Thursday, October 25, 2007

प्रिय शरद की झिलमिलाती रात ; पूरा चाँद पहली बार ऊगा !


प्रिय शरद की झिलमिलाती रात

पूरा चाँद पहली बार ऊगा.


आज पहली बार कुछ पीड़ा जगी है

प्रिय गगन को चूम लेने की लगी है

वक्ष पर रख दो तुम्हारा माथ

भोला चाँद पूरी बार ऊगा.


सो गये हैं खेत मेढ़े गाँव गलियाँ

कुछ खिलीं सी कुछ मुँदी सी शुभ्र कलियाँ

नर्मदा का कूल छूता वात

कोरा चाँद पहली बार .



थरथराती डाल पीपल की झुकी है

रात यह आसावरी गाने रूकी है

सुन भी लें कोई न आघात

गोरा चाँद ऊगा आज पहली बार


हाथ कुछ ऐसे बढ़ें आकाश बाँधें

साँस कुछ ऐसी चले विश्वास साधें

प्रीत के पल में करें दो बात

प्यारा चाँद ऊगा आज पहली


ये गीत मेरे पिताश्री नरहरि पटेल का लिखा हुआ है जो एक वरिष्ठ कवि रंगकर्मी,मालवा की लोक-संस्कृति के जानकार,रेडियो प्रसारणर्ता हैं।ये गीत उन्होने पचास के दशक में अपनी युवावस्था में लिखा था।आज जब हिन्दी गीत लगभग मंच से गुम हैं इस गीत को पढ़ना और हमारे भोले जनपदीय परिवेश को याद करना रोमांचित करता है। मैने बहुत ज़िद कर ये गीत पिताजी से आज ढ़ूंढवाया है और ब्लॉगर बिरादरी के लिये इसे जारी करते हुए अभिभूत हूँ।सत्तर के पार मेरे पूज्य पिताश्री को आपकी भावुक दाद की प्रतीक्षा रहेगी।


गीत गुनगुनाइये.......चाँद निहारिये और मेरी भाभी या दीदी खीर बनाए तो उसका रसपान भी कीजिये। पूरा चाँद आपके जीवन में शुभ्र विचारों और प्रेम की किरणे प्रवाहित करे.


6 comments:

सुनीता शानू said...

संजय भाई वास्तव में आज पूरा चाँद अपनी गर्म-जोशी से निकल आया है...हमारे यहाँ राजस्थान में भी शरद पूर्णिमा के दिन खीर बना कर छत पर छिके में रख दी जाती है कि रात भर वह अमृत बन जायेगी कल खायेंगे...और वह सचमुच इतनी स्वादिष्ट लगती है कि जैसे अमृत ही हो( अमृत के समान) आपकी कविता और खीर दोनो ही स्वादिष्ट लगी...:)

सुनीता(शानू)

Udan Tashtari said...

पिता जी का लिखा यह गीत बहुत ही पसंद आया. आप मेरा नमन उन तक पहुँचायें. उनकी और भी रचनायें पढ़ने की उत्सुक्ता रहेगी. आप को आभार इस प्रस्तुति के लिये.

मीनाक्षी said...

आपके पिता जी को प्रमाण ! बहुत सुन्दर कविता और वैसे भी प्रकृति में मानवीकरण हमारा दिल मोह लेता है.

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

वडील कवि श्री नरहरि जी,
प्रणाम - कितनी सुँदर शारदीया चाँदनी सी ही मधुरम कविता है ये ...
पढ कर आह्लादित हूँ आपकी अन्य कविताएँ भी , आपके होनहार सुपुत्र भाई सँजय जी हमेँ पढवायेँगे इसी आशा सहित,
स - स्नेह,
-- लावण्या

पंकज सुबीर said...

सो गये हैं खेत मेढ़े गाँव गलियाँ


कुछ खिलीं सी कुछ मुँदी सी शुभ्र कलियाँ


नर्मदा का कूल छूता वात
श्रद्धेय पिताश्री को मेरा प्रणाम कहें कल एक कवि सम्‍मेलन में जाने के कारण नहीं देख पाया किंतु आज देखा तो कविता अद्भुत है । ये उस दौर की कविता है जो हिंदी का अंतिम दौर था । मैं पूरे मन से कह रहा हूं कि नरहरि जी और उनके दौर के कव‍ि शायद हिंदी के अंतिम दौर के कवि हैं । हम लोग तो कविता के नाम पर केवल शब्‍दों से खेल रहे हैं और कुद नहीं कर रहे । न रस है न भाव । मेरा प्रणाम कहें आदरणीय को और मेरी कविता की ये पंक्तियां उनके चरणों में अर्पित करें
आदमी का नाम यहां सिर्फ एक प्‍यास है
हंस रहे हैं चेहरे और जिंदगी उदास है
आती है नज़र नहीं कोई खुशी दूर तक
और दर्द देखिये हमेशा आस पास है

पंकज सुबीर said...

संजय जी आपका सम्‍मान पत्र रखा हुआ है पर आपका इा मेल पता उपलब्‍ध नहीं हो पाने के कारण भेजा नहीं जा पा रहा है कृपया आपका ई मेल पता दे दें ताकि आपका सम्‍मान पत्र भेजा जा सके । पंकज सुबीर