बात थोड़ी लम्बी कह गया हूँ ; यदि दस से पन्द्रह मिनट का समय दे सकते हैं तो ही इसे पढ़ें.हाँ इस पोस्ट में व्यक्त किये गए दर्द को समझने के लिये एक संगीतप्रेमी का दिल होना ख़ास क्वॉलिफ़िकेशन है.
बीते तीस बरसों से तो मंच पर बतौर एक एंकर पर्सन काम कर ही रहा हूँ और उसके पहले भी संगीत की महफ़िलों में जाने का जुनून रहा ही है. सौभाग्याशाली हूँ कि पिता और दादा की बदौलत संगीत का भरापूरा माहौल घर-आँगन में ही मिलता रहा.अब जब से मैं ख़ुद एंकर या सांस्कतिक पत्रकार के रूप में सक्रिय हुआ तब से भाँति भाँति के कलाकारों और उससे भी ज़्यादा सुनने वालों से मिलने,बतियाने और विभिन्न कलाकारों और गायन/वादन की कला के बारे में समझने का अवसर मिल रहा है.संगीत विषय पर पढ़ता भी रहता हूँ सो अच्छा ख़ासा समय संगीत के इर्द-गिर्द चला जाता है या यूँ कहना बेहतर होगा कि मेरे इर्द-गिर्द संगीत होता है.मंच से परे भी कार्य-स्थल और निवास पर भी तक़रीबन पूरे दिन संगीत का संगसाथ बना रहता है.देश के कई कलाकारों से भी लगातार संपर्क में रहता हूँ सो तब भी संगीत की ही चर्चा होती रहती है. यहाँ तक जो बात मैने कही है उसे पढ़कर आपको लग रहा होगा कि मैं आत्ममुग्ध हो अपने को ही महिमामंडित कर रहा है.जी नहीं हुज़ूर नाचीज़ को इस तरह की कोई ग़लतफ़हमी नहीं है कि मैं कोई बड़ा कारनामा कर रहा हूँ ;मामला इतना भर है संगीत मुझे ऑक्सीजन देता है और मुझे इंसान बनाए रखता है. दर असल में कहना कुछ और चाहता हूँ
बहुतेरे अवसरों पर जिन संगीतप्रेमियों से मुलाक़ात होती है उनमें कुछ विशिष्ट प्रजाति के होते हैं.हाँ यह साफ़ करता चलूँ और स्वीकार कर लूँ कि संगीत बहुत सब्जेक्टिव टर्म है यानी तरह –तरह के लोग और तरह तरह् की पसंद.लेकिन अपनी पसंद से भी जो लोग किसी महफ़िल में आते हैं तो वहाँ भी एक विशिष्ट क़िस्म की अतृप्तता महसूस करते हैं.कहने को म्युज़िक सर्कल्स में ये लोग अपने आप को सुर-सुजान कहलवाना पसंद करते हैं लेकिन तबियत में विशिष्ट खसलत लिये हुए होते हैं.उदाहरण के लिये एक सज्जन हैं जो चाहे शायरी की महफ़िल में हों या संगीत की;हमेशा अपनी फ़रमाइश लेकर खड़े हो जाते हैं....एक आयटम ख़त्म हुई; कहेंगे...गिरिजाजी (विदूषी गिरिजा देवी)आज भैरवी ठुमरी के पहले एक चैती ज़रूर होना चाहिये ! ग़ज़ल की महफ़िल है तो जगजीतजी (जगजीत सिंह) आविष्कार फ़िल्म का आपका और चित्राजी वाला बाबुल मोरा सुना दीजिये न प्लीज़....प्रहलादसिंह टिपानिया ने अच्छा-भला माहौल बना रखा है कबीरपंथी गीतों का और आप श्रीमान खड़े हो गए...पेलाद दादा हलके गाड़ी हाँको रे रामगाड़ीवाला सुना दीजिये न ! कलापिनी कोमकली गा रही है जैजैवंती से समाँ बंध गया है और उन्होनें तानपूरे के तार भैरवी के लिये मिलाना शुरू किया ही है और आप जनाब नमूदार हुए हैं महफ़िल में और कहेंगे ...मैडम ! कुमारजी का झीनी झीनी झीनी रे चदरिया तो हुआ ही नहीं......कई बार तो कलाकार सहज होकर उनकी बात सुन लेता है लेकिन कई बार कार्यक्रम ऐसा बेमज़ा होता है कि फ़िर उसके सुरीले होने की आस बाक़ी ही नहीं रहती. तो ये तो हुए मुफ़्त के फ़रमाइशीलाल.जैसे कलाकार सिर्फ़ और सिर्फ़ इन्हें ही अपनी रचनाएँ सुनाने यहाँ आया है.
अब एक दूसरी ब्रीड ऐसी है जो थोड़ी सी सुरीली खसलत वाली है. इनका मामला कुछ यूँ है कि ये श्रीमान गाते हैं...ठीक ठाक ही गाते हैं लेकिन किसी और का गाया पसंद नहीं करते.जैसे पुराने गीतों के किसी कार्यक्रम में बैठे हैं;समझ लीजिये मुकेश या रफ़ी साहब की याद में कोई कार्यक्रम चल रहा है तो ये सभागार में ही अच्छा भला गा रहे गायक की मज़म्मत कर देंगे.यार ! खोया खोया चाँद में रफ़ी साहब वाला फ़ील नहीं आ रहा,नहीं नहीं; मुकेशजी ने सारंगा तेरी याद में ... ऐसे नहीं गाया है अब साहब बताइये रफ़ी और मुकेश वाला ही फ़ील कहाँ से आयेगा,वह तो इन दो महान कलाकारों के साथ ही चला गया न .बात यहीं ख़त्म हो जाती तो ठीक , श्रीमान सभागार में ही पास वाली सीट पर बैठी अपनी श्रीमती को खोया खोया चाँद गाकर सुना रहे हैं;गोया याद दिलाना चाहते हों कि ऐसा था रफ़ी/मुकेश की गायकी का फ़ील (?)पास वाले भी झेल रहे हैं इस (बे)सुरीलेपन को.
एक और ज़ात है इन सुर-सुजानों की , हमेशा किसी आर्टिस्ट को किसी दूसरे से कम्पेयर करेंगे यानी उसकी दूसरे से तुलना करेंगे. जैसे अभी पं.जसराज मेरे शहर में आए थे , लाइव शो था और सुनने वाले थे तक़रीबन दस हज़ार.जैसे ही पहली रचना ख़त्म की श्रीमान मेरे पास आ गए ; यार तुम कैसे झेल पा रहे हो इस शोर शराबे में पंडितजी का गायन (जनाब को मेरी तासीर मालूम नहीं कि मैं तो पण्डितजी जैसे महान कलाकार को सुनने नहीं; देखने के लिये भी भरे बाज़ार में चला जाऊँ) मैंने कहा क्यों ? क्या हुआ ? नहीं यार अपने यहाँ दस साल पहले शरद पूर्णिमा पर भीमसेन जी आए थे; याद है ? मैने कहाँ हाँ ! आहा हा हा...क्या रंग जमा था भिया (मेरे शहर में भैया को भिया कहते हैं) वह बात नहीं बना पाए हैं जसराज आज . क्या लचर गा रहे हैं . मैने उनसे बहस करना ठीक नहीं समझा और मशवरा दिया कि ये तो आजकल ऐसा ही गा रहे हैं,शहर में विख्यात गायक शान का लाइव शो भी चल रहा है , सुना है वहाँ काफ़ी रंग जम रहा है. भाई साहब बोले क्या बात कर रहे हो..जगह मिल जाएगी, मैने कहा हाँ शायद मिल ही जाए,आप एक बार ट्राय तो कीजिये....सुर सुजान चलते बने और मैने राहत की साँस ली.अब आप बताइये कितना ग़लत है किसी कलाकार की गायकी की किसी और से तुलना करना.सबका अपना अपना रंग है,घराना है,गुरूजन अलग अलग हैं,परम्पराएँ भी अलग.
पर नहीं उनको तो जसराज जी में भीमसेन जी का रंग चाहिये.मज़ा ये है कि भीमसेन जी से पूछिये तो वे जसराजजी की तारीफ़ करेंगे और जसराज जी के सामने भीमसेनजी की चर्चा चलाइये तो वे कहेंगे भीमसेनजी की क्या बात है.
इसी स्टाइल में एक और गौत्र वाले साह्ब भी हैं . वे क्या करते हैं कि जैसे आज प्रभा अत्रे को सुन रहे हैं तो कहेंगे भाई साहब पिछले साल पुणे के सवाई गंधर्व में जो इन्होंने बागेश्री सुनाई थी वह बात आज सुनाई नहीं दे रही है.मैं सोचता हूँ कि ये ऐसी बेवकूफ़ी की बात क्यों कर रहे हैं .हर दिन अलग होता है, मूड अलग होता है , आख़िर कलाकार भी तो इंसान है.याद आ गई उस्ताद बिसमिल्ला ख़ाँ साहब से बरसों पहले स्पिक मैके की वह महफ़िल जब ख़ाँ साहब बोले थे राग, रसोई , पागड़ी(पगड़ी) कभी-कभी बन जाए. बाद में समझ में आया कि श्रीमान आपको बताना चाहते हैं कि पिछले साल भी ये भी सवाई गंधर्व समारोह सुनने पुणे गए थे.
आज ये आलेख लिखते लिखते मुझे मेहंदी हसन साहब की याद आ गई. बरसों पहले वे एक शो के लिये मेरे शहर में तशरीफ़ लाए थे .शो का समय था रात आठ बजे का. ख़ाँ साहब साढ़े छह बजे आ गए,साज़ मिलवा लिये यानी ट्यून करवा लिये,साउंड का बेलेंसिंग कर लिया और फ़ारिग़ हो गए तक़रीबन सात बजे.फ़िर मुझसे कहा कोई कमरा है ग्रीन रूम के पास ऐसा जो ख़ाली हो,मैने पूछा क्या थोड़ा आराम करेंगे ? बोले नहीं शो शुरू होने के पहले जब तक मुमकिन होगा ख़ामोश रहना चाहता हूँ.मैं उन्हें एक कमरे में ले गया.वहाँ दरवाज़ा भीतर से बंद कर बैठा ही था तो बाहर से किसी ने खटखट की.दरवाज़ा खोला तो सामने आयोजन से जुड़े एक शख़्स खड़े थे , बोले कमिश्नर साहब आए हैं मिलना चाहते हैं मेहंदी हसन साहब से.मैने कहा वे अब शो प्रारंभ होने तक बोलेंगे नहीं , आप उन्हें शो के बाद मिलवाने ले आइये मैं ज़िम्मेदारी लेता हूँ कि ख़ाँ साहब से मिलवा दूँगा.जनाब कहने लगे आप समझते नहीं हैं साहब उखड़ जाएंगे,मैने कहा कहाँ हैं साहब और कमिश्नर से मिलने चला. मैने उन्हें हक़ीक़त बताई; वे एक संजीदा इंसान थे,बोले नहीं मैं नहीं मिलना चाह रहा, मेरी बेटी को ऑटोग्राफ़ चाहिये था.मैने उनकी बेटी की ऑटोग्राफ़ बुक ली और आश्वस्त किया कि उनका काम हो जाएगा.वे तसल्ली से श्रोताओं में जाकर बैठ गये.कमरे में लौटा तो देखा उस्तादजी जैसे ध्यान मुद्रा में बैठे थे. आँखों से अश्रु बह रहे थे. ख़ाँ साहब की टाइमिंग देखिये ठीक पौने आठ बजे उन्होंने आँखें खोलीं और मेरी तरफ़ देख कर मुस्कुराए; कहने लगे चलें जनाब दुकान सजाएँ.मैंने कहा हाँ चलते हैं लेकिन ख़ाँ साहब ये पैतालिस मिनट की ये ख़ामोशी क्या थी. बोले भाई मेरे आज जो जो ग़ज़ले गाने का मन बनाया है उनके मुखड़ों से दुआ-सलाम कर रहा था.फ़िर मैने पूछा कि इस दौरान आँखें क्यों भींज गईं थी आपकी ?ख़ाँ साहब बोले हाँ भाई उस वक़्त ख़ुदा का शुक्रिया अदा कर रहा था कि परवरदिगार तू कितना रहमदिल है कि मुझ नाचीज़ से मौसीक़ी के ज़रिये अपनी ख़िदमत करवा रहा है.सोचिये मेहंदी हसन साहब जैसा बड़ा आर्टिस्ट भी अपने आप से गुफ़्तगू के रूप में थोड़ा सा होमवर्क करना चाहता है.ऐसे में कोई सिरफ़िरा श्रोता एक महान कलाकार का ये नाज़ुक वक़्त चुरा कर कितना बड़ा पाप कर सकता है.कहने की ज़रूरत नहीं कि वह रात मेहंदी हसन साहब की गायकी की एक आलातरीन रात थी.ऐसी जो कभी कभी गाई जाती है बड़े नसीब से सुनने को मिलती है.
मुझे लगता है कि श्रोता हर तरह से अपनी पसंद/नापसंद तय करने का अधिकार रखता है . बल्कि ये उसका हक़ है लेकिन सच्चा और खरा श्रोता सजग,संवेदनशील और सह्रदय होता है..वह जानता है न जाने कितने तप और रियाज़ के बाद कोई कलाकार अपनी प्रस्तुति को लेकर पूरी उम्मीद के साथ आपसे रूबरू होता है. आपकी थोड़ी सी भी नासमझी कलाकार के पूरे मूड को बिगाड़ सकती है. अब बताइये साहब कि संगीत की महफ़िल में कोई बड़बोला , फ़रमाइशीलाल अपनी कोई फ़रमाइश लेकर कलाकार को डिस्टर्ब कर दे तो क्या हो.या कोई फ़ैन ऑटोग्राफ़ लेने के लिये गायक को परेशान करे ये तो ठीक नहीं.ईमानदार श्रोता वह है जो रहमदिल होकर कलाकार की तपस्या का मान करे और सह्र्दय होकर उसकी कला को दाद देकर उसे नवाज़े; उसका हौसला बढ़ाए.
कभी ठंडे दिल से सोचियेगा कि क्या मै ठीक कह रहा हूँ.
24 comments:
कलाकारों की दुनियां के बारे में ज्यादा न मालूम था। पर मेंहदी हसन का वाकया छो गया मन को।
असहमति का कोई कारण ही नहीं है भाई। आपकी बात सोलह आने सही लगती है हालांकि बंदे को पर्सनली इस तरह का कोई अनुभव नहीं क्योंकि कोई लाइव शो कभी अटेंड ही नहीं किया।
एकदम सत्य वचन महाराज, आपको सादर नमन है इतने "किसिम-किसिम" के चरित्रों के मिलवाने के लिये… महफ़िलों में मोबाइल नामक "कुत्ते के पट्टे" के बारे में चार लाइन और जोड़ दीजिये…
सँजय भाई
आप जैसे सँवेदनशील इन्सान से ऐसे ही आलेख की उम्मीद की जा सकती है और उमीद पे दुनिया कायम है और सच्चे सँगीत प्रेमियोँ की बदौलत सँगीत आज भी सुकुन का आखिरी ठिकाना है :)
आपको अनेकोँ शुभकामनाएँ ..
स स्नेह सादर,
- लावण्या
agree!
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awdhesh pratap singh
Indore
आपकी थोड़ी सी भी नासमझी कलाकार के पूरे मूड को बिगाड़ सकती है.-बिल्कुल सहमत हूँ आपसे.
असहमति की कोई वजह ही नहीं हो सकती है संजय दद्दा.
सहमत हूं !
सहमत हूं !!
सहमत हूं !!!
खेद है कि अपने यहां एक अच्छा/ सुधी पाठक-दर्शक -श्रोता बनने की संवेदनशीलता विरल होती जा रही है. सुनना-पढ़ना-देखना भी एक कला है और यह गहरे रियाज के मांग करती है.
आप दुआ करें कि मौला इस नाचीज को इस कला का एक कतरा अता फरमाए.
एक बर फ़िर, साधुवाद ! किसिम-किसिम कलाप्रेमियों (भिया लोगों ) का वर्गीकरण अच्छा रहा.
...यहु संसार में...
संजय भाई, बड़ा सुंदर लिखा है. आमने-सामने सुनने में कुछ बात है जो CD या रेडियो में नहीं, चाहे आप लाइव कार्यक्रम हूबहू ही रिकॉर्ड क्यों न कर लें. जाहिर है कि महफिलों के इस श्रवणानन्द में सुधी श्रोताओं की बड़ी भूमिका होती है. यूं तो बैठकों की कुछ ऐसी परम्परा थी कि नए गायक को मंच पर चढ़ने में जितनी घबराहट होती, उससे ज्यादा डर नए श्रोता को आगे बैठने में लगता था. मंच पर यदि तानसेन गा रहे हों तो सामने "कानसेन" ही बैठने की हिम्मत कर सकते थे. अब तो जो महँगा टिकट खरीद सके या पास हथिया सके वो सामने बैठे. देखते हैं यह "लोकतांत्रीकरण" संगीत को किस ओर ले जाता है.
संजयभाई
कलाकार की तपस्या को समजने वाले संवेदनशील श्रोता आज के दिनों में बहुत कम मिलेंगे |
सत्य बात बताने के लिए आपको अंत:कर्ण से धन्यवाद |
-हर्षद जांगला
एटलांटा , युएसए
संजय भाई,
आप स्वयं एक गुणी और संवेदनशील कलाकर्मी हैं, इसीलिये अपनी बिरादरी का दुख दर्द आप जान पाये. आपकी यह पाती शायद पहली बार इस हृदयस्पर्शी विषय की ओर ध्यान आकर्षित करती है.
इन सभी कानसेन और तानसेनों को समझ आ जाये तो दुनिया और भी सुरीली हो जाये. ये सीख अभियान हमें स्वयं से भी करना होगा, एक आत्मावलोकन कर. अगर हम कण भर भी अंश पायें और उसे मिटायें तो संजय भाई का लेख सार्थक हो जायेगा.
मोबाईल नाम के कुत्ते के पट्टे के बारे में भी सही कहा है.
इस पर मुतास्सिर हो मैनें भी इस दर्शन को आगे बढा़या है, मेरे चिठ्ठे ’दिलीप के दिल से ’ पर.
आप सही कह रहे हैं |
बरसों से दुखी हूं इन बदतमीज़ों की हरकतों से ...अलबत्ता गाड़ियां बड़ी चमकदार होती हैं इनकी...इत्र भी महंगे लगाते हैं...भीनी भीनी खूश्बू माहौल को शानदार बनाती है...मगर नासमझी....उफ !!!!
उसी की तो बात कही है आपने यहां....
mun khol kar sacchhi baaten kahin hain bhayiyaa aapney
बहुत दिल से लिखा है। सुनना अपने आप में एक बहुत बड़ी कला है। शायद इसी लिए इसे रसास्वादन कहते हैं।
सुनने और समझने के लिए एक संवदेनशील दिल होना चाहिए। कई बार कार्यक्रम के दौरान विशेषज्ञ पड़ोसी मिल जाते हैं, तो बड़ी परेशानी होती है।
- आनंद
संगीत या साहित्य की महफ़िलों में खाज खाए कुत्तों की तरह होते हैं ऐसे गुणीजन. इन के साथ किया तो ये जाना चाहिये कि मेन गेट पर इनके हाथ बांध दिये जाएं, मुंह में कपड़ा ठूंसा जाए और ज़रा भी हरकत करने पर एक लात. मेरे ख़ुद ऐसे बहुत अनुभव हैं संजय भाई.
पर ख़ान साहब पर आपका संस्मरण मर्मस्पर्शी है.
बधाई.
बहुत ठीक लिखा भाई और बहुत शानदार भी।
संजय जी, मैं पूरी तरह से सहमत हूँ। आपके द्वारा शहर में अधिकांशत: संगीत समारोह संचालित किये जाते हैं और उनका मैं प्रत्यक्ष गवाह रहता हूँ। आपकी एंकरिंग का ज़वाब नहीं। लता अलंकरण से लेकर रंगे-ए-महफिल तक सभी कुछ मन को भाने वाला।
पहली बार प्रसास कर रहा हूँ आपके ब्लॉग पर टिप्पणी देने का। वैसे आपकी अधिकांश टिप्पणियॉं यूनुस भाई के ब्लॉग पर पढ़ी हैं।
एक बात और आपके ब्लॉग पर आने पर लगता है कि हम एच एम वी के शो रूम पर आ गये हों, चारों तरफ संगीत की मधुर मधुर बयारें ...
शुभकामनाऍं, निरंतर जारी रखें हमेशा की तरह की ऊर्जा के साथ।
bilkul theek likha hai aapne... ye aapke sanchaalan aur mauseequi ki mahfilon me jane ke itne barso ka hi nichod hai...
mujhe bhi is baat se kafi koft hoti hai... ek wakya yaad hai jab shayad koi 10 saal pehle apne lal bagh me malwa utsav me girija devi ji aayi thi... unki ek do bandishon aur ek aadh tappe thumri k baad hi ek sajjan ne unse bhairwi ki farmayish kar di... bite kai mahino se to maine koi live vocal concert nahi suna lekin tab bade gayak bhairwi ke baad kuch aur nahi gaya karte the...
mera khyal hai ki fankaro ko unki pasand ka ga lene diya jana chahiye aur tabhi shrotayo ki farmayeesh karna chahiye...
baaki aapki tippani jordar hai...
badhai...
You are absolutely right sir.
aap ka lekh bahut dhyan se padha hai-
wakayee vishwas nahin hota ki aisey shrota bhi hotey hain-jo sangeet ke stambh maane janey wali hastiyon ke liye itni halki baat kah saktey hain-
thanks for sharing your experience.
आपने कलाकार के मन की बात कहीं हैं ,बहुत ही सच्ची बात हैं,पुरा कार्यक्रम श्रोता के कारण बनता बिघडता हैं ,मैं ख़ुद कलाकार हूँ न ऐसे श्रोताओ के कारण कितनी मुश्किल होती हैं समझती हूँ,जानती हूँ . कुछ श्रोताओ के कारण कलाकार को कार्यक्रम देना कठिन हो जाता हैं और बाकि सुनने वालो का भी मजा ख़राब हो जाता हैं ,आपको बहुत बधाई अच्छे आलेख के लिए
अपने, ऐसे अनेक प्रिय मित्रों से मैं भी दुखी हूं । मेरे कस्बे में वैसे भी, ऐसे आयोजन 'गलती से ही' होते हैं तिस पर 'ऐसे' श्रोता ।
मैं क्या कहना चाहता था - यह आपकी इस पोस्ट ने उजागर किया ।
बात मेरी थी, तुमने कही,
अच्छा लगा ।
ये लेख पढ़ के मेरी आँखें भीग गई मेरे रोंगटे खड़े हो गए .. मेरे पास शब्द नही है के मैं क्या कहूँ....
रेगार्ड्स
Dear uncle,
ekdum sahi 100% !!
Kalaa ki kadra hona sarvopari hai , wo hogi to kalaakaar ki bhaawnaaye samjhnaa aasaan hogaa.
Har waqt ek jaisa nahi hotaa, har mehfil ek jaisi nahi hoti.
kalaakaar machine nahi magar ek insaan hai jo mehnat, tapasya aur upar wale ke aashirwaad ki wajah se shrotao ke saamne aa paataa hai.
Correct Identification of various classes of audience especially one with a special accent of "bhiya"! HAHA !
With a vibrant hope of positive upliftment of all classes of audience ...
Warm Regards.
Vaibhav
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