अशोक वाजपेयी.



पिछले सप्ताहांत में देश के जाने माने कवि,आलोचक,संस्कृतिकर्मीं और ललित कला अकादमी के अध्यक्ष श्री अशोक वाजपेयी माँडू प्रवास पर मालवा में थे.संस्कृति प्रशासक के रूप में अशोकजी ने अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाई है.उनकी कार्यशैली को लेकर हमेशा विलाप होता रहा है लेकिन वे हैं अपने तरीक़े से काम किये जाते हैं.लोकोक्ति सी बन गई है कि जिस दिन अशोक वाजपेयी का एक आलोचक पैदा होता है उसी दिन उनके चार प्रशंसक भी पैदा हो जाते हैं.अलमस्त तबियत के अशोक वाजपेयी तनाव के क्षणों में भी ठहाका लगाते देखे जा सकते हैं जो उनकी देहभाषा का
स्थायी भाव बन गया है.

एक समर्थ कवि के अलावा रंगकर्मे,शास्त्रीय संगीत,चित्रकारी,विश्व-कविता और नृत्य पर उनकी गहरी सूझ हमेशा चौंकाती है. यहाँ माँडू में भी उन्होने देश के जाने माने चित्रकारों के साथ तीन दिन बिताए और भीगते माँडू के शिल्प (माँडू के चित्र भी इसी ब्लॉग पर आप शीघ्र ही देखेंगे.इसी दौरान राज एक्सप्रेस के कला संवादताता और मित्र पत्रकार चंद्रशेखर शर्मा ने अशोक जी से मुख़्तसर सी बातचीत की;यहाँ जस की तस रख रहा हूँ उसे.-संप.




बात भारत भवन से शुरू करेंगे। बताइए, आपकी निगाह में उसकी दुर्दशा के लिए कौन ज़िम्मेदार है?

मेरे हिसाब से इसके लिए तीन शक्तियॉं ज़िम्मेदार हैं। एक, मध्यप्रदेश की राजनीति। चाहे वो कांग्रेसी हों या भाजपाई, दोनों इस मामले में राजनीति से ऊपर उठकर सोचने की हिम्मत नहीं कर पाए। दूसरी है नौकरशाही, जो कला एवं संस्कृति के प्रति असंवेदनशील सिद्ध हुई और तीसरी है व्यापक समाज का निर्लिप्त भाव। इस मामले में समाज को आवाज़ उठाने की ज़रूरत थी, जो कि नहीं उठाई गई। (ठीक फुहारों की तरह उनके शब्द भी हौले-हौले और झूलते-से कानों में उतर रहे थे, भ्रम में डालने वाले अंदाज़ में कि कहीं कविता तो नहीं?)

क्या कारण है कि कवि को कविता छोड़कर आलोचना का रुख करना पड़ा?

नहीं, नहीं, कविता को मैंने छोड़ा नहीं है। मेरा ताज़ा वाला काव्य संग्रह तो अभी कुछ समय पहले ही आया है। इसके अलावा मेरे अभी तक कुल १३ काव्य संग्रह आ चुके हैं और जितने भी मेरे हम उम्र कवि हैं, उनमें से किसी के भी इतने काव्य संग्रह नहीं आए। रही बात आलोचना की, तो वे शुरू से कर रहा हूँ। छियासठ में मेरा पहला काव्य संग्रह आया था और सत्तर में आलोचना की मेरी पहली पुस्तक आ गई थी। सो, मैं ४५ साल से आलोचक और ५० साल से कवि हूँ, केवल पांच साल का तो फ़र्क है। फिर मैंने केवल साहित्य की आलोचना नहीं की, संगीत, नृत्य और कला की आलोचना भी की और जिस पैमाने पर की, उस पैमाने पर किसी और ने नहीं की। उसी का प्रतिफल है कि बुनियादी तौर पर साहित्यकार होने के बावजूद मुझे ललित कला अकादमी का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। (तर्क एकदम से चितेरा हो जाता है।)

अच्छा ये बताइए कि आप तो बड़े सरकारी अफ़सर भी रहे, क्या कभी आपके अफ़सर ने आपके कवि को कोई नफ़ा-नुकसान पहुँचाया या वाइसेवरसा ?

बात ये है कि अव्वल तो मैंने दोनों को हमेशा भरसक अलग-अलग रखा, फिर कवि तो अफ़सर का क्या नुकसान करता, उलटे अफ़सर ज़रूर कवि का नुकसान कर सकता था, लेकिन मैं इस मामले में सतर्क और चौकन्ना रहता था। दरअसल ये मेरे निंदकों की उड़ाई हुई है कि मैं अफ़सर-कवि रहा, जबकि हक़ीक़त इससे ठीक उलटी है। (सहजता बरक़रार है)

ये भी कहा जाता है आप अभी मुख्यधारा के कवियों में शुमार नहीं हैं।



मुख्धारा में न रहे न सही, अपनी धारा में तो रहे। इसका न कोई क्लेश है, न संताप है और सही बात तो यह है ऐसी आकांक्षा कभी रही भी नहीं।

एक कवि होने के लिए सबसे ज़रूरी चीज़ या चीज़ें क्या होती हैं?


इसके लिए तीन चीज़ें चाहिए होती हैं। एक, भाषा से खेलने का उत्साह। दूसरा, अकेले पड़ जाने से घबराहट का अभाव, यानी एकांत चाहिए होता है और तीसरा, है कविता कोई आवरण नहीं है कि उसे ओढ़कर सच्चाई को उससे ढांप लें।

ख़ुद को कविता में कैसे व्यक्त करना चाहेंगे?


मैं बाहर से हंसमुख, अंदर से उदास और कविता में हमेशा अपने अवसाद को उड़ेलता हुआ व्यक्ति हूँ।

Sunday, July 13, 2008

आज मदन मोहन की बरसी और बाँसुरी पर बजते उनके गीत

आज यानी 14 जुलाई को अपने संगीत से जादूगरी करने वाले अज़ीम मौसिकार
मदन मोहन जी की बरसी है (निधन वर्ष : 1975) मदन जी का संगीत तो हम
वर्ष भर सुनते ही रहते हैं क्योंकि वह किसी तारीख़ या कालखण्ड का मोहताज
नहीं है ; आपको मदन मोहन के संगीत नियोजन में लता मंगेशकर
के गाये कई गीत सुनने को मिल जाते हैं ; लेकिन आज कोई नई चीज़ परोसी
जाए आपको.

हमने कई बार महसूस किया है कि किसी भी गीत की ताक़त होती है उसकी
धुन (हालाँकि संगीतकार को क्रेडिट देने के मामले में हम आज भी थोड़े कंजूस ही हैं)
इसी बात को साबित करने के लिये आज आपके लाया हूँ मदन मोहन का संगीत
लेकिन उसमें शब्द नहीं हैं. गीत हम सुनेंगे बाँसुरी पर , मेरा दावा है कि
शब्द स्वत: ही आपके होठों पर आकर थिरकने लगेंगे.इसे बजाया है
मेरे बाल सखा और मध्य-प्रदेश के जाने माने कलाकार सलिल दाते ने.

सलिल दाते को शास्त्रीय संगीत की तालीम देश के जानी मानी वॉयलिन
वादिका डॉ.एन.राजम और बाँसुरी वादक पं.रोनू मुजुमदार से मिली है.
सलिल वॉयलिन और बाँसुरी दोनो ही वाद्यों मे निष्णांत हैं.
सलिल बेहतरीन संगीतकार भी हैं और तलत महमूद और
संगीतकार मदन मोहन के अनन्य मुरीद.बेहद कोमल और भावुक
सलिल दाते एक राष्ट्रीयकृत बैंक मे कार्यरत हैं
लेकिन उनका पहला प्यार है संगीत और सिर्फ़ संगीत.

हाँ ये भी बता दूँ कि सलिल दाते के वादन को मदन मोहन जी के सुपुत्र संजीव कोहली ने भी बहुत सराहा और प्रतिक्रियास्वरूप एक पत्र में लिखा कि मेरे पिता के संगीत की ख़ूबियाँ बाँसुरी जैसे क्लिष्ट वाद्य में आपने जिस तरह से उभारीं हैं वह तो उल्लेखनीय है ही ; साथ ही आपकी निजी सांगीतिक सोच भी वादन के सुरीलेपन में इज़ाफ़ा करती है.यदि आप भी सलिल को अपना प्रतिसाद देना चाहें तो उनका मोबाइल नम्बर नोट कर लें 09425346188

सुनते हैं बाँसुरी पर मदन मोहन के ये जो एक धुन के रूप में आप से मुलाक़ात
करने जा रहे हैं फ़िर भी उनका प्रभाव यथावत है.पहले ट्रेक में सलिल दाते के
एलबम मेरा साया साथ देगा का परिचय ख़ाकसार की आवाज़ में है
. हाँ ये एलबम
विशुध्द रूप से लताजी और मदन मोहन जी के गीतों पर ही एकाग्र है.








नैनों मे बदरा छाये ये आख़िरी पेशकश है सलिल दाते की जो सवेरे पूरी नहीं सुनाई दे रही थी.अब इसे फ़िर से लगाया है . आशा है राग भीमपलासी का पूरा रंग आपको मदन मोहन जी की यादो मे भिगो देगा.

चलते चलते ये भी बता दूँ कि बाँसुरी वादक सलिल दाते और संगीतकार मदन मोहन जी पर एकाग्र इस पोस्ट को आज कई संगीतप्रेमियों ने पढ़ा जिनमें से एक थे मदन मोहन जी के सुपुत्र श्री संजीव कोहली. उन्होंने ईमेल के ज़रिये अपनी जो बात कही वह भी इस पोस्ट को संपादित कर यहीं शुमार किये दे रहा हूँ

Dear Sanjayji

Thank you so much for remembering our dear father on this day.

It is admirers like you who keep him alive through the appreciation of his work even after 33 years of his leaving us.

I read and enjoyed your blog as well as the Shrota Biradari blog.

pl. once again convey my regards to Salil Dateji

All the best

Sanjeev Kohli

Saturday, July 12, 2008

अब ढूँढे न मिलेगी ऐसी संजीदगी.

कृष्णचंद्र शुक्ल एक नेक दिल, सादा तबियत इंसान.ज़बरदस्त स्वाध्यायी.
लायब्रेरी में जाकर देश के तमाम अंग्रेज़ी-हिन्दी अख़बार पढ़ डालते.मेडीकल
काँलेज इन्दौर में कार्यरत थे.पिछले बरस गुज़र गए. आज अनायास याद आ गए.
किसी भी सामयिक विषय पर उनके सैकड़ों पत्र देश भर के अख़बारों
के संपादक के नाम पत्र स्तंभ में छपते थे.

सायकल पर चलते रहे ताज़िन्दगी,आँखों पर चश्मा,चेहरे पर दूधिया खिचड़ी
दाढ़ी.एक दिन अनायास मेरे दफ़्तर आए.अभिवादन किया मैने उनका.उम्र में
मेरे पिता से बड़े थे तो ताऊजी संबोधित करता था उनको.सलाम-दुआ के बाद
कुछ ताज़ा विषयों पर बात आ गई . मैने पूछा कैसे आना हुआ. बोले तुमने पिछले
दिनों एक पेपर भेजा था मुझे ? मैंने कहा हाँ मिल गया होगा.बोले हाँ वह तो ठीक है
लेकिन तुम्हें याद है संजय वह तुमने बुक – पोस्ट से भेजा था.मैंने कहा हाँ .
अख़बार था सो एक रूपये का टिकिट लगा कर भेजा था. शुक्ल जी बोले
तुमने उस अख़बार में एक चिट्ठी भी रख दी थी..हाँ मैने कहा..वह अख़बार
क्यों भेजा था उसके बारे में एक छोटी सी टिप्पणी थी उस स्लिप पर.
शुक्लजी बोले बुक पोस्ट का मतलब यह नहीं कि हम खुली डाक में
कुछ भी रख दें.तुमने अख़बार में एक छोटी सी स्लिप ही क्यों न रखी हो
वह नितांत ग़लत काम है.अख़बार में कोई काग़ज़ रखना था तो उसे लिफ़ाफ़े
में रखकर पाँच रूपय का टिकिट लगा कर पोस्ट करना चाहिये था.
मैंने उसी वक़्त कान पकड़े कि आज के बाद कभी ये
गुस्ताख़ी न होगी.उन्होंने कहा कि पोस्टमेन ने हालाँकि इसका नोटिस नहीं लिया
लेकिन हमें तो इस देश के एक सजग नागरिक के रूप में क़ानून-क़ायदे का
अनुसरण करना चाहिये.किसी ने देखा नहीं तो क्या ; अनैतिकता तो अनैतिकता ही होती है
बात छोटी सी थी लेकिन मेरे मन पर अंकित हो गई.
ये भी समझ में आया कि नैतिकता के तक़ाज़े क्या होते हैं.कृष्णचंद्र शुक्ल उठकर जाने को थे कि मेरी नज़र उनके शर्ट की जेब पर पड़ गई.
मैने पूछा ताऊजी क्या पोस्ट ऑफ़िस से आ रहे हैं.बोले नहीं.मैने पूछा तो फ़िर
आपके जेब में इतने सारे पोस्ट कार्ड्स ? शुक्ल जी बोले , संजय हर वक़्त जेब में
कम से कम दस पोस्ट कार्ड्स रखे रखता हूँ.कोई विचार आया किसी अख़बार में
संपादक के नाम पत्र के लिये,तो सायकल सड़क के किनारे लगाई और सीट पर
लिख डाले अपने विचार.और घर पहुँचने के पहले जो भी निकटस्थ पोस्टबॉक्स
दिखाई दिया ..कर दी चिट्ठी पोस्ट.मैंने कहा इतनी जल्दबाज़ी विचार को लिख डालने
की क्यों ? बोले विचार का क्या है सही पते पर आ गया तो आ गया और नहीं
चिट्ठी को बेरंग होने में वक़्त थोड़े ही लगता है.मैने कहा मतलब समझा नहीं ताऊजी.शुक्लजी बोले देखो विचार आया और उसे पकाते हुए घर पहुँचो,पानी पियो,
सुस्ताओ,कोई आकर बैठा है या कोई डाक आई हुई है ...इतने में तो दिमाग़ में मेहमाँ हुआ ख़याल काफ़ूर हो जाता है.बस इसीलिये ये दस पोस्टकार्ड्स चाक-चौबंद से
जेब में दमकल से तैयार रहते हैं......

आज कृष्णचंद्र शुक्ल नहीं हैं और न ही हैं अख़बारों में नियमित रूप से प्रकाशित होने
वाले उनके पत्र , लेकिन उनकी याद और नसीहत दिल में हमेशा बसी रहती है.हाँ अपनी बात ख़त्म करते करते ये भी बताता चलूँ कि शुक्लजी गीता पर एक अथॉरिटी
थे और महज़ दस बारह पेजों में उन्होंने सीधी-सच्ची गीता शीर्षक से एक पुस्तिका का प्रकाशन भी किया था जिसे पढ़ कर आप पूरा गीता सार जान सकते हैं.उन्हें गीता
के अनेक श्लोक मुखाग्र याद थे.कहते हैं न एक बुज़ुर्ग के चले जाने से एक लायब्रेरी जल जाती है.

Sunday, July 6, 2008

शहर को चलाना है;सियासत को नहीं;रहम खाओ-सियासत न चलाओ

कर्फ़्यू के साये में बेहोश मेरे प्यारे शहर के दिन-रात
इसकी लय और गति को बाधित कर रहे हैं.बच्चे,बूढ़े
हिन्दू,मुसलमान,बड़े –छोट,अमीर-ग़रीब...सब दुआ कर रहे
हैं अरमानों का ये शहर सियासत से मुक्त हो कर अपने रंग
में आ जाए.मेरी बात पढ़ते पढ़ते आपको लगे मैं कि मैं ठीक कह
रहा हूँ तो गुज़ारिश है आपसे कि अपनी तमाम प्रार्थनाओं
में मेरे दुलारे शहर को भी शरीक कर लें.


ख़ून चलेगा ,पत्थर चलेगा
सियासत न चलाओ

गोली चलेगी,ज़ख़्म चलेंगे
सियासत न चलाओ

इन्तज़ार चलेगा,भूख चलेगी
सियासत न चलाओ

कर्फ़्यू चलेगा,पुलिस चलेगी
सियासत न चलाओ

रोना चलेगा,आँसू चलेंगे
सियासत न चलाओ

कड़वा चलेगा,तल्ख़ी चलेगी
सियासत न चलाओ

दूरी चलेगी,तनाव चलेगा
सियासत न चलाओ

ख़ामोशी चलेगी,भाषण चलेंगे
सियासत न चलाओ

झूठे वादे चलेंगे,आहें चलेंगी
सियासत न चलाओ

शहर चलेगा,सियासत न चलेगी
रहम खाओ, सियासत न चलाओ

इन्दौरनामा और मोहल्ला पर भी देखें मेरे शहर और मेरे दु:ख के शब्द चित्र

इन्दौरनामा में जारी 'ये सिर्फ़ एक शहर नहीं ; इंसानियत की आवाज़ है' शीर्षक की कविता को नईदुनिया और
मोहल्ला मे जारी 'ये किसका लहू है कौन गिरा' शीर्षक की कविता को दैनिक भास्कर ने प्रमुखता से प्रकाशित किया है।
इस प्रकाशन के लिये दोनो प्रकाशनों और मोहल्ला के अविनाश भाई का शुक्रिया अदा करता हूँ।

Thursday, July 3, 2008

अपने दिल से पूछिये! क्या जनरल मानेकशॉ के साथ ठीक किया हमने ?


सेना का एक ज़ाँबाज़ महानायक था वह.उसके परिदृष्य पर आने के बाद
भारतीय सेना की प्रतिष्ठा पूरे विश्व में फ़ैली. जनरल मानेकशा ने सन 1971
के युध्द में देशवासियों के आत्मविश्वास और स्वाभिमान में अविश्वसनीय
इज़ाफ़ा किया. एक प्रश्न छोड़ रहा हूँ आप तक.ज़रा अपने दिल से पूछियेगा.
छोटा मोटा राजनेता गुज़र जाता है ; प्रदेश सरकार राजकीय शोक की घोषणा
कर देती है.राजनीतिक पार्टी के प्रमुख का निधन हो जाए राष्ट्रीय शोक हो जाता
है.
फ़ील्ड मार्शल मानेकशा के निधन पर उनके
सम्मान में राष्ट्रीय शोक क्यों नहीं घोषित किया गया ?


कोई राष्ट्रीय स्तर का नेता उनकी अंत्येष्टी में नहीं पहुँचा.
समाचार पत्रों में ख़बरें छपीं,चैनल्स पर पुरानी फ़िल्मों की रील चली...
चलो हो गई इतिश्री.

दु:ख होता है सोचकर..मेरे शहर में एक फ़िल्म को प्रोमो के लिये
बिग-बी कहे जाने वाले अमिताभ बच्चन नहीं पहुँच पाते तो युवक/युवतियाँ
रोने लगतीं हैं....अख़बार रोते हुए बिग-बी प्रेमियों की तस्वीरें छापते हैं.
जनरल मानेकशा ने इस देश की सरहद को सुरक्षित रखने के लिये
जो किया ; क्या किसी को बताने की ज़रूरत है ?

हद है एक सच्चे
महानायक के लिये हमारी आँखों की कोर नहीं भीगती.क्या हम एक
ढोंगी और दोगले समय में नहीं जी रहे
?

Saturday, June 28, 2008

देर रात को जग रहें हों तो सारंगी पर सुनिये ये मांड

केसरिया बालम पधारो म्हारे देस ये बंदिश आपके लिये अपरिचित नहीं हैं।राजस्थान के लोक संगीत में तो ये सुनी ही जाती रही है लेकिन भारतीयशास्त्रीय संगीत में भी ये एक प्रमुख राग है. मांड कई रंगों की होती हैं.पं.अजय चक्रवर्ती ने इस पर ख़ासा शोध किया है और जाना है कि तक़रीबन सौ तरह की माँडें गाई बजाई जातीं रहीं हैं।

Maand - Sarangi.wm...



सांरगी शास्त्रीय संगीत का प्रमुख संगति वाद्य है ।लेकिन एकल वाद्य के रूप में भी सारंगी बहुत मनोहारी सुनाई पड़ती है। पं.रामनारायण,साबरी ख़ाँ,लतीफ़ख़ाँ और सुल्तान ख़ाँ जैसे कई उस्ताद सारंगी के ज़रिये क्लासिकल मौसिक़ी की ख़िदमत करते रहे हैं।और हाँ रावण हत्था नाम का लोक वाद्य भी सारंगी का पूर्ववर्ती स्वरूप रहा है। आपने कई मांगणियार या लांगा गायकों के साथ में सारंगी बजती सुनी होगी.सुल्तान ख़ाँ साहब की बजाई इस माँड में बस बोल नहीं हैं लेकिन सुनिये तो इसमें दीन - दुनिया की कितनी सारी खु़शियाँ और ग़म पोशीदा हैं.

Wednesday, June 25, 2008

बरखा के अभिनंदन में भीगी ये मल्हारमय बंदिश

मेवाती घराने के चश्मे-चिराग संजीव अभ्यंकर देश के उन शास्त्रीय संगीत गायकों में
से एक हैं जिन्होंने अल्पायु में अपने गुरू पं.जसराज की गायकी को आत्मसात कर
पूरी दुनिया में अपनी अलग पहचान बनाई है. मेवाती घराने में बंदिश की ख़ूबसूरती
पर क़ायम रहते हुए गायकी के किलोल से अदभुत तेवर सिरजे जाते हैं।



संजीव की आवाज़ की मिठास जादू और उस पर मेवाती घराने की
गायकी का आसरा । सब कुछ कुछ यूँ सधता है कि हमें अपनी मशीनी जीवन शैली से कोफ़्त
सी होने लगती है.और हाँ इस गायकी की सबसे बड़ी विशेषता ये है कि छोटी छोटी
तानों को बड़ी सुघड़ता से सँवारा जाता है.जैसे कोई सुन्दरी अपने प्रियतम के स्वागत
में अपनी ड्योढ़ी पर बंधनवार सजा रही हो.

थोड़ा तन्मय होकर सुनेंगे तो महसूस करेंगे कि क्लासिकल मौसिक़ी जब अपने
शबाब पर होती है तब सुनने वाला अपनी सुधबुध खो बैठता है. शास्त्र में ज़्यादा
उतरने की ज़रूरत नहीं..बस स्वर की सृष्टि के भाव-लोक में चले जाइये.....
लौटने को जी नहीं चाहेगा.विलम्बित से शुरू होकर मध्य और द्रुत लय पर
आती आती ये बंदिश कितना कुछ कह जा रही है सुनिये तो.....

ये रतजगा आपको सुरीला ही लगेगा....शर्तिया.



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कपिल देव हर साल पैदा नहीं होते हैं... युगों में जन्म लेते हैं

आज 1983 विश्वकप जीत को फ़िर याद करने का दिन है। क्रिकेट इस देश में मज़हब
की तरह माना जाने लगा है. मुझे याद है जब 1971 मे अजीत वाड़ेकर के नेतृत्व में
जब भारत में वेस्ट इंडीज़ और इग्लैंड मे पराजित किया था तब मेरे शहर में एक विजय बल्ला स्थापित किया गया था. और जब कुछ बरस बाद इग्लैंड ने भारत को 50 के भीतर ऑल-आउट कर दिया तो मेरे ही शहर के कुछ जोशीले युवक उसी विजय बल्ले पर कालिख पोत आए थे. लेकिन 1983 के बाद इस देश के क्रिकेट की तस्वीर बदल गई.एक नया हौसला , जोश और आत्मविश्वास नज़र आने लगा भारतीय टीम. जीत-हार तो चलती रही लेकिन भारतीय क्रिकेट के लिये नज़रिये में बदलाव आया और क्रिकेट-प्रेमी भी अब ज़्यादा मैच्योर दिखाई दे रहा है. इस बदलाव का बड़ा श्रेय कपिल देव को देना ही होगा. मेरे शहर के प्रमुख सांध्य दैनिक प्रभात-किरण ने इसी पसेमज़र कल शाम देव का वरदान शीर्षक से एक लाजवाब संपादकीय प्रकाशित किया. आप तक ये संपादकीय इसलिये पहुँचा रहा हूँ कि 1983 की जीत के उस सर्वकालिक महान क्रिकेटर के प्रति यह एक सटीक और सार्थक भावना का इज़हार है.


विज़्डन के संपादक ने मज़ाक में किसी से कह दिया था कि विश्व कप अगर भारत जीत जाए तो...? उसका जवाब था कि मैं वह पन्ना ही खा जाऊंगा। ...और मज़ाक में लगाई गई शर्त के बाद संपादक ने वह पन्ना पानी पी-पीकर खाया और भारत को कोसा। १९८३ में भारत की टीम का वो दबदबा नहीं था। विश्व कप में वह हारने के लिए ही जाती थी और अंतिम चार में रहना तो उसका सपना था। उन दिनों टीवी पसर चुका था पूरे भारत में... लेकिन विश्व कप में हार देखने के लिए लोग कहाँ बैठने वाले थे। पहले विश्व कप में साठ ओवर के मैच में सुनील गावसकर के आख़िर तक नाट आउट रहते हुए ३६ रन बनाने वाली टीम (टोटल १६० रन) से आप किस चमत्कार की उम्मीद करते हैं। भारतीय टीम एक दिन के विश्व कप में भी टेस्ट मैच जैसा ही बुरा खेलने के लिए कुख्यात थी। ...तभी तो बेचारे संपादक ने पन्ना खाने का जोखिम ले लिया था। यह ऐसी शर्त थी, जिसमें संपादक की जीत तय थी, मगर...!

सफ़ेद कपड़ों में शरीफ़ (यानी पैसे वाले और संपन्न ख़ानदानी) लोगों के इस खेल में हरियाणा एक्सप्रेस ने ऐसी दौड़ लगाई कि पूरे देश के गांव-गांव से यह यक़ीन पैदा होने लगा कि हम भी क्रिकेट खेल सकते हैं। कपिल देव वह नाम था, जो भारत के आम आदमी जैसा था। जिसे अंग्रेज़ी समझ आती थी और जो क्रिकेट के लटके-झटके जानता था। भाला और गोला फेंकते-फेंकते जब यह लड़का क्रिकेट के आसमान में उभरा तो देखते ही देखते चाँद हो गया। हारी हुई पहली बाज़ी उसने ज़िम्बब्वे के ख़िलाफ़ अकेले के बूते पर जीती... और बताया कि क्रिकेट में आख़िरी गेंद से पहले कोई कयास नहीं लगाना चाहिए। सिर्फ़ जीत की इच्छा-शक्ति के आधार पर कपिल ने कई मैच भारत के नाम करवाए। सिर्फ़ एक दिन, टेस्ट मैच में भी कपिल देव का वही अंदाज़ रहा। इस खिलाड़ी में जीत की सदियों पुरानी भूख समा गई थी जैसे।


आज अगर गांवखेड़ों से धोनियों, सहवागों और ऐसे ही कई खिलाड़ियों के जत्थे के जत्थे आते नज़र रहे हैं तो कारण सिर्फ़ कपिल देव ही। कपिल देव ने सिर्फ़ शहरों का एकाधिकार खत्म किया, बल्कि जीत का हौसला भी दिया। वरना पहले तो दस खिलाड़ी मुम्बई के और बाक़ी दिल्ली के होते थे। आज हम भले ही कह लें कि पच्चीस साल में हम दूसरा कपिल देव पैदा नहीं कर सकते तो निवेदन है कि ये कपिल देव के वंशज ही हैं, जो भारत का नाम विश्व क्रिकेट में चमकाए हुए हैं। कपिल देव हर साल पैदा नहीं होते हैं... कपिल देव युगों में जन्म लेते हैं!