Friday, June 13, 2008

आलोचक तो आसन जमाए बैठें हैं पठार पर


जब कचोटता किसी का कुछ कहा
तो अनजान बन जाओ
जैसे उस गली से गुज़रे ही नहीं तुम
मत पहचानों उस पथ को
आलोचना का स्वर तभी होता है प्रकट
जब तुम कुछ बेहतर कर रहे होते हो
जलन,ईर्ष्या और आलोचना तो वे कंदील हैं
ये बताने के लिये कि तुम चल रहे हो
आलोचक या तुम्हारे विरोधी इसलिये भी कुछ कहते हैं
क्योंकि वह ख़ुद कुछ कर नहीं रहे होते हैं
उनका चिल्लाना सिर्फ़ शोर भर मानो
थम जाता है जो घंटे या दिन बीतने के बाद
डटे रहो अपने मक़सद में कि तुम्हें जाना है दूर
तुम्हारे लक्ष्य हैं बड़े ; कहीं पहाड़ पर खड़े
आलोचक तो आसन जमाए बैठें हैं पठार पर
और सेक रहे हैं आराम की धूप
तुम्हें बहाना है पसीना
इरादों, नेक-नियति और संघर्षों के लिये
आलोचना की नकेल सिर्फ़ इसलिये कि
तुम कहीं भटक न जाओ अपनी मंज़िल से
चले चलो मुस्कुराते हुए !

6 comments:

समयचक्र said...

bahut badhiya sir

Gyan Dutt Pandey said...

यह तो बहुत बढ़िया लिखा।
कितनी ही प्रतिभायें कर देता होगा आलोचक जिबह! केवल अपने साडिस्ट मौज के लिये।

Gyan Dutt Pandey said...

यह तो बहुत बढ़िया लिखा।
कितनी ही प्रतिभायें कर देता होगा आलोचक जिबह! केवल अपने साडिस्ट मौज के लिये।

Udan Tashtari said...

वाह!! कितने दिलों की बात कह गये. बहुत खूब.

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

तोरी हाक सुनि कोई ना आबे तो तुमि एकला चालो रे
- लावण्या

art said...

कभी कभी कोई बात अचानक ही आकस्मिक रूप से हीरे की तरह चमक कर अपनी छाप छोड़ जाती है....ये कविता उसी में से है......मेरी डोर पकड़ ली इसने....