Saturday, June 28, 2008

देर रात को जग रहें हों तो सारंगी पर सुनिये ये मांड

केसरिया बालम पधारो म्हारे देस ये बंदिश आपके लिये अपरिचित नहीं हैं।राजस्थान के लोक संगीत में तो ये सुनी ही जाती रही है लेकिन भारतीयशास्त्रीय संगीत में भी ये एक प्रमुख राग है. मांड कई रंगों की होती हैं.पं.अजय चक्रवर्ती ने इस पर ख़ासा शोध किया है और जाना है कि तक़रीबन सौ तरह की माँडें गाई बजाई जातीं रहीं हैं।

Maand - Sarangi.wm...



सांरगी शास्त्रीय संगीत का प्रमुख संगति वाद्य है ।लेकिन एकल वाद्य के रूप में भी सारंगी बहुत मनोहारी सुनाई पड़ती है। पं.रामनारायण,साबरी ख़ाँ,लतीफ़ख़ाँ और सुल्तान ख़ाँ जैसे कई उस्ताद सारंगी के ज़रिये क्लासिकल मौसिक़ी की ख़िदमत करते रहे हैं।और हाँ रावण हत्था नाम का लोक वाद्य भी सारंगी का पूर्ववर्ती स्वरूप रहा है। आपने कई मांगणियार या लांगा गायकों के साथ में सारंगी बजती सुनी होगी.सुल्तान ख़ाँ साहब की बजाई इस माँड में बस बोल नहीं हैं लेकिन सुनिये तो इसमें दीन - दुनिया की कितनी सारी खु़शियाँ और ग़म पोशीदा हैं.

Wednesday, June 25, 2008

बरखा के अभिनंदन में भीगी ये मल्हारमय बंदिश

मेवाती घराने के चश्मे-चिराग संजीव अभ्यंकर देश के उन शास्त्रीय संगीत गायकों में
से एक हैं जिन्होंने अल्पायु में अपने गुरू पं.जसराज की गायकी को आत्मसात कर
पूरी दुनिया में अपनी अलग पहचान बनाई है. मेवाती घराने में बंदिश की ख़ूबसूरती
पर क़ायम रहते हुए गायकी के किलोल से अदभुत तेवर सिरजे जाते हैं।



संजीव की आवाज़ की मिठास जादू और उस पर मेवाती घराने की
गायकी का आसरा । सब कुछ कुछ यूँ सधता है कि हमें अपनी मशीनी जीवन शैली से कोफ़्त
सी होने लगती है.और हाँ इस गायकी की सबसे बड़ी विशेषता ये है कि छोटी छोटी
तानों को बड़ी सुघड़ता से सँवारा जाता है.जैसे कोई सुन्दरी अपने प्रियतम के स्वागत
में अपनी ड्योढ़ी पर बंधनवार सजा रही हो.

थोड़ा तन्मय होकर सुनेंगे तो महसूस करेंगे कि क्लासिकल मौसिक़ी जब अपने
शबाब पर होती है तब सुनने वाला अपनी सुधबुध खो बैठता है. शास्त्र में ज़्यादा
उतरने की ज़रूरत नहीं..बस स्वर की सृष्टि के भाव-लोक में चले जाइये.....
लौटने को जी नहीं चाहेगा.विलम्बित से शुरू होकर मध्य और द्रुत लय पर
आती आती ये बंदिश कितना कुछ कह जा रही है सुनिये तो.....

ये रतजगा आपको सुरीला ही लगेगा....शर्तिया.



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कपिल देव हर साल पैदा नहीं होते हैं... युगों में जन्म लेते हैं

आज 1983 विश्वकप जीत को फ़िर याद करने का दिन है। क्रिकेट इस देश में मज़हब
की तरह माना जाने लगा है. मुझे याद है जब 1971 मे अजीत वाड़ेकर के नेतृत्व में
जब भारत में वेस्ट इंडीज़ और इग्लैंड मे पराजित किया था तब मेरे शहर में एक विजय बल्ला स्थापित किया गया था. और जब कुछ बरस बाद इग्लैंड ने भारत को 50 के भीतर ऑल-आउट कर दिया तो मेरे ही शहर के कुछ जोशीले युवक उसी विजय बल्ले पर कालिख पोत आए थे. लेकिन 1983 के बाद इस देश के क्रिकेट की तस्वीर बदल गई.एक नया हौसला , जोश और आत्मविश्वास नज़र आने लगा भारतीय टीम. जीत-हार तो चलती रही लेकिन भारतीय क्रिकेट के लिये नज़रिये में बदलाव आया और क्रिकेट-प्रेमी भी अब ज़्यादा मैच्योर दिखाई दे रहा है. इस बदलाव का बड़ा श्रेय कपिल देव को देना ही होगा. मेरे शहर के प्रमुख सांध्य दैनिक प्रभात-किरण ने इसी पसेमज़र कल शाम देव का वरदान शीर्षक से एक लाजवाब संपादकीय प्रकाशित किया. आप तक ये संपादकीय इसलिये पहुँचा रहा हूँ कि 1983 की जीत के उस सर्वकालिक महान क्रिकेटर के प्रति यह एक सटीक और सार्थक भावना का इज़हार है.


विज़्डन के संपादक ने मज़ाक में किसी से कह दिया था कि विश्व कप अगर भारत जीत जाए तो...? उसका जवाब था कि मैं वह पन्ना ही खा जाऊंगा। ...और मज़ाक में लगाई गई शर्त के बाद संपादक ने वह पन्ना पानी पी-पीकर खाया और भारत को कोसा। १९८३ में भारत की टीम का वो दबदबा नहीं था। विश्व कप में वह हारने के लिए ही जाती थी और अंतिम चार में रहना तो उसका सपना था। उन दिनों टीवी पसर चुका था पूरे भारत में... लेकिन विश्व कप में हार देखने के लिए लोग कहाँ बैठने वाले थे। पहले विश्व कप में साठ ओवर के मैच में सुनील गावसकर के आख़िर तक नाट आउट रहते हुए ३६ रन बनाने वाली टीम (टोटल १६० रन) से आप किस चमत्कार की उम्मीद करते हैं। भारतीय टीम एक दिन के विश्व कप में भी टेस्ट मैच जैसा ही बुरा खेलने के लिए कुख्यात थी। ...तभी तो बेचारे संपादक ने पन्ना खाने का जोखिम ले लिया था। यह ऐसी शर्त थी, जिसमें संपादक की जीत तय थी, मगर...!

सफ़ेद कपड़ों में शरीफ़ (यानी पैसे वाले और संपन्न ख़ानदानी) लोगों के इस खेल में हरियाणा एक्सप्रेस ने ऐसी दौड़ लगाई कि पूरे देश के गांव-गांव से यह यक़ीन पैदा होने लगा कि हम भी क्रिकेट खेल सकते हैं। कपिल देव वह नाम था, जो भारत के आम आदमी जैसा था। जिसे अंग्रेज़ी समझ आती थी और जो क्रिकेट के लटके-झटके जानता था। भाला और गोला फेंकते-फेंकते जब यह लड़का क्रिकेट के आसमान में उभरा तो देखते ही देखते चाँद हो गया। हारी हुई पहली बाज़ी उसने ज़िम्बब्वे के ख़िलाफ़ अकेले के बूते पर जीती... और बताया कि क्रिकेट में आख़िरी गेंद से पहले कोई कयास नहीं लगाना चाहिए। सिर्फ़ जीत की इच्छा-शक्ति के आधार पर कपिल ने कई मैच भारत के नाम करवाए। सिर्फ़ एक दिन, टेस्ट मैच में भी कपिल देव का वही अंदाज़ रहा। इस खिलाड़ी में जीत की सदियों पुरानी भूख समा गई थी जैसे।


आज अगर गांवखेड़ों से धोनियों, सहवागों और ऐसे ही कई खिलाड़ियों के जत्थे के जत्थे आते नज़र रहे हैं तो कारण सिर्फ़ कपिल देव ही। कपिल देव ने सिर्फ़ शहरों का एकाधिकार खत्म किया, बल्कि जीत का हौसला भी दिया। वरना पहले तो दस खिलाड़ी मुम्बई के और बाक़ी दिल्ली के होते थे। आज हम भले ही कह लें कि पच्चीस साल में हम दूसरा कपिल देव पैदा नहीं कर सकते तो निवेदन है कि ये कपिल देव के वंशज ही हैं, जो भारत का नाम विश्व क्रिकेट में चमकाए हुए हैं। कपिल देव हर साल पैदा नहीं होते हैं... कपिल देव युगों में जन्म लेते हैं!

Tuesday, June 24, 2008

ईश्वर ने मुझे आवाज़ देकर कहा... जाओ मेरे गुण गाओ : अनूप जलोटा

चार हज़ार से अधिक लाइव कंसर्ट्स, 150 से अधिक एलबम्स और 1200 से अधिक ध्वनि मुद्रित रचनाओं के मालिक भजन सम्राट श्री अनूप जलोटा पूरी दुनिया में भक्ति संगीत और ग़ज़लों के लिए जाना- पहचाना जाने वाला एक घरेलू नाम बन गया है। अभी कल ही वे मेरे शहर इन्दौर में एक कार्यक्रम प्रस्तुत करने आए थे.अनायास उनसे
हुई एक पुरानी मुलाक़ात का स्मरण हो आया तो सोचा आपके साथ उस बातचीत को बाँटा जाए .मैने उनसे पूछा था कि शास्त्रीय संगीत की तालीम, फिल्म संगीत के एकाधिक अवसरों के बावजूद अनूप जलोटा का मन भजनों में ही क्यों रमता रहा है, अनूपजी ने मुस्कुराते हुए कहा कि शायद ये ऊपर वाले की मर्ज़ी का परिणाम है । उसने मुझे आवाज़ दी और कहा- जाओ मेरे गुण गाओ। बस गली-गली, डगर-डगर, नगर-नगर में उस परम सत्ता का यशगान कर रहा हूँ। अनूपजी ने बताया कि यदि भक्ति संगीत में जगह नहीं मिलती तो उनके पास एकमात्र विकल्प शास्त्रीय संगीत था, क्योंकि पिता पं. पुरूषोत्तमदास जलोटा ने बचपन से ही उनके मन में क्लासिकल मौसीक़ी का बीजारोपण किया था।


एक समय ऐसा था जब वाणी जयराम, हरिओम शरण, शंकर शंभू, निर्मला देवी, लक्ष्मी शंकर, सी.एच. आत्मा के साथ ही चित्रपट संगीत के कई प्रमुख गायक भी भक्ति संगीत के परिदृश्य पर अपनी विशिष्ट पहचान रखते थे। क्या कारण है कि स्वर परिदृश्य एकदम खाली हो गया? अनूपजी ने मुखरता से कहा कि गाने वालो ने भजन गायकी में दोहराव ज़्यादा दिया, विविधता नहीं दी। उन्होंने ये किया कि भजन गायकी में रागों की गंध डाली, उसमें शास्त्रीय, सुगम और लोक संगीत के ताने-बाने पिरोए। इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं दो भजन "चदरिया झीनी रे झीनी, और "ऐसी लागी लगन मीरा हो गई मगन'। अनूपजी ने बताया कि इन दोनों रचनाओं में उन्होंने विभि रागों के शेड्स , धुन, तान और सरगम-पलटों का उपयोग करते हुए प्रभाव बनाने की कोशिश की है उससे ही उनके गायन को अपार सफ़लता मिली है।

नैनीताल में जन्में और लखनऊ में अपने कैरियर का आग़ाज़ करने वाले अनूपजी ने आकाशवाणी से अपनी स्वर यात्रा प्रारंभ की। लखनऊ यूनिवर्सिटी में अनूप जलोटा एक बहुत प्रतिभासंप गायक के रूप में जाने जाते थे,जहॉं स्वर्गीय किशोर कुमार के गीत गा-गाकर वे जूनियर किशोर के ख़िताब से नवाज़े जा चुके थे । उन्होंने फ़िल्मी गानों का दामन पकड़कर स्टेज शोज प्रारंभ किए, जिसमें उन्हें 35 से 80 रु. तक का भुगतान मिल जाया करता था। मुंबई आकर अनूप जलोटा को लगा कि यही वह जगह है जहॉं से वे अपनी कला यात्रा को आगे ले जा सकते हैं। मुंबई के आकाशवाणी वाद्य-वृंद समूह में उन्होंने अपनी शुरूआती नौकरी की और साढ़े तीन सौ रु. महीना मेहनताना पाया। निर्माता और अभिनेता मनोज कुमार की फ़िल्म "शिर्डी के सॉंई बाबा' से अनूप जलोटा को विश्वव्यापी पहचान मिली। अनूपजी ने बताया कि फ़िल्म 'एक दूजे के लिए' में लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के निर्देशन में उन्होंने लताजी के बहुत लोकप्रिय गीत "ऐ प्यार तेरी पहली नज़र को सलाम' के पहले पहली पंक्ति गाई थी, उसे संगीत प्रेमी आज तक याद रखे हैं। वह पंक्ति थी " कोशिश कर के देख ले, दरिया सारे, नदिया सारी'। लेकिन अनूपजी कहते हैं 'शिर्डी के सॉंई बाबा' तक बात तो बात ठीक थी लेकिन फ़िल्म-म्युज़िक में उनका मन नहीं लगा, सो उसे छोड़ दिया। यह पूछने पर कि इतने वर्षों से भक्ति संगीत विधा में काम करते-करते क्या कोई ईश्वरीय अनुभूति उन्हें हुई है। अनूपजी ने कहा सारा भक्ति संगीत ही अपने आप में एक अनुभूति है। जब गाने बैठता हूँ तो यह नहीं देखता कि कितने ख़ूबसूरत मंच पर बैठा हूँ कितने पैसे मुझे मिलने वाले हैं, सामने किस पद-प्रतिष्ठा के लोग बैठे हैं। बस मन में ध्यान होता है अपने गुरूजनों और उस बंदिश में मौजूद स्वरूप का। कई बार एकाएक समाधि सी अवस्था हो जाती है और बस वे एक यंत्र बनकर गा रहे होते हैं । समझ में नहीं आता कि कहाँ से शब्द आते हैं, कौन सी धुन सिरजती है, स्वर कैसे लग जाते हैं। शायद अनूप जलोटा ठीक फरमाते हैं कि परमात्मा को याद कर के गाते-गाते अपने आप को भूल जाना ही सच्चा भक्ति संगीत है।

Saturday, June 21, 2008

सात गीतों के साथ -आज की रात - करें सात सुरों की बात !

आज विश्व संगीत दिवस की इस रात मेरे शहर इन्दौर
में घने बादल छाये हुए हैं.संगीत सुनने का ऐसा समाँ
मिल जाए तो क्या बात है. आपके लिये सजाई है मन
को ख़ुशी देने वाली ऐसी सात धुनें जो अपने आप में
कविता और संगीत की दृष्टि से पूरे एक दौर की नुमाइंदगी
करती है. सहगल,नूरजहाँ,सुरैया,रफ़ी,आशा,तलत और लताजी;
सात सुर शिरोमणि इस महफ़िल में मौजूद हैं.

इस प्ले-लिस्ट में नूरजहाँ और आशा भोसले की बंदिशों
पर विशेष ध्यान दीजियेगा। नूरजहाँ जी की
रचना पाकिस्तान में रेकॉर्ड हुई है जबकि आशाजी वाली
जिस रचना की बात मैं कर रहा हूँ उसमें राग मारवा
का जादू बिखरा है. संगीतकार रवीन्द्र जैन का कारनामा ज़रा
कम ही सुना गया है।

आज देर रात तक संगीत ही सुनियेगा...
कल देर से सो कर उठ सकते हैं...रविवार जो है.....
मादक संगीत की थपकियाँ आपके ख़्वाबों को सुहाना बनाए.आमीन !

मेरे शहर के शायर साबिर सहबा का शेर याद आ गया....

पढ़ के सोया थे चंद ख़ुतूत
रात भर ख़्बाब सुहाने आए



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सुरीलेपन को आमंत्रित करने का दिन है आज !


आज विश्व संगीत दिवस है , बधाई आप सब को।
कामना करता हूँ कि आपकी ज़िन्दगी हर पल सुरीली हो।
लेकिन एक प्रश्न भी आता है मन में कि क्या वाक़ई हमारे
इर्द-गिर्द ऐसे हालात हैं जिन्हें सुरीला कहा जा सके ।जहाँ से
सुर झरना चाहिये वहीं हालत ख़राब है;मेरा इशारा फ़िल्म संगीत
की ओर है जो बरसों से आम आदमी को आनंदित करता आया है।
अब कुछ अपवादों को छोड़ दें तो समकालीन फ़िल्म संगीत से
सुरीलेपन की जुगलबंदी ख़त्म सी होती जा रही है। ए आर रहमान,
शंकर अहसान लॉय,विशाल भारद्वाज और शांतनु मोइत्रा को अपवाद मान लिया जाए,
तो बाक़ी सारे संगीतकार तो शोर ही परोस रहे हैं।

लोग कहते हैं कि जैसा दुनिया चाहती है वैसा ही माल परोसा जाता है।
लेकिन ये बात तो उन लोगों पर लागू होती है जो संगीत को माल और
अपने काम को दुकानदारी मानते हैं। हमने पंकज मलिक,आर सी बोराल,
से लेकर पं रविशंकर तक का कारनामा फ़िल्म दुनिया में देखा - सुना है
और पाया है कि ये सब महान सर्जक अपनी शर्तों पर संगीत बनाते रहे
और ज़माना उनकी रचनाओं को सराहता आया है आज तक।बीच के दौर
के स्वर-रचनाकारों के नाम लेकर मैं आपका क़ीमती वक़्त ज़ाया नहीं करना
चाहता…आप सभी उन नामों के क़ायल हैं और उनका संगीत सुनते,सहेजते
और सराहते हैं।

आज विश्व संगीत दिवस पर दो तीन गुज़ारिश करना चाहता हूँ आपसे…

-समय आ रहा है कि अपने परिवार की नई पीढ़ी को भारतीय शास्त्रीय
संगीत के बारे में थोड़ी बहुत जानकारी से अवगत करवाएं।

-संभव हो तो (ख़र्चीला सुझाव जो है) अपने संकलन में आठ दस
एलबम्स क्लासिकल म्युज़िक के भी रखें। ज़्यादा हो सकें तो वाह ! क्या बात है।

-शादी – ब्याह में मित्रों और सहकर्मियों को सौ या दो सौ रूपये का लिफ़ाफ़ा
देने की जगह संगीत कैसैट्स और सीडीज़ को भेंट करने का संकल्प लें।

-जो लोग शिक्षण विधा से जुडे हैं वे अपने स्कूलों या कालेजों के कार्यक्रमों
में फ़िल्मी धुनों पर होने वाले एक्शन डांस प्रस्तुतियों के स्थान पर लोक-संगीत
या शास्त्रीय संगीत को प्रोत्साहित करें।

-अपने पारिवारिक आयोजनों में भी (जैसे विवाह के अवसर पर मंगल संगीत) कोशिश
करें कि अपने घर परिवार , परिवेश,बोली का संगीत बजे,यानी लोक-संगीत।

-परिवेश को सुरीला बनाने में गुज़रे ज़माने का संगीत एक बहुत बडी अमानत है।
पचास से लेकर सत्तर तक संगीत सुनना एक अनुभव है।सुनिये और अपने
दफ़्तर और बच्चों के बीच भी बजाइये।

-नई पीढी को पुराने और शास्त्रीय संगीत की ओर लाने के लिये हमें भी उनकी पसंद
के संगीत की ओर जाना पड़ेगा…वहाँ भी कुछ सुरीलापन मौजूद है…उसका आनंद
लीजिये…आपकी इस पहल नई पीढी भी आपकी पसंद के संगीत की ओर आएगी,
मुझे पूरा विश्वास है।

तो आइये…कामना करें कि हम अपने आसपास अपनी हर संभव कोशिशों से सुरीलापन फ़ैलाए। यदि समय मिले तो आज अपने परिवार की नई पीढी के साथ बैठकर कुछ मीठी संगीत रचनाओं का रसपान कीजिये । शुरूआत के लिये यह दिन शुभ है लेकिन संगीत तो ऐसी चीज़ है जो किसी मुहूर्त,दिन,और समय-क्रमका मोहताज नहीं है।

Wednesday, June 18, 2008

आज उस कबीर का प्रकटोत्सव जो कभी ग़ायब ही नहीं हुआ !




आज कबीरदास जी के प्रकटोत्सव पर शहर में कई कार्यक्रम- मेरे शहर के अख़बारों में ये शीर्षक पढ़कर सुबह-सुबह मन विचलित हो गया.सोचने लगा मैं कि जो शख़्स आज अपने लिखे से प्रति-पल हमारे इर्द-गिर्द मौजूद है उसका प्रकट होना चौंकाता है. इसका मतलब हम कबीर के लिखे का मर्म ही नहीं जान पाए.

दीक्षा का मामला हो, ज़ात-पात की बात हो ,आडम्बर या कर्मकांड के चोचले ; कबीर ने हर एक बात पर चोट की. वे न अपने समय में किसी पुराण-पंथी को रास आए न आज आ रहे हैं . लेकिन क्या बात है कि अपनी दुकान चलाने वाले कबीर के प्रकट होने की बात करते हैं.जिस व्यक्ति ने अपने जन्म और मरने को लेकर भी साफ़गोई से अपनी बात कही, आज हम उसी कबीर को एक अवतार या धर्मगुरू बना कर स्थापित करने पर तुले है. कबीर कभी मान्यताओं,मंदिरों और मज़हबों के हामी नहीं रहे . उन्होंने जो किया वह अनजाना नहीं और मेरे लिखने से जाना नहीं जाएगा.मैं तो बस आज अख़बारों में पढ़ी ख़बर से दु:खी होकर आपसे बात करने बैठ गया. क्या हम ऐसा समय भी देखेंगे जब इस देश में कबीर मंदिरों की स्थापना भी होने लगेगी. भागवत कथाओं और राम कथाओं की तरह कबीर कथाओं के भव्य और महंगे आयोजन होने लगेंगे.

कबीर कभी एक व्यक्ति या धर्म-पंथ नहीं रहे. वे आज़ाद ख़याली के पहले पैरोकार थे। वे मानते थे कि मनुष्य बड़ा है और इंसानी तक़ाज़े सर्वोपरि हैं. जिस व्यक्ति ने मूर्तिपूजा जैसी बात को भक्तिकाल में ख़त्म करने की बात उठाई हो; उस व्यक्ति और चिंतक के प्रकटोत्सव की बात बेमानी लगती है. कबीर एक विचार हैं जिसे हर धर्म और मज़हब को मानने वाला अनुसरण में ला सकता है. कबीर एकमात्र ऐसी संस्था बन गये थे जिसे आज वैश्विक सोच के साँचे में स्थापित किया जा सकता है. कबीर-वाणी महज़ ग्रंथों का पारायण नहीं, आचरण में लाने वाला आख्यान हैं . सामाजिक सरोकारों के लिये चैतन्य ब्लॉग बिरादरी मेरे अभिमत और दर्द से सहमत होगी ऐसा मैं मान कर अपनी बात को विराम देता हूँ...
यदि आप कबीर के पद पं कुमार गंधर्व की आवाज़ में सुनना चाहते हों हमारे अज़ीज़ संगीत प्रेमी ब्लॉगर-भ्राता अशोक पाँडे के कबाड़ख़ाने पर ज़रूर जाएँ ......
ये रही लिंक जिससे आप कुमारजी के कबीर पद सुन सकते हैं :http://kabaadkhaana.blogspot.com/search/label/Kabeer

(चित्र मेरे गायक अभिनेता मित्र शेखर सेन का है जो इन दिनों पूरी दुनिया में
कबीर,तुलसीदास और विवेकानंद के एकपात्रीय संगीत-नाट्य का सफल मंचन कर रहे हैं)

Sunday, June 15, 2008

फ़ादर्स डे....नई पीढ़ी में बीतती पीढ़ी का अक्स देखना बेमानी होगा न ?



उनकी मौजूदगी और आवाज़ से ही
धूजनी चल जाती थी.
उनका आदेश यानी पत्थर की लकीर
उनसे ज़्यादा जानकारी किसी और को हो ही नहीं सकती थी.
वे थे एक स्कूल
एक संस्था...
तहज़ीब,संगीत,भूगोल और न जाने कितनी
औषधियों के
वे नाम के पिता नहीं थे
उनके ठसके और रूतबे में झलकता था
पिता का आभामंडल
वे मेरे पिता के पिता थे.
मैने अपने पिता को उनके सामने
सोते नहीं देखा
हमेशा चाक-चौबंद
अपने पिता की बात को ध्यान से सुनते पाया.

समय बदला
मैं बड़ा होने लगा
अपने पिता से तो रहा पहले सहमा-सहमा
उनके आग्रह को आदेश मानता सा
उन्होंने कह दिया सो कह दिया
हिम्मत नहीं हुई
समय के अनुशासन को तोड़ने की
कह दिया इतनी बजे लौटूंगा...आ गया

कभी जूते ख़रीदना चाहा तो जवाब मिला
दशहरे पर दिलवाएँगे...ख़ुश हो गया
चलो त्योहार मज़े से मनाएंगे.

फ़िर किशोर से जवान हुआ
अपना मत और मन बनाने लगा
लेकिन व्यक्त करने में थोड़ा डरा डरा सा.
फ़िर भी उनसे थोड़ी आज़ादी तो ले ही ली
कामकाज की,अपनी तरह से रहने की
उनसे सीखा ज़माने का दस्तूर
कैसे सम्हालो अपने आपको
बचाओ पैसे,मत करो फ़िज़ूलख़र्ची
उन्होंने सिखाया सुनने, बोलने,लिखने का सलीक़ा
उनकी नसीहतों और मशवरे से आबाद है मेरी ज़िन्दगी


फ़िर मेरी शादी हो गई
अब मैं दो बच्चों का बाप हूँ..
अब इस बदले समय की व्यथा - कथा भी सुन लें
मेरा बेटा बड़ा हो गया है
कभी ठिठोली करता
कभी बेपरवाह होकर अपनी फ़रमाईश करता
जब-तब अपनी माँ से पैसे लेकर ख़रीद लाता है
जूते,कपड़े,गॉगल्स,बेल्ट,कैप, आईपॉड और मोबाईल
उसे नहीं चाहिये प्रेमचंद का गोदान,नागर का मानस का हँस
और शिवाजी सावंत का मृत्युंजय
नहीं चाहिये उसे गंडेरियाँ,गर्म मूँगफ़ली या सिके भुट्टे
नहीं चाहिये उसे ओंकारनाथ ठाकुर,गिरजा देवी,रसूलन बाई,
ज्युथिका राय,पंकज मलिक,सहगल,सुरैया
की आवाज़ जिन पर मेरा दिल क़ुरबान रहता है
वह अपनी बर्गर,पित्ज़ा और डिस्को थैक की दुनिया में
बहुत ख़ुश रहता है


वह आग्रह नहीं करता
आदेश ही करता है
कब आता है
कब जाता है
मुझे मालूम नहीं
उसके दोस्त कौन हैं
क्या करते हैं...
पूछो तो कह कर निकल जाएगा
.....मिलवा दूंगा किसी दिन आपको डैड.
डोंट वरी
लेकिन मैं बेबस सा नहीं
इन सब बातों को ख़ुशी ख़ुशी सहने और सुनने का आदी हो गया हूँ
ज़माना जो बदल गया है....मुझे भी बदलना होगा.

एक बड़ा फ़र्क़ और आया है
मैं इम्तिहान देने जाता था तो
पिता के पैर छूकर जाता था


मेरा बेटा
मुझसे गले मिल कर कहता है
बाय डैड


मुझे लगता है सब ठीक ही हो रहा है
मेरा,उसके दादा और परदादा के
समय का अक्स अपने बेटे में देखना
शायद ग़लत ही होगा न ?
(तस्वीर में साहबज़ादे ही हैं मेरे साथ)

Friday, June 13, 2008

आलोचक तो आसन जमाए बैठें हैं पठार पर


जब कचोटता किसी का कुछ कहा
तो अनजान बन जाओ
जैसे उस गली से गुज़रे ही नहीं तुम
मत पहचानों उस पथ को
आलोचना का स्वर तभी होता है प्रकट
जब तुम कुछ बेहतर कर रहे होते हो
जलन,ईर्ष्या और आलोचना तो वे कंदील हैं
ये बताने के लिये कि तुम चल रहे हो
आलोचक या तुम्हारे विरोधी इसलिये भी कुछ कहते हैं
क्योंकि वह ख़ुद कुछ कर नहीं रहे होते हैं
उनका चिल्लाना सिर्फ़ शोर भर मानो
थम जाता है जो घंटे या दिन बीतने के बाद
डटे रहो अपने मक़सद में कि तुम्हें जाना है दूर
तुम्हारे लक्ष्य हैं बड़े ; कहीं पहाड़ पर खड़े
आलोचक तो आसन जमाए बैठें हैं पठार पर
और सेक रहे हैं आराम की धूप
तुम्हें बहाना है पसीना
इरादों, नेक-नियति और संघर्षों के लिये
आलोचना की नकेल सिर्फ़ इसलिये कि
तुम कहीं भटक न जाओ अपनी मंज़िल से
चले चलो मुस्कुराते हुए !

Wednesday, June 11, 2008

एक दिनी पर्यावरण दिवस के बाद अनुपम मिश्र की खरी खरी

अनुपम मिश्र का नाम पर्यावरण का पर्याय बन गया है.
प्रचार ,प्रतिष्ठा और सम्मानों से परे अनुपम भाई अपने
काम में ख़ामोशी से लगे रहते हैं.यदि सादा जीवन –उच्च
विचार जैसी कहावत को जीता-जागता देखना है तो अनुपमजी
से मिलिये. उनके दो ग्रंथ (इन्हें किताब पाप लगता है मुझे)
हमारा पर्यावरण और आज भी खरे हैं तालाब पर्यावरण-प्रेमियों,
शोधार्थियों और स्वयंसेवी संगठनों के गीता,क़ुरान और बाईबल
हैं.बहुत पहले से अनुपम भाई का ये लेख मेरे पास सहेजा हुआ
था. रस्मी पर्यावरण दिवस के चले जाने के बाद इसे अवश्य
पढ़ना चाहिये...और हाँ घर के बुज़ुर्गों की सीख तरह अनुपम मिश्र
इन बातों को गंभीरता से लेना चाहिये.

पर्यावरण दिवस चला गया है। एक दिन पर्यावरण का दिवस मनाना बाकी दिन शायद पर्यावरण की रात मनाना! इसमें कोई देखता नहीं कि देश के पर्यावरण का क्या होता है ? पहले दिवस भी नहीं मनता था। सन् १९७२ के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ के झंडे के नीचे पर्यावरण नाम से कुछ काम शुरु हुआ तो हमारे जैसे देशों ने भी धीरे-धीरे गिरते-पड़ते इस शब्द को, इस विषय को सरकारी भाषा, नीति और अमल में अपना लिया। आज बहुत कम लोगों को अंदाज़ होगा कि तीस साल पहले ऐसा कोई मंत्रालय नहीं होता था। बीच में कुछ दिन मंत्रालय की थोड़ी-बहुत उपस्थिति अख़बारों में ज़रूर दिखी होगी। लेकिन आज पर्यावरण मंत्रालय फिर से ग़ायब हो गया है। दिवस के कारण इस विषय की ओर मंत्रालय की कुछ याद जाए तो अलग बात है। नहीं तो साल भर यह सब कहीं दिखता नहीं। आज जब सारे मंत्रालय उद्योग और संस्थाएँ बाज़ारीकरण के दौर में अपना सौदा बेचने की लाइन में लगे हों तो पर्यावरण से बड़ा और कौन-सा सौदा होगा। इस सौदे में पूरे देश की ज़मीन है, ज़मीन के ऊपर का जंगल है, ज़मीन के नीचे का खनिज भंडार है। सारी नदियॉं हैं, ऊपर और नीचे का पानी है। बोली लगाइए हम इस सबको बेचने के लिए तैयार खड़े हैं। हम तो ख़ुद अपने को बेचने के लिए तैयार हैं। इस हाट में खड़े होकर हम यह भी भूल चुके हैं कि इस ज़मीन पर हमारे समाज का एक बहुत बड़ा हिस्सा अपना जीवन-यापन साथ-साथ करता रहा है। आज उसे हमने उसके आँगन में ही विस्थापित बना दिया है। इस विस्थापन की चीख-पुकार, रोना-धोना कुछ सुनाई नहीं देता है। समाज का यह बड़ा हिस्सा हतप्रभ है कि उसके अपने ही लोग उसे विस्थापित करके आगे बढ़ जाएँगे। ऐसी विचित्र हालत में पर्यावरण का विनाश भी लोगों को विस्थापित करता है और ज़्यादातर मामलों में पर्यावरण के संरक्षण की योजना भी उन्हें खदेड़ने का काम करती है। शेरों को बचाने के लिए लोगों को खदेड़ा गया और अब ऊपर से लेकर नीचे तक सरकार के ही लोग यह घोषणा कर रहे हैं कि जंगल में शेर नहीं बचा। इस घोषणा का श्रेय भी उन्हीं को जा रहा है।

ऐसे में पर्यावरण की रखवाली की ज़िम्मेदारी किन पर होगी। दस-पॉंच संस्थाओं पर, दस-पॉंच जनांदोलनों पर, दस-पॉंच अख़बारों और पत्रिकाओं पर। छोटी होती जा रही इस सूची में एकाध छोटा-सा टीवी चैनल भी कभी जुड़ेगा-कभी हटेगा। मेनका आएँगी, मेनका जाएँगी। इसमें भी हमें विदेशी चैनल का सहारा लेना पड़ेगा। पर क्या ये चैनल हमारे देश के पर्यावरण को बचा पाएँगे।

"तुम्हीं ने दर्द दिया, तुम्हीं दवा देना' की तर्ज़ पर पर्यावरण के संरक्षण के लिए पिछले दौर में ढेर से क़ानून बनाए गए लेकिन उनका पालन हो रहा है या नहीं, इसकी ज़िम्मेदारी उठाने वाले विभाग के दॉंत-नाखून कभी बढ़ने नहीं दिए गए और वह किसी पर्यावरण अपराधी को दबोच नहीं सका। इसमें भी नाम कमाया अदालतों ने। इसलिए शेर बचाने का ढॉंचा बना, लेकिन शेर नहीं बचे, ढॉंचा बच गया है। नदियों को बचाने के क़ानून बने लेकिन नदियॉं नाले बन गईं। उद्योगों से, शहरों से प्रदूषित होने वाले जल-स्रोतों की रखवाली के लिए ये क़ानून सामने नहीं आ पाए।

लोग और आंदोलन सामने आए, उन पर लाठियॉं चलीं और गोलियॉं भी। जिस राज ने अपने कंधों पर पर्यावरण की रक्षा का सारा भार उठाया था, आज उसी के हाथों इसे नष्ट किया जा रहा है। उसी के पैरों से इसे रौंदा जा रहा है। यह सब विकास के नाम पर होता है, इसलिए हमें पर्यावरण को समझने से पहले विकास को भी समझना चाहिए। ऐसा न हो कि ऐसे कुछ शब्द किसी कोड (गुप्त) भाषा के अंग बन जाएँ और हम इनको रटते-रटते अपना गॉंव-शहर और अपनी प्राकृतिक संपदा नए सौदागरों के हाथ में बेच दें। कोड नहीं समझेंगे तो कभी कोई सरकार नदियों को जोड़ेगी तो कभी कोई सरकार नदियों को तोड़ेगी और दोनों मौक़ों पर हमारे समाज का वाचाल वर्ग तालियॉं बजाएगा। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अभी कुछ ही दिन पहले देश भर की नदियों को जोड़ने की एक भयानक योजना सामने आई थी। उसमें वैज्ञानिक माने गए देश के सर्वोच्च नेता, हृदय माने गए प्रधानमंत्री, लौह पुरुष नेता और उस समय की विपक्ष की त्यागमूर्ति नेता भी शामिल थीं। ऐसी सर्वसम्मति देश के लिए बहुत ख़तरनाक है। असहमति का एक छोटा-सा स्वर भी पर्यावरण की कितनी सेवा कर सकता है-यह उस समय किसी के ध्यान में नहीं आया।

पर्यावरण की चिंता रखकर किए जाने वाले अच्छे काम भी हैं, लेकिन उनकी संख्या बहुत कम है। आज के दिन उन्हें गिनने के बदले दूसरे कामों को ही याद करना चाहिए ताकि आने वाले तीन सौ चौसठ दिनों में हम उस बड़ी संहारक सूची में से कुछ को छॉंट कर उन्हें रोकने का अपना कर्तव्य समझें।

Tuesday, June 10, 2008

बड़ी चीज़ है रिश्ते की मज़बूती और आपसी विश्वास

एक सुन्दर सी, छोटी सी लड़की अपने पापा के साथ जा रही थी कि नदी की एक पुलिया रास्ते में आ गई। पापा को पुलिया पार करते कुछ भय सा लगा तो उन्होंने बिटिया से कहा, "बेटी, मेरा हाथ कस के पकड़ लो ताकि तुम नदी में ना गिर जाओ।' छोटी बच्ची ने कहा, "नहीं पापा, आप मेरा हाथ थामिए।' पापा ने पूछा, "इससे क्या फर्क पड़ता है ?' बच्ची बोली, "इससे बहुत बड़ा फर्क पड़ता है। यदि मैं आपका हाथ पकड़ती हूँ और मुझे कुछ होता है तो पूरी संभावना है कि मैं आपका हाथ छोड़ दूँ पर यदि आप मुझे पकड़े रखते हैं तो चाहे जो हो जाए, आप मेरा हाथ कभी नहीं छोड़ेंगे।'
क्या आपने कभी बंदर पर गौर किया ? बंदर का बच्चा उसे कस कर पकड़ता है पर एक डाल से दूसरी डाल तक छलांग लगाते वक्त कई बार वो गिर जाता है। शायद इसीलिए कि बंदर ने उसे नहीं पकड़ा था। ठीक इसके विपरीत बिल्ली अपने बच्चे को मुंह से पकड़ कर एक स्थान से दूसरे स्थान तक कूद कर चली जाती है परन्तु बच्चा कभी नहीं गिरता। सीधी सी बात है। यहॉं बच्चे ने नहीं, मॉं ने बच्चे को थामा था।


जीवन के किसी भी रिश्ते की बुनियाद में, बंधन उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि रिश्ते की मज़बूती और परस्पर विश्वास। अतः आप भी अपने से प्यार करने वाले को मज़बूती से थामे रखिए, उससे ये अपेक्षा मत कीजिए कि वो आपको पकड़ेगा। यह छोटा सा संदेश है, पर ढेर सारी अच्छी भावनाओं से भरा हुआ।


(इन्दौर के जाने माने प्रबंध-गुरू एवं ख़ुशी बाँटने वाले नेक इंसान एस.नंद द्वारा संपादिन
परिपत्र स्वयं-उत्थान से साभार)

Monday, June 9, 2008

पहली बारिश की ख़ुशबूदार बूँदें कुछ कहती हैं

धरती पर बारिश की पहली बूँदें एक ख़ास क़िस्म की ख़ुशबू लेकर आती है.ये
अलग बात है कि हम इसका नोटिस नहीं लेते. हुआ कुछ यूँ है कि हमने क़ुदरती चीज़ों का मज़ा लेना कुछ कम कर दिया है. अब हमारे इर्द-गिर्द सबकुछ बनावटी सा ज़्यादा है. हम समय भी तो नहीं निकाल पाते कि देखें कि आज ये जो बारिश की पहली फ़ुहार आई है ये अपनी साथ इन बूँदों के अलावा और क्या क्या लाई है. कौन सी यादें हैं इन बूँदों मे पोशीदा. क्या ये किसी से पहली मुलाक़ात की याद दिलाती है. क्या ये किसी ग़ज़ल के शेर को कानों में ला समेटती है.
क्या ये पक्के मकानों के बीच उस माज़ी की याद का सबब बनती है जब गाँव
के खेत थे,कच्चे मकान की खपरैलों से टपकता पानी था और उसमें झरती थी एक
लयबध्द मीठी मौसीक़ी.पत्ते यूँ दमक जाते थे जैसे आज ही कोई इन्हें बड़े प्यार से
झाड़-पोंछ गया है.मवेशी पेड़ के नीचे भीगते से और ख़ामोशी से आपसे में बतियाते.
जैसे अपने मालिक का शुक्रिया अदा करते हों जो उनका बड़ा ख़याल रखते हैं.
इंसानी रिश्ते बड़े मख़मली थे.बरसात की इन बूँदों से तीज-त्योहारों की आमद का आग़ाज़ होता था.पराये घर ब्याही बेटी को घर लाने बातें शुरू हो जाती थी.इंतेख़ाब होता था कि अबकी पानी अच्छा आया तो नये कपड़े ख़रीदेंगे,घर के बड़े बेटे के लिये बहू लाने की बात आगे बढ़ाएंगे.मिल बैठ आज शाम मल्हार गाएँगे.

बारिश अब भी आती है....सिर्फ़ ये तसल्ली देने के लिये कि इस साल चालीस
इंच पानी गिरा तो शहर में अमन चैन बना रहेगा,टेंकर से पानी नहीं डलवाना पड़ेगा.
काम धंधा और ग्राहकी ख़ूब चलेगी..शेयर बाज़ार फ़लेगा-फ़ूलेगा.किसी को इतनी
फ़ुरसत कहाँ कि वह पहली बारिश के बाद गमले में खिले और हमें देखकर मुस्कुरा
रहे प्यारे से फूल को निहारे.वह हमसे पूछ रहा है ’कैसे हैं आप’
अब वह तो ऐसे ही पूछता है...उसको आपके ज़माने के आदाब कहाँ आते है.
न वह आपको एस.एम.एस. कर सकता है न ई-मेल भेज सकता है.
ज़रा उसकी प्यार भरी आँखों में झाँक कर तो देखिये आपको वह ताज़ा फूल
बोलता सुनाई देगा.

(चित्र ;गूगल सर्च पर मिला है;धन्यवाद)

Sunday, June 8, 2008

आपके शहर की पहली बारिश का स्वागत कीजिये इन चार भीगे गीतों से

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मल्हार के रंग में भीगे इन चार गीतो को रचा है संगीतकार रौशन साहब(बरसात की रात)पं.वसंत देसाई(गुड्डी) और राजकमल(चश्मेबद्दूर) ने.सुनते वक़्त संगीत के इन बेजोड़ कारीगरों के काम पर ख़ास तवज्जो दीजियेगा.

मौसीक़ी और प्रकृति का संबध अदभुत है.मानसून के शबाब पर आने पर ये अतिरिक्त रूप से मधुर हो उठता है..आप भी सुनिये और महसूस कीजिये कि दीगर दिनों जब आप ये गीत सुनते हैं तो क्या महसूस होता है और ऐन बरसात के मौसम में ये गीत क्या जादू करते हैं....

आपके शहर में भी ख़ूब आनंद दे इस साल की बारिश...दुआएँ मेरी ढेर सारी.

(चित्र गूगल सर्च के सौजन्स से)

एक एकांतप्रिय रचनाकार स्नेहलता (बी. एन.) बोस की मर्मस्पर्शी कविताएँ



वे बहुत बीमार हैं आज कल (पूरी तरह से बिस्तर पर ).लेकिन हिम्मत और जज़्बे से थकीं नहीं हैं.नाम है उनका स्नेहलता बोस.वरिष्ठ प्रसारणकर्ता बी.एन.बोस की जीवन सखी
स्नेहलताजी का काव्य संकलनइस मोड़ परहाल ही प्रकाशित हुआ है जिसका विमोचन ख्यात शायर डॉ.राहत इन्दौरी और फ़िल्म और धारावाहिकों के निर्देशक अनुराग बसु के कर-कमलों से इन्दौर में संपन्न हुआ.नितांत पारिवारिक परिवेश के वातावरण में हुए इस जल्से में स्नेहलताजी व्हील चेयर पर समारोह स्थल पर लाईं गईं . उन दो घंटों मे उस शेर का वह मिसरा बार बार याद आता रहाजैसे बीमार के होठों पर जाए हँसीं ’…स्नेहलताजी पर उस दिन परिजनों और मित्रों की आत्मीय उपस्थिति जैसे कारगर औषधी साबित हो रही थी.

रविवारीय भोर में अनायास आज उनकी पुस्तक इस मोड़ पर हाथ में गई तो सोचा
ज़माना ज़्यादातर नामचीन लेखकों और कवियों के लिखे को रेखांकित करता रहता है ; क्यों आज एक एकांत जीवन बसर करने वाली और स्वांत-सुख के लिये कविता लिखने वाली इस कवयित्री के शब्दों से आपकी मुलाक़ात करवाई जाए.दर्द और पीड़ा स्नेहलताजी
की कविता का स्थायी भाव है और वह भोगे हुए यथार्थ को अभिव्यक्त सा करता सुनाई देता है. रायपुर ज़िला बोस परिवार का वतन रहा है लेकिन अपने पति बी.एन.बोस की आकाशवाणी की नौकरी के कारण स्नेहलताजी ने अपना ज़्यादा समय इन्दौर मे बिताया है.वे एक वरिष्ठ शिक्षिका रहीं हैं किंतु इन कुछ बीते बरसों में उनका लम्बा समय बिस्तर पर ही बीता है. नये संकलनइस मोड़ परसे जो कविताएँ मैं जारी कर रहा हूँ वे भी बिस्तर लिखी गईं हैं.वे स्वीकारतीं हैं कि कविता मेरे लिये अपने इर्द गिर्द बिखरे तिनकों को बीनने जैसा है और कविता के अनुशासन और छंद से बेख़बर मैने इन अनुभूतियों को काग़ज़ पर उतार भर है.

आपका उनका लिखा यदि आपको भा जाए और आप स्नेहलतजी से बात करना चाहें
तो कृपया उनका नम्बर नोट कर लें 0731-2700352,9302102590 श्री बोस का नम्बर है
94250-56241 ; हो सकता है आपके प्रतिसाद से स्नेहलताजी आज फ़िर मुस्कुराने लगें




अभी भी


हे ईश्वर मुझे उबार लो
इस गहन गह्वर में डूबने से।
मुझे इस निविड़ अंधकार में
खोने मत दो प्रभु।

अभी भी मुझे पसन्द है
चहचहाती बुलबुलें।
दौड़ती फिरती तितलियॉं
महकते वृंत से झूलते फूल।

रंग-बिरंगे बादाम
या चमचमाती धूप।
खिला-खिला चॉंद
पेड़ों पर पसरी चॉंदनी।

उमड़ती-उफनती नदी
या मंथर बहते नाले।
अभी भी मुझे चाहिए
सारा का सारा आकाश
अपनी बाहों में समेटनों को।

अभी भी मीठी ख़ुशबू से भरे
मोगरे के फूल
चाहती हूँ बालों में सजाना।
अभी भी सपने संग हैं
कुछ महकते, कुछ बहकते।

अभी भी धड़कता है दिल
किसी की सरगोशियों को सुन।
अभी भी मुझे चाहिए
नीला समन्दर दूर क्षितिज तक।
अभी भी आँखों से झॉंकती है
छोटी-छोटी आकांक्षाएँ, इच्छाएँ।

कि तुम मुझे क्यों बॉंधना चाहते हो
उम्र की सीमाओं में।
थकते तन, डूबते यौवन के पार भी
कहीं दूर सपनों की नगरी
बसाना चाहता है मन।

मनमीत की बॉंसुरी
अभी भी बुलाती है।
बिरहा की बिखरी धुन
अभी भी रूलाती है।


तो दिल कॉंप उठता है


सच ! जब अपनों (?) के
मुखौटे उतरते हैं
तो दिल कॉंप उठता है।
जिसके लिए ज़िंदगी फ़ना कर दी
वही बेवफ़ा बोले...
तो दिल कॉंप उठता है

जिन्हें चुग्गे दे-देकर
नीड़ में बसाया।
उन्हें ही छोड़ कर
बसेरा जाते देखें
तो दिल कॉंप उठता है

ल़फ़्ज़ों को पकड़े
जख़्म दिल के देखे ही नहीं
शुक्रिया को शिकवा समझे
तो दिल कॉंप उठता है


उबार लो...


मॉं मुझे उबार लो
नैराश्य के अंधकार से
व्यथा के पारावार से।
मॉं...

भविष्य से, अतीत से
बैर से प्रीत से।
तन को बींधती चेतना से
मन को छीजती वेदना से।
मॉं...

सारे रिश्ते-नातों से
बहलाती-फुसलाती बातों से।
घुटती-घुटती सॉंसो से
बंधती झूठी आसों से।
मॉं...

कहने से, सुनने से
सब कुछ सहते रहने से
मॉं...

बेटी


तू हर दिन मेरे दिल से गुज़र जाती है
मैं पुकारूँ भी तो कहीं दूर निकल जाती है।
तू कोई सपना नहीं, हक़ीक़त है
मेरी बेटी है
फिर क्यों हाथों से रेशम-सी
फिसल जाती है !

इस मोड़ पर...


आओ हम आज साथ-साथ
कर लें अपना अंतिम संस्कार
फिर जाने कब छूट जाए
मेरे हाथों से तुम्हारा हाथ

परिणय बन्धन से लेकर आज तक
हम साथ-साथ जिए हैं।
जो भी मिला जीवन से विष या अमृत
हम साथ-साथ पिए हैं।

आज अपने ही कोख जाए से
लांछित, प्रताड़ित हुई हूँ।
तुम्हारी बहुओं के सामने
ज़माने से हारी हुई हूँ।

तुम बेबस थे, लाचार थे
मेरे शरीर पर अपनों के वार थे।
क्षुब्ध होकर आज हमने ये फैसला लिया है
हमने अपना अंतिम संस्कार ख़ुद किया है।

जो जीते जी हमें दो निवाले नहीं दे सकते
वो क्या मरने पर मुखाग्नि दे पाएंगे ?
इसलिए आज हमने अपना क्रियाकर्म कर लिया है
सातों वचन निभाकर मृत्यु को वर लिया है।

अब हमें भय नहीं इस मोड़ पर...
कि हमारा क्या होगा ?
हमारे शवों को निगम की
गाड़ी का सहारा होगा ?