Sunday, June 8, 2008

एक एकांतप्रिय रचनाकार स्नेहलता (बी. एन.) बोस की मर्मस्पर्शी कविताएँ



वे बहुत बीमार हैं आज कल (पूरी तरह से बिस्तर पर ).लेकिन हिम्मत और जज़्बे से थकीं नहीं हैं.नाम है उनका स्नेहलता बोस.वरिष्ठ प्रसारणकर्ता बी.एन.बोस की जीवन सखी
स्नेहलताजी का काव्य संकलनइस मोड़ परहाल ही प्रकाशित हुआ है जिसका विमोचन ख्यात शायर डॉ.राहत इन्दौरी और फ़िल्म और धारावाहिकों के निर्देशक अनुराग बसु के कर-कमलों से इन्दौर में संपन्न हुआ.नितांत पारिवारिक परिवेश के वातावरण में हुए इस जल्से में स्नेहलताजी व्हील चेयर पर समारोह स्थल पर लाईं गईं . उन दो घंटों मे उस शेर का वह मिसरा बार बार याद आता रहाजैसे बीमार के होठों पर जाए हँसीं ’…स्नेहलताजी पर उस दिन परिजनों और मित्रों की आत्मीय उपस्थिति जैसे कारगर औषधी साबित हो रही थी.

रविवारीय भोर में अनायास आज उनकी पुस्तक इस मोड़ पर हाथ में गई तो सोचा
ज़माना ज़्यादातर नामचीन लेखकों और कवियों के लिखे को रेखांकित करता रहता है ; क्यों आज एक एकांत जीवन बसर करने वाली और स्वांत-सुख के लिये कविता लिखने वाली इस कवयित्री के शब्दों से आपकी मुलाक़ात करवाई जाए.दर्द और पीड़ा स्नेहलताजी
की कविता का स्थायी भाव है और वह भोगे हुए यथार्थ को अभिव्यक्त सा करता सुनाई देता है. रायपुर ज़िला बोस परिवार का वतन रहा है लेकिन अपने पति बी.एन.बोस की आकाशवाणी की नौकरी के कारण स्नेहलताजी ने अपना ज़्यादा समय इन्दौर मे बिताया है.वे एक वरिष्ठ शिक्षिका रहीं हैं किंतु इन कुछ बीते बरसों में उनका लम्बा समय बिस्तर पर ही बीता है. नये संकलनइस मोड़ परसे जो कविताएँ मैं जारी कर रहा हूँ वे भी बिस्तर लिखी गईं हैं.वे स्वीकारतीं हैं कि कविता मेरे लिये अपने इर्द गिर्द बिखरे तिनकों को बीनने जैसा है और कविता के अनुशासन और छंद से बेख़बर मैने इन अनुभूतियों को काग़ज़ पर उतार भर है.

आपका उनका लिखा यदि आपको भा जाए और आप स्नेहलतजी से बात करना चाहें
तो कृपया उनका नम्बर नोट कर लें 0731-2700352,9302102590 श्री बोस का नम्बर है
94250-56241 ; हो सकता है आपके प्रतिसाद से स्नेहलताजी आज फ़िर मुस्कुराने लगें




अभी भी


हे ईश्वर मुझे उबार लो
इस गहन गह्वर में डूबने से।
मुझे इस निविड़ अंधकार में
खोने मत दो प्रभु।

अभी भी मुझे पसन्द है
चहचहाती बुलबुलें।
दौड़ती फिरती तितलियॉं
महकते वृंत से झूलते फूल।

रंग-बिरंगे बादाम
या चमचमाती धूप।
खिला-खिला चॉंद
पेड़ों पर पसरी चॉंदनी।

उमड़ती-उफनती नदी
या मंथर बहते नाले।
अभी भी मुझे चाहिए
सारा का सारा आकाश
अपनी बाहों में समेटनों को।

अभी भी मीठी ख़ुशबू से भरे
मोगरे के फूल
चाहती हूँ बालों में सजाना।
अभी भी सपने संग हैं
कुछ महकते, कुछ बहकते।

अभी भी धड़कता है दिल
किसी की सरगोशियों को सुन।
अभी भी मुझे चाहिए
नीला समन्दर दूर क्षितिज तक।
अभी भी आँखों से झॉंकती है
छोटी-छोटी आकांक्षाएँ, इच्छाएँ।

कि तुम मुझे क्यों बॉंधना चाहते हो
उम्र की सीमाओं में।
थकते तन, डूबते यौवन के पार भी
कहीं दूर सपनों की नगरी
बसाना चाहता है मन।

मनमीत की बॉंसुरी
अभी भी बुलाती है।
बिरहा की बिखरी धुन
अभी भी रूलाती है।


तो दिल कॉंप उठता है


सच ! जब अपनों (?) के
मुखौटे उतरते हैं
तो दिल कॉंप उठता है।
जिसके लिए ज़िंदगी फ़ना कर दी
वही बेवफ़ा बोले...
तो दिल कॉंप उठता है

जिन्हें चुग्गे दे-देकर
नीड़ में बसाया।
उन्हें ही छोड़ कर
बसेरा जाते देखें
तो दिल कॉंप उठता है

ल़फ़्ज़ों को पकड़े
जख़्म दिल के देखे ही नहीं
शुक्रिया को शिकवा समझे
तो दिल कॉंप उठता है


उबार लो...


मॉं मुझे उबार लो
नैराश्य के अंधकार से
व्यथा के पारावार से।
मॉं...

भविष्य से, अतीत से
बैर से प्रीत से।
तन को बींधती चेतना से
मन को छीजती वेदना से।
मॉं...

सारे रिश्ते-नातों से
बहलाती-फुसलाती बातों से।
घुटती-घुटती सॉंसो से
बंधती झूठी आसों से।
मॉं...

कहने से, सुनने से
सब कुछ सहते रहने से
मॉं...

बेटी


तू हर दिन मेरे दिल से गुज़र जाती है
मैं पुकारूँ भी तो कहीं दूर निकल जाती है।
तू कोई सपना नहीं, हक़ीक़त है
मेरी बेटी है
फिर क्यों हाथों से रेशम-सी
फिसल जाती है !

इस मोड़ पर...


आओ हम आज साथ-साथ
कर लें अपना अंतिम संस्कार
फिर जाने कब छूट जाए
मेरे हाथों से तुम्हारा हाथ

परिणय बन्धन से लेकर आज तक
हम साथ-साथ जिए हैं।
जो भी मिला जीवन से विष या अमृत
हम साथ-साथ पिए हैं।

आज अपने ही कोख जाए से
लांछित, प्रताड़ित हुई हूँ।
तुम्हारी बहुओं के सामने
ज़माने से हारी हुई हूँ।

तुम बेबस थे, लाचार थे
मेरे शरीर पर अपनों के वार थे।
क्षुब्ध होकर आज हमने ये फैसला लिया है
हमने अपना अंतिम संस्कार ख़ुद किया है।

जो जीते जी हमें दो निवाले नहीं दे सकते
वो क्या मरने पर मुखाग्नि दे पाएंगे ?
इसलिए आज हमने अपना क्रियाकर्म कर लिया है
सातों वचन निभाकर मृत्यु को वर लिया है।

अब हमें भय नहीं इस मोड़ पर...
कि हमारा क्या होगा ?
हमारे शवों को निगम की
गाड़ी का सहारा होगा ?

4 comments:

Yunus Khan said...

बोस साहब मुंबई आए थे दो तीन साल पहले । मैडम भी थीं । दोनों से बड़ी अंतरंग बातें हुई थीं । दोनो को हमारा नमन पहुंचाईये । कविताएं शानदार हैं ।
मैडम को शुभकामनाए हैं ।

tarun mishra said...

नियाजे -इश्क की ऐसी भी एक मंजिल है ।
जहाँ है शुक्र शिकायत किसी को क्या मालूम । ।

मुंहफट said...

रंग-बिरंगे बादाम
या चमचमाती धूप।
खिला-खिला चॉंद
पेड़ों पर पसरी चॉंदनी।...

अच्छी रचना के लिए बधाई। स्वास्थ्य और शतायु के लिए हार्दिक मंगल कामना।

Udan Tashtari said...

बहुत अच्छी रचनाऐं है. हमारे साथ स्नेहलता जी की रचनाऐं बांटने का आभार.