Sunday, April 20, 2008

देश का एक गुमनाम शायर - रमेश मेहबूब

वक़्त भी बडा़ बेरहम है.किसी को बिन मांगे देता है ..कुछ ऐसे भी होते हैं जिन्हें अपना सर्वस्व देने के बाद भी कुछ नहीं मिलता.कला के क्षेत्र में तो ये बात ज़रा ज़्यादा ही लागू होती है.आज आपकी मुलाक़ात करवा रहा हूं मेरे शहर इन्दौर के वरिष्ठ कवि-शायर श्री रमेश मेहबूब से.नगर पालिक निगम इन्दौरे में टायपिस्ट रह चुके मेहबूबजी इन-दिनों बीमार रहते हैं ..पत्नी का देहांत हो चुका है और एकमात्र बेटी अपने ससुराल में व्यस्त रहती है... अपने परिवार और संसार की सुध लेने मे. रमेश मेहबूब ने छंद-बद्ध और अतुकांत कविताएं खू़ब लिखीं हैं.व्यंग्य भी उनके काव्य में मुखर होता रहा है.राजनीति पर उनकी कविताओं में व्यवस्था के खि़लाफ़ व्यंग्य बहुत तीखा़ और चुभने वाला होता है.मालवा के जिन कवियों ने अपने क़लम से सक्रिय काव्य सेवा की है उनमें बालकवि बैरागी , सरोजकुमार,नरहरि पटेल,चंद्रसेन विराट,सत्यनारायण सत्तन,राहत इन्दौरी,क़ाशिफ़ इन्दौरी,नूर इन्दौरी,चन्द्रकांत देवताले के साथ रमेश मेहबूब का नाम भी इस फ़ेहरिस्त में इज़्ज़त के साथ शुमार किया जा सकता है . मेहबूब जी की अनेक लाजवाब कविताएं हैं लेकिन आज मै आपके लिये उनकी एक ग़ज़ल ढूंढ निकाल लाया हूं.प्रयास करूंगा कि रमेश मेहबूब से संपर्क कर आपके लिये और रचनाएं जारी कर सकूं.अपनी बात ख़त्म करते हुए मै यह ज़रूर कहना चाहूंगा कि वक़्त रहते हमें अपने - अपने अंचल के काव्य और साहित्यकारों का दस्तावेज़ीकरण ज़रूर कर लेना चाहिये . डाँ.शिवमंगल सिंह सुमन के मालवा का यह यशस्वी कवि आज अभाव और एकांत से घिरा हुआ है लेकिन मेहबूब जी ने जो भी लिखा है वह अदभुत है.बस पुराने और मेहबूब जी जैसे लोगों के साथ एक ही बात है कि इन लोगों को कभी अच्छा प्रमोटर नहीं मिला अन्यथा वरिष्ठ कवि नीरज,माया गोविंद,सोम ठाकुर,काका हाथरसी,निर्भय हाथरसी,देवराज दिनेश और वीरेन्द्र मिश्र जैसे नामचीन कवियों के साथ काव्य-पाठ कर चुके रमेश मेहबूब का नाम आज देश के शीर्षस्थ कवियों में सम्मिलित किया जा सकता.

खै़र ये सब तो हमारे सोचने का नज़रिया है..मेहबूब अपने काव्य-कर्म से संतुष्ट हैं और उन्हे जितना भी नाम,यश और प्रेम मिला उसके लिये वे श्रोताओं सलाम करते हैं..



तो आइये मुलाहिज़ा फ़रमाइये..

रमेश मेहबूब की ग़ज़ल..

साज़िशें लड़वाने वालीं,दीनों-ईमां हो गईं

गीत हिन्दू हो गए,ग़ज़लें मुसलमां हो गईं


जब सियासत मज़हबों की पालकी लेकर चली

मंदिर-ओ-मस्ज़िद की दीवारें पशेमां हो गईं


शहर में दंगे हुए,बाज़ार से उट्ठा धुआँ

शहर की गलियाँ सभी,आतिश-बदामाँ हो गईं


गुमशुदा लोगों में शामिल हो गईं अपनी भी नींद

ख्वा़ब हैराँ हो गए,रातें परेशाँ हो गईं


गीत भी मेहबूब के होठों पे अब आते नहीं

बेज़ुबाँ ग़ज़लें सभी अश्कों में पिनहाँ हो गईं

8 comments:

Alpana Verma said...

bahut hi achchee ghazal hai.

ramesh ji ki likhi aur bhi ghazalen padhvyeeyega.
dhnywaad.

कंचन सिंह चौहान said...

साज़िशें लड़वाने वालीं,दीनों-ईमां हो गईं

गीत हिन्दू हो गए,ग़ज़लें मुसलमां हो गईं

bahut khub

Yunus Khan said...

संजय भाई दिल खुश हो गया सच्‍ची ।
कमाल है । रमेश जी को हमारी बधाई पहुंचे ।
डायरी के पन्‍नों पर चल गये हैं ये शेर ।

डॉ .अनुराग said...

sabse pahle aapka shukriya...aapne aise shakhs se parichya karvaya....
गीत हिन्दू हो गए,ग़ज़लें मुसलमां हो गईं
lajavab....

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

गुमशुदा लोगों में शामिल हो गईं
अपनी भी नींद

ख्वा़ब हैराँ हो गए,रातें परेशाँ हो गईं
Wah ...wah ...
A quiet corner in the middle of multitudes ..

sanjay patel said...

बिना किसी भूमिका के कुछ और रचनाएँ मेहबूब जी की जल्द ही. आपके प्रतिसास का प्रिंट आउट भी उन तक पहुँच रहा है ; इस उम्मीद के साथ की आपकी दाद उनके शरीर और मन को सुकून देगी.
आप सभी का शुक्रिया.

Udan Tashtari said...

अहा!! आनन्द आ गया और मेहबूब जी की और रचनायें लाईये. आपने ही आग लगाई है और अब आप ही बुझाईये.

एक से एक उम्दा शेर पूरी गज़ल के.

मीनाक्षी said...

गज़ल दिल को छू गई.. रमेश जी के शीघ्र ही स्वास्थ्य लाभ की कामना करते हैं.