Friday, August 17, 2007

मालवा की काव्य सुरभि को समृद्ध करने वाले सुमन का जन्मदिन


डाक्टर शिवमंगल सिंह सुमन को मालवा में याद करना यानी उस शख्सियत को याद करना है जिसने अपने साहित्य कर्म से पूरे परिवेश को सुरभित किया. तिथि के अनुसार नागपंचमी के शुभ दिन सुमनजी का जन्मदिन आता है.१८ अगस्त को सुमनजी का जन्म दिन जब मना रहे हैं वे हमारे बीच नहीं है. उत्तरप्रदेश के उन्नाव से बनारस,ग्वालियर होते हुए सुमन जी मालवा की सांस्कृतिक राजधानी औरपुण्य सलिला शिप्रा के किनारे बसे विक्रमादित्य और कालीदास की नगरी उज्जैन के विक्रम विश्वविद्यालय के कुलपति बन कर क्या आ गए...पूरा मालवा निहाल हो गया. उनकी ओजपूर्ण वाणी,भव्य व्यक्तित्व और प्रवाहपूर्ण लेखन मालवा को जैसे एक पुण्य प्रसाद का सुख दे गया.मानो मालव वासियों की साध पूरी हो गई॥जीवन की अंतिम बेला तक डाँ.सुमन को उज्जैन और उज्जैन को डाँ. सुमन को अपने प्रेमपाश में बांधे रखा.महादेवी,प्रसाद,निराला,तुलसीदास,ग़ालिब,मीर,जायसी,सूरदास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल,प्रेमचंद ,मैथिलीशरण गुप्त पर धाराप्रवाह बोलने वाले डाँ.शिवमंगल सिंह सुमन ने मालवा ही नहीं पूरे हिन्दी साहित्य जगत को अपनी अभूतपूर्व मेधा से स्पंदित किया. सुमनजी आज मालवा में नहीं हैं लेकिन शिप्रा,चंबल,नर्मदा,उज्जैन और इन्दौर का पूरा साहित्यजगत उन्हें अब भी कहीं अपने करीब महसूस करता है. उन्होने अपने काव्य वैभव से पूरे हिन्दी जगत को अप्रतिम स्नेह दिया है..इस स्नेह से मिली उर्जा से उनके रोपे कई काव्य और साहित्य हस्ताक्षर लहलहा रहे हैं.यकी़नन सुमनजी जिस भी लोक में है ..अपनी उसी छटा से काव्य पाठ में व्यस्त होंगेजो न केवल रसपूर्ण थी बल्कि विलक्षण भी. आत्मकथ्य के रुप में उन्ही की काव्य पंक्तिया पढते हुए उन्हें आदरान्जली देते हैं ....

मैं शिप्रा सा ही तरल सरल बहता हूँ
मैं कालीदास की शेष कथा कहता हूँ

मुझको न मौत भी भय दिखला सकती है


मैं महाकाल की नगरी में रहता हूँ


हिमगिरि के उर का दाह दूर करना है


मुझको सर,सरिता,नद,निर्झर भरना है


मैं बैठूं कब तक केवल कलम सम्हाले


मुझको इस युग का नमक अदा करना है


मेरी श्वासों में मलय - पवन लहराए


धमनी - धमनी में गंगा-जमुना लहराए


जिन उपकरणों से मेरी देह बनी है


उनका अणु-अणु धरती की लाज बचाए





9 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत सुंदर प्रस्तुति. आनन्द आ गया शिवमंगल सिंह सुमन जी पर यह आलेख पढ़कर.

Gyan Dutt Pandey said...

आपने सुमन जी की याद दिला दी. मैं परिवार के साथ क्षिप्रा एक्सप्रेस में जा रहा था. पास के कूपे में सुमन जी थे. हमने उनका चरण स्पर्श किया था. मेरी बिटिया के पास उनके ऑटोग्राफ भी हैं. बहुत देर तक उनसे चर्चा हुई थी.
लेख के लिये धन्यवाद.

Yunus Khan said...

संजय भाई आपने शिवमंगल सिंह सुमन की अच्छीh याद दिलाई । उन भाग्यभशाली लोगों में शामिल हूं जिन्होंuने उन्हें मंच पर पढ़ते देखा सुना है, आप जितना भाग्यमशाली नहीं । इंदौर या उज्जैउन में नहीं रहा ना । पर हां उन्हेंश पढ़ा खूब है । आज अनायास ही उनकी वो कविता याद आ रही है—तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार, आज सिंधु ने विष उगला है, लहरों का यौवन मचला है, आज हृदय में और सिंधु में फड़क उठा है ज्वा,र । स्मृलति पर आधारित पंक्तियां हैं शब्दों का हेर फेर हो सकता है । सुमन दद्दा को नमन ।

Arun Arora said...

धन्यवाद जी आपने याद तो दिलाई..इन्हे हम अपने पाठ्य पुस्तको मे पढते थे..

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

जै श्री कृष्ण तमने ..
शिव मँगल सिँह सुमन जी ने पापा जी पर लेख लिखा है उसे अब शीघर ही छाप दूँगी
आप मेरी दी हुई ये लिन्क अवश्य देखियेगा -
http://wms17.streamhoster.com/vhs2007/vhs-19.wmv
स स्नेह,
- लावण्या

sanjay patel said...

आभार आप सभी का. वे हम सब के मन के सुमन थे. जितने ओजस्वी वक्ता उतने कर्मठ प्रशासक,जितने परिश्रमी स्वाध्यायी उतने प्रेमल कवि,मुझे लगता है वे यदि प्रशासकीय दायित्वों में न व्यस्त रहते तो महादेवी,पंत,प्रसाद,दिनकर,निराला,फ़िराक़ और बच्चन के साथ हम उन्हे भी अपनी स्मृतियों में क़ैद रखते.दाग़,मोमिन,ग़ालिब,मीर,फ़िराक़ जैसे स्वनामधन्य शायरों को वे जिस तरह कोट करते थे वैसा कोई दूसरा वक्ता हिन्दी पट्टी में याद नहीं आता.उ.प्र.साहित्य अकादमी के तत्वावधान में महज़ सौ रूपये में उपलब्द हिन्दी-उर्दू शब्दकोश तभी जारी हुआ था जब सुमनजी अकादमी के उपाध्यक्ष थे.उनकी एक तस्वीर भी मेरी प्रविष्टि में जोड़ कर अपडेट कर रहा हूँ.पिता श्री नरहरि पटेल की सुमन जी को समर्पित एक मालवी रचना भी www.malvijajam.blogspot.com पर पढ़ियेगा.
प्रणाम सुमनजी.

Unknown said...

बचपन से ही डाँ. शिवमंगल सिंह सुमन को पढ़ता आया हूं। एक बार उन्हें मंच पर सुनने का भी अवसर मिला था। वाकई में उन्हें सुनना एक सुखद अनुभव रहा है। लेकिन जहां कविता के कद्रदान न हों, मामला सतही हो, वहां कविता के साथ क्या होता है, इस संबंध में मुझे एक वाक्या याद आ रहा है। दूरदर्शन पर कवि सम्मेलन चल रहा था। सुनने वाले वाह-वाह कर रहे थे। फिर सुमन जी कविता कहने के लिये उठे। वाह-वाह की आवाजें आनी बंद हो गईं। माहौल में खामोशी छा गई। वह इसिलये कि वहां मौजूद लोग सुमन जी की कविता की गहराई को समझ ही नहीं पा रहे थे। उनकी समझ का वह स्तर ही नहीं था। उस दिन के बाद भी दूरदर्शन पर कवि सम्मेलन तो बहुत आये लेकिन फिर कभी सुमन जी वहां मंच पर दिखाई नहीं दिये। औऱ आज हास्य के नाम पर टीवी पर जो हो रहा है वह तो आप लोग देख ही रहे होंगे।

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

संजय भाई आज मन लाव्न्या से मिली - उससे आपके बारे में सुनकर आश्चर्य और खुशी भी मिली इनडोर आने पर विस्तार से बात करेंगे

वाह रे पट्ठा भरी करी मैंने आगे चलाई है वहाँ आने पर सुनाऊंगी ..शेष शुबहा मिलने पर ..पिताजी को नमस्कार

वंदना आंटी

अजित वडनेरकर said...

सुमनजी को मंच पर सुनने का अवसर लड़कपन में मुझे भी मिल चुका है। विक्रम विश्वविद्यालय के अन्तर्गत आने वाले कॉलेज से ही मैने स्नातकोत्तर शिक्षा भी हासिल की। जहां तक मुझे याद पड़ता है सुमन जी और बच्चनजी का अवसान कुछ ही महिनों के अंतराल में हुआ। और इसी के साथ हिन्दी की कविता को मंच पर प्रतिष्ठित करने वाली एक समूची पंक्ति ही मानों धुंधली होते होते मानो अनंत में विलीन हो गई।