ज़रा एक नज़र तो डालिये मेरे शहर के गरबे के सूरते हाल पर....
चौराहों पर लगे प्लास्टिक के बेतहाशा फ़्लैक्स।
गर्ल फ़्रैण्डस को चणिया-चोली की ख़रीददारी करवाते नौजवान
देर रात को गरबे के बाद (तक़रीबन एक से दो बजे के बीच) मोटरसायकलों की आवाज़ों
के साथ जुगलबंदी करते चिल्लाते नौजवान
घर में माँ-बाप से गरबे में जाने की ज़िद करती जवान लड़की
गरबे के नाम पर लाखों रूपयों की चंदा वसूली
इवेंट मैनेजमेंट के चोचले
रोज़ अख़बारों में छपती गरबा कर रही लड़के-लड़कियों की रंगीन तस्वीरें
देर रात गरबे से लौटी नौजवान पीढी न कॉलेज जा रही,न दफ़्तर,न बाप की दुकान
कानफ़ोडू आवाज़ें जिनसे गुजराती लोकगीतों की मधुरता गुम
फ़िल्मी स्टाइल का संगीत,हाइफ़ाई या यूँ कहे बेसुरा संगीत
आयोजनों के नाम पर बेतहाशा भीड़...शरीफ़ आदमी की दुर्दशा
रिहायशी इलाक़ों के मजमें धुल,ध्वनि और प्रकाश का प्रदूषण
बीमारों,शिशुओं,नव-प्रसूताओं को तकलीफ़
नेतागिरी के जलवे ।मानों जनसमर्थन के लिये एक नई दुकान खुल गई
नहीं हो पा रही है तो बस:
वह आराधना ...वह भक्ति जिसके लिये गरबा पर्व गुजरात से चल कर पूरे देश में अपनी पहचान बना रहा है। देवी माँ उदास हैं कि उसके बच्चों को ये क्या हो गया है....गुम हो रही है गरिमा,मर्यादा,अपनापन,लोक-संगीत।
माँ तुम ही कुछ करो तो करो...बाक़ी हम सब तो बेबस हैं !
10 comments:
बेबसी हर पंक्ति में झलक रही है. क्या करियेगा-यही नई दौड़ है.
हम जैसे दूसरे प्रातों मे रहने वाले तो बस टी वी के माध्यम से ही हालात की गम्भीरता का अन्दाज़ा लगाते है…
मेरे शहर मे भी यही हाल है!!
मेरी कॉलोनी मे ही रायपुर का फ़ेमस गरबा होता है, बीस सालों से इसमे आता बदलाव देख रहा हूं।
अब कुछ न हो पाएगा बात बहुत आगे बढ़ चुकी है। बात समझदारी की सलाह तक पहुंच गई है। गरबा-डांडिया पंडाल के बाहर कंडोम बॉक्स रखे जाने लगे हैं। टीवी पर बच्चे बोल रहे हैं हम पर काबू की कोशिश का कोई फायदा नहीं हमें जो, अच्छा लगेगा वो हम करेंगे।
मेरे निवास के तीन तरफ अलग-2 गरबा मंडलों में गरबा हो रहा है (प्रत्येक 50 मीटर से कम की दूरी पर हैं!) और सबकी कानफोड़ू आवाजें इंटरफरेंस कर ऐसा कुसंगीत रचती हैं कि बस मत पूछिए. खिड़की दरवाजे बंद कर सोने की असफल कोशिशें की जा रही हैं इन दिनों...
ये तो होना ही था . म न्त्रि-नेता ग्लोबल मीट में , भि या-लोग लोकल-मीट मे ,फ़ुरसत कहाँ इस सब
पर सोचने की..! राम भली करे ,अगर राम कहीं हैं तो ...........!
हम आप मिलकर इन बातों को साझा भी करते रहे तो ही तस्वीर बदल सकती है. ये तो साफ़ है कि राजनीति से जुडे़ लोगों की प्राथमिकता अवाम नहीं ...अपना उल्लू सीधा करना है...आख़िर धंधे का सवाल है ...
क्या कहें कुछ कहने लायक नही हैं..कभी-कभी लगता है इन सब बातों के जिम्मेदार हम खुद तो नही हैं...मगर हमने बच्चों को अच्छे संस्कार देने में कोई कसर नही छोडी या कहीं अन्जाने में प्यार तो ज्यादा नही हो गया...संजय भाई आप ही की तरह मै भी यह सारे सवाल खुद से कर के चुप हो जाती हूँ...गरभा करने का मन आज भी करता है हमारे कॉलेज के दिन याद आ जाते है मगर यह दुर्दशा देख कर मन बस रोता है...
सुनीता(शानू)
टीवी पर डांडिया देखकर लगता है कि आपकी बातें सही हैं। त्योहार अब सादे नहीं हो सकते। अब मां का ही सहारा है। पर कहीं तो कोई होगा तो पुराने तरीके से डांडिया करता होगा। पुराने गीतों के साथ।
सुनिता जी , आपने मेरे मन की बात कह दी.. बिल्कुल सच है आप का सोचना.... कही न कही हम ही जिम्मेदार है....इसमे कोई शक नही.....माना कि दुनिया छोटी हो गई है... देश ही नही विश्व की सभ्यताएँ एक दूसरे मे मिल रही है ,,, फिर भी हमे ही सिखाना है कि नए से नाता जोड़ने के लिए पुराने से नाता तोड़ने की ज़रूरत नही...
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