जब कचोटता किसी का कुछ कहा
तो अनजान बन जाओ
जैसे उस गली से गुज़रे ही नहीं तुम
मत पहचानों उस पथ को
आलोचना का स्वर तभी होता है प्रकट
जब तुम कुछ बेहतर कर रहे होते हो
जलन,ईर्ष्या और आलोचना तो वे कंदील हैं
ये बताने के लिये कि तुम चल रहे हो
आलोचक या तुम्हारे विरोधी इसलिये भी कुछ कहते हैं
क्योंकि वह ख़ुद कुछ कर नहीं रहे होते हैं
उनका चिल्लाना सिर्फ़ शोर भर मानो
थम जाता है जो घंटे या दिन बीतने के बाद
डटे रहो अपने मक़सद में कि तुम्हें जाना है दूर
तुम्हारे लक्ष्य हैं बड़े ; कहीं पहाड़ पर खड़े
आलोचक तो आसन जमाए बैठें हैं पठार पर
और सेक रहे हैं आराम की धूप
तुम्हें बहाना है पसीना
इरादों, नेक-नियति और संघर्षों के लिये
आलोचना की नकेल सिर्फ़ इसलिये कि
तुम कहीं भटक न जाओ अपनी मंज़िल से
चले चलो मुस्कुराते हुए !
तो अनजान बन जाओ
जैसे उस गली से गुज़रे ही नहीं तुम
मत पहचानों उस पथ को
आलोचना का स्वर तभी होता है प्रकट
जब तुम कुछ बेहतर कर रहे होते हो
जलन,ईर्ष्या और आलोचना तो वे कंदील हैं
ये बताने के लिये कि तुम चल रहे हो
आलोचक या तुम्हारे विरोधी इसलिये भी कुछ कहते हैं
क्योंकि वह ख़ुद कुछ कर नहीं रहे होते हैं
उनका चिल्लाना सिर्फ़ शोर भर मानो
थम जाता है जो घंटे या दिन बीतने के बाद
डटे रहो अपने मक़सद में कि तुम्हें जाना है दूर
तुम्हारे लक्ष्य हैं बड़े ; कहीं पहाड़ पर खड़े
आलोचक तो आसन जमाए बैठें हैं पठार पर
और सेक रहे हैं आराम की धूप
तुम्हें बहाना है पसीना
इरादों, नेक-नियति और संघर्षों के लिये
आलोचना की नकेल सिर्फ़ इसलिये कि
तुम कहीं भटक न जाओ अपनी मंज़िल से
चले चलो मुस्कुराते हुए !
6 comments:
bahut badhiya sir
यह तो बहुत बढ़िया लिखा।
कितनी ही प्रतिभायें कर देता होगा आलोचक जिबह! केवल अपने साडिस्ट मौज के लिये।
यह तो बहुत बढ़िया लिखा।
कितनी ही प्रतिभायें कर देता होगा आलोचक जिबह! केवल अपने साडिस्ट मौज के लिये।
वाह!! कितने दिलों की बात कह गये. बहुत खूब.
तोरी हाक सुनि कोई ना आबे तो तुमि एकला चालो रे
- लावण्या
कभी कभी कोई बात अचानक ही आकस्मिक रूप से हीरे की तरह चमक कर अपनी छाप छोड़ जाती है....ये कविता उसी में से है......मेरी डोर पकड़ ली इसने....
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