आज 1983 विश्वकप जीत को फ़िर याद करने का दिन है। क्रिकेट इस देश में मज़हब
की तरह माना जाने लगा है. मुझे याद है जब 1971 मे अजीत वाड़ेकर के नेतृत्व में
जब भारत में वेस्ट इंडीज़ और इग्लैंड मे पराजित किया था तब मेरे शहर में एक विजय बल्ला स्थापित किया गया था. और जब कुछ बरस बाद इग्लैंड ने भारत को 50 के भीतर ऑल-आउट कर दिया तो मेरे ही शहर के कुछ जोशीले युवक उसी विजय बल्ले पर कालिख पोत आए थे. लेकिन 1983 के बाद इस देश के क्रिकेट की तस्वीर बदल गई.एक नया हौसला , जोश और आत्मविश्वास नज़र आने लगा भारतीय टीम. जीत-हार तो चलती रही लेकिन भारतीय क्रिकेट के लिये नज़रिये में बदलाव आया और क्रिकेट-प्रेमी भी अब ज़्यादा मैच्योर दिखाई दे रहा है. इस बदलाव का बड़ा श्रेय कपिल देव को देना ही होगा. मेरे शहर के प्रमुख सांध्य दैनिक प्रभात-किरण ने इसी पसेमज़र कल शाम ’देव का वरदान’ शीर्षक से एक लाजवाब संपादकीय प्रकाशित किया. आप तक ये संपादकीय इसलिये पहुँचा रहा हूँ कि 1983 की जीत के उस सर्वकालिक महान क्रिकेटर के प्रति यह एक सटीक और सार्थक भावना का इज़हार है.
विज़्डन के संपादक ने मज़ाक में किसी से कह दिया था कि विश्व कप अगर भारत जीत जाए तो...? उसका जवाब था कि मैं वह पन्ना ही खा जाऊंगा। ...और मज़ाक में लगाई गई शर्त के बाद संपादक ने वह पन्ना पानी पी-पीकर खाया और भारत को कोसा। १९८३ में भारत की टीम का वो दबदबा नहीं था। विश्व कप में वह हारने के लिए ही जाती थी और अंतिम चार में रहना तो उसका सपना था। उन दिनों टीवी पसर चुका था पूरे भारत में... लेकिन विश्व कप में हार देखने के लिए लोग कहाँ बैठने वाले थे। पहले विश्व कप में साठ ओवर के मैच में सुनील गावसकर के आख़िर तक नाट आउट रहते हुए ३६ रन बनाने वाली टीम (टोटल १६० रन) से आप किस चमत्कार की उम्मीद करते हैं। भारतीय टीम एक दिन के विश्व कप में भी टेस्ट मैच जैसा ही बुरा खेलने के लिए कुख्यात थी। ...तभी तो बेचारे संपादक ने पन्ना खाने का जोखिम ले लिया था। यह ऐसी शर्त थी, जिसमें संपादक की जीत तय थी, मगर...!
सफ़ेद कपड़ों में शरीफ़ (यानी पैसे वाले और संपन्न ख़ानदानी) लोगों के इस खेल में हरियाणा एक्सप्रेस ने ऐसी दौड़ लगाई कि पूरे देश के गांव-गांव से यह यक़ीन पैदा होने लगा कि हम भी क्रिकेट खेल सकते हैं। कपिल देव वह नाम था, जो भारत के आम आदमी जैसा था। जिसे न अंग्रेज़ी समझ आती थी और जो न क्रिकेट के लटके-झटके जानता था। भाला और गोला फेंकते-फेंकते जब यह लड़का क्रिकेट के आसमान में उभरा तो देखते ही देखते चाँद हो गया। हारी हुई पहली बाज़ी उसने ज़िम्बब्वे के ख़िलाफ़ अकेले के बूते पर जीती... और बताया कि क्रिकेट में आख़िरी गेंद से पहले कोई कयास नहीं लगाना चाहिए। सिर्फ़ जीत की इच्छा-शक्ति के आधार पर कपिल ने कई मैच भारत के नाम करवाए। न सिर्फ़ एक दिन, टेस्ट मैच में भी कपिल देव का वही अंदाज़ रहा। इस खिलाड़ी में जीत की सदियों पुरानी भूख समा गई थी जैसे।
आज अगर गांवखेड़ों से धोनियों, सहवागों और ऐसे ही कई खिलाड़ियों के जत्थे के जत्थे आते नज़र आ रहे हैं तो कारण सिर्फ़ कपिल देव ही। कपिल देव ने न सिर्फ़ शहरों का एकाधिकार खत्म किया, बल्कि जीत का हौसला भी दिया। वरना पहले तो दस खिलाड़ी मुम्बई के और बाक़ी दिल्ली के होते थे। आज हम भले ही कह लें कि पच्चीस साल में हम दूसरा कपिल देव पैदा नहीं कर सकते तो निवेदन है कि ये कपिल देव के वंशज ही हैं, जो भारत का नाम विश्व क्रिकेट में चमकाए हुए हैं। कपिल देव हर साल पैदा नहीं होते हैं... कपिल देव युगों में जन्म लेते हैं!
की तरह माना जाने लगा है. मुझे याद है जब 1971 मे अजीत वाड़ेकर के नेतृत्व में
जब भारत में वेस्ट इंडीज़ और इग्लैंड मे पराजित किया था तब मेरे शहर में एक विजय बल्ला स्थापित किया गया था. और जब कुछ बरस बाद इग्लैंड ने भारत को 50 के भीतर ऑल-आउट कर दिया तो मेरे ही शहर के कुछ जोशीले युवक उसी विजय बल्ले पर कालिख पोत आए थे. लेकिन 1983 के बाद इस देश के क्रिकेट की तस्वीर बदल गई.एक नया हौसला , जोश और आत्मविश्वास नज़र आने लगा भारतीय टीम. जीत-हार तो चलती रही लेकिन भारतीय क्रिकेट के लिये नज़रिये में बदलाव आया और क्रिकेट-प्रेमी भी अब ज़्यादा मैच्योर दिखाई दे रहा है. इस बदलाव का बड़ा श्रेय कपिल देव को देना ही होगा. मेरे शहर के प्रमुख सांध्य दैनिक प्रभात-किरण ने इसी पसेमज़र कल शाम ’देव का वरदान’ शीर्षक से एक लाजवाब संपादकीय प्रकाशित किया. आप तक ये संपादकीय इसलिये पहुँचा रहा हूँ कि 1983 की जीत के उस सर्वकालिक महान क्रिकेटर के प्रति यह एक सटीक और सार्थक भावना का इज़हार है.
विज़्डन के संपादक ने मज़ाक में किसी से कह दिया था कि विश्व कप अगर भारत जीत जाए तो...? उसका जवाब था कि मैं वह पन्ना ही खा जाऊंगा। ...और मज़ाक में लगाई गई शर्त के बाद संपादक ने वह पन्ना पानी पी-पीकर खाया और भारत को कोसा। १९८३ में भारत की टीम का वो दबदबा नहीं था। विश्व कप में वह हारने के लिए ही जाती थी और अंतिम चार में रहना तो उसका सपना था। उन दिनों टीवी पसर चुका था पूरे भारत में... लेकिन विश्व कप में हार देखने के लिए लोग कहाँ बैठने वाले थे। पहले विश्व कप में साठ ओवर के मैच में सुनील गावसकर के आख़िर तक नाट आउट रहते हुए ३६ रन बनाने वाली टीम (टोटल १६० रन) से आप किस चमत्कार की उम्मीद करते हैं। भारतीय टीम एक दिन के विश्व कप में भी टेस्ट मैच जैसा ही बुरा खेलने के लिए कुख्यात थी। ...तभी तो बेचारे संपादक ने पन्ना खाने का जोखिम ले लिया था। यह ऐसी शर्त थी, जिसमें संपादक की जीत तय थी, मगर...!
सफ़ेद कपड़ों में शरीफ़ (यानी पैसे वाले और संपन्न ख़ानदानी) लोगों के इस खेल में हरियाणा एक्सप्रेस ने ऐसी दौड़ लगाई कि पूरे देश के गांव-गांव से यह यक़ीन पैदा होने लगा कि हम भी क्रिकेट खेल सकते हैं। कपिल देव वह नाम था, जो भारत के आम आदमी जैसा था। जिसे न अंग्रेज़ी समझ आती थी और जो न क्रिकेट के लटके-झटके जानता था। भाला और गोला फेंकते-फेंकते जब यह लड़का क्रिकेट के आसमान में उभरा तो देखते ही देखते चाँद हो गया। हारी हुई पहली बाज़ी उसने ज़िम्बब्वे के ख़िलाफ़ अकेले के बूते पर जीती... और बताया कि क्रिकेट में आख़िरी गेंद से पहले कोई कयास नहीं लगाना चाहिए। सिर्फ़ जीत की इच्छा-शक्ति के आधार पर कपिल ने कई मैच भारत के नाम करवाए। न सिर्फ़ एक दिन, टेस्ट मैच में भी कपिल देव का वही अंदाज़ रहा। इस खिलाड़ी में जीत की सदियों पुरानी भूख समा गई थी जैसे।
आज अगर गांवखेड़ों से धोनियों, सहवागों और ऐसे ही कई खिलाड़ियों के जत्थे के जत्थे आते नज़र आ रहे हैं तो कारण सिर्फ़ कपिल देव ही। कपिल देव ने न सिर्फ़ शहरों का एकाधिकार खत्म किया, बल्कि जीत का हौसला भी दिया। वरना पहले तो दस खिलाड़ी मुम्बई के और बाक़ी दिल्ली के होते थे। आज हम भले ही कह लें कि पच्चीस साल में हम दूसरा कपिल देव पैदा नहीं कर सकते तो निवेदन है कि ये कपिल देव के वंशज ही हैं, जो भारत का नाम विश्व क्रिकेट में चमकाए हुए हैं। कपिल देव हर साल पैदा नहीं होते हैं... कपिल देव युगों में जन्म लेते हैं!
10 comments:
कपिल देव युगों में जन्म लेते हैं!
पूर्णतः सहमत!!
हमारे देश की ये परंपरा रही है कि जीते जी किसी का सम्मान नही करते, वो ही कपिल जब नयी प्रतिभा ढूँढने के लिये ICL का साथ देते हैं तो पूरा बोर्ड उन्हें बागी करार देता है और यहाँ भी वो अकेले ही मोर्चा संभालते हैं। पंजाब ग्राउंड से उनकी फोटो ठीक उसी समय निकाल दी जाती है जब २५ वर्ष पूरे होने पर 1983 के विजेताओं का सम्मान किया जाना होता है।
kapil dev ka jawaab nahin!
sabhi ko is din ki badhaayee!
umeed hai ki agle world cup mein bharat ki team itihaas badal de..
इधर के दिनों में जो सुलूक कपिल देव के साथ हमारे लालची क्रिकेट बोर्ड ने किया है उसके बाद मैं कपिल का और बड़ा फ़ैन हो गया हूं.
हमारे बोर्ड को तो सचिन जैसे नन्हे-मुन्ने राजा भैया टाइप "चैम्पियन" चाहिये होते हैं जिनकी ज़बान कभी खुलती ही नहीं (हो सकता है फ़ेवीकोल ने इस काम का भी कोई एनुअल कॉन्ट्रैक्ट किया हुआ हो).
कपिल की टीम के विश्व चैम्पियन बनने के बाद क्रिकेट का जुनून हमारे देश में बढ़ता गया है और तमाम तथाकथित बड़े खिलाड़ियों की तादाद में इज़ाफ़े के बावजूद विश्व कप हम नहीं जीत पाये हैं.
कपिल देव मेरी अपनी निगाह में आज भी भारत का अब तक का सबसे बड़ा चैम्पियन खिलाड़ी है. आपने दैनिक प्रभात-किरण का यह सम्पादकीय लगाकर मुझे बहुत तसल्ली पहुंचाई है. धन्यवाद संजय भाई!
संजय भाई, ये संपादकीय अपने समय का दस्तावेज है। इसे हम सब पहुंचाने के लिए आपको धन्यवाद। ये पंक्ति अरसे तक याद रहेगी कि - कपिलदेव में जीत की सदियों पुरानी भूख समा गई थी जैसे।
बहुत बढ़िया लेख यहाँ बांटने के लिए खुक्रिया।
कपिल दा जवाब नही। यूँ ही नही कहा जाता है।
और कपिल देव को हाल ही मे दिल्ली मे हुए उस समारोह मे आने का सबसे आख़िर मे बी.सी.सी.आई ने न्योता दिया था।
मैं तो कपिल दा क फैन हूं जी..
हर उम्र वालों के लिये एक अपने समय का सितारा होता है.. मेरे समय में सचिन है, और मेरे बाद के उम्र वालों के लिये धोनी..
जब छोटा था तो मुझे आश्चर्य होता था कि मेरे चाचा-मामा ऐसा क्यों बोलते हैं कि कपिल-गवास्कर के चले जाने के बाद क्रिकेट देखना छोड़ दिया.. अब समझ में आता है..
अब समझ में आता है कि चाहे जितने भी सचिन धोनी आ जायें मगर कपिल-गवास्कर का स्थान कोई नहीं ले समता है..
As they SAY old is gold.
असल में सही मायनों में कपिल ही वह पहले व्यक्ति रहे जो क्रिकेट जैसे "सफ़ेदपोशों" के खेल में पहले गंवई कहे जा सकते हैं, और जाहिर है कि "गाँव" आज भी उनके भीतर मौजूद है और हर गलत बात का विरोध वे शालीनता से करते हैं, छल-कपट, राजनीति और अहंकार से दूर रहने वाले एक महान "कर्मयोगी" को सलाम…
कपिल जैसा कोई नही :) बधाई सबको
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